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उजाले की ओर - 24

उजाले की ओर

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स्नेही व प्रिय मित्रो

प्रणव भारती का सादर ,सस्नेह वन्दन

घटना वर्षों पूर्व की है किन्तु कभी-कभी लगता है मानो आज और अभी मेरे नेत्रों के समक्ष चित्रित हुई हो |मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे ,यही कोई चार-पाँच वर्ष के |मैं उन दिनों अपनी एम.ए अंग्रेज़ी की परीक्षा में सम्मिलित होने माँ के पास गई हुई थी |एम.ए का आखिरी ‘सिमेस्टर’ था और विवाह हो जाने के कारण मेरा वह सिमेस्टर छूट गया था |किसी प्रकार विश्वविद्यालय से आज्ञा मिली और मैं अपना एम.ए पूरा करने के लिए पढ़ाई में जुट गई |

जिस शहर में माँ रहती थीं उसी शहर में मेरी एक ननद रहती थीं जो उस जमाने के एक प्रतिष्ठित संत से बहुत प्रभावित थीं |वैसे तो संत किसी और शहर में निवास करते थे किन्तु उन दिनों माँ के शहर में आए हुए थे |मेरी ननद अर्थात दीदी ने मुझसे संत श्री का आशीर्वाद लेने के लिए अपने साथ आने के लिए कहा |मैं बहुत अनमनी हो गई क्योंकि मैं उस प्रकार के लोगों में विश्वास नहीं करती थी |दीदी के बार-बार ज़ोर देने पर मेरी माँ ने भी मुझे कुछ डपट कर कहा ;

“इतनी बड़ी हैं तुमसे ,कह रही हैं तो चली जाओ न |एक घंटे में वापिस आ जाना |”

मैंबहुत बेमन से दीदी के साथ चली गई |दोनों बच्चे भी मेरे साथ गए |दीदी के अनुसार उनको भी आशीर्वाद दिलवाना था |वे संत शिरोमणि हमारे ही किसी परिचित के बँगले पर ठहरे हुए थे | उनके बँगले के बाहर कारों की कतारें लगी हुई थीं |अन्दर जाकर देखा तो केवल दो-चार पुरुष ही दिखाई दिए ,शेष सब महिलाएं सजी-सँवरी बैठी संत जी की प्रतीक्षा कर रही थीं |अधिकांशत: सभी उस महान व्यक्तित्व से पूर्व परिचित थीं ,उन सबमें खुसर-फुसर हो रही थी कि अभी तक न जाने महाराज जी क्यों नहीं आए ?यदि यह कहूँ कि वहाँ सब्ज़ी-बाज़ार बना हुआ था तो अनुचित न होगा |

दीदी ने मुझे भी बच्चों सहित उस स्थान पर बैठा दिया जहाँ अन्य महिलाएं बरामदे में ज़मीन पर बिछे हुए ‘कार्पेट’ पर बैठी थीं |सामने बिलकुल बीचोंबीच एक सजी-सँवरी आराम कुर्सी रखी थी जो बैठने पर आगे-पीछे हिलती भी थी|मेरा पाँच वर्ष का शैतान बच्चा न जाने सबसे दृष्टि छिपाकर कब उस सुन्दर सजी हुई कुर्सी पर जा विराजा और बड़े मज़े से हिला-हिलाकर आनंदित होने लगा |जैसे ही कुछ महिलाओं की दृष्टि बच्चे पर पड़ी वहाँ तो शोर बरपा हो गया ,न जाने बच्चे से क्या अपराध हो गया था जिसके लिए इतना शोर हो रहा था,वैसे बच्चे को भगवान का रूप माना जाता है |मैं बच्चे को ज़बरदस्ती वहाँ से पकड़कर ले आई और उसे डाँट -डपटकर अपने पास बैठा दिया |अभी तक महाराज जी के दर्शन नहीं हुए थे ,मैं वहाँ से शीघ्र ही वापिस जाकर अपनी पढ़ाई करना चाहती थी |कुछ ही मिनटों में दोनों बच्चों को प्यास लग आई |स्वाभाविक था बच्चों को वहाँ बैठकर कुछ आनंद तो आने वाला था नहीं ,मैं उनकी मानसिक स्थिति को भली प्रकार समझ रही थी |

दोनों ‘पानी-पानी’ कहते हुए शोर मचाने लगे अत: मैं उन्हें आँगन में लगे हुए ‘हैंड-पंप’ पर पानी पिलाने और उनके हाथ-मुह धोने के लिए ले आई |नल के ठीक सामने रसोईघर था जहाँ सबके लिए प्रसाद बन रहा था ,कुछ महिलाएं वहाँ कार्य में व्यस्त थीं |

मैं नलचला रही थी और बच्चे एक-दूसरे पर पानी उछाल-उछालकर शैतानी कर रहे थे|अचानक मुझे सामने रसोईघर के दरवाज़े पर एक लंबा –चौड़ा सुदर्शन पुरुष खड़ा दिखाई दिया | वे उन महिलाओं की ओर मुख करके खड़े थे जो रसोईघर में थीं |अचानक मेरा नल चलाता हुआ हाथ रुक गया और बच्चे भी चुपचाप एक ओर आ खड़े हुए | सामने वाली महिलाएं उनके चरणों में वन्दना कर रही थीं |उनके सिर पर हाथ रखकर सुदर्शन पुरुष ने अचानक अपने गले में पड़ा हुआ रेशम का हार उतारकर कुछ इस प्रकार फेंका कि वह हार कुछ दूर खड़ी हुई महिला के पैरों में पड़ा ,जिसे उसने उठाकर पहले अपनी आँखों पर लगाया फिर चूम लिया और कुछ इस प्रकार ह्रदय से लगाया मानो वह कोई अनमोल खज़ाना हो |

“सुबह सुबह कहाँ से पहन आए महाराज जी?” उनमें से एक महिला ने कुछ मज़ाक के स्वर में पूछा |

“ अरे ! जहाँ गया था ,वहाँ बहुत भक्त थे |बहुत सारे तो मैं वहीं बाँट आया ,यह बाद में किसी और भक्त ने पहना दिया ,पता नहीं कौन था ?” कहते हुए वे महाशय पीछे मुड़े और मेरी ओर देखकर एक प्रश्नवाचक दृष्टि उनके चेहरे पर पसर गई |

मेरा मन बहुत खराब हो गया था ,किसी के द्वारा श्रद्धा से पहनाया गया हार उन्होंने किसी अन्य स्त्री के चरणों में डालकर तिरस्कृत किया था |यह बात मेरे मन में इस कदर बैठ गई कि जब उन्होंने मेरी माँ के घर खाना खाने के लिए निमन्त्रण चाहा मैं उन्हें अपने घर आने का निमन्त्रण न दे सकी |मैं लगभग एक माह माँ के घर रही ,उन्होंने अपने चेलों को कई बार माँ के घर भेजा किन्तु मेरे मन में उनके प्रति कोई आदर उत्पन्न नहीं हो सका| उनके निवास करने के स्थान पर उनकी सेवा के लिए कितनी युवा स्त्रियाँ थीं |मुझसे वे पहली बार मिले थे और न जाने क्यों उन्हें मुझमें रूचि जागृत हो रही थी | क्या यह चिंतन का विषय नहीं है कि हम अपनी माँ-बहनों ,घर की युवतियों को ऐसे तथाकथित संतों के पास आशीष के लिए भेजते हैं और उन्हें अपने सिर पर चढ़ा लेते हैं |

मुझे ऐसे कई अनुभव प्राप्त हुए हैं ,मैं चाहती हूँ कि उन अनुभवों को अपने मित्रों से साँझा करूं और वे भी मुझसे अपने अनुभव साँझा करें जिससे हम समाज में एक लौ जला सकें |इसमें घबराने की कोई बात नहीं है ,बस हमें थोड़ा निडर बनकर अपने अनुभव समाज के समक्ष लाने होंगे| मैं इसके लिए तत्पर हूँ , मित्रों ! क्या आप भी इसमें सहयोग कर सकेंगे ? अगले वाले लेख में मैं अन्य अनुभव साँझा करूंगी |

आंख खोलकर चलना होगा

व्यर्थ नहीं फिर मरना होगा------

सोचें ,मनन करें,सुरक्षित रहें,प्रसन्न व आनन्दित रहें

आपकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती

pranavabharti@gmail.com

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