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एलओसी- लव अपोज क्राइम - 5




आईने के सामने खड़ी रीनी आईने के भीतर अपने को ढूंढ रही थी। वह इस प्रक्रिया में खोई थी कि उसे अपने कानों में सरगोशियां सुनाई पड़ी-' रीनी, ये रीनी, रुको! अब रुक जाओ बाबा! तुम गिर जाओगी।'
"अरे, ये तो राघव की आवाज है!' रीनी चौंक पड़ी। उसे ये आवाज आईने के अंदर से आती लगी। ये आवाज सुनकर रीनी आईने को गौर से देखने लगी। आईने के उस पार राघव, उसके पीछे दौड़ रहा था। राघव को अपने पीछे दौड़ाने में रीनी को मजा आता था। रीनी आगे, राघव पीछे। दौड़ते- दौड़ते दोनों थक जाते थे, तब रीनी गिरने का नाटक करते हुए नीचे बैठ जाती थी। राघव घबरा जाता था कि कहीं रीनी को चोट तो नहीं लग गई! वह रीनी के पास आकर पूछता था- " क्या हुआ रीनी? तुम्हें चोट तो नहीं लगी?"
राघव के भोले सवालों पर रीनी मुस्कुरा उठती फिर वह राघव की ठुड्डी पकड़ कर स्नेह से कहती, " नहीं बाबू! मुझे चोट नहीं लगी। मैं एकदम ठीक हूँ।" तब राघव कहता- "झूठ बोल रही हो। दिखाओ अपना हाथ। पैर दिखाओ।" वह रीनी के हाथ- पैर का किसी क्वालिफाइड डॉक्टर की तरह मुआयना करता। " रीनी, तुमसे कितनी बार कहा है कि ऐसे मत दौड़ा करो। तुझे खरोंच भी आती है तो मेरी जान निकलने लगती है।"
राघव की इस तरह की साधिकार आवाज को सुनकर रीनी की आंखें भर आती पर वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर जोर से हंस पड़ती। फिर राघव भी हंसने लगता। दोनों की समवेत हंसी ऐसी कि समंदर भी खिलखिला उठे।
राघव की आवाज बहुत मीठी थी। इतनी मीठी कि मानो वह रोज सुबह गुलाबजामुन की चाशनी से कुल्ला करता हो।
रीनी और राघव ऐसे ही थे, सभी में खुशियां बांटते। दोनों के गाँव बाजू- बाजू थे। आम भारतीय गांवों की तरह, जिन्हें अभी भी जागरूक करने की जरूरत थी। अनेक सामाजिक कुरीतियां फैली थी। शिक्षा का प्रसार भी कोई बहुत ज्यादा नहीं था। साफ- सफाई, पेयजल, बिजली व सड़क आदि की मूलभूत सुविधाओं से वंचित इन गांवों के निवासियों की दशा से रीनी और राघव दुखी रहते। वे दोनों अपने स्तर पर इन गांवों में सामाजिक कार्य करते। रीनी और राघव के दोस्तों की मंडली पर गांवों में सामाजिक कार्य करने का जुनून सवार रहता। रीनी अक्सर कहती- " जितना आप समझते हो, जिंदगी उतनी बड़ी नहीं है। छोटी सी जिंदगी में जो भी अच्छे काम हो सकें, उसे कर डालो।"
रीनी इस मंडली की सरदार थी। वह समाजसेवा के नए नए काम खोजती रहती। कभी अस्पताल जा रही है मरीजों को फल बांटने, उनकी हालचाल पूछने तो कभी अनाथालय व वृद्धाश्रम पहुंच जाती- अनाथ बच्चों व बुजुर्गों के साथ वक्त बिताने। गाँव के जरूरतमंदों की आंखों के ऑपरेशन, बच्चों के एडमिशन, किसी लाचार महिला के लिए थाना, पुलिस व कचहरी तक दौड़ आदि कई काम रीनी के बिना नहीं होते। कभी पास के सरकारी स्कूल चली जाती, वहां छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेलते हुए उन्हें पढ़ाती।
समंदर से रीनी का गहरा लगाव था। उसकी शाम अक्सर समंदर के किनारे ही गुजरती।
यह कॉलेज का आखिरी साल था। सब दोस्तों ने मिलकर तय किया कि छुट्टियों में सामाजिक कार्य ही करेंगे। और फिर इस मंडली ने खूब समाज सेवा की।
* * *
इंसान सपने देखता है और कोशिश करता है कि उसकी जिंदगी में सबकुछ अच्छा ही हो। पर सब कुछ अच्छा होना तो ईश्वर के हाथ मे होता है। इसके अलावा इंसान परिस्थितियों का गुलाम होता है। जीवन अच्छा-भला चल रहा होता है। हंसी-खुशी से सब काम सुव्यवस्थित हो रहे होते हैं कि अचानक हालत बदल जाते हैं। समय करवट ले लेता है और फिर जिंदगी की गाड़ी के पहिए सड़क छोड़कर रपटीली पगडंडियों पर दौड़ने को मजबूर हो जाते हैं। राघव के जीवन में भी हालात ने उलट-फेर कर दिया। उसके पिता का अचानक देहांत हो जाने के कारण उसे कॉलेज छोड़ना पड़ा।
राघव के कंधों पर परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी आ गई।.... और एक दिन वह नौकरी करने शहर की ओर रवाना हो गया। जाते समय उसने रीनी से वादा किया कि, " तुम कोई चिंता न करो। मैं जल्दी ही तुम्हे यहां से ले चलूंगा।"
राघव के जाने के बाद रीनी के जीवन का रस और रंग चला गया। उसका पढ़ाई से जी उचट गया। किताब खोलती तो उसके पन्नों पर राघव की सूरत दिखाई पड़ती। क्लासरूम में रहती तो राघव की आवाजें पीछा करती। रात में राघव के सपने आते।
रीनी के कानों में बार- बार राघव का वादा गूंजता- " तुम कोई चिंता न करो। मैं जल्दी ही तुम्हे यहां से ले चलूंगा।" उसका इंतजार करने के अलावा रीनी के पास दूसरा चारा नहीं था। सबको हमेशा हंसाने वाली रीनी गुमसुम सी रहने लगी। उसका प्रिय समंदर उसे काट खाने दौड़ता। समंदर की खूबसूरत लहर्रे उसके दिल को चीरने वाली लगती। जब भी वह समंदर के किनारे जाती, वह समंदर से शिकायत करती। राघव की शिकायत। समुंदर के ज्वार भाटे में इतनी ताकत नहीं थी कि वो रीनी की शिकायतों का समाधान कर सके। हर सुख- दुख बांटने वाले रीनी के माता पिता उसी समंदर में समाए बैठे थे। रीनी के समंदर से नेह नाते का एक कारण यह भी था। इसलिए वो समंदर को अपना घर समझकर, वहीं शांति खोजती थी।
एक शाम जैसे ही उसने समंदर से शिकायतें करनी शुरू की, वैसे ही उसने अपने पीछे कुछ आहट सुनी।
वह चौक पड़ी- " भौं" की आवाज से.....' हो न हो ये राघव ही है...'
" राघव.... तुम!" रीनी पीछे मुड़ी।
" हां, रीनी। मैं....मैं तुम्हें लेने आया हूँ।"
" सच!"
" हां, एकदम सच! मैंने कहा था न कि तुम्हे जल्दी लेने आऊंगा।"
रीनी अपलक राघव को देख रही थी। उसकी आंखें गीली होने लगी थी।
" रीनी, बस थोड़ी देर हो गई। क्या करूँ। मकान का इंतजाम करना था। थोड़ा पैर भी जमाना था।"
" सच्ची, रहने का इंतजाम हो गया?" रीनी की आवाज में बेइंतहा खुशी थी।
" हां, मिल गया एक छोटा सा मकान। ठीक ठाक किराए पर।"
" बढ़िया.... अब बताओ।"
" शुरू में कुछ दिन मैं अपने चाचा जी के साथ रहा। जब पैर जम गए, थोड़ा पैसा आ गया तो मकान ले लिया। अब हम साथ रहेंगे। मैंने अपनी मां से बात कर ली है।"
" राघव, बहुत अच्छा! मैं बहुत खुश हूं। अब हम साथ रहेंगे। मैं, तुम और मां, एक साथ।"
" रीनी, मां अभी यहीं रहेंगी। अगर वे हमारे साथ जाएंगी तो यहां खेती बारी कौन देखेगा?"
" ओह!"
" हां रीनी! बस हम दोनों जा रहे हैं, तुम चाहो तो वहां आगे की पढ़ाई भी कर सकती हो।"
" अरे वाह!" रीनी राघव के गले लग गई।

* * *


" रीनी, क्या कर रही हो भई? कितनी देर हो गई? अभी तक पैकिंग भी नहीं कर पाई? जल्दी करो, नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी।"
" हो गया राघव, बस दो मिनट।"
" रीनी, पिछके आधे घण्टे से तुम दो मिनट, 2 मिनट कह रही हो। जल्दी करो, देर हो रही है।"
" हां, बस आई।" कहते हुए रीनी ट्राली बैग लेकर आई। उसके पीछे पीछे उसके चाची भी आई। उन्होंने राघव से मुखातिब होते हुए कहा-
" बेटा, बिन मां बाप की बच्ची है। इसका ध्यान रखना।" फिर वे रीनी की तरफ मुड़ी- " तुम हॉस्टल में ठीक से रहना और पढ़ाई में ध्यान देना।"
" जी।" रीनी बोली।
" चाची जी, आप कोई चिंता न करो। मैं उसी हॉस्टल के पास रहता हूँ। हालचाल लेता रहूंगा।" राघव ने चाची को आश्वस्त किया।
रीनी ने घर में यह बताया था कि अगर की पढ़ाई के लिए शहर जाना है। राघव ने कॉलेज में एडमिशन व हॉस्टल में रहने का इंतजाम कर दिया है। रीनी को तभी गांव से बाहर जाने की इजाजत मिली थी।

* * *


शहर में रीनी- राघव की नई जिंदगी की शुरुआत हुई। रीनी ने अपनी सूझबूझ से बहुत कम बजट में घर को सजा दिया था। कुछ चीजें कम जरूर थी, पर रीनी- राघव के प्यार की ऊर्जा के चलते इस कमी का अहसास कभी किसी को नहीं हुआ।
राघव सुबह अपनी नौकरी पर चला जाता था। रीनी को करने के लिए कुछ नहीं था, सो वह राघव का इंतजार करती। उसका मन आगे की पढ़ाई करने का था, पर घर के हालात देखकर राघव से कुछ कहने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी।

* * *


"ट्रिंग..... ट्रिंग.....ट्रिंग..."
कालबेल की आवाज पर रीनी ने दरवाजा खोला।
दोपहर के 11 बजे थे, घर का कामकाज निपटाकर वह बैठी ही थी कि कॉल बेल बज उठी। सामने मीना थी, उसकी पड़ोसन।
" अरे मीना ! तुम!! आओ, आओ।"
मीना अंदर आई। वह एक कारखाने में नौकरी करती थी, आज उसका वीकली ऑफ था। चाय की चुस्कियों के साथ दोनों में बातचीत का दौर शुरू हुआ।
" रीनी..... और सुनाओ, क्या हाल है?"
" ठीक है सखी। तुम्हारी कैसे कट रही है?"
" बढ़िया। एक दिन की छुट्टी मिलती है। उसमें दर्जनों काम निपटाने होते हैं।"
" अच्छा है न! और दिन खूब व्यस्त रहती हो। इंसान के पास करने को कुछ तो होना ही चाहिए।"
" हां, यह तो सही बात है.....।" अचानक मीना को कुछ याद आ गया- " रीनी, तुम भी तो दिन भर बैठे- बैठे बोर होती रहती हो। क्यों नहीं तुम कोई नौकरी कर लेती?"
" नौकरी?..... कहां?"
" मेरे कारखाने में!... अगर तुम कहो तो मैं मैनेजर से बात करूँ?"
"अरे वाह, यह तो अच्छा रहेगा। तुम मैनेजर से बात करो। आज मैं भी राघव से बात कर लूंगी।"
शाम को राघव के आने के बाद रीनी ने उससे कहा- " आपके नौकरी पर चले जाने के बाद मैं पूरा दिन खाली बैठकर बोर होती रहती हूँ। अगर तुम कहो तो मैं कहीं नौकरी कर लूं?"
राघव चौंक पड़ा- " नौकरी..... नहीं.. तुम्हें नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं है।"
" राघव प्लीज! इजाजत दे दो न! प्लीज। इससे मेरा समय भी कट जाएगा और घर में चार पैसे भी आ जाएंगे।"
रीनी की जिद के आगे आखिरकार राघव को झुकना ही पड़ा।
इसके तीसरे दिन रीनी ने मीना के कारखाने को कम्प्यूटर ऑपरेटर के रुप में ज्वाइन कर लिया।
अब रीनी की दिनचर्या बदल गई। वह थोड़ा जल्दी उठकर राघव को उठाती थी। घर के कामकाज के बाद दोनों साथ में निकलते थे। राघव उसे कारखाने पर ड्रॉप करके अपने काम कर चला जाता था।
शाम को राघव को देर होती थी लिहाजा रीनी मीना के साथ आ जाया करती। राघव के आने तक वह कुछ घरेलू काम निपटा लेती। कॉल बेल बजने के पहले सज- धजकर तैयार रहती।
राघव का स्वागत मुस्कान, चुम्बन और आलिंगन से करने के बाद वह गरमागरम चाय पेश करती। दोनों चाय की चुस्कियों के साथ दिन भर की बातें करते। फिर रीनी मनोयोग से डिनर तैयार करती, दोनों साथ में खाना खाने के बाद जल्दी सो जाते क्योंकि सुबह जल्दी उठना होता था।
इसी प्रकार हंसी- खुशी से दिन बीत रहे थे। नोंक झोंक, मान मनुहार, नौकरी की व्यस्तता और घरेलू कामकाज के साथ अन्य जिम्मेदारियों की वजह से समय का पता ही नहीं चला। रीनी को नौकरी करते हुए तीन महीने बीत गए थे। रीनी के आने से राघव के खर्च पर लगाम लग गया था, उसे बचत करने की आदत पड़ गई।
रीनी तो पहले से ही मितव्ययी थी, सुपरिणाम जो पैसे इकट्ठा हुए उससे डाउन पेमेंट करके ईएमआई पर एक बाइक आ गई। फिर दोनों नौकरी पर उसी से जाने लगे।
रीनी बड़े रोब से राघव की कमर में हाथों का घेरा बनाकर बाइक पर बैठती थी, राघव को रीनी का यह अंदाज बेहद भाता था।
एक दिन रीनी की जल्दी छुट्टी हो गई, जब वो घर पहुंची तो उसने बाहर राघव की बाईक देखी। चौंक पड़ी रीनी- ' राघव जल्दी घर आ गया, पर उसने मुझे बताया तक नहीं!' खैर, रीनी ने कॉल बेल बजाई, राघव ने दरवाजा खोला- "अरे तुम! आज जल्दी आ गई। आओ, आओ।" उसका स्वर हैरत से भरा था।
हॉल में दो लोग और बैठे थे, रीनी के लिए अपरिचित। उसमें से एक ने कहा, " नमस्ते भाभी जी, मैं धर्मेंद्र हूँ।"
प्रत्युत्तर में रीनी ने भी नमस्ते किया। इसके बाद दोनों उठ खड़े हुए, " अच्छा राघव जी, हम चलते हैं। नमस्ते। नमस्ते भाभी जी।" रीनी को उनका अचानक चले जाना बहुत अजीब लगा। "कौन थे ये लोग?" उसने राघव से सवाल किया।
" मेरे दफ्तर के बाजू में इनका भी दफ्तर है। धर्मेंद्र ने तो तुमसे नमस्ते भी किया था, दूसरे का नाम गिरिधर है। मेरे दोस्त हैं।"
" इनके बारे में कभी बताया नहीं तुमने?"
".........।" राघव चुप रहा।
" घर बुलाने लायक गहरी दोस्ती हो गई है?"
".........।" राघव चुप ही रहा।
" देखो, मुझे ये लोग कुछ ठीक नहीं लगे हैं।"
राघव ने फिर चुप रहकर इस प्रश्न का उत्तर टाल दिया।
बात आई गई हो गई।
समय का चक्र चलता रहा। वह चक्र जीवन के उतार चढ़ाव को अपने में समाहित करता हुआ, हंसी खुशी के पलों का उपहार देते हुए, संघर्ष की दहलीज पार करते हुए अपनी गति से घूमता रहा। जिंदगी अपने पन्नों में सुख दुख के हाशिए के साथ कटती रही।
लेकिन, क्या सिर्फ खुशी और मस्ती का ही नाम जिंदगी है? शायद नहीं! जिंदगी तो संघर्ष का भी नाम है। इसमें सुख के साथ दुख भी आता है। दोनों को अगर बराबर स्वीकार करेंगे तो ठीक अन्यथा सुख तो आपको खुशी देगा जबकि तोड़कर रख देगा। वक्त अपने में बहुत कुछ समाए रखता है। किसी को पता तक नहीं रखता कि वक्त के गर्भ में क्या छिपा है? रीनी को लगा कि अब जिंदगी हंसी- खुशी का नाम है।
हंसते-हंसाते, एक साथ जीवन के पलों का सामना करते रीनी- राघव की जिंदगी की गाड़ी चल रही थी, पर शायद यह ईश्वर को मंजूर नहीं था।
कारखाने में लंच के समय एक दिन मीना ने रीनी से कहा, " आज शाम को मुझे कुछ शॉपिंग करना है। दीदी, तुम साथ में रहना।" छुट्टी होने के बाद दोनों ऑटो से बाजार की तरफ निकल पड़ी। ओपी सिटी के पास जब ऑटो पहुंचा तो रीनी चौंक पड़ी। ऑटो एक रेड सिग्नल पर रुका था। रीनी को अचानक बाहर किसी जानी पहचानी छवि का आभास हुआ।.......' अरे....ये तो राघव है.....।' बाजू में राघव की बाईक थी, उस पर पीछे कोई बैठा हुआ था। " राघव, राघव....।" रीनी कहना चाहती थी कि सिग्नल ग्रीन हो गया, बाईक आगे बढ़ी, रीनी ने साफ देखा कि कोई लड़की पीछे बैठी हुई थी। रीनी के पैरों तले जमीन खिसक गई कि ' आखिर कौन है ये लड़की?'

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