अनमोल सौगात - 9 Ratna Raidani द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अनमोल सौगात - 9

भाग ९

हॉटेल के रास्ते में दोनों के बीच एक अजीब सी खामोशी थी। कभी घंटों घंटों बात करने वालों को आज शब्दों को खोजना पड़ रहा था। रवि बहुत कुछ कहना और पूछना चाहता था लेकिन वो कुछ बोल नहीं पा रहा था। बस कभी कभी रास्ते में पड़ने वाली कुछ प्रसिद्ध जगहों के बारे में बताते जा रहा था। नीता चुपचाप खिड़की से बाहर की और देखकर सर हिला रही थी। तभी एक जगह अचानक उसने कार रोकी।

"क्या हुआ?" नीता ने पूछा।

"ये यहाँ का प्रसिद्ध आइसक्रीम पार्लर है। १० मिनट ही लगेंगे। प्लीज आओ।" रवि के आग्रह भरे स्वर को नीता मना नहीं कर पायी।

 

टेबल पर रवि, नीता के पसंदीदा दो कोन लेकर आया। दोनों को उस दिन पिक्चर के बाद खायी हुई आइसक्रीम याद आ गयी।

 

"सॉरी नीता! मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मैं अपना वादा नहीं निभा पाया।" रवि ने आखिर चुप्पी तोड़ी और दुखी स्वर में कहा।

 

नीता की भी भावनाएं आंसू के रूप में छलकने लगी। उसने कहा, "नहीं   रवि! इसमें किसी की भी कोई गलती नहीं है। शायद हमारी किस्मत में उतना ही साथ लिखा था। हम चाहते तो अपने माता पिता की मर्जी के बिना भी एक हो सकते थे लेकिन उनको दुःखी करके हम सुख से नहीं रह पाते।" नीता की परिपक्वता रवि को अचंभित कर रही थी।

 

नीता ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, "हमारी अपने अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियाँ भी बहुत है इसलिए अब हमें वर्तमान में ही जीना होगा। इन सब बातों के बारे में सोचकर हम कमजोर ही महसूस करेंगे।"

 

रवि नीता की बातों से सहमत था किन्तु उसे लगा नीता को कोई बात अंदर ही अंदर खाये जा रही है।

 

रवि से रहा नहीं गया और उसने पूछ ही लिया, "नीता एक बात बताओ! क्या तुम सच में खुश हो?"

 

नीता को इस प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी फिर भी उसने संयमित होते हुए उत्तर दिया, "हाँ बिलकुल! सब कुछ ठीक है। बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। मेरा काम भी ठीक चल रहा है।"

 

"और तुम्हारे पति?" रवि ने पूछा।

 

"हाँ, मुकेश भी बहुत अच्छे हैं। मेरा बहुत ध्यान रखते हैं।" नीता ने नज़रें चुराते हुए कहा, इस डर से कि कहीं रवि उसकी आँखों का सूनापन न भाँप ले। किन्तु रवि उसके भावों को समझ रहा था।

 

"नीता, क्या तुम मुझे अपना फोन नंबर दे सकती हो?" रवि ने झिझकते हुए पूछा।

 

नीता असमंजस में थी। "अगर कोई दिक्कत है तो रहने दो।" रवि उसे किसी परेशानी में नहीं डालना चाहता था।

 

"नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है।" दोनों ने अपने नंबर्स एक दूसरे के साथ साझा किये।

 

हॉटेल की ओर बढ़ते हुए रास्ते में अब दोनों खुलकर बातें करने लगे। अब दोस्ती के रिश्ते में बंधकर एक दूसरे से विदा ले रहे थे; इस सुकून के साथ कि इस रिश्ते के लिए अब उन्हें किसी की अनुमति की जरूरत नहीं होगी।

 

दूसरे दिन बची हुई मीटिंग्स निपटाकर नीता अहमदाबाद वापस लौटी। एक सच्चे मित्र के मिलने से नीता ने अपने भीतर एक सुखद बदलाव महसूस किया। एक दूसरे से मानसिक सम्बल पाते हुए दोनों अपनी जिम्मेदारियाँ पहले से भी बेहतर निभा रहे थे।

 

समय अपनी गति से बढ़ रहा था लेकिन समय की फितरत बीच बीच में इम्तिहान लेने की होती है इसलिए नीता के सामने ऐसी ही एक घड़ी फिर से आ गयी। एक दिन शशिकांतजी के घर से वहाँ काम करने वाली नौकरानी का फोन आया।

 

"दीदी! सरजी की तबियत अचानक से बिगड़ गयी है। आप जल्दी से आ जाईये।" नीता तुरंत रवाना हुई। रास्ते से ही उनके फैमिली डॉक्टर को भी फोन कर दिया घर पहुँचने के लिए।

 

डॉक्टर ने जांच की।

 

"इनका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है। अभी मैंने इंजेक्शन लगा दिया है। ये दवाइयाँ भी लिख दी है। इन्हें पूरे आराम और अच्छी देखभाल की जरूरत है।" डॉक्टर ने दवाई की पर्ची आगे बढ़ाते हुए कहा।

 

डॉक्टर को धन्यवाद करते हुए उसने पर्ची ले ली। मुकेश को सूचित किया कि वह आज रात घर नहीं लौट पायेगी। बड़ी बहन रीता को भी सूचित किया। उसने शीघ्र ही आने का आश्वासन दिया।

 

नीता की आँखों में रात भर नींद नहीं थी। उसने रात में ही निश्चित किया कि वह शशिकांतजी को अपने घर ले जाएगी, क्योंकि ऐसी हालत में उन्हें अकेले छोड़ना संभव नहीं था। सुबह उसने जरूरी सामान की पैकिंग करते हुए पूछा, "पापा, अब तबियत कैसी है?"

 

"पहले से बेहतर है। पर ये तुम मेरा सामान क्यों बाँध रही हो?" शशिकांतजी ने पूछा।

 

"पापा आपको आराम और परहेज के खाने की जरूरत है, इसलिए आप मेरे साथ चल रहे हैं।" नीता ने दवाईयाँ बैग में रखते हुए कहा।

 

शशिकांतजी अपनी रूढ़िवादी सोच में अभी भी जकड़े हुए थे। बेटी के घर ना जाने के कई बहाने गिनाये पर नीता ने इस बार उनकी एक ना सुनी। वह उन्हें अपने साथ अपने घर ले आयी। बच्चों का रूम उनके लिए ठीक किया। खाना खिलाकर, दवाईयाँ दी। इस बीच मुकेश दूकान से आ चुका था। औपचारिकतावश तबियत पूछ कर कमरे से बाहर आया। बाहर आते ही उसने नीता से पूछा, "तुम अपने पापा को यहाँ क्यों लेकर आयी हो?"

 

नीता कुछ समझ पाती उसके पहले ही वह जोर से बोलने लगा, "मेरे घर में लाने से पहले मुझसे पूछना चाहिए था।"

 

"मुकेश प्लीज! धीरे बोलो। पापा सो रहे हैं। और ये मेरा भी घर है। वो कोई गैर नहीं बल्कि मेरे पापा हैं।" नीता ने अपना क्रोध संयमित करते हुए कहा।

 

शशिकांतजी अंदर से सब सुन रहे थे। वे मुकेश के स्वभाव को जानते थे परन्तु ऐसी बीमारी की हालत में उसके ऐसे व्यवहार की उन्हें बिलकुल अपेक्षा नहीं थी। उसके शब्दों को सुनकर उनका मन बहुत आहत हुआ।

 

"नीता! मैं कल सुबह वापस जाना चाहता हूँ।" रात का खाना बड़ी मुश्किल से खाते हुए उन्होंने कहा।

 

"क्यों पापा? क्या हुआ?" नीता ने पूछा।

 

"कुछ नहीं! बस अब मुझे पहले से ठीक लग रहा है। और कल शाम तक रीता भी आ जाएगी।" शशिकांतजी ने बात सँभालते हुए कहा।

 

नीता समझ गयी थी कि उन्होंने मुकेश की बातें सुन ली है। उसे मुकेश पर बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन फिर उसने सोचा यहाँ मुकेश के व्यवहार को देखकर उनकी तबियत ज्यादा खराब ना हो जाए, इसलिए उसने भारी मन से कहा, "ठीक है पापा! हम कल सुबह चलेंगे।"

 

दूसरे दिन सुबह नीता और शशिकांतजी जैसे ही टैक्सी में बैठने के लिए बाहर निकले, औपचारिकता के लिए मुकेश भी बाहर आया पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा। उसके ऐसे रूखे बर्ताव को देखकर शशिकांतजी सोचने लगे, मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। अपनी बेटी की तकलीफों के लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ।

 

नीता उनके पास आयी और उनका हाथ पकड़कर टैक्सी तक ले जाने लगी। उन्होंने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया। वे खुद को रोक नहीं पाये और उनकी आँखों से आँसू बह निकले।