ये भी एक ज़िंदगी - 8 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ये भी एक ज़िंदगी - 8

अध्याय 8

शाम को मेरे पति आते तो वे जो मकान बन रहा है उसे देखने जाते। वही जंगल भी था। सुनसान था। मुझे लोटा साथ में लेकर आने को कहते। मुझे उसको उठाकर लाना अच्छा नहीं लगता मैं थैले में रख कर ले जाती। अब मेरे ससुर जी पड़ोस की औरतों से कहते "मेरा बेटा खाने की चीजें लाता है उसे मेरी बहू थैले में ले जाकर जहां मकान बन रहा है वहां खाते है। मुझे नहीं देती।”

जब उन लोगों ने यह बात मुझे कही तो मैंने उन्हें बताया "मैं थैले में लोटा लेकर जाती हूं। मुझे लौटे को पकड़कर ले जाना अच्छा नहीं लगता। मैं तो चॉकलेट भी लाती हूं उन्हें देती हूं।"

क्या करें बुजुर्ग आदमियों को वहम होता रहता है। गांव के आदमियों को तो ज्यादा ही ऐसा लगता था।

आज अच्छा मुहूर्त का दिन है ऐसा कह के मेरे नंदेऊ जी ने मकान का मुहूर्त और कर दिया। बाहर का गेट नहीं लगा। लैट्रिन नहीं बनी। मुहूर्त होने पर गांव से पद्रह आदमी आ गए। उन लोगों ने मेरे पति को सलाह दी इसी मकान में रहो। मेरे पतिदेव ने उनकी सलाह मान ली। वे  सब गांव के लोग थे बाहर जंगल में निमटने जाते। मेरी तो शामत आ गई। मैं कभी गांव में रही नहीं। मुझे बहुत रोना आया। मैंने पिताजी को लेटर लिखा। हमें लैट्रिन के लिए बाहर जंगल में जाना पड़ता है। गर्मी के दिन है डर लगता है। मेरे पिताजी ने कहा "जयपुर तो बड़ा शहर है। मैंने देखा हुआ है। वहां लैट्रिन कैसे नहीं है?"

इतने में मेरी तबीयत खराब हो गई। डॉक्टर ने बेड रेस्ट के लिए कह दिया। यहां पर बेड रेस्ट कैसे हो सकता था। लैट्रिन के लिए तो जंगल में जाना पड़ता। बाहर बाउंड्री वॉल के पास नल था वहां से पानी भरकर लाना पड़ता था। मेरे तो कुछ समझ में नहीं आया।

इनके ऑफिस में जब कुछ लोगों को पता चला तो एक कश्मीरी ने अपनी पत्नी से बात की। उनकी पत्नी बहुत समझदार थी। वह मुझे देखने आई। उन्होंने मेरे पति से बात की। वे मुझे हॉस्पिटल ले गई। वहां मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई। मुझे एडमिट कर लिया गया। वहां उस कश्मीरी जी की पत्नी मुझे खाना लाकर देती थी। बड़े शरीफ लोग थे। डॉक्टर को जब सब बातें पता चली उन्होंने मेरे पति से कहा "आप अपनी पत्नी को उनके पीहर भेज दीजिएगा। यहां वे ठीक नहीं हो सकती।" मेरे पति को भी बात समझ में आ गई और मुझे पीहर छोड़ आए। खैर मैं 6 महीने भोपाल में रही। वहां भी कुछ दिन घर में हैं कुछ दिन हॉस्पिटल में रहना पड़ा । ऐसा करते-करते मेरी बेटी भी हो गई।

बिटिया जब 40 दिन की हो तब पति मुकेश मुझे लेने आए। मैं उनके साथ जयपुर आ गई। गर्मी की छुट्टियां में मेरे देवर के बच्चे आ गए। उनका जो बड़ा लड़का था वह बड़ों जैसी बात करता था। उसने कहा ताऊ जी की पहले एक शादी हुई थी। वह गांव में रहना नहीं चाहती थी तो बड़े ताऊजी जो घर पर थे उन्होंने ताई जी को पीहर ही छोड़ कर आ गए। ताऊजी की छुटपन में शादी हो गई थी। ताऊ जी पढ़ते थे। मैंने पूछा "तेरे ताऊ जी ने कुछ नहीं कहा?"

"उन्हें तो पता ही नहीं था। घर आए तो पता चला। वे कुछ बोलते नहीं थे। वे वापस कॉलेज चले गए।"

मुझे एक दूसरा जबरदस्त सदमा लगा । बेटी गोद में। नौकरी भी छोड़ चुकी थी मैं। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आया। मैं तो सोच कर आई थी मुझे नौकरी करनी नहीं। पर इन सदमों को बर्दाश्त करके कैसे रहूं! क्या करूं! किससे कहूं....

वह लड़का फिर बोला "मेरे पिताजी की भी तो दो शादी हुई है। पहली मर गई थी। फिर दूसरी शादी की।"

अब मेरा गुस्सा परवान चढ़ गया था। पति तो घर पर थे नहीं मैंने ससुर जी से पूछा "क्या आपके घर सब की 10-10 शादियां होती है?"

"नहीं ऐसी बात नहीं।"

"फिर कैसी बात है? आपकी कितनी शादी हुई?"

"मेरी तो एक ही हुई।"

"आपके बेटों की?"

“उनकी शादियाँ परिस्थिति वश हुई।”

"आपके बेटे की दो शादियां हो चुकी है। और दोनों जिंदा है। अभी पता चला है कि वह गांव में अपने पीहर में रहती है। दूसरी का अता-पता नहीं। वे आ गई तो मेरा क्या होगा?"

"क्या बात करती हो वे नहीं आयेगी ?"

उसके बाद मेरी क्या गत हुई होगी आप सोच सकते हैं। कई बार कोई दरवाजा खटखटाता तो मुझे लगता उनमें से कोई आ गई है। डर के मारे मैं कांपने लगती। फिर पता चलता कोई और है। किसी भी अनजान औरत को देखकर मुझे ऐसा लगता शायद वही आई है। क्या मुझसे लड़ेंगी? मैं उसे क्या जवाब दूंगी? मुझे इसके अलावा कुछ सूझता नहीं था।

इन विचित्र परिस्थितियों के बीच में मैं फिर से प्रेगनेंट हो गई। कुछ सोचूं समझूं इसका मौका ही मुझे नहीं मिला। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा। फिर मेरी डिलीवरी कौन कराता। मुझे फिर पीहर ही जाना पड़ा। मेरा मन बहुत दुखी था। पर किसी से कुछ कहने की इच्छा नहीं हुई। अबकी डिलीवरी भी सिजेरियन हुई। सारे टांके पक गए। जब मन ठीक नहीं हो तब सब कुछ गलत ही होता है। पर यह बातें किससे कहती ? कैसे कहती? दो बच्चों को लेकर क्या पीहर में रहती? बेशर्माई की भी एक हद होती है।

40 दिन होते ही मां के साथ जयपुर आ गई। दोनों बच्चों को संभालना बहुत मुश्किल था। इसी तरह एक साल निकाल दिया। उसके बाद मुझे लगा मुझे अपने पैरों पर खड़े होना है। पति के रिटायरमेंट में केवल 8 साल बाकी थे। इनको देखकर उम्र का अंदाजा नहीं लगता था। मुझे तो वह भी अब ही पता चला। किसे दोष देती? यह सब मेरे तकदीर का ही दोष है।

मनुष्य संसार में कितने तरह के हैं जिसका आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते। आप ऐसे लोगों से नहीं मिले तो आपको पता ही नहीं कि ऐसा भी होता है। यह समझने में आपको समय लगेगा।

एक दिन इनके ऑफिस वाले मिले उन लोगों को मुझे देखने से ऐसा लगता था कि मैं नौकरी करती हूं। तो उन्होंने देखते ही पूछा "मैडम आप नौकरी करती हैं? कहां करती हैं?" तुरंत मेरे पति का जवाब होता "अजी कहां ? बच्चे हैं घर गृहस्थी का काम है। उसे संभाले तो बहुत है।" मैं तो उन्हें आश्चर्य से देखती रहती। कुछ जवाब दे ही नहीं पाती। यह बातें तो थी ही आज सोचे तो बड़ा आश्चर्य होता है।

मुकेश जी खाने-पीने के शौकीन नहीं थे। सीधा-सादा खाना ही पसंद था। बिना नमक के सब्जी भी दे देते तो चुपचाप खा कर चले जाते । कभी कुछ नहीं कहते। जब मैं खाने बैठती तब पता चलता कि सब्जी में नमक नहीं है। ऑफिस से आने पर मैं पूछती आपने बताया नहीं सब्जी में नमक नहीं था। हां पता तो लगा पर मैं बोला नहीं। इन सब बातों से मैं बहुत प्रभावित हो गई थी। हमारे घर में पिताजी और भैया ऐसा होने पर हंगामा मचा देते। तब मुझे लगता मुकेश जी को तो सात खून माफ कर देना चाहिए ।