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ये भी एक ज़िंदगी - 10 - अंतिम भाग

अध्याय 10

मेरी बहू ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया। बहुत ही प्यारी बच्ची। मेरी जान उसमें रखी थी। वह भी मुझे दादी-दादी कहकर मुझ पर जान देती थी। अच्छी होशियार बच्ची थी। मूलधन से ब्याज प्यारा होता है। मुझे भी बहुत प्यारी लगती थी ।

खैर इन सबके बीच में मेरे पति फिर बीमार हो गए। मेरे पति के पेट में एक बहुत बड़ी गांठ हो गई।

टेस्ट में पता चला गांठ बहुत बड़ी है। एक टेस्ट में सही रिपोर्ट आई एक में कैंसर का डाउट हुआ। इतनी बड़ी गांठ थी कि पसलियों को तोड़कर गांठ को निकालनी पड़ी थी। खैर ऑपरेशन बहुत बढ़िया हो गया ‌। बिल्कुल सही हो गए। हमने कहा चलो अच्छा हुआ। टेस्ट के लिए भेजा वहां भी रिपोर्ट सही आई।

इस बीच मैं भी रिटायर हो गई। उस समय रिटायरमेंट की उम्र 58 वर्ष की थी।

मेरे पति के फिर से पेट में दर्द होने लगा। डॉक्टर को दिखाया। सोनोग्राफी की वही पर दूसरी गांठ हो गई। डॉक्टरों ने अब ऑपरेशन करने से मना कर दिया। 78 की उम्र हो गई है अब ऑपरेशन नहीं हो सकता। ऑपरेशन करने के बाद हो सकता है तबीयत और खराब हो जाए। अभी तो चल फिर रहे हैं बाद में चलना फिरना मुश्किल हो जाए फिर आप क्या करेंगी। मुझे भी बात सही लगी। पर मेरे हस्बैंड चाहते थे कि उनका ऑपरेशन हो।

कई डॉक्टर को दिखाया। ज्यादातर डॉक्टरों ने ऑपरेशन के लिए मना किया। एक डॉक्टर ने कहा "मैं कर दूंगा।" वह डॉक्टर हमारे पहचान के थे। उन्होंने कहा मैं ऑपरेशन की फीस भी नहीं लूंगा। ऑपरेशन थिएटर का खर्चा दे देना। बात तो पैसे की नहीं थी। बात सुरक्षा की थी। मेरे पति जिद्द करने लगे कि उन्हीं से ऑपरेशन करा लूंगा।

ऑपरेशन की सारी तैयारियां हो चुकी थी दूसरे दिन हॉस्पिटल जाना था पहले दिन एक सज्जन हमारे घर आए। उन्होंने कहा "इस डॉक्टर से मत करावो। यह अच्छा डॉक्टर नहीं। मेरा केस बिगाड़ दिया था।" तब दूसरे डॉक्टर के पास गए। मैंने कहा "वह डॉक्टर तो ऑपरेशन करने को तैयार था। पर हम नहीं करवाना चाह रहे। आप ही कर दो।" फिर वह डॉक्टर भी तैयार हो गए। अस्पताल में एडमिट कर दिया गया। ऑपरेशन के पहले एक सोनोग्राफी हुई। तो पता चला पैंक्रियास के ऊपर ही गांठ है। उसे छेड़ना ठीक नहीं है। लौट के बुद्धू घर को आए। हम भी घर आ गए। कैंसर की गांठ थी। कोई दवाई करा नहीं सकते थे। उस समय इतनी सुविधा नहीं थी। उम्र ज्यादा थी। अब तो मैंने देखा 90 साल के आदमी का भी ऑपरेशन हो जाता है। पता नहीं डॉक्टर ने उस समय 78 को ज्यादा बता दिया। यह तो मेरे समझ के बाहर की बात थी।

जितनी सेवा कर सकते थे मैंने किया। अकेले ने बहुत संभाला। इस बीच बहू के एक और बच्चा हो गया। बेटा भी बिजी हो गया। उसकी अपनी फैमिली हो गई।

खैर जीवन-मरण किसी के हाथ में नहीं है। उन्हें जाना था चले गए। उसको कोई रोक नहीं सकता था। मैं इस दुख को सहन न कर पाई। एक तो जाने का गम दूसरा दूसरों का साथ न देने का गम। साथ ना दे कोई बात नहीं कुचरनी तो ना करें। यह सहन शक्ति के बाहर की बात थी।

मेरे बेटे और मेरे पति की सोच में बहुत अंतर है। बेटा आर्थिक मामलों में ही उलझा रहता था। उसमें आगे सोचने समझने की क्षमता ही नहीं थी। ऐसे लोगों को आप समझा भी नहीं सकते। उन्हें लगेगा आपको समझ ही नहीं है। समझदारी का ठेका उन्होंने लिया है। जो वे कहते हैं वही ठीक है। उसके कई विकल्प हो सकते हैं ऐसा भी वे नहीं सोच सकते। यह उनकी सोच के दायरे से अलग है। इसलिए बुरा मानने की कोई बात नहीं।

एक मां जो होती है उसके लिए चाहे दो हो या चार हो सब बराबर होते हैं। लड़की हो या लड़का उसके लिए समान है। हां यह जरूर है लड़का हमेशा साथ रहता है लड़की कभी-कभी आती है। उसके लिए कुछ देने की इच्छा होती है। क्या यह पाप है? क्या यह गलती है? इसका मतलब लड़की को ज्यादा चाहते हैं?

इन बातों का आप क्या जवाब दोगे? मां की दो आंखें होती है वह एक को भी नहीं फोड़ सकती। बच्चे इस बात को नहीं समझते।

भड़काने वाले भड़का कर चले जाते हैं। भडकने वाले और भड़क जाते हैं‌। यह किसका कसूर है?

अब इन बातों पर मैं ध्यान नहीं देती। मैं अपने आप में मस्त रहती हूं परंतु कुछ लोग आपसे सहानुभूति रखने के नाम से ऐसी बातें पूछ पूछ कर आपको दुखी कर देते हैं। ऐसे लोगों को मैं साफ कह देती हूं आप ऐसी बातें मुझसे ना किया करें। यदि करनी है तो मुझसे बात ना करें। क्योंकि इससे मेरा दिल बड़ा दुखी हो जाता है।

जो होता है हमसे पूछ कर नहीं होता। कौन कैसा होगा आपको इसका अंदाज भी नहीं होता। आप अपने तरह से सोच सकते हो ऐसा होना चाहिए वैसा होना चाहिए। जो हो रहा है वह अलग ही है। उसको सहन करने के लिए आपको शक्ति चाहिए। यदि शक्ति नहीं है तो कोई क्या करें। सब परिस्थितियां विपरीत हो गई।

सबने यही समझाया जो भी परिस्थिति है उसका सामना करो चुप रहो जवाब ना दो। देखते जाओ क्या होता है। देखती रही समय एकदम विपरीत हो गया।

खाली दिमाग रह-रह कर इन्हीं बातों में उलझता गया। इसी बीच कुछ करने की सोची। पर इस मकड़जाल से निकलूं तभी ना? कैसे निकलूं? निकलना चाहूं तो और फंसती जाऊं!

अकेले बैठकर आंसू बहाती और कुछ-कुछ लिखने लगी। पहले से पढ़ती तो बहुत थी पर लिखा कभी नहीं। आकाशवाणी के लिए प्रोग्राम देते समय कुछ लिख देती थी। बस सिर्फ इतना ही। फिर अब जो मेरे मन में उमड़-घुमड़ कर आ रहे विचारों को ही मैं लिखने लगी। एक दिन एक सहेली आई "क्या लिख रही हो?" पूछा। मैंने कहा “मन में जो आया है वह लिख रही हूं।"

“ऐसे लिखने से क्या फायदा? इसे कहीं भेजो।"

"कहां भेजूं?"

"अखबार में भेजो।"

मुझे लगा इसे कौन छापेगा?

उसके कहने पर मैंने भेज दिया। यह कैसा आश्चर्य वह छप गया! अब मुझ में बहुत सारा उत्साह और जोश आ गया। मैं लिखती चली गई। विभिन्न अखबारों में भेजती चली गई। सब में छपने लगे। इस से मुझे प्रेरणा मिली। पहले बच्चों की कहानियां लिखने लगी। लेख लिखने लगी। लोगों का इंटरव्यू लेने लगी। रेसिपी लिखने लगी। दक्षिण के त्यौहार राजस्थान के त्योहारों की तुलना करके लिखने लगी। लोगों को बहुत अच्छा लगा। दक्षिण की संस्कृति के बारे में लोग जानने लगे। फिर अनुवाद भी करने लगी। तमिल से हिंदी में कहानियों का अनुवाद करने लगी। उससे काफी ख्याति मिली। मुझे बहुत से अवार्ड मिले सम्मान मिला। लोग मुझे जानने लगे पहचानने लगे। इस बुढ़ापे में मुझे और क्या चाहिए? मैंने सोचा नहीं था मुझे इतना कुछ मिलेगा। इसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

मेरे पतिदेव को मेरा तमिल बोलना भी पसंद नहीं था। अब तो मैं तमिल से अनुवाद कर रही हूं। इस तमिल ने ही मुझे पहचान दिलाई। समय-समय की बात है। मेरी ज़िंदगी कहाँ से कहाँ पहुँच गई | मैं तो सोच भी नहीं सकती | शायद ये भी एक ज़िंदगी है |

 

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