ये भी एक ज़िंदगी - 4 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ये भी एक ज़िंदगी - 4

अध्याय 4

मेरे पीहर में नल लगे हुए थे। गवर्नमेंट क्वार्टर्स थे। बाथरूम, रसोई और चौक सब में अलग-अलग नल। यहां पर नहाने के लिए नमकीन पानी कुंए से खींच कर भरना पड़ता था। ताजा पानी पीने के लिए हेंडपंप को हाथ से चलाकर पानी निकालना पड़ता था। बहुत ताकत लगती थी। ऐसे काम मैंने कभी किया नहीं था। मैं चुप रहती कुछ नहीं बोलती मां-बाप को भी कह नहीं सकती। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। मुझसे कुछ गलती हो जाती तो सासू मां पति से शिकायत करती तो वह कहते जो चप्पल पैर के लिए ठीक नहीं उसे फेंक देना चाहिए। यह कोई मुहावरा होगा पर मेरे समझ से बाहर था। बार-बार कहने के बाद मेरे समझ में आया।

शादी के छ: महीने हो गए थे तो मेरी मां ने हमें बुलाया। बड़े नखरे के साथ मैं पति के साथ पीहर गई। मैं काफी कमजोर हो गई थी। मुझे देख कर अम्मा और अप्पा को बहुत बुरा लगा। पर वे मुझसे कुछ नहीं बोले। पतिदेव ने अपना चेहरा फूला ही रखा था। मेरे घरवालों ने मुझसे पूछा रेणुका क्यों क्या बात हुई? इसका जवाब में क्या देती! मुझे स्वयं पता नहीं! शायद उन्हें लगा जैसा उनका आवभगत होनी चाहिए जिसकी उन्हें उम्मीद थी वह नहीं हुआ ‌। जबकि मेरे मम्मी पापा ने अपनी हैसियत से ज्यादा ही किया था। इन लोगों की हैसियत से भी ज्यादा किया था। खैर मुझे पीहर में ही थोड़े दिन रहने के लिए छोड़ कर चले गए।

एक महीना हो गया मुझे बुलवाया नहीं? मम्मी पापा परेशान क्या बात होगी? मुझे पता था मेरे ना होने से उनका आर्थिक संतुलन थोड़ा ठीक हो जाएगा यही सोचकर नहीं बुलाया होगा? पर इस बात को एक लड़की अपने मुंह से कैसे कह सकती?

एक दिन मेरी मम्मी ने कहा “रेणुका, तुम मुझे आना है ऐसा पत्र दामाद को लिख दो |” मुझे यह बात बिल्कुल स्वीकार नहीं थी। अफसोस मरता क्या न करता। पत्र लिखना पड़ा। पतिदेव ने मेरे पिता को पत्र लिखकर कहा कि “मुझे वहां से गाड़ी में बैठा दें तो मैं यहां स्टेशन आकर ले जाऊंगा ।”

खैर यह समस्या भी हल हो गई। फिर जिंदगी अपने ढंग से चलने लगी। उसमें भी रोडा आ गया। पतिदेव के चिकन पॉक्स हो गया। उस समय तो मुझे क्वॉरेंटाइन पता नहीं था। क्वॉरेंटाइन में पतिदेव चले गए। एक ही कमरा उसमें पतिदेव। मैं और मेरी सास रात को तो रसोई में सो जाते पर पूरा दोपहर कहां रहती एक बड़ी समस्या! कभी कुएं के पास कभी बरामदे में कभी पीछे आंगन में ऐसे ही 20 दिन तक समय बिताया। अब कोरोना आया तो क्वॉरेंटाइन क्या होता है मुझे पता था। खैर समय सब का मरहम है। मैं भी थोड़ी-थोड़ी एडजस्ट हो गई। सब ठीक-ठाक चल रहा था। मेरी जिंदगी ऐसे ही है ऐसा मैंने सोच लिया था। अपने आप को इसके अनुकूल डाल भी लिया था।

दिवाली का पर्व आया। बड़े उत्साह से सब कुछ मिठाइयां वगैरह बनी। दक्षिण में नरक-चतुर्थी को ही दिवाली मनाते हैं। असुर के मरने के कारण खुशी में सुबह 3-4 बजे उठकर सब लोग तेल मालिश कर नहाते हैं। अपनी हैसियत के अनुसार सब नए कपड़े पहनते हैं। बच्चों से लेकर बूढ़े तक वहां नए कपड़े पहनने का  रिवाज है। हम लोग भी सुबह जल्दी उठ गए। नहा धो लिए। भगवान को भोग लगा रहे थे। इतने में किसी के गिरने और चिल्लाने की आवाज आई। मेरे पतिदेव भागकर कुएं के पास गए। वहां पर मकान मालिक गिरे पड़े थे। मेरे पति भी उन्हें उठाने गए तो वे भी वहीं गिर गए। मैंने सोचा क्या हो गया? मैं उन्हें उठाने गई पर मुझे उनके पास तक पहुंचने नहीं दिया करंट बुरी तरह से लगने लगा! मैं जोर-जोर से चिल्लाई करंट-करंट मेन स्विच बंद करो! मेरी आवाज सुनकर लोग दौड़कर आए। मेन स्विच ऑफ किया। लोगों ने दोनों को उठाया। मकान मालिक तो सही थे। मेरे पतिदेव नहीं उठ पाए। डॉक्टर को बुलाया उन्होंने 'ही इज नो मोर' कह दिया। हंगामा हो गया। सामने जो ननंद के घर वाले रहते थे वे भी दिवाली पर अपने गांव चले गए। मैं और मेरी सास ही रह गए। त्यौहार का दिन! पर क्या कर सकते थे। पूरे मोहल्ले वालों ने दीया नहीं जलाया ना पटाखे फोड़े। पर इन सबसे मेरा क्या मेरी जिंदगी सूनी हो गई थी मुझ पर पहाड़ टूट पड़ा था। जिंदगी का सही मायना भी समझ नहीं पाई थी। एक सीधी-सादी अकेली लड़की हो तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे। इसकी किस्मत खोटी हैं। रेलगाड़ी से ही मां-बाप आ सकते थे। उन्हें आने में दो दिन लगे। तीसरे दिन वे पहुंचे। फिर तो बहुत सारे रिश्तेदार आ गए। तरह-तरह की बातें होती रही। पति के ऑफिस वाले भी आए। उन्होंने हमारे पिताजी से कहा "हम आपकी बेटी को नौकरी दे देंगे।" सरकारी नौकरी थी। इस बीच मम्मी पापा जान चुके थे इसे अकेली छोड़ नहीं सकते। हम साथ ही ले जाएंगे। न बीमा के रुपए मिले ना किसी चीज का सब कुछ मां के नाम से करा रखा था। ना उन्होंने कोई चीज मुझे दी। मेरे पिता ने कहा हमें कुछ नहीं चाहिए "रेणुका तुम हमारे पास हो हमारे लिए बहुत है।"

मेरी मां मेरे लिए बहुत ही परेशान हुई। "बार-बार कहती मेरी लड़की सदा ऐसी रहेगी क्या? उसने तो दुनिया में कुछ भी नहीं देखा? यह तो मेरी इकलौती लड़की है?"

मेरे पापा ने कहा "वह कैसे रहेगी यह तो तुम पर निर्भर है।"

मेरी मां ने बड़े आश्चर्य से उनकी ओर देखा "क्या कह रहे हो?"

"यह तो हम पर निर्भर है हम उसे कैसा देखना चाहते हैं ? तुम सोच लो यह मेरी कुंवारी लड़की है! इसे पढ़ाना है लिखाना है और अच्छी जगह शादी करना है।" वे आगे बोले "जो गलती हमने पहले कर दी उसको सुधारना है? भगवान ने हमें सुधारने का मौका दिया ऐसा सोचो। सब कुछ हमारी सोच पर निर्भर है जैसा हमारी सोच होगी वैसे ही हमारे कार्य होंगे।"

"इस समाज का क्या होगा ?"

"समाज ? समाज को तो हम लोगों ने बनाया है। हम से ही समाज बनता है। हम जैसे चाहें वैसे कर लें। हममें हिम्मत होनी चाहिए" खैर अब बिल्कुल चुप रहो यहां कोई बात मत करो।

यह सब बातें मेरे समझ में नहीं आई।

अपने कपड़े आदि को समेट कर मम्मी पापा ने जो दिया था उसे लेकर तेरह दिन के कार्यक्रम के संपन्न होते ही हम लोग रवाना हुए।