ये भी एक ज़िंदगी - 1 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ये भी एक ज़िंदगी - 1

अध्याय 1

तमिलनाडु से महादेव और उनकी पत्नी पार्वती महाराष्ट्र के होशंगाबाद शहर में नौकरी के लिए आए । हिंदी ना जानने के कारण उन्हें बहुत परेशानी हुई । पार्वती अड़ोसी-पड़ोसी से बातें कैसे करें? भाषा की समस्या। पार्वती अकेली कैसे रहेगी? टूरिंग जॉब भी थी अतः पार्वती की छोटी बहन लाली को उनके साथ भेज दिया।

महादेव जी अक्सर टूर पर ही रहते अतः दोनों बहनें ही साथ रहती थी। बाहर ठेले वाला कुछ बेचता तो छोटी बहन लाली जाकर क्या बोल रहा है और क्या चीज है देख कर आती और अपनी बहन को बताती तो उस चीज का नाम लिखकर अपनी भाषा में और हिंदी में लिख लेती। इस तरह पार्वती ने हिंदी सीखने की कोशिश की। अब जब वह प्रेग्नेंट हुई तब पीहर गई। वहां उसने दो महीने के लिए हिंदी सीखने की कक्षा में प्रवेश लिया। होशियार तो वह बहुत थी अत: बहुत जल्दी सीख गई। अब उनके एक लड़की हो गई। अब तो महादेव जी का तबादला नागपुर हो गया। नागपुर बड़ी जगह थी अब उन्हें हिंदी भी काफी आ गई थी। उन्हें बहुत परेशानी नहीं हुई। फिर दो लड़कें और हो गया। इस साधारण परिवार में आर्थिक परेशानियां हुई। पति एक्स्ट्रा काम करके परेशानियों का हल खोज लिया। तीनों बच्चे पढ़ते थे।

उनके बच्चें अच्छे स्कूल में पढ़ते थे। पार्वती और महादेव जी की लड़की ही मैं हूं।

हमारे परिवार में लड़कियां कम होती थी मेरी बुआ एक लड़की थी उनके चार भाई थे। मेरी नानी भी इकलौती थी। इसलिए मैं बड़े लाड प्यार से पली। पिताजी की बहुत लाडली थी। मेरी मां बड़ी स्ट्रिक्ट थी।

मां ने एक बात कह दी तो कह दी उसे सब को मानना पड़ता। ऐसा ही चल रहा था। मुझे और मेरे भाइयों को लगता ऐसे ही सब लोग रहते होंगे। जो अम्मा ने कह दिया वह पत्थर की लकीर थी।

मैं बचपन से ही कुछ डरपोक और दब्बू किस्म की थी। स्कूल में भी दबी-दबी रहती थी। घर में दोनों भाई मुझ पर रोब झाड़ते थे। अम्मा से तो वैसे ही डर लगता था। नागपुर में जब बारिश होती थी तो लाल-लाल कीड़े गुच्छे के गुच्छे इकट्ठा होते थे। मैं उससे बहुत डरती थी। मेरे साथ प्रभा नाम की एक लड़की स्कूल से घर तक साथ आती थी। स्कूल से घर पैदल आने में आधा घंटा लगता था। पूरे रास्ते वह मुझे तंग करती उन कीड़ों को मेरे ऊपर डालती। मेरे बहुत मना करने पर भी वह नहीं मानती। मेरे पास एक सेफ्टीपिन था उसे डराने के लिए मैंने जो से दिखाया। पता नहीं गलती से उसके खरोंच लग गई। वह तमाशा मचाने लगी। मैंने बहुत माफी मांगी पर वह ना मानी मेरी अम्मा को आकर बता दिया। मेरी अम्मा मेरी बात सुने बिना ही उसके सामने मुझे दो चांटे कसके लगाए। मुझे अंदर ही अंदर बहुत पीड़ा हुई। पर अम्मा से हम बहुत डरते थे कुछ कह नहीं सकते थे। उसकी गलती हो तो मुझे बताने का मौका ही नहीं मिला। पहले ही मैं डरपोक और ज्यादा डरने लगी।

मेरी अम्मा बहुत महत्वकांक्षी थी बहुत होशियार भी थी। जो ठान लेती थी उसे करके ही मानती थी।

उस जमाने में वे साइकिल चलाती थी। हमें साइकिल पर बिठाकर ले जाती थी। वह निडर और दबंग थी। पता नहीं मैं कैसे दब्बू रही।

मैं दब्बू लड़की बनकर ही जी रही थी। मेरी मां पूर्ण आत्मविश्वास अपनी बात में अडिंग और एक होशियार महिला थी।

पर पता नहीं क्यों मैं उनसे दबी-दबी ही रही। मुझमें आत्मविश्वास की कमी तो थी ही मुझे लगता मैं मां के सामने कुछ नहीं हूं। पता नहीं ऐसा क्यों था। मेरी उनसे कोई बराबरी तो थी नहीं। भाई लोग तो मुझे हमेशा चिढ़ाते थे बुद्धू है ! दब्बू है ! मूर्ख है ! उनके मजाक को भी मैं सीरियस ले लेती थी । एक दिन मैं अपने हाथों का बनी हुई मोती की माला पहन कर स्कूल गई। सब ने पूछा किसने बनाया। मैंने कहा मैंने बनाया है रंग बिरंगी मोतियों से बना हुआ था। उसने कहा तू बड़ी अक्लमंद है। मैं तो खुश थी। घर आई मैंने यह बात बताई तो मेरा बड़ा भाई बोला "आ... खुश हो रही है मंद मतलब क्या होता है मंदबुद्धि.. समझी।" मुझे बड़ा बुरा लगा। मैं रोने लगी।

हमारी पड़ोस की एक आंटी आई बोली "अरे तू तो बहुत होशियार है इतनी सुंदर माला बनाई हमें भी बना दे।" ऐसे मेरे भाई मुझे परेशान करते थे । मैं इसे समझ नहीं पाती।

ऐसे ही दिन गुजरते जा रहे थे। मां मुझे गर्मियों की छुट्टियों में घर पर ही तमिल सिखाती थी। बहुत गुस्सा आता था। छुट्टियों में भी दिन में सोने नहीं देती थी ।

खैर जिंदगी के दिन ऐसे ही गुजरते रहे। होशियार-बुद्धू, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सभी के दिन गुजरते ही हैं। मेरे भी गुजरते गए।

मैंने जैसे बताया मैं पढ़ने में होशियार थी तो मां ने मुझे डबल प्रमोशन दिला दिया। अतः उन्होंने मुझे चौथी के बाद पांचवी दो महीने गर्मी की छुट्टियों में घर पर ही पढा कर मुझे दूसरे स्कूल के छठी कक्षा में एडमिशन दिला दिया।

एक साल बचा लया। चौथी कक्षा से एकदम से छठी में पहुंच गई। वही गर्मी की छुट्टियों में ट्यूशन पढ़ाया। जुलाई में एक स्कूल में एग्जाम दिलवाया और मैं पास हो गई। मुझे छठी कक्षा में प्रवेश दिला दिया।

पढ़ने के बारे में तो भाई लोग कुछ कह न सके। पर मेरी अंग्रेजी कमजोर थी। उस पर हंसी उड़ाते थे। हमारे पापा मुझे अंग्रेजी पढ़ाते थे। मेरे पापा भी मेरी हंसी उड़ाते। वे कहते "मेरी बेटी कभी इंग्लिश नहीं बोलेगी अंग्रेजी बोले उसे इंग्लिश बोलने से डर लगता है।"यह मुझे अपनी बेज्जती लगती। पर पापा से क्या कहूं? जब उन्हें पता चलता इसे बुरा लगा तो वह कहने लगते "अरे बेटा इसमें बुरा मानने की कौन सी बात है तुम्हें तो राष्ट्रभाषा अच्छी लगती है। तुम ऐसे क्यों नहीं कहती हो? गर्व की बात है ये कहना चाहिए।"हमारे घर में सारे घरवाले हाजिर जवाब थे। मैं सोच कर जवाब देती थी और घबरा भी जाती थी। मेरी इस कमी का भाई लोग बहुत फायदा उठाते थे | भाई लोग आपस में हंसी-मज़ाक करते और ज़ोर ज़ोर से हँसते तो मुझे लगता क्या बात है पूछने पर वे कहते “तू तो ट्यूबलाइट है देर से समझ में आएगा |”