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सार्थक सीख



अमर जल्दी जल्दी ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था । रमा रसोई में अमर के लिए नाश्ता बनाने में व्यस्त थी ।

अमर के पिताजी दीनदयाल हाथ में अख़बार लिये कुछ परेशान से अमर से बोले ‘ ” बेटा ! तुमने मेरा चश्मा कहीं देखा है ? याद नहीं आ रहा कहाँ रख दिया है । इतनी बड़ी खबर है ‘भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर आतंकियों के गढ़ ध्वस्त कर दिए ‘ लेकिन चश्मा ना होने की वजह से मैं इस समाचार का पूरा विवरण नहीं पढ़ पा रहा हूँ । ”

अमर नाश्ते की मेज से ही लगभग चिल्लाता हुआ सा बोला ” कितनी बार कहा है बाबूजी कि आप को और कोई काम तो है नहीं । कम से कम अपने सामान का और अपना ध्यान तो ढंग से रख लिया करो । मुझे ऑफिस जाने के लिए पहले ही देर हो रही है । मैं आपका चश्मा कैसे ढूंढ दूं ?” फिर रसोई घर की ओर देखकर रमा को आवाज लगायी ” रमा ! अरी ओ रमा ! अरे जरा बाबूजी का चश्मा ढूंढ देना । बाबूजी कहीं रखकर भूल गए हैं । ”

रमा जो सात वर्षीय दीपू को स्कूल जाने के लिए तैयार कर रही थी अमर की बात सुनते ही बिफर पड़ी ” सुबह से उठकर लगातार चूल्हे चौके में ही लगी हूँ । आपको नाश्ता देने के बाद अब दीपू को तैयार कर रही हूँ । अब और कितना करूँ ?”

बेटे बहू का वाकयुद्ध न शुरू हो जाये सो दीनदयाल जी बीचबचाव करते हुए बोले ” कोई बात नहीं बेटा ! क्यों बहू को तकलीफ दे रहे हो ? आखिर वह भी तो इंसान ही है । मेरा क्या है अख़बार फिर पढ़ लूँगा । वो तो मैंने यूँही पूछ लिया था कि शायद तुमने कहीं देखा हो । ”

दीनदयाल अख़बार हाथ में लिए बाहर लॉन में बीछी आराम कुर्सी पर पसर गए । अमर अपने ऑफिस जा चुका था । रमा दीपू को उसके स्कूल पहुँचाने गई थी । रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे से दीनदयाल ने शहर के शोरगुल से हटकर शांत वातावरण में यह दो कमरों का छोटा सा बंगला बनवाया था ।

घर में शांति का साम्राज्य पसरते ही दीनदयाल व्याकुल सी अवस्था में अपनी पत्नी रुक्मिणी की यादों में खो से गए जो असमय ही उनको छोड़कर चल बसी थी । जब तक जिन्दा रहीं अपने अंतिम समय तक दीनदयाल की जी जान से सेवा की । उनके कुछ भी माँगने से पहले ही रुक्मिणी वह चीज लाकर उनके हाथों में दे देती जैसे जानती हो कि अब दीनदयाल को इसी चीज की जरुरत है । रुक्मिणी की यादों में खोये भावविह्वल से दीनदयाल फफक पड़े ” रूक्कू ! कहाँ चली गयीं तुम रूक्कू ? देखो तुम्हारे बिना मेरा क्या हाल है ? ”

दीनदयाल जी अक्सर ऐसे ही एकांत में रोकर अपना जी हल्का कर लेते । आज अपने बेटे और बहू के व्यवहार से खुद को आहत महसूस कर रहे थे । न जाने कितनी देर तक वह ऐसे ही बैठे रहे । प्रतिदिन खबरों के अभ्यस्त दीनदयालजी का ध्यान अपने हाथ में पड़े अखबार की तरफ गया और एक बार फिर उनका दिल अखबार पढ़ने के लिए मचल उठा ।

‘चलो खुद ही चलकर घर में ढूंढ लेते हैं। रात को पुस्तक पढ़ने के बाद चश्मा तो सिरहाने ही रख कर सोये थे पर चश्मा सुबह सिरहाने नहीं मिला था । एक कोशिश और कर लेते हैं शायद मिल जाये।’ यही सोचकर दीनदयालजी अपने कमरे में चश्मे की गहनता से तलाश करने लगे।

रमा दीपू को स्कूल पहुंचा कर वापस आ गई थी । दीनदयाल पूरा कमरा तलाश कर चुके थे लेकिन चश्मा उन्हें नहीं मिला था । इतने में पड़ोस की आनंदीबेन ने आवाज लगायी ” अरे बहू ! कहाँ हो ?” आनंदीबेन की आवाज सुन कर दीनदयालजी बाहर दरवाजे की तरफ बढे । शायद रमा ने आनंदीबेन की आवाज नहीं सुनी थी । दीनदयाल को देखकर आनंदीबेन ने शालीनता से दोनों हाथ जोड़ते हुए चश्मा उनकी ओर बढाया ।

अपना चश्मा लेते हुए दीनदयालजी के चेहरे पर सवालिया निशान साफ झलक रहा था । आनंदीबेन ने बताया ‘चश्मा नहीं मिल रहा था इसीलिए थोड़े समय के लिए रमा से आपका चश्मा मांग लिया था ।’ दीनदयालजी समझ गए थे कि जब वह सुबह की सैर पर गए थे रमा ने चश्मा आनंदीबेन को दे दिया था और काम में व्यस्त होकर भूल गयी होगी शायद । आनंदीबेन वापस जा चुकी थी और रमा फिर कुछ करने में व्यस्त हो गयी थी ।

शाम के लगभग चार बजनेवाले थे । दीनदयालजी बाहर बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठे थे । रमा बाहर आई और दीनदयाल से मुखातिब हुयी “बाबूजी ! मैं बाजार जा रही हूँ । कुछ सब्जी वगैरह खरीदनी है और आते आते दीपू को भी स्कूल से लेते आऊँगी । आप जरा घर का ध्यान रखियेगा ।”

रमा चली गयी थी । अखबार अभी भी दीनदयालजी के हाथों में ही था । सभी खबरें दो-दो बार पढ़ने के बाद सभी विज्ञापन भी पढ़ चुके थे । बोरियत महसूस कर रहे थे दीनदयालजी कि तभी सामने उनकी नजर पड़ी । सामने ही निर्माणाधीन बगीचे में कुछ मजदूर कंक्रीट की मोटी पाइप को एक ट्रक पर लादने का प्रयास कर रहे थे । कई बार की कोशिश के बाद भी वो अपने प्रयास में असफल थे ।

घर का दरवाजा लगाकर दीनदयालजी बगीचे में मजदूरों के पास चले गए। मजदूर बुरी तरह थक कर आराम करने के लिए बैठे थे। दीनदयालजी ने जाकर उनसे कुछ देर बात की और उन्हें बताया की वो उनकी मदद कर सकते हैं ।

मजदूर फिर काम करने के लीये तैयार हुए । दीनदयालजी के निर्देशानुसार पहले ट्रक के पीछे एक मोटी रस्सी बंधी गयी और फिर पार्क में ही पड़ी लोहे की दो बल्लियों को ट्रक के पीछे से जमीन पर लगा कर रख दिया गया । अब कंक्रीट की पाइप को दोनों बल्लियों पर चढाने के लिए कोशिश करने लगे । दो मजदूर बल्लियों के बिच से पाइप के निचे से रस्सी को ऊपर की तरफ खींचने लगे । मजदूरों को आश्चर्य हुआ जब बड़ी आसानी से उन्हीं चार मजदूरों ने एक एक कर सभी पाइप ट्रक में चढ़ा दिया था। मजदूर बार बार दीनदयालजी का शुक्रिया अदा कर रहे थे ।

दीनदयाल जी जैसे ही घर के सामने पहुंचे रमा दीपू का हाथ थामे कहर भरी नज़रों से उनका ही इंतजार कर रही थी । ” बाबूजी ! आप को यहाँ घर में बैठने के ही तो कहा था । वह भी आपसे नहीं हुआ । आपको हमारी इतनी भी फ़िक्र नहीं है । आप को तो बस अपनी संतुष्टि से मतलब है । जब भी जो अच्छा लगा किया हमारे नुकसान की आपको परवाह ही नहीं है । वो तो अच्छा हुआ मैं समय पर आ गयी वरना पता नहीं कब तक घर यूँही लावारिस पड़ा रहता । कोई चोर उचक्का हाथ साफ़ कर जाता तो आपका क्या ? ” रमा ने एक सांस में मन की पूरी भड़ास नीकाल ली थी ।

दीपू चुपचाप सारी बातें देख सुन और समझ रहा था । दीनदयाल घर में आकर सोफे पर निढाल से पड़े रहे । रमा की बातों से वह बहुत ही आहत थे लेकिन क्या कर सकते थे ? रुक्मिणी के जाने के बाद तो अब उन्हें धीरे धीरे ऐसे व्यवहार की आदत सी होने लगी थी । उनका जमीर उन्हें धिक्कारता लेकिन फिर पुत्र मोह हावी हो जाता ।

उन्हें याद आ जाता कैसे रुक्मिणी और वो खुद अमर के पास बैठे बैठे पूरी रात गुजार देते जब भी उसे कोई तकलीफ या बुखार होता । कई तरह की मुसीबतें झेलकर खुद भूखे रहकर अपनी संतान को अच्छा खीलाने वाले अपनी औकात से ज्यादा अच्छी तरह से परवरिश करनेवाले अधिकांश माँ बाप के हिस्से यह हिकारत भरी जिंदगी ही क्यों मिलती है ? इस क्यों का जवाब शायद किसीके पास नहीं सो दीनदयालजी क्या जवाब ढूंढ पाते । बस सोच कर रह गए ।

दीपू स्कूल के कपडे बदल कर उनके सामने आकर खड़ा था “दादाजी ! दादाजी ! खेलने चलें !” दीनदयालजी दीपू के सान्निध्य में अपना सब दुःख दर्द भूल जाते थे । उसकी निर्मल हँसी उसकी समझदारी भरी बातें उन्हें काफी अच्छी लगती थीं । दीपू को साथ लिए दीनदयालजी बगीचे की तरफ चल दिए । रस्ते में उनका हाथ थामे दीपू बोला “दादाजी ! मम्मी ने आज आपको बेवजह डांट दिया मुझे बहुत बुरा लगा।”

“नहीं बेटा ! मम्मी ने बेवजह नहीं डांटा था। गलती हमारी ही थी। और फिर गलती करेंगे तो सजा तो मिलेगी ही।” उसे उपदेश देते दीनदयालजी बोले । लेकिन दीपू संतुष्ट नहीं था। शाम को घर आकर दीपू ने अपना स्कूल का गृहकार्य किया और सो गया ।

दीपू ने सोने से पहले भोजन नहीं किया था अतः उसे भोजन कराने के लिए रमा उसे उठाने का प्रयास कर रही थी “उठ जाओ बेटा ! थोड़ी सी खा लो । नहीं तो तुम्हारी तबियत ख़राब हो जाएगी ।”

दीपू ने लगभग चीखते हुए कहा ” मम्मी ! तबियत तो मेरी ख़राब होगी तुम्हें इससे क्या ? तुम क्यों परेशान हो रही हो? और फिर मैंने एक बार कह दिया न कि नहीं खाऊंगा! सुनाई नहीं देता क्या?”

अब रमा का सब्र जवाब दे गया था । चटाक के आवाज के साथ एक थप्पड़ दीपू के गाल पर रसीद करते हुए चीख पड़ी ” बदतमीज ! माँ बाप से ऐसे ही बात करते है ? क्या तुम्हारे स्कूल में यही सिखाते है ? ”

अमर भी आकर उसके नजदीक ही खड़ा हो गया था। दीनदयालजी बेचैन से सोफे पर ही बैठे थे। दीपू को तमाचा मारना उन्हें बिलकुल नागवार गुजरा था । लेकिन वो कर भी क्या सकते थे ?

अपनी छोटी सी हथेली से दीपू ने अपना गाल सहलाते हुए कहा “नहीं मम्मी ! हमें स्कूल में तो किताबें पढ़ना सिखाते हैं । बड़ों से कैसे बात की जाती है यह तो मैंने आप लोगों से ही सीखा है।”

सुनते ही रमा को अपने गलती का अहसास हो गया । दीपू को अपने सीने में भींच कर बोली ” बेटा ! तुमने हमारी आँखें खोल दी । हमें माफ़ कर दो।” दीनदयालजी की आँखें भी ख़ुशी के आंसू से छलक पड़ी थीं ।

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