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पीछा करने वाली आवाज -दिनेश नंदिनी डालमिया

पीछा करने वाली आवाज -दिनेश नंदिनी डालमिया

अच्छी कथा पर कमजोर योजना

पीछा करने वाली आवाज श्रीमती दिनेश नंदिनी डालमियां का नया कथा संग्रह पिछले दिनों नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली ने छापा है जिसमें उनकी छह कहानियां प्रकाशित है। आच्छापद पृष्ठ पर लिखा गया है इस संग्रह की सभी कहानियां सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इन कथाओं के कथानक लेखिका ने अपने मन से नहीं रचे, यथावत कागज पर उतार दिये। उन्ही के शब्दों में ‘उसे मैंने कला की रक्षा करते हुए ज्यों की त्यों लिख दी‘ चर्चा इस बात पर आरंभ की जा सकती है कि क्या यह कहानियां शास्त्रीय आधार पर कथा-रचनाएं कही जा सकती हैं? विद्वानों ने यथार्थ से बहुत ज्यादा आगे का यथार्थ या बहुत पीछे का यथार्थ कहा है अर्थात यथार्थ सीधा-सीधा साहित्य नहीं होता। लेखिका लम्बे समय तक गद्यगीतों की रचना करती रही हैं यानि कि उनके पास साहित्य दृष्टि मौजूद है, फिर भी कहानी को कहानी न कह कर यथार्थ के नाम से उनके उल्लेख के गड़बड़झाले के कारण उचित होगा कि इन कहानियों का तथ्य परख विश्लेषण किया जाये।

‘सैलाब’ कहानी शोभा नाम की बालिका का और उसके प्रौढ़ प्रति कन्हैया के आकस्मिक व बेमेल विवाह तथा उसके परिणामो ं की कथा है, इसमें दोनेां के प्यार, देह सम्पर्क और वैचारिक मतभेदो की कहानी है जिसका अंन्त सुखद है। ‘विरासत’ एक काल्पनिक सी चमत्कृत कर देने वली कथा है जिसमें एक धनाढय बेटे से तिरस्कृत उसकी मां द्वारा अपनी सेवा के लिए अनायास नौकर रख लेने की कथा है। अपने सौतेले बाप से परेशान नौकरी करने वाला युवक मोहन बहुंत सेवा करता है और वह बूढ़ी भी इतना स्नेह कर बैठती है कि अपनी सारी सम्पत्ति उसे विरासत में छोड़ जाती है और मोहन भौंचक्का रह जाता है। संग्रह की शीर्षक कहानी पीछा करने वाली आवाज एक रूमानी सी मगर नयापन लिये हुए लिखी गयी उमर के अंतर होने के बावजूद प्रेम होने की कहानी है। इसमें उर्मिला नाम प्रौढ़ लेखिका को एक युवा आवाज का फोन आता है यह आवाज लेखिका से मिलने का इसरार करती है, बाद में एक पत्र भी आता है खुशबू से सना हुआ। अपनी विधवा बेटी के प्रेमसबंधों से नाराज रहने वाली उर्मि में बड़े भावात्मक परिवर्तन होते हैं उसे प्रथम प्रणय सा अहसास होता है और तंद्रा में डूबी वह देखती है कि फोन करनेवाला चालीस वर्षीय व्यक्ति है, जो वैधव्य भोगती उर्मि से कई वर्ष छोटा है। स्वप्न से मुक्त हुई उर्मि अपनी बेटी से अपनी मनःस्थिति कह सुनाती है तो बेटी उसे प्रेरित करती है पर अपने बेटे सुनील की उम्र के जवान व्यक्ति के साथ मिलने में ंसंकोच से भरी होतीहै। फोन करने वाला व्यक्ति सचमुच चालीस वर्षीय फौजी व्यक्ति है जो सिर्फ उर्मि की आवाज सुनकर उसके प्रति कशिश महसूस कर रहा है, वह चाहता है कि उर्मि उम्र और शरीर को मर्यादा भूलकर उसे स्नेह करें, उर्मि ऐसा आष्वासन उसे देती है, फौजी वापस चला जाता है, मोर्चे पर जाने के लिए, और उर्मिला के लिए ढेर सारी स्मृतियां छोड़ जाता है।

कहानी ‘पाथेय’ फलैशबेक में लिखी एक पूर्व राजकुमार की कथा है जो प्यार कहीं और करता है पर उसका ब्याह कहीं और होता है, उसकी पत्नी शरीर सुख तो प्राप्त करती है, पर रहती परित्यक्ता और वैरागी की तरह ही है। पुत्री के जन्म के बाद घुलती हुई वह एक दिन खत्म हो जाती है और पति अपनी प्रौढ़ प्रेमिका से मिलता है जो उसे शारीरिक दूरी बनाए रखने का परामर्श देकर जुदा हो जाती है और नायक को दिल का दौरा पड़ जाता है। कालयात्रा और सत्य पुरूष इस संग्रह की अंतिम कथाएं हैं जिनमें कालयात्रा में एक पुराण प्रसंग है इन्द्र से दधीचि द्वारा मधुविद्याा सीखने तथा उसे अष्विनी कुमारों (देवताओं के वैद्य) को सिखाने का वर्णन है। अष्विनी कुमारों की शल्य क्रिया विशेषज्ञता का भी इसमें उल्लेख है और यह सब घटना देख रही कथा वक्ता भी वर्तमान काल में मौजूद रहती हुई इस कथा से संपृक्त होती है।

कथानक के तौर पर संग्रह की शीर्षक कथा पीछा करने वाली आवाज और पाथेय ही इस लायक ठहरती है कि जिनके भीतर से कहानी पैदा होती दिख रही हैं। बाकी सभी कहानियां उस प्रमुख तत्व से रिक्त ही कही जाएगी जो घटना की कहानी बनाता है। यद्यपि रोचकता तो लगभग हर रचना में हैं, पर कहानी की वर्तमान जरूरी कथनीयता शेष रचनाओं में नहीं है। नारी पात्रों के अंतद्र्वंद्व इन कथाओं में खूब-खूब आए हैं पर वे शास्त्रीय या वैज्ञानिकों रूप से स्तरीय चिंतन नहीं कहे जा सकते, नारी विमर्श के इस युग में इस संग्रह की कथा पीछा करने.......की उर्मिला , पाथेय की उर्वशी विरासत की बूढ़ी माँ ऐसी नारियों है जो तमाम अंतद्र्वंद्वों के बाद भी ऐसे निर्णय लेती है। जों उनके निजी निर्णय और इनमें पुरूष का कोई हस्तक्षेप नहीं है, स्त्री को अपने शरीर के बारे में , सम्बन्धों के बारे में जिन्दगी के बारे में निर्णय की स्वतंत्रता हो, यही तो असली नारी स्वतंत्रता या स्त्री स्वातंत्र्य है। भाषा की दृष्टि से इन कहानियों का स्वरूप बड़ा कच्चा सा लगता है, यद्यपि आम जिंदगी में प्रचलित भाषा इन कथाओं में मौजूद है पर मुहावरों के गलत प्रयोग, शब्दों के भ्रमित उद्वरण पाठक को खटक सकते हैं, मात्र एक-दो कहानियों से उदाहरण इसके लिए पर्याप्त होंगे। सैलाव में पृष्ठ 6 पर ‘शोभा अघा उठी थी, एक साथ इतना कुछ मिल गया था उसे ’ वाक्य में जिंदगी भर से तरसते व्यक्ति को अचानक सब कुछ मिल जाना अघाता नहीं है, बल्कि निहाल कर देता है, जैसा तथ्य लेखिका को स्मरण नहीं रह पाया है । इसी तरह इस घर की जिम्मेदारियां आने पर पृष्ठ 7 में जो उपमा निराशाजनक तरीके से लेखिका ने दी है वह उचित नहीं कही जा सकती, किसी अंधेरी, भयानक रात में तूफानी हवाओं से जैसे किसी छाती पर घर की दीवार गिर जाए, कुछ इसी तरह पूरे घर का दायित्व शोभा पर आ पड़ा था, बच्चे के जन्म के बाद घर में आए नए जीवंत खिलौने को लेखिका शिव के हाथ में ड़मरू की तरह आने की उपमा देती है, तो बच्चे के रोने को त्रिकाल बेधी गूंज बताती है। पृष्ठ 9 इसी कहानी के पृष्ठ 16 पर इतना पढ़ा-लिखा सब बेकार यहां तो छीलने के लिए घास भी नहीं हैं। जैसा वाक्य यह अर्थ देता प्रतीत होता है कि पढ़े-लिखे बस घास छीलते है। इसी तरह ख्याली पुलाव को ख्याली पुए पृष्ठ 17 कड़ाके की गर्मी पृष्ठ 19 सर्दी के साथ कड़ाके शब्द का प्रयोग होता है न कि गर्मी के लिए। कुमकुम हिंड़ोले पृष्ठ 18 जैसे वाक्यांश यथा स्थान उपयुक्त नहीं लगते हैं, थैले में शाक सब्जियां मुख खोले मूक निमत्रंण देकर 25 नम्बर पृष्ठ से ऐसा लगता है कि संब्जिया पुरानी और बासी हैं, जो फट चुकी हैं, इसी तरह विरासत में शब्द आदन पृष्ठ 30 पाथेय में आग की तरह धुंआ फेंक रहा है। पृष्ठ 81 आदि शब्द शुद्ध व सही नहीं कहे जा सकते।

जहां तक शिल्प और रचना कौशल की बात है इस संग्रह की कहानियां अत्यन्त कमजोर है, सैलाब कहानी में तमाम मुद्दे अनुत्तरित हैं, कथा योजना में क्रमबद्धता नहीं हैं, जैसे तेरह साल की शोभा के साथ (जिसे की माहवारी आरम्भ भी नहीं हुई है) कन्हैया का देह संसर्ग बिना तकलीफ के होना फिर शादी के तीन महीने बाद ही गर्भवती हो जाना पृष्ठ 9 कैसे सम्भव है, जबकि शोभा के माहवारी भी नहीं होती, यह तथ्य चिकित्सा व शरीर विज्ञाान की दृष्टि से गलत हैं, पहले शोंभा को आठवें पास बताना पृष्ठ 2 बाद में उसे दसवीं पास दिखाना पृष्ठ 17 क्रमहीनता, योजनाहीनता ही प्रकट करता है, शुरूआत में कन्हैया को खानदानी रईस दिखाना व बर्तनों के व्यापारी के रूप में बर्तन भरी हुई हवेली दिखाना तथा बाद में कर्महीन, आलसी, कुव्यसनी, बेरोजगार, फांकामस्त दिखाना भी इस कथा में दोहरी-विपरीत स्थितियां प्रकट करता है, इसी तरह शोभा का अपने बच्चें को पड़ोसिन के यहां छोड़ना कभी अपनापन कभी चार पैसे के लिए लिखना भ्रम पैदा करता है। कन्हैया बाहर जाकर क्या करता है, कहां से पैसे कमाता है, यह अंत तक स्पष्ट नहीं होता, इसी तरह पाथेय में जहां एक बार सुहागरात पूरे उत्साह से मनाई जाती हैै वहीं इसी क्षण वो याद करते हुए नायक अनुत्साह से मनाई जाना याद करता है, इसी कथा में पृष्ठ 88 पर नायक शयन कक्ष में सोने की रस्म अदायगी के लिए “जाना याद करता है, तो इसी पृष्ठ की अंतिम पंक्तियों में “ लक्ष्मी के जिस्म से हर रात खेलना मुझे थोड़ा सुकून देता था, इसलिए खेल लिया करता था। लिखना फिर भ्रम में ड़ालता है, इस तरह ये सब कहानियां बड़ी कलात्मक और दूर जाने वाली रचनाएं नहीं कहीं जा सकती, बल्कि वे सत्य घटनाएं जो लेखिका को जीवन के इर्द-गिर्द कहीं दिखीं उन पर भाषा का पुतला सा मुलम्मा चढ़ा कर प्रस्तुत की गई रचनाएं ही दिखती हैं, संग्रह की दो कथाएं पीछा करने....... व पाथेय यह सिद्व करती हैं, कि लेखिका में श्रेष्ठ, अच्छी और उद्देष्य पूर्ण व प्रभावशाली कहानियां लिखने का सामथर्य मौजूद है।

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