चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 35 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 35

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

35

मेरा खुद का कैमरा सेट-अप इस तरह का होता है कि वह अभिनेता के चलने फिरने, मूवमेंट के लिए संगीत रचना का-सा काम करे। जब कोई कैमरा ज़मीन पर रखा जाता है या कलाकार की नासिका दिखाता लगता है तो ये कैमरा ही होता है जिसका अभिनय हम देख रहे होते हैं न कि कलाकार का। कैमरे को बाधक नहीं बनना चाहिये।

फिल्मों में समय बचाना अभी भी मूल विशेषता है। आइंस्टीन और ग्रिफिथ, दोनों ही इसे जानते थे। चुस्त संपादन और एक दृश्य का दूसरे दृश्य में घुल कर मिल जाना फिल्म तकनीक का गतिविज्ञान हैं।

मुझे हैरानी होती है जब कुछ समालोचक कहते हैं कि मेरी कैमरा तकनीक बाबा आदम के ज़माने की है और कि मैं वक्त के साथ-साथ नहीं चला हूं। कौन से वक्त? मेरी तकनीक मेरे खुद के लिए, अपने तर्क के लिए और ऩज़रिये के लिए सोचने का नतीजा है; दूसरे जो कुछ कर रहे हैं, ये उनसे उधार ही हुई चीज नहीं है। यदि कला में आदमी को समय के साथ-साथ ही चलना हो तो रेम्ब्रां, वॉन गॉग की तुलना में बहुत पिछड़े हुए माने जायेंगे।

फिल्मों के विषय पर बात करते हुए यहां पर संक्षेप में कुछ टिप्पणियां उन लोगों के लिए फायदेमंद हो सकती हैं जो सुपर-डुपर फिल्म बनाने के लिए जोड़-तोड़ कर रहे हैं। सच कहा जाये तो ऐसी फिल्म बना लेना सबसे आसान होता है। इसमें अभिनय या निर्देशन में कल्पना शक्ति या प्रतिभा की बहुत कम ज़रूरत होती है। इसके लिए तो बस, आदमी को एक करोड़ डॉलर, बहुत ज्यादा भीड़, कॉस्‍ट्यूम, बहुत बड़े-बड़े सेट, और सीनरी की ज़रूरत होती है। गोंद और कैन्वास के कमाल के ज़रिये आदमी निढाल क्लोपेट्रा को नील नदी पर तैरा सकता है, बीस हज़ार एक्स्ट्रा लोगों की फौज से लाल सागर में परेड करवा सकता है या जेरिको महल की दीवारों को हवा में उड़ा सकता है। ये सब और कुछ नहीं, बस, इमारतों का काम करने वाले ठेकेदारों का हुनर ही होगा। और फील्ड मार्शल तो अपनी निर्देशक वाली कुर्सी पर पटकथा और टेबल तालिका लिये बैठा होगा, ड्रिल सार्जेंटों की उसकी फौज पसीना बहाती, और लैंडस्केप पर भुनभुनाती, अपनी टुकड़ियों पर आदेश पर आदेश दे रही होगी। एक सीटी का मतलब दस हज़ार बायीं तरफ से, दो सीटियों का मतलब दस हज़ार दायीं तरफ से, और तीन सीटियों का मतलब सब के सब आगे बढ़ें।

इनमें से अधिकांश विशालकाय फिल्मों की थीम आम तौर पर सुपरमैन ही होती है। नायक जो है, फिल्म में किसी से भी लम्बी छलांग मार सकता है, किसी से भी ज्यादा ऊपर कूद सकता है, किसी से भी ज्यादा दूर तक गोली चला सकता है, लड़ाई में किसी को भी हरा सकता है, और किसी से भी ज्यादा प्यार कर सकता है। सच तो ये है कि इन तरीकों से कोई भी मानवीय समस्या सुलझायी जा सकती है, सिवाय सोचने के।

संक्षेप में कुछ बातें निर्देशन के बारे में भी। किसी दृश्य में अभिनेताओं से काम लेने में मनोविज्ञान बहुत मदद करता है। उदाहरण के लिए, ऐसी स्थिति आ सकती है कि कोई कलाकार किसी कम्पनी में फिल्म निर्माण के उस स्तर पर शामिल हुआ हो, जब फिल्म आधी बन चुकी हो। बेहतरीन कलाकार होने के बावजूद वह अपने नये माहौल में शुरू में नर्वस हो सकता है। यही वह बिन्दु है जहां पर निर्देशक की मानवीयता बहुत मददगार साबित हो सकती है, जैसा कि मैंने ऐसी परिस्थितियों में अक्सर पाया है। यह जानते हुए भी कि मैं क्या चाहता हूं, मैं उस नये सदस्य को एक किनारे ले जाऊंगा और उसे विश्वास में लेते हुए कहूंगा कि ये सोच-सोच कर थक गया हूं, परेशान हूं और समझ नहीं पा रहा हूं कि इस सीन को कैसे करूं। जल्द ही वह अपनी हड़बड़ाहट भूल जायेगा और मेरी मदद करने की कोशिश करेगा और आप पायेंगे कि मैं उससे बेहतरीन काम करवा पाया।

नाटककार मार्क कोनेली ने एक बार ये प्रश्न पूछा था: थियेटर के लिए लिखते समय लेखक का नज़रिया क्या होना चाहिये। क्या ये बौद्धिक हो या फिर भावुक। मैं व्यक्तिगत रूप से सोचता हूं कि नज़रिया मूलत: तो भावुक ही होना चाहिये क्योंकि थियेटर में बौद्धिकता के बजाये रोचकता ज्यादा होती है। थियेटर बना ही इसके लिए होता है। उसका मंच, उसकी यवनिका और उसके लाल परदे, उसका समस्त वास्तुकला का ढांचा, ये सारी बातें भावनाओं को ध्यान में रख कर ही तैयार की जाती हैं। ये स्वाभाविक है कि इनमें बौद्धिकता की हिस्सेदारी रहती है लेकिन ये गौण होती है। चेखव इस बात को जानते थे और मोलियर और अन्य कई नाटककार भी इस बात से वाकिफ थे। वे थियेटरवाद की महत्ता को भी जानते थे जो कि मूलत: नाटक लेखन में कला के रूप में होती है।

मेरे लिए थियेटर कला का अर्थ है ड्रामाई परिपूर्णता। अचानक बोलते हुए रुक जाने की कला; किसी किताब को अचानक बंद कर देना, सिगरेट जलाना, स्टेज के बाहर की गतिविधियां, पिस्तौल से गोली चलना, रोना, गिरना, टकराना, प्रभावशाली ढंग से प्रवेश करना या प्रभावशाली ढंग से स्टेज से जाना, ये सारी बातें सस्ती और स्पष्ट लग सकती हैं लेकिन अगर इनका निर्वाह संवेदनाशीलता और विवेक के साथ किया जाये तो ये थियेटर की कविता बन सकती हैं।

थियेटर के भाव के बिना कोई भी विचार कोई भी मूल्य नहीं रखता। ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है प्रभावशाली होना। अगर व्यक्ति में थियेटर की समझ है और उसका भाव उपयोग में लाने की क्षमता है तो वह शून्य को भी प्रभावशाली बना सकता है।

प्रस्तावना या प्रोलॉग के माध्यम से मैं जो कहना चाह रहा हूं उसका एक उदाहरण देता हूं जो मैंने न्यू यार्क में अपनी फिल्म अ वूमेन ऑफ पेरिस में एक डाला था। उस दिनों सभी फिल्मों में प्रस्तावना अनिवार्य रूप से हुआ करती थी और लगभग आधा घंटे तक चलती रहती थी। मेरे पास कोई कहानी या पटकथा नहीं थी लेकिन मुझे एक भावुक कर देने वाले रंगीन प्रिंट की याद थी जिसका शीर्षक था,"बीथोवन का सोनाटा" जिसमें एक कलात्मक स्टूडियो और बोहेमियन लोगों का एक समूह दिखाया गया था जो मूड में अध रौशनी में बैठे हुए हैं और वायलिन वादक को बजाते हुए सुन रहे हैं। इसलिए मैंने इस दृश्य को मंच पर प्रस्तुत कर दिया। और मज़े की बात, इसकी तैयारी के लिए मेरे पास सिर्फ दो ही दिन थे।

मैंने एक पिआनोवादक, एक वायलिनवादक, अपाशे जनजाति के नर्तक और एक गायक को लिया। और इसके बाद मैंने थियेटर की वे सभी तरकीबें आजमायीं जो मैं जानता था। मेहमान दीवानों पर चारों तरफ बैठे या फर्श पर इस तरह से बैठे कि उनकी पीठ दर्शकों की तरफ थी मानो वे दर्शकों की उपेक्षा कर रहे हों। वे स्कॉच पी रहे थे। जिस वक्त वायलिनवादक अपना सोनाटा बजा रहा था, एक शराबी सुरीले ठहराव के साथ खर्राटे भर रहा था। वायलिन वादक के बजा लेने के बाद अपाशे नर्तकों ने नृत्य किया और गायक ने गीत गाया। गीत की केवल दो ही पंक्तियां गायी गयीं।

एक मेहमान ने कहा,"तीन बज रहे हैं। अब हमें चलना चाहिये।" दूसरे ने कहा,"हां, अब हम सब को चलना चाहिये।" और ये शब्द बोलने का अभिनय करते हुए सब के सब चल दिये। जब अंतिम मेहमान भी चला गया तो मेज़बान ने एक सिगरेट जलायी और स्टूडियो की बत्तियां बंद करनी शुरू कीं। तभी हम बाहर गली में उसी गीत के बोल गाये जाते हुए सुनते हैं। जब मंच पर अंधेरा हो जाता है और बीच की खिड़की से आती चांदनी ही रह जाती है तो मेज़बान भी जाता है और गीत के बोल धीमे होते चले जाते हैं। परदा धीरे धीरे नीचे आता है।

इस वाहियात से लगने वाले दृश्य में इतना सन्नाटा था कि आप दर्शकों के बीच सुई गिरने की आवाज़ भी सुन सकते थे। आधे घंटे तक कुछ भी नहीं कहा गया था, कुछ भी नहीं, सिर्फ कुछ सामान्य से लगने वाले मज़ाकिया अभिनय मंच पर किये गये थे। लेकिन आप यकीन करेंगे कि कलाकारों को पहली ही रात दर्शकों की मांग पर नौ बार परदा हटा कर इस दृश्य को करना पड़ा था।

मैं इस बात का दिखावा नहीं कर सकता कि मैं थियेटर में शेक्सपीयर का आनंद लेता हूं। मेरी भावनाएंं बहुत ज्यादा समकालिक हैं। इसके लिए एक खास तरह के आडम्बरपूर्ण अभिनय की ज़रूरत होती है जिसे मैं पसंद नहीं करता और जिसमें मेरी रुचि नहीं है। मुझे लगता है कि मैं किसी विद्वान का भाषण सुन रहा हूं।

मेरे प्यारे चंचल परी बच्चे, आओ मेरे पास

जब से मैं बैठा था एक उतुंग शिखर पर

और सुनी थी मत्स्य कन्या की आवाज़

बैठी थी वह पीठ पर डॉल्फिन की

बोलती थी इतने मीठे बोल और लेती थी संगीतमय सांसें

हो गया अक्खड़ समन्दर भी सभ्य गीत सुन कर उसका

और कई तारे गिर गये अपने नीड़ों से

सुनने को सागर कन्या का अद्भुत संगीत।

हो सकता है कि ये बेहद सुंदर पंक्तियां हों लेकिन मैं थियेटर में इस तरह की कविता का आनंद नहीं ले पाता। इसके अलावा, मुझे शेक्सपीयर की थीम ही अच्छी नहीं लगती जिसमें राजे, रानियां, महान व्यक्ति, और उनके सम्मान जनक पद होते हैं। शायद मेरे ही भीतर कोई मनोवैज्ञानिक समस्या होगी। शायद मेरा अजीब सा अहंवाद। अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में सम्मान जैसी बातें मेरे भेजे में कभी आ ही नहीं पायीं। मैं खुद को किसी राजकुमार की समस्याओं के साथ खड़ा हुआ नहीं पाता। हो सकता है कि हैमलेट की मां राज दरबार में हरेक के साथ सोयी हो, लेकिन फिर भी मैं अपने आपको हैमलेट को होने वाली तकलीफ में नि:संग ही पाता हूं। जहां तक किसी नाटक को प्रस्तुत करने में मेरी पसंद का सवाल है, मैं परम्परागत मंच ही पसंद करता हूं। उसमें यवनिका हो जो दर्शकों को झूठ मूठ की दुनिया से अलग करती है। मैं इस बात का कायल हूं कि परदे के हटने से या ऊपर उठने से ही दृश्य अपने आपको खोले। मैं ऐसे नाटकों को नापसंद करता हूं जो मंच के आगे लगी बत्तियों, फुट लाइट तक चले आते हैं या दर्शकों के साथ हिस्सेदारी करने लगते हैं। जिसमें कोई चरित्र यवनिका के साथ टिक कर खड़ा हो जाता है और नाटक का प्लॉट समझाने लगता है। ये उपदेशात्मक तो लगता ही है, इस तरह की तिकड़मों से थियेटर का आकर्षण चला जाता है। ये तरीका अपने आपको ज़रूरत से ज्यादा दिखाने, एक्पोज़र पाने का बाबा आदम का तरीका है।

जहां तक मंच सज्जा का प्रश्न है, मैं ऐसी सज्जा का कायल हूं जो दृश्य को वास्तविकता दे और कुछ नहीं। अगर ये दिन प्रतिदिन का जीवन दर्शाने वाला कोई आधुनिक नाटक है तो मुझे ज्यामितीय डिजाइन वाले मंच की ज़रूरत नहीं होती। इस तरह के अचरज भरे प्रभाव मेरे झूठ की भावना को ठेस पहुंचाते हैं।

कुछ बहुत ही शानदार कलाकारों ने अपने सजीव प्रवाह को अभिनेता और नाटक, दोनों को ही धराशायी कर देने तक के स्तर तक हावी होने दिया है। दूसरी तरफ, केवल परदे और यहां से वहां की चहल कदमी, मानो अनंत की यात्रा की जा रही हो, भी बेहद खराब अवरोधक होते हैं। वे विद्वता और शोर की बू ही सामने रखते हैं। "हम बहुत कुछ अभिजात्य संवेदनशीलता और कल्पना पर छोड़ देते हैं।" मैंने एक बार लॉरेंस ऑलिवर को शाम की पोशाक में एक लाभार्थ आयोजन में रिचर्ड III में से अंश पढ़ते हुए देखा। हालांकि वे अपनी अभिनय कला की बदौलत मध्यकालिक मूड हासिल कर पाये लेकिन उनकी सफेद टाई और कोट के पीछे लटकता हिस्सा उनकी चुगली खा रहे थे।

किसी ने कहा है कि अभिनय कला आराम करने की, रिलैक्स करने की कला है। बेशक ये मूल सिद्धांत सभी कलाओं पर लागू किया जा सकता है, लेकिन एक अभिनेता में अनिवार्य रूप से अपने आपको रोकने की ताकत और भीतरी संतोष का भाव होना चाहिये। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दृश्य कितना आवेश भरा है, अभिनेता के भीतर जो तकनीक का जानकार मौजूद रहता है, वह शांत और आराम की मुद्रा में होना चाहिये। वह उसकी भावनाओं के उतार चढ़ाव को संपादित करता चले और उन्हें दिशा देता चले। उसका बाहरी व्यक्तित्व उत्तेजित हो लेकिन भीतरी तौर पर वह नियंत्रण में बना रहे। केवल आराम से रह कर, तनाव मुक्त रह कर ही अभिनेता इसे हासिल कर सकते हैं। लेकिन व्यक्ति आराम से, तनाव मुक्त रहता कैसे है, ये मुश्किल काम होता है। मेरा खुद का तरीका थोड़ा व्यक्तिगत है। मंच पर जाने से पहले मैं हमेशा बहुत अधिक नर्वस और उत्तेजित होता हूं और इसी हालत में मैं इतना थक कर चूर हो जाता हूं कि जिस वक्त मंच पर जाने का वक्त आता है, मैं तनावमुक्त हो चुका होता हूं।

मैं इस बात को नहीं मानता कि अभिनय सिखाया जा सकता है। मैंने देखा है कि बहुत होशियार आदमी इसमें कोई तीर नहीं मार पाते और एकदम भोंदू भी बहुत अच्छा अभिनय कर लेते हैं। लेकिन अभिनय के लिए अनिवार्य रूप से भावनाओं की ज़रूरत होती है। वेनराइट, जो कि सौन्दर्यशास्त्र के विद्वान थे, चार्ल्स लैम्ब और उस वक्त के साहित्यकारों के मित्र थे, एक बेरहम शख्स थे और उन्होंने आर्थिक कारणों से अपने चचेरे भाई को ज़हर दे कर दिन दहाड़े मार दिया था। यहां एक ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति का उदाहरण है जो एक अच्छा अभिनेता नहीं हो सकता था क्योंकि उसमें भावनाएं ही नहीं थीं।

बहुत सारी बुद्धिमता और न के बराबर भावनाएं किसी शातिर अपराधी की विशेषताएंं हो सकती हैं, और ढेर सारी भावनाएं तथा जरा सी बुद्धि का मतलब होता है नुक्सान न पहुंचाने वाला मूरख। लेकिन जब बुद्धिमानी और भावनाओं का सही अनुपात में संतुलन होता है तो हमें एक उत्कृष्ट अभिनेता के दर्शन होते हैं।

किसी महान अभिनेता का मूल अनिवार्य तत्व यह होता है कि वह अभिनय करते समय स्वयं को प्यार करे। मैं इसे अपमानजनक तरीके से नहीं कह रहा हूं। कई बार मैंने अभिनेताओं को ये कहते सुना है,"मुझे ये भूमिका करना कितना अच्छा लगता!" इसका मतलब यही हुआ न कि वह अपने आपको उस भूमिका में कितना पसंद करता। ये बात अहंकेन्द्रित हो सकती है लेकिन महान अभिनेता मुख्य रूप से अपनी खुद की नेकी से ही घिरा होता है। द बैल्स में इर्विंग, सेवांगाली के रूप में ट्री, ए सिगरेट मेकर्स रोमांस में मार्टिन हार्वे, ये तीनों बेहद साधारण नाटक थे लेकिन बहुत अच्छी भूमिकाएंं थीं। थियेटर से पागलपन की हद तक प्यार करना ही काफी नहीं होता। अपने आप के प्रति प्यार और अपने आप पर भरोसा भी उतना ही ज़रूरी होते हैं।

अभिनय को पाठ की तरह सिखाने वाले सम्प्रदाय के बारे में मैं बहुत कम जानता हूं। मैं यह समझता हूं कि ये व्यक्तित्व के विकास की ओर ध्यान देता है। ये कुछ अभिनेताओं में अलग अलग भी हो सकता है और इसे बहुत कम विकसित किया जा सकता है। आखिर अभिनय क्या होता है? यही जतलाना न कि हम दूसरे व्यक्ति हैं। व्यक्तित्व एक ऐसा अपरिभाषेय तत्व है जो किसी भी तरह से प्रदर्शन से निखरता ही है। लेकिन कुछ ऐसी बात होती है जो सभी विधियों में होती है। उदाहरण के लिए, स्तानिस्लावस्की 'भीतरी सत्य' की तलाश पर ज़ोर देते थे जो कि मेरे ख्याल से होता है वह "होना" न कि "उसका अभिनय" करना। इसके लिए अनुभूति की, चीजों के लिए भावना की आवश्यकता होती है। व्यक्ति में ये महसूस करने की क्षमता होनी ही चाहिये कि शेर होना या गिद्ध होना कैसा होता है। ये किसी चरित्र की आत्मा को भीतर से महसूस करना, सभी परिस्थितियों में यह जानना कि उसकी प्रतिक्रियाएंं क्या होंगी, होता है। अभिनय के इस हिस्से को सिखाया नहीं जा सकता।

किसी सच्चे अभिनेता या अभिनेत्री को किसी चरित्र के बारे में बताते हुए अक्सर एक शब्द या जुमला कहा जाता है, ये फलां ऐतिहासिक व्यक्ति की तरह है या ये आधुनिक मादाम बोवेरी है। ये कहा जाता है कि जेड हैरिस ने किसी अभिनेत्री से कह दिया था,"इस चरित्र में लहराते ब्लैक ट्यूलिप फूल की सी चपलता है।" ये कुछ ज्यादा ही हो गया।

ये सिद्धांत कि व्यक्ति को चरित्र की जीवन कहानी का अवश्य ही पता होना चाहिये, बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है। कोई भी व्यक्ति न तो किसी नाटक में ऐसा लिख ही सकता है और न ही उन शानदार अर्थ छवियों को अभिनीत ही कर सकता है जो ड्यूस ने अपने दर्शकों के सामने प्रस्तुत कीं। वे सब कुछ लेखक की संकल्पना से मीलों दूर रहे होंगे। और जहां तक मैं समझता हूं कि ड्यूस बौद्धिक वर्ग से नहीं थे।

मैं नाटक सिखाने वाले ऐसे स्कूलों से नफ़रत करता हूं जो सही संवेदनाएं जगाने के लिए वाचिक आलोचना और स्व मूल्यांकन में व्यस्त हो जाते हैं। ये सीधा सादा तथ्य कि किसी विद्यार्थी का अनिवार्य रूप से मानसिक आपरेशन किया जाये, अपने आप में इस बात का सबूत है कि उसे अभिनय छोड़ देना चाहिये।

जहां तक बहु चर्चित तत्वमिमांसा संबंधी शब्द "सत्य" का प्रश्न है, इसके अलग अलग रूप हैं और एक सत्य उतना ही अच्छा होता है जितना दूसरी तरह का सत्य होता है। फ्रैंच कॉमेडी में कोई परम्परागत अभिनय उतना ही विश्वसनीय होता है जितना इब्सन के किसी नाटक में तथाकथित यथार्थवादी अभिनय। दोनों ही कृत्रिमता के दायरे में आते हैं और दोनों का ही प्रयोजन सत्य का आभास कराना है। आखिरकार सत्य कैसा भी हो, उसमें असत्यता के बीज होते ही हैं।

मैंने कभी भी अभिनय का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लड़कपन में ये मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे कई महान अभिनेताओं के युग में रहने का मौका मिला और मैंने उनके ज्ञान और अनुभव के विस्तार को हासिल किया। हालांकि मुझे अभिनय ईश्वरीय देन की तरह मिला है, रिहर्सलों में मैं ये देख कर हैरान होता था कि मुझे तकनीक के बारे में कितना कुछ सीखने की ज़रूरत है। ऐसे शुरुआती अभिनेता, जिसके पास मेधा हो, को भी तकनीकें पढ़ायी जानी चाहिये क्योंकि भले ही कितनी ही महान उसमें ईश्वरीय देन हो, उसमें ये कौशल होना ही चाहिये कि उन्हें किस तरह से प्रभावशाली बनाये।

मैंने पाया है कि दिशा-बोध, ओरिएन्टेशन इस कला को हासिल करने का सबसे महत्त्वपूर्ण तरीका है। इसका मतलब ये हुआ कि जितनी देर के लिए भी आप मंच पर हैं, ये जानना कि आप कहां हैं और आप क्या कर रहे हैं। किसी दृश्य में चलते समय आप में ये जानने का अधिकार होना ही चाहिये कि कहां रुकना है, कब मुड़ना है, कहां खड़ा होना है, कब और कहां बैठना है, किस चरित्र से सीधे बात करनी है या परोक्ष रूप से। दिशा-बोध से आपको ताकत मिलती है और इसके साथ किसी व्यावसायिक और शौकिया अभिनेता में फर्क किया जा सकता है। मैंने अपनी फिल्मों का निर्देशन करते समय अपने कलाकारों के साथ हमेशा दिशा बोध के इसी तरीके पर ज़ोर दिया है।

अभिनय करते समय मैं बारीकी तथा अपने आपको रोकना, आत्म नियंत्रण पसंद करता हूं। बेशक जॉन ड्रियू में ये खासियत थी। वे सुदर्शन थे, मज़ाकिया थे, परिष्कृत थे और उनमें गज़ब का आकर्षण था। भावुक होना आसान होता है और इस बात की हरेक अभिनेता से उम्मीद की जाती है, और निश्चित ही, उच्चारण और आवाज़ तो ज़रूरी होते ही हैं। हालांकि डेविड वारफील्ड शानदार आवाज़ के मालिक थे, और उनमें भावनाओं को अभिव्यक्त करने की योग्यता थी, फिर भी सामने वाले को लगता था कि जो भी वे कहते थे, उनके अंतिम आदेशों की तरह होते थे।

मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि अमेरिकी मंच पर मेरे प्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियां कौन थे। इस प्रश्न का उत्तर देना ज़रा मुश्किल है। क्योंकि अपनी पसंद गिनाने का मतलब ये हुआ कि बाकी लोग कमतर थे। जबकि ऐसी बात नहीं है। मेरे प्रिय अभिनेताओं में सभी के सभी गम्भीर लोग नहीं थे। उसमें से कुछ कॉमेडियन थे और कुछ तो मनोरंजन करने वाले, इंटरटेनर भी थे।

मिसाल के तौर पर, अल जॉन, जादू और जोश लिये महान जन्मजात कलाकार थे। वे अमेरिकी मंच पर सर्वाधिक प्रभावशाली मनोरंजन करने वाले माने जाते थे। उनका चेहरा चारणों की तरह सांवला था और वे भारी आवाज में मध्यम सुर में गाते थे। वे जाने पहचाने चालू लतीफे सुनाते, और भावुक गीत गाते। वे जो भी गाते, वे आपको अपने स्तर के हिसाब से ऊपर या नीचे ले आते थे। यहां तक कि उनका वाहियात गाना मैम्मी सभी को रोमांचित कर जाता। फिल्मों में उनके स्व की, व्यक्तित्व की छाया मात्र ही आ पायी थी, लेकिन 1918 में वे अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे और श्रोताओं में बिजली सी भर देते। अपनी लचीली काया, बड़े से सिर और गहरी आंखों के साथ उनमें एक अजीब सी अपील थी। जब वे मेरे कंधे के पीछे है इंद्रधनुष (देयर इज़ रेन्बो राउंड माय शोल्डर) और मैं छोड़ता हूं जब अपने पीछे जग (व्हैन आय लीव द वर्ल्ड बिहाइंड) जैसे गाने गाते तो श्रोताओं को अपनी पवित्र ताकत से ऊपर उठा देते। उन्होंने ब्रॉडवे की कविता का, उसकी ऊर्जा का और उसकी अश्लीलता का, उसके लक्ष्यों का और उसके सपनों का मानवीकरण कर दिया था।