चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 7 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 7

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

7

और फिर, ब्रांसबाय विलियम्स, जो डिकेंस के पात्रों का अभिनय करते थे, वे उरिया हीप, बिल साइक्स और द' ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के बूढ़े आदमी की नकल से मुझे आनन्दित किया करते थे। इस खूबसूरत, अभिजात्य पुरुष का ग्लासगो की उजड्ड जनता के सामने अभिनय करना और अपने आप को इन शानदार चरित्रों में ढाल कर करतब दिखाना, थियेटर के नये ही अर्थ खोलता था।

उन्होंने साहित्य के प्रति भी मेरे मन में अनुराग जगाया था। मैं जानना चाहता था कि आखिर वह अबूझ रहस्य क्या है जो किताबों में छुपा रहता है, डिकेंस के ये ज़मीनी रंग के चरित्र जो इस तरह की आश्चर्यजनक क्रुक्शांकियाई दुनिया में विचरते हैं। हालांकि मैं मुश्किल से पढ़ पाता था, मैंने आखिरकार ऑलिवर ट्विस्ट की प्रति खरीदी।

मैं चार्ल्स डिकेंस के चरित्रों के साथ इतना ज्यादा रोमांचित था कि मैं उनकी नकल करने वाले ब्रांसबाय विलियम्स की नकल करता। इस बात से इनकार कैसे किया जा सकता है कि इस तरह की उभरती हुई प्रतिभा पर किसी की निगाह न जाती। इसे छुपा कर कैसे रखा जा सकता था। तो हुआ ये कि एक दिन मिस्टर जैक्सन ने मुझे अपने दोस्तों का द' ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के बूढ़े का चरित्र निभा कर उसकी नकल करते देख लिया। मुझे तब और तभी जीनियस मान लिया गया और मिस्टर जैक्सन ने तय कर लिया कि वे पूरी दुनिया से इस प्रतिभा का परिचय करवा के रहेंगे।

अचानक मौका आया मिडल्सबोरो में थियेटर में। हमारे क्लॉग नृत्य के बाद मिस्टर जैक्सन स्टेज पर कुछ इस तरह का भाव लिये हुए आये मानो वे एक नये मसीहा का परिचय कराने के लिए चले आ रहे हों। उन्होंने घोषणा की कि उन्होंने एक बाल प्रतिभा खोज निकाली है और द' ओल्ड क्यूरोसिटी शॉप के उस बूढ़े की ब्रांसबाय विलियम्स की नकल करके दिखायेगा जो अपने नन्हें नेल की मृत्यु को पहचान नहीं पाता।

दर्शक इसके लिए बहुत ज्यादा तैयार नहीं थे, क्योंकि वे पहले ही पूरी शाम का एक बोर मनोरंजन झेल चुके थे। अलबत्ता, मैं अपनी डांस वाली सामान्य पोशाक पहने हुए ही मंच पर आया। मैंने सफेद लीनन का फ्रॉक, लेस वाले कॉलर, चमकीले निक्कर, बॉकर पैंट, और नाचने के समय के लाल जूते पहले पहने हुए थे। और मैं अभिनय कर रहा था ऐसे बूढ़े का जो नब्बे बरस का हो। कहीं से हमें एक ऐसी पुरानी विग मिल गयी थी - शायद मिस्टर जैक्सन कहीं से लाये होंगे, जो वैसे तो बड़ी थी लेकिन जो मुझे पूरी नहीं आ रही थी हालांकि मेरा सिर बड़ा था लेकिन विग उससे भी बड़ी थी। ये एक गंजे आदमी वाली विग थी और उसके चारों तरफ सफेद लटें झूल रही थीं इसलिए मैं जब स्टेज पर एक बूढ़े आदमी की तरह झुका हुआ पहुंचा तो इसका असर घिसटते गुबरैले की तरह था और दर्शकों ने इस तथ्य को दबी हंसी के साथ स्वीकार किया।

इसके बाद तो उन्हें चुप कराना ही मुश्किल हो गया। मैं दबी हुई फुसफुसाहट में बोल रहा था," हश़ ... हश़ . . शोर मत करो, नहीं तो मेरा नेल जग जायेगा।"

"जोर से बोलो, जोर से बोल़ो" दर्शक चिल्लाये।

लेकिन मैं बहुत ही अनौपचारिक तरीके से उसी तरह से फुसफुसाहट के स्वर में ही बोलता रहा। मैं इतने अंतरंग तरीके से बोल रहा था कि दर्शक पैर पटकने लगे। चार्ल्स डिकेंस के चरित्रों को जीने के रूप में ये मेरे कैरियर का अंत था।

हालांकि हम किफायत से रहते थे लेकिन हम अष्टम लंकाशायर बाल गोपालों का जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। कभी कभी हम लोगों में छोटी-मोटी असहमति भी हो जाती। मुझे याद है, हम दो युवा एक्रोबैट्स के साथ एक ही प्रस्तुति में काम कर रहे थे। प्रशिक्षु लड़के मेरी ही उम्र के रहे होंगे। उन्होंने हमें विश्वास पूर्वक बताया कि उनकी मांओं को तो सात शिलिंग और छ: पेंस हफ्ते के मिलते हैं और हर सोमवार की सुबह उन्हें नाश्ते की बैकन और अंडे की प्लेट के नीचे एक शिलिंग की पाकेट मनी भी रखी मिलती है। और हमें तो, हमारे ही एक साथी ने शिकायत की,"हमें तो सिर्फ दो ही पेंस मिलते हैं और बेड जैम का नाश्ता मिलता है।"

जब मिस्टर जैक्सन के पुत्र जॉन ने ये सुना कि हम शिकायत कर रहे हैं तो वह रुआंसा हो गया और एकदम रो पड़ा। हमें बताने लगा कि हमें कई बार लंदन के उन उपगनरों में ऐसे भी सप्ताह गुज़ारने पड़ते हैं जब उसके पिता को पूरी मंडली के लिए मात्र सात पौंड ही मिल पाते हैं और वे किसी तरह गाड़ी खींचने में बहुत ही मुश्किल का सामना कर रहे हैं।

इन दोनों युवा एक्रोबैट्स की इस शानदार जीवन शैली का ही असर था कि हमने भी एक्रोबैट बनने की हसरतें पाल लीं। इसलिए कई बार सुबह के वक्त, जैसे ही थियेटर खुलता, हम में से एक या दो जन एक रस्सी के साथ कलाबाजियां खाने का अभ्यास करते। हम रस्सी को अपनी कमर से बांध लेते, जो एक पूली से जुड़ी होती, और हम में से एक लड़का रस्सी को थामे रहता। मैंने इस तरीके से अच्छी कलाबाजियां खाना सीख लिया था कि तभी मैं गिरा और अपने अंगूठे में मोच खा बैठा। इसी के साथ ही मेरे एक्रोबैट के कैरियर का अंत हुआ।

नृत्य के अलावा हमेशा हम लोगों की कोशिश होती कि अपने आइटम में नया कुछ जोड़ें। मैं एक कॉमेडी बाजीगर बनना चाहता था। और इसके लिए मैंने इतने पैसे बचा लिये थे कि मैंने उनसे चार रबर की गेंदें और टिन की चार प्लेटें खरीदीं। मैं अपने बिस्तर के पास खड़ा घंटों इनके साथ अभ्यास किया करता।

मिस्टर जैक्सन अनिवार्य रूप से एक बेहतरीन आदमी थे। मेरे ट्रुप छोड़ने से तीन महीने पहले उन्होंने मेरे पिता की सहायतार्थ एक आयोजन किया था और उसमें हम लोग शामिल हुए थे। मेरे पिता उन दिनों बहुत बीमार चल रहे थे। कई वैराइटी कलाकारों ने बिना कोई शुल्क लिये अपनी सेवाएं दीं। मिस्टर जैक्सन की अष्टम बाल गोपाल मंडली ने भी अपनी सेवाएंं दीं। उस सहायतार्थ आयोजन में मेरे पिता स्टेज पर मौज़ूद थे और वे बहुत मुश्किल से सांस ले पा रहे थे। बहुत तकलीफ़ से वे अपना भाषण दे पाये थे। मैं स्टेज पर एक तरफ खड़ा उन्हें देख रहा था। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि वे तिल-तिल मौत की तरफ बढ़ रहे थे।

जब हम लंदन में होते तो मैं हर सप्ताह मां से मिलने के लिए जाता। उसे लगता कि मैं पीला पड़ गया हूं और कमज़ोर हो गया हूं और कि नाचने से मेरे फेफड़ों पर असर हो रहा है। इस बात ने उसे इतना चिंतित कर दिया कि उसने इस बारे में मिस्टर जैक्सन को लिखा। मिस्टर जैक्सन इतने नाराज़ हुए कि आखिरकार उन्होंने मुझे घर का ही रास्ता दिखा दिया कि मैं चिंतातुर मां का लाडला इतनी बड़ी परेशानी के लायक नहीं हूं।

अलबत्ता, कुछ ही हफ्तों के बाद मुझे दमा हो गया। दमे के दौरे इतने तेज होते कि मां को पूरा यकीन हो गया कि मुझे टीबी हो गयी है और वह मुझे तुरंत ब्राम्पटन अस्पताल ले गयी। वहां मेरी अच्छी तरह से पूरी जांच की गयी। मेरे फेफड़ों में कोई भी खराबी नहीं थी, बस, मुझे अस्थमा हो गया था। महीनों तक मैं उसकी तकलीफ से गुज़रता रहा और मुझे सांस लेने में भी तकलीफ होती थी। कई बार तो मेरी खिड़की से बाहर कूद जाने की इच्छा होती। सिर पर कंबल डाले जड़ी-बूटियों की भाप लेने से भी मेरे सिर दर्द में कोई कमी न आती। लेकिन जैसा कि डॉक्टर ने कहा था, अंतत: मैं ठीक हो जाऊंगा, मैं ठीक हो ही गया।

इस दौरान की मेरी स्मृतियां स्पष्ट और धूमिल होती रहती हैं। सबसे उल्लेखनीय छवि तो हमारी दयनीय हालात का निचाट कछार है। मुझे याद नहीं पड़ता कि उन दिनों सिडनी कहां था। चूंकि वह मुझसे चार बरस बड़ा था, वह कभी-कभार ही मेरे चेतन में आता। ऐसा हो सकता है कि मां की तंग हालत के कारण वह नाना के पास रह रहा हो। हम अपना डोरा-डंडा उठाये एक गरीबखाने से दूसरे गरीबखाने की ओर कूच करते रहते। और अंतत: 3 पाउनाल टैरेस की दुछत्ती पर आ बसे थे।

मुझे अपनी गरीबी के सामाजिक कलंक का अच्छी तरह से भान था। गरीब से गरीब बच्चे भी रविवार की शाम को घर के बने डिनर का लुत्फ ले ही लिया करते थे। घर पर कोई भुनी हुई चीज़ का मतलब सम्मानजनक स्थिति हुआ करता था जो एक गरीब को दूसरे गरीब से अलग करती थी। वे लोग, जो रविवार की शाम घर पर डिनर के लिए नहीं बैठ पाते थे, उन्हें भिखमंगे वर्ग का माना जाता था और हम उसी वर्ग में आते थे। मां मुझे नजदीकी कॉफी शॉप से छ: पेनी का डिनर (मीट और दो सब्जियां) लेने के लिए भेजती। और सबसे ज्यादा शर्म की बात ये होती कि ये रविवार की शाम होती। मैं उसके आगे हाथ जोड़ता कि वह घर पर ही कोई चीज़ क्यों नहीं बना लेती और वह बेकार में ही यह समझाने की कोशिश करती कि घर पर ये ही चीजें बनाने में दुगुनी लागत आयेगी।

अलबत्ता, एक सौभाग्यशाली शुक्रवार को, जब उसने घुड़दौड़ में पांच शिलिंग जीते थे, मुझे खुश करने की नीयत से मां ने तय किया कि वह रविवार के दिन डिनर घर पर ही बनायेगी। दूसरी स्वादिष्ट चीजों के अलावा वह भूनने वाला मांस भी लायी जिसके बारे में वह तय नहीं कर पा रही थी कि ये गाय का मांस है या गुर्दे की चर्बी का लोंदा है। ये लगभग पांच पौंड का था और उस पर चिप्पी लगी हुई थी,"भूनने के लिए।"

हमारे पास क्योंकि ओवन नहीं था, इसलिए मां ने उसे भूनने के लिए मकान-मालकिन का ओवन इस्तेमाल किया और बार-बार उसकी रसोई के भीतर आने-जाने की जहमत से बचने के लिए अंदाज से उस मांस के लोंदे को भूनने के लिए ओवन का टाइम सेट कर दिया और उसके बाद ही वह रसोईघर में गयी। और हमारी बदकिस्मती से हुआ ये कि हमारा ये मांस का पिंड क्रिकेट की गेंद के आकार का ही रह गया था। इसके बावजूद, मां के इस दृढ़ निश्चय के बावजूद कि हमारा खाना बाहर के छ: पेंस के खाने से कम तकलीफदेह और ज्यादा स्वादिष्ट होता है, मैंने उस भोजन का भरपूर आनंद लिया और यह महसूस किया कि हम भी किसी से कम नहीं।

हमारे जीवन में अचानक एक परिवर्तन आया। मां अपनी एक पुरानी सहेली से मिली जो बहुत समृद्ध पहुंचेली चीज़ बन गयी थी, खूबसूरत हो गयी थी और चलती-पुरजी टाइप की महिला बन गयी थी। उसने एक अमीर बूढ़े कर्नल की मिस्ट्रैस बनने के लिए स्टेज को अलविदा कह दी थी।

वह स्टॉकवेल के फैशनपरस्त जिले में रहा करती थी और मां से फिर से मिलने के अपने उत्साह में उसने हमें आमंत्रित किया कि गर्मियों में हम उसके यहां आ कर रहें। चूंकि सिडनी गांवों की तरफ मस्ती मारने के लिए गया हुआ था इसलिए मां को मनाने में ज़रा भी तकलीफ नहीं हुई और उसने अपनी सुई और कसीदेकारी के हुनर से अपने-आपको काफी ढंग का बना लिया था और मैंने अपना संडे सूट पहन लिया। यह अष्टम बाल मंडली का अवशेष था और इस मौके के हिसाब से ठीक-ठाक लग रहा था।

और इस तरह रातों-रात हम लैंसडाउन स्क्वायर में कोने वाले एक बहुत ही शांत मकान में पहुंचा दिये गये। ये घर नौकरों-चाकरों से भरा हुआ था। वहां गुलाबी और नीले बैडरूम थे, छींट के परदे थे और सफेद भालू के बालों के नमदे थे। मुझे कितनी अच्छी तरह से याद हैं डाइनिंग रूम के साइड बोर्ड को सजाने वाले बड़े नीले हॉटहाउस ग्रेप्स की और मुझे यह बात कितनी लज्जा से भर देती जब मैं देखता कि वे रहस्यमय तरीके से गायब होते चले जा रहे हैं और हर दिन बीतने के साथ उनके ढांचे भर नज़र आने लगे थे।

घर के भीतर काम करने के लिए चार औरतें थीं। रसोईदारिन और तीन नौकरानियां। मां और मेरे अलावा वहां पर एक और मेहमान थे। बहुत तनावग्रस्त, एक सुदर्शन युवक जिनकी कुतरी हुई लाल मूंछें थीं। वे बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे और बहुत सज्जन थे। वे उस घर में स्थायी सामान की तरह थे लेकिन सफेद मूंछों वाले कर्नल महाशय के नज़र आने तक ही। उनके आते ही वह खूबसूरत नौजवान गायब हो जाता।

कर्नल महोदय का आना कभी-कभार ही होता। हफ्ते में दो-एक बार। जब वे वहां होते तो पूरे घर में एक रहस्य का आवरण तना रहता और उनकी मौजूदगी हर जगह महसूस की जाती। और मां मुझे बताती कि उनके सामने न पड़ा करूं और उन्हें नज़र न आऊं। एक दिन मैं ठीक उसी वक्त हॉल में जा पहुंचा जब वे सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे।

वे लम्बे, भव्य, राजसी ठाठ-बाठ वाले व्यक्ति थे और उन्होंने फ्रॉक कोट और टॉप हैट पहने हुए थे। उनका चेहरा गुलाबी था। लम्बी सफेद कलमें चेहरे पर दोनों तरफ काफी नीचे तक थीं और सिर गंजा था। वे मेरी तरफ देख कर शिष्टता से मुस्कुराये और अपने रास्ते चले गये।

मैं समझ नहीं पाया कि उनके आने के पीछे ये सब क्या हंगामा था और उनके आते ही क्यों अफरा-तफरी मच जाती थी लेकिन वे कभी भी बहुत अधिक अरसे तक नहीं रहे और कुतरी मूंछों वाला नौजवान जल्दी ही लौट आता और सब कुछ पहले की तरह सामान्य ढंग से चलने लगता।

मैं कुतरी हुई मूंछों वाले नौजवान का मुरीद हो गया। हम दोनों क्लाफाम कॉमन तक लम्बी सैर पर जाते और हमारे साथ मालकिन के दो खूबसूरत ग्रेहाउंड कुत्ते होते। उन दिनों क्लाफाम कॉमन का माहौल बेहद खूबसूरत हुआ करता था। यहां तक कि कैमिस्ट की दुकान भी, जहां हम अक्सर खरीदारी किया करते थे, फूलों के अर्क की गंध, इत्रों और साबुनों और पाउडरों के साथ भव्य लगा करती थी। मेरे अस्थमा के इलाज के लिए उन्होंने मां को बताया था कि रोज़ सवेरे वह मुझे ठंडे पानी से नहलाया करे और शायद इससे फायदा भी हुआ। ये स्नान बहुत ही स्वास्थ्यकर थे और मैं उन्हें पसंद करता हुआ बड़ा हुआ।

यह एक उल्लेखनीय बात है कि हम किस सफाई से अपने आपको सामाजिक मान मर्यादाओं के अनुसार ढाल लेते हैं। आदमी उपलब्ध सृष्टि की भौतिक सुविधाओं के साथ कितनी अच्छी तरह से एकाकार और आदी हो जाता है। एक सप्ताह के भीतर ही मेरे लिए सब कुछ सहज स्वीकार्य हो चला था। बेहतर होने का बोध - सुबह सवेरे की औपचारिकताएं, कुत्तों को एक्सरसाइज कराना, उनके नये चमड़े के पट्टे लिये जाना, फिर खूबसूरत घर में वापिस लौटना, जहां चारों तरफ नौकर-चाकर हों, शानदार तरीके से चांदी के बरतनों में परोसे जाने वाले लंच की प्रतीक्षा करना।

हमारे घर का पिछवाड़ा एक दूसरे घर के पिछवाड़े से सटा हुआ था और उस घर में भी उतने ही नौकर थे जितने हमारे घर पर थे। उस घर में तीन लोग रहा करते थे, एक युवा दम्पत्ति और उनका एक लड़का जो लगभग मेरी ही उम्र का था। उसके पास एक बालघर था जिसमें बहुत खूबसूरत खिलौने भरे हुए थे। मुझे अक्सर उसके साथ खेलने के लिए बुलवा लिया जाता और रात के खाने के लिए रोक लिया जाता। हम दोनों आपस में बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे। उसके पिता सिटी बैंक में किसी बहुत अच्छे पद पर काम करते थे और उसकी मां युवा और बेहद खूबसूरत थी।

एक दिन मैंने अपनी तरफ वाली नौकरानी को लड़के की नौकरानी से गुपचुप बात करते हुए सुन लिया कि उन्हें लड़के के लिए एक गवर्नेस की ज़रूरत है।

"और इसे भी उसी की ज़रूरत है।" हमारी वाली नौकरानी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा। मैं इस बात से बेहद रोमांचित हो गया कि मेरी भी अमीर लड़कों की तरह देखभाल की जायेगी लेकिन मैं इस बात को कभी भी समझ नहीं पाया कि क्यों उसने मेरा दर्जा इतना ऊपर उठा दिया था। हां, तब की बात अलग है कि वह जिन लोगों के लिए काम करती थी या जिनके पड़ोस में वे लोग रहते थे उनका कद ऊपर उठा कर वह खुद ही अपना दर्जा ऊपर उठाना चाहती हो। आखिर, मैं जब भी पड़ोस के उस छोकरे के साथ खाना खाता था, मुझे कमोबेश यही लगता कि मैं बिन बुलाया मेहमान ही तो हूं।

जिस दिन हम उस खूबसूरत घर से अपने 3 पाउनाल के घर लौटने के लिए वापिस चले, वह उदासी भरा दिन था, फिर भी एक तरह की राहत भी थी कि हम अपनी आज़ादी में वापिस लौट रहे हैं। मेहमानों के तौर पर वहां रहते हुए आखिर हमें कुछ तनाव तो होता ही था। और जैसा कि मां कहा करती थी, हम केक की तरह थे। अगर उसे बहुत देर तक रखा जाये तो वह बासी और अखाद्य हो जाता है। और इस तरह से उस संक्षिप्त और शानोशौकत से भरे वक्त के रेशमी तार हमसे छिन गये और हम एक बार फिर अपने जाने पहचाने फटेहाल तौर-तरीकों में लौट आये।