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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 8

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

8

1899 बरस गलमुच्छों का बरस था। गलमुच्छों वाले राजा, राजनयिक, सैनिक और नाविक, क्रूगर, सेलिसबरी, रसोइये, कैसर, और क्रिकेट खिलाड़ी। दिखावे और शोशेबाजी का वाहियात बरस। बेइंतहा अमीरी और बेइंतहा गरीबी का बरस। कार्टून और प्रेस, दोनों की शून्यता से भरे राजनैतिक हठधर्मिता से भरे बरस। लेकिन इंगलैंड को कई धक्के और बदमगज़ियां सहनी थीं। अफ्रीकी ट्रंसवाल में कुछ बोअर किसान बिला वज़ह युद्ध छ़ेड़े हुए थे और बड़े-बड़े पत्थरों के और चट्टानों के पीछे से शानदार निशाने लगाते हुए हमारे लाल कोट धारी सैनिकों को मार रहे थे। तब हमारे युद्ध कार्यालय वालों के दिमाग की बत्ती जली और उन्होंने तुरत-फुरत लाल को खाकी में बदल दिया। अगर बोअर उन्हें इस रूप में मारना चाहें तो भले ही मार सकते हैं।

मुझे युद्ध की थोड़ी बहुत ही जानकारी थी और ये मुझे मिली थी देश भक्ति के गीतों, विविध मंचों पर हास्यमय प्रस्तुतियों और सिगरेट की डिब्बियों पर छपी जनरलों की तस्वीरों के माध्यम से। अलबत्ता, हमारे दुश्मन खत्म न होने वाले विलेन थे। कभी सुनने में आता कि बोअर लोगों ने लेडी स्मिथ को घेर लिया है तो इंगलैंड मेफकिंग को मुक्त करा लेने के बाद खुशी के मारे पागल हो गया है। आखिरकार हम जीत ही गये, बेशक ये जीत भी परेशान ही करने वाली थी। अलबत्ता, मैं ये सारी बातें सबसे सुनता था लेकिन मां इस बारे में कुछ नहीं बताती थी। उसने कभी भी लड़ाई का ज़िक्र नहीं किया। उसके पास लड़ने के लिए खुद की लड़ाइयां थी।

सिडनी अब चौदह बरस का हो चला था। उसने स्कूल छोड़ दिया था और उसे स्ट्रैंड डाक घर में तार वाले के रूप में काम मिल गया था। सिडनी की पगार और मां की सिलाई मशीन की वज़ह से होने वाली कमाई से हमारा घर किसी तरह ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन इसमें मां का योगदान मामूली ही था। वह मज़दूरों का खून चूसने वाली किसी दुकान के लिए काम करती थी और उसे वहां पर ब्लाउज सीने के एवज में एक दर्जन ब्लाउज के लिए एक शिलिंग और छ: पेंस मिलते थे। हालांकि उसे डिजाइन पहले से ही कट कर मिला करते थे, फिर भी एक दर्जन ब्लाउज सीने में उसे पूरे बारह घंटे लग जाया करते थे। मां का रिकार्ड था एक हफ्ते में चौदह दर्जन ब्लाउज सी कर देने का। इससे उसे छ: शिलिंग और नौ पेंस की कमाई हुई थी।

अक्सर रात को मैं अपनी दुछत्ती में लेटा जागता रहता और उसे अपनी मशीन पर झुके काम करते देखा करता। उसका सिर तेल की कुप्पी की रौशनी में झुका रहता और उसका चेहरा नरम छाया में नज़र आता। उसके होंठ तनाव के कारण थोड़े से खुले होते और वह अपनी मशीन पर तेज़ी से सिलाई का काम करती रहती। और उसके इस काम की उबा देने वाली भिन-भिन की आवाज की वजह से मुझे झपकी आ जाती। वह जब भी रात-बेरात इस तरह से देर तक काम करती थी तो उसके सामने एक ही मकसद होता - पैसों की अगली किसी न किसी किस्त की मीयाद सिर पर होती। हमेशा किस्तों की अदायगी की समस्या सिर पर खड़ी होती।

अब एक और संकट सिर पर आ खड़ा हुआ था। सिडनी को कपड़ों के नये जोड़े की ज़रूरत थी। वह अपनी टेलिग्राफ वाली यूनिफार्म हफ्ते के सभी दिन, यहां तक कि रविवारों को भी डाटे रहता था और आखिर एक ऐसा दिन भी आया कि उसके यार दोस्त उसे इस यूनिफार्म को लेकर छेड़ने लगे। इस वज़ह से वह दो हफ्ते तक, उस वक्त तक घर पर ही रहा जब तक मां के पास उसके लिए नीले सर्ज का सूट खरीदने लायक पैसे नहीं हो गये। उसने किसी तरह से अट्ठारह शिलिंग का बंदोबस्त कर ही लिया था। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में भारी दिवालियेपन की हालत आ गयी थी। इसलिए मां को मजबूरन हर सोमवार को, जब सिडनी टेलिग्राफ आफिस चला जाता था, सूट गिरवी रखना पड़ता था। उसे सूट के लिए सात शिलिंग मिलते थे। और हर शनिवार को सूट छुड़वा लिया जाता ताकि सिडनी उसे हफ्ते की छुट्टियों के दौरान पहन सके। यह साप्ताहिक व्यवस्था पूरे साल तब तक चलती रही जब तक सूट फट कर तार तार नहीं हो गया। तभी ये झटका लगा।

सोमवार की सुबह मां हमेशा की तरह गिरवी वाली दुकान पर गयी तो दुकानदार हिचकिचाया,"माफ करना, मिसेज चैप्लिन, लेकिन अब हम आपको सात शिलिंग उधार नहीं दे सकते।"

मां हैरान रह गयी थी,"लेकिन क्यों?" उसने पूछा था।

"अब इसमें अच्छा-खासा जोखिम है। पैंट तार-तार हो रही है। देखो तो ज़रा," दुकानदार पैंट की सीट पर हाथ रखते हुए बोला,"आप उसके आर-पार देख सकती हैं।"

"लेकिन इन कपड़ों को अगले हफ्ते छुड़वा लिया जायेगा।" मां ने कहा था।

गिरवी वाले ने सिर हिलाते हुए कहा,"बहुत हुआ तो मैं आपको कोट और वेस्टकोट के लिए तीन शिलिंग दे सकता हूं।"

मां कभी भी रोती नहीं थी लेकिन इस तरह के अचानक आये धक्के को सह न पाने के कारण वह आंसूं बहाती घर वापिस आयी। पूरा हफ्ता घर की गाड़ी खींचने के लिए उसे इन सात शिलिंग का ही सहारा था।

इस बीच मेरे खुद के कपड़े, कम से कम कहूं तो चीथड़े हो रहे थे। हम अष्टम लंकाशायर बाल गोपालों की जो पोशाक थी, उसकी वाली मेरी पोशाक अब तार तार हो चली थी। जहां-तहां थिगलियां लगी हुई थीं। कुहनी पर, पैंट पर, जूतों पर और मोजों पर। और अपनी इसी हालत में मैं स्टॉकवैल के अपने खास नन्हें दोस्त से जा टकराया। मुझे नहीं पता था कि वह केनिंगटन रोड पर क्या कर रहा था, लेकिन उसे देख कर मैं बहुत परेशानी में पड़ गया था। हालांकि वह मुझसे बहुत प्यार से मिला लेकिन मैं अपनी खस्ता हालत के कारण उससे आंखें भी नहीं मिला पर पा रहा था। अपनी परेशानी को छुपाने के लिए मैंने अपना आजमाया हुआ तरीका अपनाया और अपनी बेहतरीन, सधी हुई आवाज में उसे बताया कि चूंकि मैं बढ़ईगिरी की अपनी कक्षा से आ रहा हूं इसलिए मैं ये सब पुराने कपड़े पहने हुए हूं।

लेकिन उसे मेरी इस सफाई में ज़रा सी भी दिलचस्पी नहीं थी। वह जैसे आसमान से गिरा लग रहा था और अपनी हैरानी-परेशानी को छुपाने के लिए दायें बायें देखने लगा। उसने तब मां के बारे में पूछा।

मैंने तत्काल जवाब दिया कि मां तो आजकल गांव गयी हुई है और तब मैंने उसी की तरफ ध्यान देना शुरू किया,"और सुनाओ, आजकल वहीं रह रहे हो क्या?"

"हां।" उसने मुझे ऊपर से नीचे तक इस तरह से घूरते हुए देखा मानो मैंने कोई अपराध कर दिया हो।

"अच्छा, तो मैं जरा चलूंगा," मैंने अचानक कह कर अपनी जान छुड़ायी।

वह सहर्ष मुस्कुराया और अच्छा विदा कह कर चला गया। वह एक तरफ चला और मैं उसकी विपरीत दिशा में बढ़ा। मैं गुस्से और शर्म के कारण गिरते पड़ते भागा जा रहा था।

मां हमेशा कहा करती थी,"तुम हमेशा अपनी मर्यादा का त्याग कर सकते हो, लेकिन हो सकता है तुम्हें कुछ भी न मिले।" लेकिन वह खुद ही इस सूत्र वाक्य का पालन नहीं करती थी और अक्सर मेरी शिष्टता के बोध को ठेस लगती थी। एक दिन जब मैं ब्राम्पटन अस्पताल से लौट रहा था तो मैंने देखा कि मां कुछ सड़कछाप लड़कों को धकिया रही थी क्योंकि वे एक पागल औरत को सता रहे थे। उस औरत ने बुरी तरह से गंदे चीथड़े लपेटे हुए थे और खुद भी गंदी थी। उसका सिर मुंडा हुआ था और ये उन दिनों असामान्य बात समझी जाती थी। लड़के उस पर हँस रहे थे और एक दूसरे को उस पर धकिया रहे थे। और उसे छू नहीं रहे थे मानो उसे छू लेने से उन्हें गंदगी लग जायेगी। वह दुखियारी तब तक हिरणी की तरह सड़क के बीचों-बीच खड़ी रही जब तक जा कर मां ने उसे उन दुष्ट लड़कों से छुड़वा नहीं लिया। तब उस औरत के चेहरे पर पहचान के चिह्न उभरे। उस औरत ने कमज़ोर आवाज में मां को उसके स्टेज के नाम से पुकारा,"तुम मुझे नहीं पहचानती क्या? मैं इवा लेस्टॉक हूं।"

मां ने उसे तुरंत पहचान लिया। वह मां के साथ की वैराइटी स्टेज की पुरानी दोस्त थी।

मां की इस बात से मैं इतना परेशान हो गया कि आगे बढ़ गया और आगे कोने पर जा कर मां का इंतज़ार करने लगा। बच्चे मेरे पास से गुज़र गये। वे फब्तियां कस रहे थे और खी खी करके हँस रहे थे। मैं गुस्से से लाल पीला हो रहा था। मैं ये देखने के लिए मुड़ा कि मां को क्या हो गया है। हे भगवान, वह औरत मां के साथ लग ली थी और अब दोनों मेरी तरफ चली आ रही थीं।

मां ने कहा,"तुम्हें नन्हें चार्ली की याद है?"

"तुम याद की बात करती हो, जब वो ज़रा सा था तो मैंने कितनी बार उसे अपनी बांहों में उठाया है।" उस औरत से लाड़ से कहा।

ये विचार ही लिजलिजे थे क्‍योंकि वह औरत इतनी गंदी और घिनौनी थी। और जब हम चले आ रहे थे तो मुझे इस बात से खासी कोफ्त हो रही थी कि लोग मुड़ मुड़ कर हम तीनों को देख रहे थे।

मां उसे वैराइटी के दिनों से 'डैशिंग इवा लैस्टाक' के नाम से जानती थी। वह उन दिनों आकर्षक और सदाबहार हुआ करती थी, मां ने मुझे ऐसा बताया था। उस औरत ने मां को बताया कि वह बीमार थी और अस्पताल में थी और अस्पताल छोड़ने के बाद से वह मेहराबों के तले और सैल्वेशन आर्मी के रैन बसेरों में ही सो रही थी।

सबसे पहले तो मां ने उसे स्नान के लिए सार्वजनिक स्नानघर में भेजा और उसके बाद, मेरे आतंक की सीमा न रही जब मां उसे अपने साथ हमारी दुछत्ती पर ले आयी। उसकी इस हालत के पीछे उसकी बीमारी ही थी या कोई और कारण, मैं नहीं जान पाया। इससे वाहियात बात और क्या हो सकती थी कि वह सिडनी की आराम कुर्सी वाले बिस्तर में सोयी थी। अलबत्ता, मां ने उसे वे कपड़े निकाल कर दिये जो वह दे सकती थी और उसे दो शिलिंग भी उधार दिये। तीन दिन बाद वह चली गयी और वही आखिरी बार थी जब हमने `डैशिंग इवा लैस्टाक ' के बारे में देखा या सुना था।

पिता के मरने से पहले मां ने पाउनाल टैरेस वाला घर छोड़ दिया था और अपनी एक सखी, गिरजा घर की सदस्या और समर्पित ईसाई महिला मिसेज टेलर के घर में एक कमरा किराये पर ले लिया था। वे एक छोटे कद की, लगभग पचास बरस की चौड़े बदन की महिला थीं। उनका जबड़ा चौकोर था और पीला झुर्रियोंदार चेहरा था। उन्हें गिरजा घर में देखते समय मैंने पाया था कि उनके दांत नकली थे। जब वे गातीं तो उनके दांत उनके ऊपरी जबड़े से जीभ पर गिर जाते। बहुत ही मोहक नज़ारा होता।

उनका व्यवहार प्रभावशाली था और उनके पास अकूत ताकत थी। उन्होंने मां को अपनी ईसाइयत की छत्र-छाया में ले लिया था और अपने बड़े से घर की दूसरी मंज़िल पर सामने की तरफ वाला कमरा बहुत ही वाजिब किराये पर दे दिया था। ये घर कब्रिस्तान के पास था।

उनके पति चार्ल्स डिकेंस के मिस्टर पिकविक की हूबहू प्रतिकृति थे और उनके घर की सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर गणित में काम आने वाले रूलर बनाने का अपना कारखाना था। छत पर आसमानी रौशनी आती और मुझे वह जगह बिलकुल स्वर्गतुल्य लगती। वहां बहुत अधिक शांति होती। मैं अक्सर मिस्टर टेलर को काम करते हुए देखता जब वे अपने मोटे मोटे कांच वाले चश्मे से और मैग्नीफाइंग ग्लास से गहराई से देख रहे होते और स्टील का कोई स्केल बना रहे होते और इंच के भी पांचवें हिस्से को नाप रहे होते। वे अकेले काम करते और मैं अक्सर उनके छोटे मोटे काम कर दिया करता।

मिसेज टेलर की एक ही इच्छा थी कि वे किसी तरह अपने पति को ईसाई धर्म की ओर मोड़ दें। उनकी धार्मिक नैतिकता के हिसाब से तो उनके पति पापी ही थे। उनकी बेटी जो शक्ल-सूरत में ठीक अपनी मां पर गयी थी, सिर्फ उसका चेहरा कम सूजा हुआ था और हां, वह काफी जवान भी थी, आकर्षक होती अगर उसका व्यवहार ढीठपने का न होता और उसके तौर-तरीके आपत्तिजनक न होते। अपने पिता की तरह वह भी चर्च नहीं जाती थी। लेकिन मिसेज टेलर ने उन दोनों को धर्म की शरण में लाने की उम्मीद कभी भी नहीं छोड़ी। बेटी अपनी मां की आंखों का तारा थी लेकिन मेरी मां की आंखों का नहीं।

एक दोपहरी को, जब मैं ऊपर वाली मंज़िल पर मिस्टर टेलर को काम करते हुए देख रहा था, मैंने नीचे से मां और मिसेज टेलर के बीच कहा-सुनी की आवाज़ सुनी। मिसेज टेलर बाहर थीं। मुझे नहीं पता कि ये सब कैसे शुरू हुआ लेकिन वे दोनों एक दूसरे पर ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थीं। जब मैं नीचे सीढ़ियों पर पहुंचा तो मां सीढ़ियों के जंगले पर झुकी हुई थी,"तुम अपने आपको समझती क्या हो? औरत जात की लेंड़ी?"

"ओह," बेटी चिल्लायी, "एक ईसाई औरत की जुबान से कितने शानदार फूल झर रहे हैं?"

"चिंता मत करो," मां ने तुरंत जवाब दिया,"ये सब बाइबिल में है। ओल्ड टेस्टामेंट का पांचवां खंड, अट्ठाइसवां अध्याय, सैंतीसवां पद, हां, वहां इसके लिए एक दूसरा शब्द दिया हुआ है। बस, तुम्हें लेंड़ी शब्द ही सूट करेगा।"

इसके बाद हम अपने पाउनाल टैरेस में वापिस चले आये।

केनिंगटन रोड पर थ्री स्टैग्स बार इस तरह की जगह नहीं थी जहां मेरे पिता अक्सर जाया करते लेकिन एक बार वहां से गुज़रते हुए मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि अंदर झांक कर देखना चाहिये कि कहीं वे भीतर तो नहीं बैठे हैं। मैंने सैलून का दरवाजा कुछ ही इंच खोला था कि वे वहां बैठे हुए मुझे दिखायी दिये। वे एक कोने में बैठे हुए थे। मैं वापिस लौटने ही वाला था कि उनके चेहरे पर चमक उभरी और उन्होंने मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं इस तरह के स्वागत से हैरान था, क्योंकि वे कभी भी दिखावे में विश्वास नहीं रखते थे। वे बहुत बीमार लग रहे थे। आंखें उनकी भीतर को धंसी हुई थीं और उनका शरीर सूज कर बहुत बड़ा लग रहा था। उन्होंने अपना एक हाथ नेपोलियन की तरह अपने वेस्ट कोट में टिका रखा था मानो अपनी सांस की तकलीफ पर काबू पाना चाहते हों। उस शाम वे बेहद बेचैन थे। वे मां और सिडनी के बारे में पूछते रहे और मेरे चलने से पहले उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भरा और पहली बार मुझे चूमा। यही वह आखिरी बार था जब मैंने उन्हें जीवित देखा।

तीन सप्ताह के बाद उन्हें सेंट थॉमस अस्पताल में ले जाया गया। पिता जी को वहां ले जाने के लिए उन लोगों को पिता जी को शराब पिलानी पड़ी थी। जब पिताजी को पता चला कि वे कहां हैं तो वे बुरी तरह से लड़े झगड़े। लेकिन उनकी हालत मर रहे आदमी जैसी थी। वे मर रहे थे। हालांकि वे अभी भी बहुत जवान थे, मात्र सैंतीस बरस के, वे जलोदर रोग के कारण मर रहे थे। उन लोगों ने पिता जी के घुटने से चार गैलन पानी निकाला था।

मां उन्हें देखने के लिए कई बार गयी और हर मुलाकात के बाद वह और ज्यादा उदास हो जाती। वह बताती कि पिता फिर उसके पास वापिस आ कर अफ्रीका में नये सिरे से ज़िंदगी शुरू करना चाहते हैं। मैं इस तरह की संभावना से ही खिल उठता। मां सिर हिलाती, क्योंकि वह बेहतर जानती थी,"वे ये बात सिर्फ इसलिए कह रहे थे क्योंकि वे अच्छे दिखना चाहते थे।" मां ने बताया था।

एक दिन जब वह अस्पताल से वापिस आयी तो रेवरेंड जॉन मैकनील एवेंजलिस्ट की बात सुन कर बहुत खफा थी। जब मां पिताजी से मिलने गयी थी तो तो वे पिता से कह रहे थे,"देखो, मिस्टर चार्ली, जब भी मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं तो मुझे एक पुरानी कहावत ही याद आती है कि जो जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा।"

"मरते हुए आदमी को दिलासा देने के लिए आप कितनी अच्छी वाणी बोल रहे हैं," मां ने पलट कर जवाब दिया था। कुछ ही दिन बाद पिताजी की मृत्यु हो गयी थी।

अस्पताल वाले जानना चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार कौन करेगा। मां के पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी इसलिए उसने वैराइटी आर्टिस्ट सहायता निधि का नाम सुझाया। ये थियेटर वालों की एक चैरिटी संस्था थी। इस सुझाव से परिवार के चैप्लिन वालों में अच्छा खासा हंगामा मच गया। चैप्लिन परिवार का आदमी खैरात के पैसों से दफनाया जाये, ये बात वे कैसे गवारा कर सकते थे। उस समय पिता जी के एक छोटे भाई अल्बर्ट लंदन में ही थे। वे अफ्रीका से आये हुए थे। उन्हेंने पिताजी को दफनाने का खर्चा उठाने का जिम्मा उठाया।

ताबूत पर सफेद साटन का कफन लपेटा गया था और पिताजी के चेहरे के चारों उसके तरफ ड़ेजी के नन्हें नन्हें सफेद फूलों से सजाया गया था। मां का कहना था कि वे इतने सादगी-भरे और मन को छू लेने वाले लग रह थे। मां ने पूछा था कि ये फूल किसने रखवाये हैं। वहां पर मौजूद कर्मचारी ने बताया था कि सुबह सुबह एक औरत एक छोटे-से बच्चे के साथ आयी थी और ये फूल रख गयी थी। वह लुइस थी।

पहली गाड़ी में मां, अंकल अल्बर्ट और मैं थे। टूटिंग तक की यात्रा तनाव पूर्ण थी क्योंकि मां इससे पहले कभी भी अंकल अल्बर्ट से नहीं मिली थी। वह कुछ कुछ ठाठ-बाठ वाले आदमी थे और अभिजात्य संस्कारों वाले शख्स थे। हालांकि वे बहुत विनम्र थे, उनका व्यवहार बर्फ की तरह ठंडा था। उनकी ख्याति एक अमीर आदमी के रूप में थी। ट्रंसवाल में घोड़ों के उनके रैंच थे और बोअर युद्ध के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार को घोड़े उपलब्ध कराये थे।

सर्विस के दौरान बरसात होने लगी थी। कब्र खोदने वालों ने फटाफट ताबूत पर मिट्टी के लोंदे फेंके। इससे बहुत ही क्रूर किस्म की आवाज हो रही थी। ये भयावह नज़ारा था और कुल मिला कर बेहद डरावना था इसलिए मैं रोने लगा। इसके बाद रिश्तेदारों ने अपनी मालाएं और फूल उस पर डाले। मां के पास डालने के लिए कुछ भी नहीं था, इसलिए उसने मेरा बेशकीमती काले बार्डर वाला रुमाल लिया और मेरे कान में फुसफुसायी,"मेरे लाल, ये हम दोनों की तरफ से।" इसके बाद चैप्लिन परिवार रास्ते में एक पब में खाना खाने के लिए रुक गया और उन्हेंने भीतर जाने से पहले हमसे बहुत विनम्रता से पूछा कि हमें कहां छोड़ दिया जाये। और हमें घर छोड़ दिया गया था।

जब हम घर पहुंचे तो घर में खाने को एक दाना भी नहीं था। बीफ के थोड़े शोरबे की एक प्लेट रखी थी। मां के पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसके पास सिर्फ दो पेंस थे जो उसने सिडनी को खाने का इंतज़ार करने के लिए दे दिये थे। पिताजी की बीमारी के बाद उसने बहुत कम काम हाथ में लिया था इसलिए अब हफ्ता खत्म होने को था और टेलिग्राफ बाय के रूप में सिडनी की सात शिलिंग हफ्ते की पगार पहले ही खत्म हो चुकी थी। अंतिम संस्कार के बाद हमें भूख लगी हुई थी। सौभाग्य से रद्दी वाला बाहर से गुजर कर जा रहा था। मां के पास तेल का एक पुराना स्टोव था जिसे मां ने बहुत संकोच के साथ अधपेनी में बेचा और उस अधपेनी की ब्रेड लायी जिसे हमने उस शोरबे के साथ खाया।

मां चूंकि पिता की कानूनन विधवा थी इसलिए उसे अगले दिन बताया गया कि वह अस्पताल जा कर उनका सामान वगैरह ले ले। इस सामान में एक काला सूट था जिसमें खून के दाग लगे हुए थे। एक जांघिया था, एक कमीज, एक काली टाई, एक पुराना ड्रेसिंग गाउन, घर पर पहनने की कुछ पुरानी चप्पलें, जिनमें पंजों की तरफ कुछ ठुंसा हुआ था। जब मां ने वह बाहर निकाला तो स्लीपरों में सोने का एक सिक्का बाहर लुढ़क आया। ये भगवान की भेजी हुई सौगात थी।

हफ्तों तक हम अपने बाजू पर काली क्रेप की पट्टी लगाये रहे। शोक का ये संकेत भी मेरे लिए फायदेमंद रहा क्योंकि शनिवार की दोपहर के वक्त जब मैं फूल बेचने के काम धंधे पर निकलता तो मुझे इससे फायदा ही होता। मैंने मां को मना लिया था कि वह मुझे एक शिलिंग उधार दे दे। मैं सीधे ही फूल बाजार गया और नार्सीसस के फूलों के दो बंडल खरीदे और स्कूल से आने के बाद मैं उनके नन्हें-नन्हें बंडल बनाने में जुटा रहा। अगर सब बिक जाते तो मैं सौ प्रतिशत लाभ कमा सकता था। मैं सैलूनों में जाता जहां मैं अपने संभावित ग्राहक तलाशता कहता,"नार्सीसिस मैडम, मिस ... . नार्सीसिस के फूल मिस।" महिलाएं हमेशा पूछतीं,"कौन था बेटे?" मैं अपनी आवाज फुसफुसाहट के स्तर तक ले आता और बताता,"मेरे पिता।" और वे मुझे टिप देतीं। मां ये देख कर हैरान रह गयी कि मैं सिर्फ दोपहर में काम करके पांच शिलिंग कमा लाया था। एक दिन उसने मुझे झिड़क दिया जब उसने मुझे एक पब से बाहर आते देखा। उस दिन से उसने मेरे फूल बेचने पर पाबंदी लगा दी। उसका ये मानना था कि बार रूम में जा कर इस तरह से फूल बेचना उसकी ईसाईयत को कहीं ठेस लगाता था,"दारू पीने से तुम्हारे पिता मर गये और इस तरह की कमाई से हम पर दुर्भाग्य का ही साया पड़ेगा," उसने कहा। अलबत्ता, उसने सारी कमाई रख ली थी। उसने फिर कभी मुझे फूल बेचने नहीं दिये।

मुझमें धंधा करने की जबरदस्त समझ थी। मैं हमेशा कारोबार करने की नयी-नयी योजनाएं बनाने में उलझा रहता। मैं खाली दुकानों की तरफ देखता, सोचता, इनमें पैसा पीटने का कौन सा धंधा किया जा सकता है। ये सोचना मछली बेचने, चिप्स बेचने से ले कर पंसारी की दुकान खोलने तक होता। हमेशा जो भी योजना बनती, उसमे खाना ज़रूर होता। मुझे बस पूंजी की ही ज़रूरत होती लेकिन पूंजी ही की समस्या थी कि कहां से आये। आखिर मैंने मां से कहा कि वह मेरा स्कूल छुड़वा दे और काम तलाशने दे।

मैंने कई धंधे किये। पहले मैं एक बिसाती की दुकान में ऊपर के काम करने के लिए रखा गया। काम करने के बाद मैं तहखाने में खुशी खुशी बैठा रहता, वहां साबुन, स्टार्च, मोमबत्तियों, मिठाइयों तथा बिस्किटों से घिरा रहता। मैं सारी की सारी मिठाइयां चख कर तब तक देखता रहा जब तक खुद बीमार नहीं पड़ गया।

इसके बाद मैंने थ्रॉगमोर्टन एवेन्यू में हूल एंड किन्स्ले टेलर, बीमा डॉक्टरों के यहां काम किया। ये काम मेरे हिस्से में सिडनी की वज़ह से आया था। उसी ने इस काम के लिए मेरी सिफारिश की थी। मुझे हर हफ्ते के बारह शिलिंग मिलते थे और मुझे रिसेप्शनिस्ट के रूप में काम करना होता था। इसमें डॉक्टरों के चले जाने के बाद दफ्तरों को साफ करने की ड्यूटी भी शामिल थी। रिसेप्शनिस्ट के रूप में मैं बहुत सफल था क्योंकि मैं वहां पर इंतज़ार कर रहे मरीजों का खूब मनोरंजन करता लेकिन जब दफ्तरों की सफाई का नम्बर आता तो मेरा दिल डूबने लगता। इस काम में सिडनी बेहतर था। मैं पेशाब के पॉट साफ करने में बुरा नहीं मानता था, लेकिन दस-दस फुटी खिड़कियों को साफ करना मेरे लिए आकाशगंगा निकालने जैसा था। इसका नतीजा ये हुआ कि दफ्तर गंदे और धूल भरे होते चले गये और एक दिन आया जब मुझे विनम्रतापूर्वक बता दिया गया कि मैं इस काम के लिए बहुत ही छोटा हूं।

जिस वक्त मैंने ये खबर सुनी, मैं अपने आपको संभाल नहीं पाया और रो पड़ा। डॉक्टर किन्स्ले टेलर, जिन्होंने एक बहुत ही अमीर महिला से शादी की थी और उन्हें शादी में लेसेन्स्टर गेट पर बहुत बड़ा मकान मिला हुआ था, ने मुझ पर तरस खाया और मुझसे कहा कि वे मुझे अपने घर में ऊपर के काम के लिए पेजबॉय के रूप में रखवा देंगे। तुरंत ही मेरा दिल बाग बाग हो गया। किसी निजी घर में पेजबॉय, और घर भी कैसा, बहुत खूबसूरत। ये अच्छा काम था। इसका कारण ये था कि मैं घर भर की नौकरानियों का दुलारा बन गया था। वे मुझसे बच्चे की तरह व्यवहार करतीं और रात को बिस्तर पर जाने से पहले गुड नाइट किस देतीं। अगर मेरी किस्मत में लिखा होता तो मैं बटलर बन गया होता। मैडम ने मुझसे कहा कि मैं तहखाने में जा कर उस जगह को साफ करूं जहां पर पैकिंग वाली पेटियों का ढेर लगा हुआ था और कचरे का अम्बार लगा हुआ था जिसे साफ करना, अलग करना और फिर से लगाना था। मेरा ध्यान इस काम से उस वक्त बंट गया जब मेरे हाथ में लगभग आठ फुट लम्बा लोहे का एक पाइप आ गया और मैं उसे बिगुल की तरह बजाने लगा। जिस वक्त मैं उसके मजे ले रहा था, मैडम अवतरित हुईं और मुझे तीन दिन का नोटिस दे दिया गया।

मुझे स्टेशनरी की एक दुकान डब्ल्यू एच स्मिथ एंडरसन में काम करने में बहुत मज़ा आया लेकिन उन्हें जैसे ही पता चला कि मेरी उम्र कम है तो उन्होंने बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर मैं एक दिन के लिए ग्लास ब्लोअर बना। मैंने स्कूल में ग्लास ब्लोइंग के बारे में पढ़ा था और मुझे लगा, ये बहुत ही रोमांचकारी काम होगा। लेकिन गर्मी मेरे सिर पर चढ़ गयी और मुझे बेहोशी की हालत में बाहर लाया गया और रेत की ढेरी पर लिटा दिया गया। यहीं पर इसकी इतिश्री हो गयी। मैं इस इकलौते दिन की पगार लेने भी नहीं गया। इसके बाद मैंने स्ट्रेकर, पिंटर और स्टेशनर्स के यहां काम किया। मैंने वहां पर झूठ बोला कि मैं व्हार्फेडेल पिंटिंग मशीन चला सकता हूं। ये बहुत ही बड़ी मशीन थी। लगभग बीस फुट लम्बी। मैंने इस मशीन को गली से तहखाने में चलते हुए देखा था और मुझे लगा कि इसे चलाना तो बेहद आसान होगा। एक कार्ड पर लिखा था व्हार्फेडेल पिंटिंग मशीन के लिए कागज़ चढ़ाने वाला लड़का चाहिये। जब फोरमैन मुझे मशीन के पास लाया तो ये मुझे दैत्याकार सरीखी लगी। इसे चलाने के लिए मुझे पांच फुट ऊंचे एक प्लेटफार्म पर खड़ा होना पड़ा। मुझे लगा मानो मैं एफिल टावर के ऊपर खड़ा हूं।

"मारो इसे," फोरमैन ने कहा।

"क्या मारूं?"

मुझे हिचकिचाते देख, वह हँसा,"तो इसका मतलब तुमने व्हार्फेडेल पिंटिंग मशीन पर कभी काम नहीं किया है?"

"मुझे बस, एक मौका दीजिये, मैं एकदम तेजी से इसे चलाना सीख जाऊंगा।"

"इसे मारो" का मतलब था उस दैत्य को शुरू करने के लिए लीवर को खींचो। मशीन घूमने, चलने और घुरघुराने लगी। मुझे लगा ये मशीन तो मुझे ही निगल जायेगी। कागज़ बहुत ही बड़े बड़े थे। इतने बड़े कि आसानी से मुझे एक कागज़ में लपेटा जा सकता था। एक बड़े से गत्ते से मैं कागजों को पंखा करता, उन्हें कोनों से उठाता, और ठीक वक्त पर मशीन के जबड़ों में धर देता ताकि वह दैत्य उन्हें निगल जाये, उस पर छापे और दूसरे सिरे पर वापिस उगल दे। पहले दिन तो मैं उसे इतना घबराया हुआ था कि कहीं ये भूखा दैत्य मुझे ही न चबा जाये। इसके बावजूद मुझे बारह शिलिंग हफ्ते की पगार पर नौकरी पर रख लिया गया।

दिन निकलने से पहले, उन ठंडी सुबहों में काम पर निकलने का अपना ही रोमांच था। गलियां शांत और सुनसान होतीं। इक्का दुक्का छायाएं लोखार्ट के टीरूम की मध्यम रौशनी में नाश्ते के लिए आते जाते दिखायी देतीं। ऐसा लगता मानो आप अपने साथ के लोगों के साथ हैं, उस धुंधलके में गरम चाय पीते हुए और आगे मुंह बाये खड़े दिन भर के काम के बावजूद क्षणिक राहत पाते हुए। और फिर प्रिंटिंग का काम इतना उबाऊ भी नहीं था। बस, हफ्ते के आखिर में काम बहुत करना पड़ता, गिलेटिन के उन लम्बे रोलरों पर से स्याही हटाने का काम करना पड़ता। इन रोलरों का वजन सौ पौंड से भी ज्यादा होता। बाकी कुछ मिला कर काम सहन करने योग्य था। अलबत्ता, वहां पर तीन हफ्ते तक काम करने के बाद मुझे इन्फ्लुंजा ने धर दबोचा और मां ने ज़िद की कि मैं वापिस स्कूल की राह पकडूं।

सिडनी अब सोलह बरस का हो चला था। एक दिन वह खुश खुश घर आया क्योंकि उसे अफ्रीका जाने वाले एक जहाज में डोनोवन लाइन पैसेंजर बोट पर बिगुल बजाने वाले का काम मिल गया था। उसका काम था खाने वगैरह के लिए बुलाने के लिए बिगुल बजाना। उसने बिगुल बजाना एक्सामाउथ ट्रेनिंग कैम्प में सीख लिया था। अब वह सीखना काम आ रहा था। उसे हर महीने दो पाउंड और दो शिलिंग मिलते और सेकेंड क्लास में तीन मेजों पर सर्व करने के लिए टिप अलग से मिलती। उसे जहाज पर जाने से पहले पैंतीस शिलिंग अग्रिम रूप से मिलने वाले थे। तय था वह ये रकम मां को दे कर जाने वाला था। इस सुखद भविष्य के सपने संजोये हम चेस्टर स्ट्रीट में एक नाई की दुकान के ऊपर दो कमरे वाले मकान में आ गये।

अपनी ट्रिप से जब सिडनी पहली बार लौटा तो ये मौका उत्सव की तरह था। क्योंकि उसके पास टिप से कमाये तीन पाउंड से भी ज्यादा की रकम थी और ये चांदी के थे। मुझे याद है वह अपनी जेबों से बिस्तर पर से अपनी दौलत लुढ़काता जा रहा था। ये पैसे इतने ज्यादा लगे मुझे जितने मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं देखे थे और मैं उन पर से अपने हाथ हटा ही नहीं पा रहा था। मैंने उनकी ढेरियां लगायीं, चट्टे लगाये और उनके साथ तब तक खेलता रहा जब मां और सिडनी ने आखिर कह ही दिया कि मैं नदीदा हूं।

क्या तो शान थी। क्या ही मस्ती थी। ये गर्मी के दिन थे और ये हमारे केक और आइसक्रीम खाने का काल था। इनके अलावा और भी कई विलासिताएं राह देख रही थीं। हमने नाश्ते में ब्लोटर, किप्पर, हैड्डाक मछली खायीं और चाय केक का आनंद लिया, और इतवार के दिन बंद और कटलेट खाये।

सिडनी को सर्दी ने जकड़ लिया और वह कई दिन तक बिस्तर पर पड़ा रहा। मां और मैं उसकी तीमारदारी करते रहे। तभी ये हुआ कि हमने खूब छक कर आइसक्रीम खायी। मैं एक बड़े से गिलास में एक पेनी की ले कर आया। मैं ये गिलास इताल्वी आइसक्रीम की दुकान में ले गया था और वह गिलास और एक पेनी देख कर अच्छा खासा चिढ़ा था। दुकानदार ने सुझाव दिया कि अगली बार मैं आऊं तो अपने साथ एक बाथ टब ले कर आऊं। गर्मियों में हमारा प्रिय ड्रिंक होता था शरबत और दूध। खूब झागदार दूध में बुलबुले छोड़ता शरबत, बस पीते ही तबीयत खुश हो जाती।

सिडनी ने हमें अपनी समुद्री यात्रा के बहुत से रोचक किस्से सुनाये। अभी उसने अपनी यात्रा शुरू भी नहीं की थी एक बार उसकी नौकरी पर ही बन आयी। उसने लंच के लिए पहला बिगुल बजाया। बिगुल बजाने की उसकी प्रेक्टिस नहीं रही थी और सारे फौजी खूब हो हल्ला करने लगे। मुख्य स्टीवर्ड भागता हुआ आया,"ऐय तुम क्या कर रहे हो?"

"सॉरी सर, मेरे होंठ अभी बिगुल पर सेट नहीं हुए हैं।"

"ठीक है, ठीक है, जल्दी से अपने होंठ सेट कर लो नहीं तो जहाज चलने से पहले ही तुम्हें तट पर ही उतार देना पड़ेगा।"

खाने के दौरान किचन के बाहर सब वेटरों की लम्बी लम्बी कतारें लग जातीं जो अपने अपने आर्डर का सामान ले रहे होते। जब तक सिडनी का नम्बर आता, वह अपना आर्डर ही भूल चुका होता और उसे एक बार फिर लाइन के आखिर में खड़ा होना पड़ता। सिडनी ने बताया कि पहले कुछ दिन तो ये हालत रही कि बाकी सब तो अपनी स्वीट डिश खा रहे होते और उसकी मेज पर अभी भी सूप ही सर्व हो रहा होता।

सिडनी तब तक घर पर रहा जब तक सारे पैसे खत्म नहीं हो गये। अलबत्ता, उसे दूसरी ट्रिप के लिए भी बुक कर लिया गया। उसे कम्पनी से एक बार फिर पैंतीस शिलिंग अग्रिम रूप से मिले जो उसने मां को दे दिये। लेकिन ये रकम ज्यादा दिन नहीं चली। तीन ही हफ्ते बाद हम बर्तनों की तले में झांक रहे थे। सिडनी के वापिस आने में अभी भी तीन हफ्ते बाकी थे। मां हालांकि अभी भी अपनी सिलाई मशीन पर काम कर ही रही थी, जो कुछ वह कमा रही थी, हम दोनों के लिए काफी नहीं था। नतीजा ये हुआ कि हम एक बार फिर पाउनाल हॉल लौट आये।

लेकिन मैं कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लिया करता था। मां के पास पुराने कपड़ों का एक ढेर लगा हुआ था। एक दिन शनिवार की सुबह थी। मैंने मां को सुझाव दिया कि क्यों न मैं कोशिश करूं और बाज़ार में जा कर इन्हें बेच आऊं। मां इस बात को ले कर थोड़ी परेशान हो गयी। उसका कहना था कि ये सब किसी काम के नहीं हैं। इसके बावजूद मैंने एक पुरानी चादर में कपड़ों की पोटली बांधी और नेविंगटन बट्ट की ओर चल पड़ा। वहां जा कर मैंने अपना माल असबाब फुटपाथ पर फैलाया और गटर पर खड़े हो कर आवाजें लगानी शुरू कर दीं। मेरी दुकानदारी बहुत ही दयनीय हालत में थी."देखिये साहेबान, मेहरबान, कदरदान," मैंने एक पुरानी कमीज हाथ में उठायी और बोलना शुरू किया,"बोलिये साहेबान क्या देते हैं इसका? एक शिलिंग, छ: पेंस, चार पेंस दो पेंस।" मैं उसे एक पेनी में भी न बेच पाया। लोग-बाग आते, खड़े होते, हैरानी से देखते, और हँसते हुए चले जाते। मैं परेशान होना शुरू हो गया। सामने की जवाहरात की दुकान की खिड़की से वहां के मालिकों ने मुझे देखना शुरू कर दिया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। आखिरकार, गेलिस की एक जोड़ी जो इतनी खराब नहीं लग रही थी, मैं छ: पेंस में बेचने में सफल हो ही गया। लेकिन मुझे वहां पर खड़े हुए जितनी देर होती जा रही थी, मैं उतना ही बेचैन होता जा रहा था। थोड़ी देर बाद उस जवाहरात की दुकान में से एक महाशय आये और भारी रूसी लहजे में मुझसे पूछने लगे कि मैं इस धंधे में कब से हूं। उसके विनम्र चेहरे के बावजूद मैंने ताड़ लिया कि उसके बात करने के लहजे में मज़ाक उड़ाने का सा भाव था। मैंने उसे बताया कि बस अभी शुरू ही किया है। वह धीरे धीरे अपनी दुकान पर लौट गया और अपने दो, खींसे निपोरते भागीदारों के पास लौट गया और फिर से वे दुकान की खिड़की में से मुझे देखने लगे। अब बहुत हो गया था। मैंने अपनी दुकानदारी समेटी और घर वापिस लौट आया। मैंने मां को बताया कि मैंने छ: पेंस में गेटर्स बेचे हैं तो वह हिकारत से बोली, अच्छे भले थे वो तो, उसे ज्यादा पैसों में बेचा जा सकता था।

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