चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 9 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 9

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

9

ये एक ऐसा वक्त था जब हम किराया देने के बारे में ज्यादा माथा पच्ची नहीं करते थे। हमने आसान तरीका ये अपनाया कि जब किराया वसूल करने वाला आता तो सारा दिन गायब ही रहते। हमारे सामान की कीमत ही क्या थी? दो कौड़ी। उसे कहीं और ढो कर ले जाने में ज्यादा पैसे लगते। अलबत्ता, हमारी मंजिल एक बार फिर 3 पाउनाल टेरेस थी।

उसी समय मुझे एक ऐसे बूढ़े आदमी और उसके बेटे के बारे में पता चला जो केनिंगटन रोड के पिछवाड़े की तरफ एक घुड़साल में काम करते थे। वे घुमंतु खिलौने बनाने वाले लोग थे और ग्लासगो से आये थे। वे लोग खिलौने बनाते थे और शहर दर शहर घूमते हुए उन्हें बेचते थे। वे बंधन मुक्त थे और उन पर कोई जिम्मेवारी नहीं थी, इसलिए मैं उनसे ईर्ष्या करता था। उनके धंधे के लिए बहुत ही कम पूंजी की ज़रूरत थी। एक शिलिंग की मामूली रकम लगा कर वे धंधा शुरू कर सकते थे। वे जूतों के डिब्बे इकट्ठे करते। कोई भी दुकानदार खुशी खुशी ये डिब्बे उन्हें दे देता। फिर वे अंगूरों की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाला बुरादा जुटाते। ये भी उन्हें सेंत मेंत में मिल जाता। उन्हें शुरुआत में जिन मदों के लिए पूंजी लगानी पड़ती, वे थीं, एक पेनी की गोंद, एक पेनी के क्रिस्मस वाली रंगीन पन्नियां, और दो पेनी के रंगीन झालर के गोले।एक शिलिंग की पूंजी से वे सात दर्जन नावें बना लेते और एक एक नाव एक एक पेनी की बिकती। नाव के दोनों तरफ के हिस्से जूतों के डिब्बों में से काट लिये जाते, और उन्हें गत्ते के तले के साथ सी दिया जाता। साफ सतह पर गोंद फेर दिया जाता और फिर उस पर कॉर्क का बुरादा छिड़क दिया जाता। मस्तूलों को रंगीन झालरों से सजा दिया जाता और सबसे ऊपर वसले मस्तूल, नाव के आगे और पीछे वाले हिस्से पर और पाल फैलाने के डंडों के आखिरी सिरे पर लाल, पीले और नीले झंडे लगा दिये जाते। सौ या उससे भी अधिक इस तरह की रंगीन पन्नियों वाली नावें ग्राहकों को आकर्षित करतीं और इन्हें आसानी से बेचा जा सकता था।

हमारे परचिय का नतीजा ये हुआ कि मैं नावें बनाने में उनकी मदद करने लगा और जल्दी ही मैं उनके हुनर से वाकिफ हो गया। जब वे लोग हमारा पड़ोस छोड़ कर गये तो मैं खुद उनके धंधे में उतर गया। छ: पेंस की मामूली सी पूंजी और कार्ड बोर्ड काटने से हाथों में हुए छालों के साथ मैं एक ही हफ्ते में तीन दर्जन नावें बनाने में कामयाब हो गया था।

लेकिन हमारी परछत्ती पर इतनी जगह नहीं थी कि मां के काम और मेरे धंधे के लिए जगह हो पाती। इसके अलावा मां की शिकायत थी कि उसे उबलते हुए गोंद की बू से उबकाई आती है और ये भी था कि गोंद का डिब्बा हर समय उसके सीये जाने वाले कपड़ों के लिए मुसीबत बन रहा था। संयोग से, सारे घर भर में ये कपड़े बिखरे ही रहते। अब चूंकि मेरा योगदान मां के योगदान की तुलना में मामूली ही था, मेरी कला को तिलांजलि दे दी गयी।

इन दिनों हम अपने नाना से बहुत कम मिले थे। पिछले एक बरस से उनकी सेहत ठीक नहीं चल रही थी। उनके हाथ गठिया की वजह से सूज गये थे और इस कारण वे जूते गांठने का अपना धंधा नहीं कर पाते थे। पहले के वक्त में जब भी उनसे बन पड़ता, वे एकाध सिक्का दे कर मां की मदद कर दिया करते थे। कभी कभी वे हमारे लिए खाना भी बना दिया करते। वे आटे ओट और प्याज को दूध मे उबाल कर और उस पर नमक और काली मिर्च बुरक कर शानदार दलिये जैसा व्यंजन बनाया करते थे। सर्दी की रातों में ठंड का मुकाबला करने के लिए ये हमारा सबसे बढ़िया खाना होता।

जब मैं बच्चा था तो मैं नाना को हमेशा खरदिमाग और खड़ूस बूढ़ा समझा करता था जो मुझे हर वक्त किसी न किसी बात के लिए टोकते ही रहते थे। कभी व्याकरण के लिए तो कभी तमीज के लिए। इन छोटी-मोटी मुठभेड़ों के कारण ही मैंने उन्हें नापसंद करना शुरू कर दिया था। अब वे अस्पताल में अपने जोड़ों के दर्द की वजह से पड़े हुए थे और मां उन्हें रोज़ देखने के लिए अस्पताल जाती। अस्पताल की ये विजिटें बहुत फायदे की होतीं क्योंकि वह अक्सर थैला भर ताज़े अंडे ले कर वापिस आती। ये हमारी मुफ़लिसी के दिनों में विलासिता की तरह होते। जब वह खुद न जा पाती तो मुझे भेज देती। मुझे ये देख कर हमेशा बहुत हैरानी होती जब मैं नाना को बहुत ज्यादा सहमत और मेरे आने से खुश पाता। वे नर्सों में खासे लोकप्रिय थे। बाद की ज़िंदगी में उन्होंने मुझे बताया था कि वे नर्सों के साथ चुहलबाजी करते और उन्हें बताते कि जोड़ों के दर्द के बावज़ूद उनकी सारी मशीनरी काम से बेकार नहीं हुई है। इस तरह की अश्लील चुहलबाजी नर्सों को खुश कर देती। जब उनके जोड़ों का दर्द काबू में रहता तो वे जा कर रसोई में काम करते, और इस तरह से हमारे पास अंडे आते। विजिट वाले दिनों में वे आम तौर पर अपने बिस्तर पर ही होते और अपने बिस्तर के पास वाले केबिनेट से चुपके से अंडों का एक बड़ा-सा थैला थमा देते, जिसे मैं चलने से पहले नाविकों वाली अपनी बनियान में छुपा लेता।

हम कई-कई हफ्ते अंडों पर ही गुज़ार देते। उनका कुछ न कुछ बना ही लेते। उबले हुए, तले हुए या उनका कस्टर्ड ही बना लेते। बेशक नाना इस बात का विश्वास दिलाते कि सारी नर्सें उनकी दोस्त हैं और कमोबेश जानती हैं कि क्या कुछ चल रहा है, अस्पताल के वार्ड से उन अंडों के साथ बाहर निकलते समय हमेशा मुझे खटका लगा रहता। कभी लगता कि मैं मोम से चिकने फर्श पर फिसल कर गिर पड़ूंगा या मेरा फूला हुआ पेट पकड़ में आ जायेगा। इस बात की हैरानी होती थी कि जब भी मैं अस्पताल से बाहर आने को होता, सारी की सारी नर्सें वहां से गायब हो जातीं। हमारे लिये ये बहुत ही दु:खद दिन था जब नाना को अपने जोड़ों के दर्द से आराम आ गया और उन्हें अस्पताल छोड़ना पड़ा।

अब छ: सप्ताह बीतने को आये थे और सिडनी अब तक नहीं लौटा था। शुरू-शुरू में तो मां इससे इतनी चिंता में नहीं पड़ी लेकिन एक और हफ्ते की देरी के बाद मां ने डोनोवन एंड कैसल लाइन नाम के जहाज के दफ्तर को लिखा तो वहां से ये खबर मिली कि उसे जोड़ों के दर्द के इलाज के लिए केप टाउन के तट पर जहाज से उतार दिया गया है। इस खबर से मां चिंता में पड़ गयी और इससे उसकी सेहत पर बुरा असर पड़ा। अभी भी वह सिलाई मशीन पर काम कर रही थी और मैं भी इस मामले में किस्मत वाला था कि मुझे स्कूल के बाद एक परिवार में नृत्य के लैसन देने का काम मिल गया था और मुझे हफ्ते के पांच शिलिंग मिल जाया करते थे।

लगभग इन्हीं दिनों मैक्कार्थी परिवार केनिंगटन रोड पर रहने आया। मिसेज मैक्कार्थी आयरिश कामेडियन रही थीं और मां की सहेली थीं। उनकी शादी एक सर्टिफाइड एकांउटेंट वाल्टर मैक्कार्थी से हुई थी। लेकिन जब मां को मज़बूरन स्टेज छोड़ देना पड़ा तो हम लोगों की मैक्कार्थी परिवार से मिलने-जुलने की संभावना ही नहीं रही और अब वे सात बरस के बाद एक बार फिर मिल रहे थे। अब वे लोग केनिंगटन रोड के खास इलाके में वाल्कॉट मैन्सन में रहने के लिए आ गये थे।

उनका बेटा वैली मैक्कार्थी और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। जब हम छोटे थे तो बड़े लोगों की नकल किया करते थे मानो हम रंगारंग कार्यक्रम के कलाकार हों। हम काल्पनिक सिगार पीते, अपनी कल्पना की घोड़ी वाली बग्घी में सैर करते, और अपने माता-पिता का खूब मनोरंजन किया करते थे।

अब चूंकि मैक्कार्थी परिवार वाल्कॉट मैन्सन में रहने के लिए आ गया था, मां उनसे मिलने शायद ही कभी गयी हो लेकिन मैंने और वैली ने पक्की दोस्ती कर ली थी। स्कूल से वापिस लौटते ही मैं भाग कर मां के पास यह पूछने के लिए जाता कि मेरे लायक कोई काम तो नहीं है, फिर मैक्कार्थी परिवार के यहां भागा-भागा पहुंच जाता। हम वाल्कॉट मैन्सन के पिछवाड़े थियेटर खेलते। मैं चूंकि निर्देशक बनता इसलिए मैं हमेशा खलनायक वाले पात्र अपने लिए रखता। मैं अपने आप ही ये जानता था कि खलनायक का पात्र नायक की तुलना में ज्यादा रंगीन होता है। हम वैली के खाने के समय तक खेलते रहते। आम तौर पर मुझे भी बुलवा लिया जाता। खाने के समय के आस-पास मैंने अपने आप को उपलब्ध कराने के अचूक खुशामदी तरीके खोज निकाले थे। अलबत्ता, ऐसे मौके भी आते जब मेरी सारी तिकड़में काम न आतीं और मैं संकोच के साथ घर लौट आता। मां मुझे देख कर हमेशा खुश होती और मेरे खाने के लिए कुछ न कुछ बना देती। कभी शोरबे में तली हुई ब्रेड या नाना के यहां से जुटाये गये अंडों का कोई पकवान और एक कप चाय। वह मुझे कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाती या हम दोनों एक साथ खिड़की पर बैठ जाते और वह नीचे सड़क पर जा रहे राहगीरों के बारे में मज़ेदार बातें करके मेरा दिल बहलाती। उनके बारे में वह किस्से गढ़ कर सुनाती। यदि कोई आदमी खुशमिजाज, फिरकी जैसी चाल के साथ जा रहा होता तो मां कहता,"देखो जा रहे हैं श्रीमान हेपांडस्कौच, बेचारे शर्त लगाने की जगह जा रहे हैं। अगर आज उनकी किस्मत ने साथ दिया तो वह अपनी गर्लफ्रेंड के लिए दो सीटों वाली पुरानी साइकिल खरीदेंगे।"

जब कोई आदमी धीमी गति से कदम गिनते हुए गुजरता तो मां का किस्सा होता,"देखो बेचारे को, घर जा रहा है और उसे पता है आज खाने में उसे फिर से वही कद़दू मिलने वाला है। वह कद़दू से नफरत करता है।"

कोई अपनी ऐंठ में ही चला जा रहा होता तो मां कहती,"देखो, ये सभ्य समाज के सज्जन जा रहे हैं। लेकिन फिलहाल तो वे अपनी पैंट में हो गये छेद की वजह से खासे परेशान हैं।"

इसके बाद एक और आदमी तेज-तेज चाल से लपकता हुआ गुज़र जाता,"उस भले आदमी ने अभी अभी ईनो की खुराक ली है और ...।" और इस तरह से किस्से चलते रहते और हम हँस-हँस कर दोहरे हो जाते।

एक और सप्ताह बीतने को आया था लेकिन अभी भी सिडनी का कोई समाचार नहीं मिला था। अगर मैं और छोटा होता और मां की चिंता के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता तो मैं महसूस कर सकता था कि उसके दिल पर क्या गुज़र रही थी। मैंने तब इस बात को देखा होता कि वह कई दिनों से खिड़की की सिल पर ही बैठी बाहर देखती रहती थी। उसने कई दिन से कमरे को साफ तक नहीं किया था और बेहद शांत होती चली गयी थी। मैं शायद तब भी चिंता में पड़ा होता जब कमीज़ें बनाने वाली फर्म ने उसके काम में मीन-मेख निकालनी शुरू कर दी थी और उसे और काम देना बंद कर दिया था और जब वे बकाया किस्तों की अदायगी न होने के कारण सिलाई मशीन ही उठा कर ले गये और जब नृत्य के पाठ से होने वाली मेरी पांच शिलिंग की कमाई भी अचानक बंद हो गयी तो शायद इस सबके बीच मैंने इस बात पर ध्यान दिया हो कि मां लगातार उदासीन और किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही थी।

अचानक मिसेज मैक्कार्थी की मृत्यु हो गयी। वे कुछ अरसे से बीमार चल रही थीं। उनकी हालत खराब होती चली गयी और अचानक वे गुज़र गयी थीं। तत्काल ही मेरे दिमाग में ख्यालों ने हमला बोल दिया। कितना अच्छा होता अगर मिस्टर मैक्कार्थी मां से विवाह कर लेते। वैली और मैं तो अच्छे दोस्त थे ही। इसके अलावा, ये मां की समस्याओं का आदर्श हल भी होता।

संस्कार के तुरंत बाद मैंने मां से इस बात बारे में बात की,"अब तुम इसे अपनी दिनचर्या बना लो मां कि अक्सर मिस्टर मैक्कार्थी से मिल लिया करो। मैं शर्त बद कर कह सकता हूं कि वे तुमसे शादी कर लेंगे।"

मां कमजोरी से मुस्कुरायी,"उस बेचारे को एक मौका तो दो," मां ने जवाब दिया।

"मां, अगर तुम ढंग से तैयार हो जाया करो और अपने आपको आकर्षक बना लो, जैसा तुम पहले हुआ करती थी तो वे जरूर तुम्हें पसंद कर लेंगे। लेकिन तुम तो अपनी तरफ से कोई कोशिश ही नहीं करती, बस, इस गंदे कमरे में पसरी बैठी रहती हो और वाहियात नज़र आती हो।"

बेचारी मां, मैं अपने इन शब्दों पर कितना अफ़सोस करता हूं। मैं इस बात को कभी सोच ही नहीं पाया कि वह खाना पूरा न मिलने के कारण कमज़ोर थी। इसके बावजूद अगले दिन, पता नहीं उसमें कहां से इतनी ताकत आ गयी, उसने सारा कमरा साफ-सूफ कर दिया। स्कूल में गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो गयी थीं। इसलिए मैंने सोचा, मैक्कार्थी परिवार के यहां थोड़ा पहले ही चला जाऊं। अपने उस मनहूस दड़बे से बाहर निकलने का कोई तो बहाना चाहिये ही था। उन्होंने मुझे लंच तक रुकने का न्यौता दिया था। लेकिन मुझे ऐसा आभास हो रहा था कि मुझे मां के पास वापिस लौट जाना चाहिये। जब मैं पाउनाल टैरेस वापिस पहुंचा तो पड़ोस के कुछ बच्चों ने मुझे गेट के पास ही रोक लिया,"तुम्हारी मां पागल हो गयी है, एक छोटी सी लड़की ने कहा।

ये शब्द तमाचे की तरह मेरे मुंह पर आ लगे।

"क्या मतलब है तुम्हारा?" मैं घिघियाया।

"ये सच है," दूसरी ने बताया।

"वो सारे घरों के दरवाजे खटखटाती फिर रही थी और हाथ में कोयले के टुकड़े ले कर बांटती फिर रही थी कि ये बच्चों के लिए जन्मदिन का उपहार है। चाहो तो तुम मेरी मां से भी पूछ सकते हो।"

और कुछ सुने बिना मैं रास्ते से दौड़ा, खुले दरवाजे से घर के भीतर गया, फलांगता हुआ सीढ़ियां चढ़ा और अपने कमरे का दरवाजा खोला। एक पल के लिए अपनी सांस पर काबू पाने के लिए मैं थमा और मां को गहरी नज़र से देखने लगा। ये गरमी की दोपहरी थी और माहौल घुटा-घुटा सा और दबाव महसूस कराने वाला था। मां हमेशा की तरह खिड़की पर बैठी हुई थी। वह धीमे से मुड़ी और उसने मेरी तरफ देखा। उसका चेहरा पीला और पीड़ा से एòठा हुआ लग रहा था।

"मां," मैं लगभग चिल्ला उठा।

"क्या हुआ?" मां ने निर्विकार भाव से पूछा।

तब मैं दौड़ कर गया और अपने घुटनों के बल गिरा और उसकी गोद में अपना मुंह छुपा लिया। ज़ोर से मेरी रुलाई फूट पड़ी।

"रुको, रुको, बेटे," वह हौले से मेरा सिर सहलाते हुए बोली,"क्या हो गया मेरे बच्चे?"

"तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है," मैं सुबकते हुए चिल्लाया।

वह मुझे आश्वस्त करते हुए बोली,"मैं तो बिल्कुल चंगी हूं।"

वह बहुत ज्यादा खोयी-खोयी और ख्यालों में डूबी रही थी।

"नहीं, नहीं, वे सब बता रहे हैं कि तुम सब घरों में फिरती रही थी और . . और . ." मैं अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया, लेकिन सुबकता रहा।

"मैं सिडनी को तलाश कर रही थी," वह कमज़ोरी से बोली,"वे उसे मुझसे दूर रखे हुए हैं।"

तब मुझे पता चला कि जो कुछ बच्चे बता रहे थे, वह सही था।

"ओह मां, इस तरह की बातें मत करो। नहीं, नहीं," मैं सुबकने लगा,"मैं तुम्हारे लिए डॉक्टर बुलवाता हूं।"

वह मेरा सिर सहलाते हुए बोलती रही,"मैक्कार्थी जी को मालूम है कि वह कहां है और वे उसे मुझे दूर रखे हुए हैं।"

"मम्मी, मम्मी, मुझे जरा डाक्टर को बुलवा लेने दो," मैं चिल्लाया। मैं उठा और सीधे दरवाजे की तरफ लपका।

मां ने दर्दभरी निगाहों से मेरी तरफ देखा और पूछा,"कहां जा रहे हो?"

"डॉक्टर को लिवाने। मुझे ज्यादा देर नहीं लगेगी।"

मां ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मेरी तरफ चिंतातुर निगाहों से देखती रही। मैं तेजी से लपक कर नीचे गया और मकान मालकिन के पास पहुंचा।

"मुझे तुरंत डॉक्टर को बुलवाना पड़ेगा। मां की हालत ठीक नहीं है।"

"हमने पहले ही डॉक्टर को बुलवा लिया है।" मकान मालकिन ने बताया।

खैराती डॉक्टर बूढ़ा और चिड़चिड़ा था। मकान मालकिन की दास्तान सुन लेने के बाद, जो कमोबेश बच्चों के बताये किस्से जैसी ही थी, उसने मां की सरसरी तौर पर जांच की।

"पागल ... इसे आप अस्पताल भिजवाइये," कहा उसने।

डॉक्टर ने एक पर्ची लिखी। दूसरी बातों के अलावा इसमें ये लिखा था कि वह कुपोषण की मरीज थी। डॉक्टर ने इसका मतलब मुझे ये बताया कि उसे पूरी खुराक नहीं मिलती रही है।

मकान मालकिन ने मुझे दिलासा देते हुए कहा,"ठीक हो जायेगी बेटा, और उसे वहां खाना भी ठीक तरह से मिलेगा।"

मकान मालकिन ने मां के कपड़े-लत्ते जमा करने में मेरी मदद की और उसे कपड़े पहनाये। मां एक बच्चे की तरह सारी बातें मानती रही। वह इतनी कमज़ोर थी कि उसकी इच्छा शक्ति ने मानो उसका साथ छोड़ दिया हो। जब हम घर से चले तो पास-पड़ोस के बच्चे और पड़ोसी मजमा लगाये गेट के पास खड़े थे और इस अनहोनी को देख रहे थे।

अस्पताल लगभग एक मील दूर था। जब हम वहां के लिए चल रहे थे तो मां कमज़ोरी के कारण किसी शराबी औरत की तरह लड़खड़ा कर चल रही थी और दायें-बायें झूम रही थी। मैं उसे किसी तरह संभाले हुए था। उस दोपहरी में धूप का तीखापन हमें अपनी गरीबी का अहसास बेदर्दी से करवा रहा था। जो लोग हमारे आस पास से गुज़र कर जा रहे थे जरूर सोच रहे होंगे कि मां ने पी रखी है, लेकिन मेरे लिए वे सपने में अजगरों की तरह थे। वह बिल्कुल भी नहीं बोली लेकिन शायद वह जानती थी कि उसे कहां ले जाया जा रहा है और उसे वहां पहुंचने की चिंता भी थी। रास्ते में मैंने उसे आश्वस्त करने की कोशिश की ओर वह मुस्कुरायी भी। लेकिन यह मुस्कुराहट बेहद कमज़ोर थी।

आखिरकार जब हम अस्पताल में पहुंचे तो एक युवा डॉक्टर ने मां को अपनी देखभाल में ले लिया। नोट को पढ़ने के बाद उसने दयालुता से कहा,"ठीक है मिसेज चैप्लिन, आप इधर से आइये।"

मां ने चुपचाप उसकी बात मान ली। लेकिन जब नर्सें उसे ले जाने लगीं तो वह अचानक मुड़ी और दर्द भरी निगारहों से मुझे देखने लगी। उसे पता चल गया था कि वह मुझे छोड़ कर जा रही है।

"मां, मैं कल आऊंगा," मैंने कमज़ोर उत्साह से कहा।

जब वे उसे ले जा रहे थे तो वह पीछे मुड़ मुड कर मेरी तरफ चिंतातुर निगाहों से देख रही थी। जब वह जा चुकी तो डाक्टर ने मुझसे कहा,"अब तुम्‍हारा क्या होगा, मेरे नौजवान दोस्त?"

अब तक मैं यतीनखानों के स्कूलों की बहुत रोटियां तोड़ चुका था इसलिए मैंने लापरवाही से जवाब दिया,"मैं अपनी आंटी के यहां रह लूंगा।"

जब मैं अस्पताल से घर की तरफ वापिस लौट रहा था मैं सिर्फ सुन्न कर देने वाली उदासी ही महसूस कर पा रहा था। इसके बावजूद मैं राहत महसूस कर रहा था। क्योंकि मैं जानता था कि अस्पताल में मां की बेहतर देखभाल हो पायेगी बजाये घर के अंधेरे में बैठे रहने के जहां खाने को एक दाना भी नहीं हैं लेकिन जब वे लोग उसे ले जा रहे थे जो जिस तरह से उसने दिल चीर देने वाली निगाह से मुझे देखा था, वह मैं कभी भी भूल नहीं पाऊंगा। मैंने उसके सभी सहन करने के तरीकों के बारे में सोचा, उसकी चाल के बारे में सोचा, उसके दुलार और उसके प्यार के बारे में सोचा, और मैंने उस कृष काया के बारे में सोचा जो थकी हारी नीचे आती थी और अपने ही ख्यालों में खोयी रहती थी और मुझे अपनी तरफ लपकते हुए आते देखते ही जिसके चेहरे पर रौनक आ जाती थी। किस तरह से वह एकदम बदल जाती थी और जब मैं उसके लिफाफे की तलाशी लेने लगता था जिसमें वह मेरे और सिडनी के लिए अच्छी अच्छी च़ाजें लाती थी तो उसके चेहरे के भाव कितने अच्छे हो जाते थे और वह मुस्कुराने लगती थी। यहां तक कि उस सुबह भी उसने मेरे लिए कैंडी बचा कर रखी थी और जिस वक्त मैं उसकी गोद में रो रहा था, उसने मुझे कैंडी दी थी।

मैं सीधा घर वापिस नहीं गया। मैं जा ही नहीं सका। मैं नेविंगटन बट्स मार्केट की तरफ मुड़ गया और दोपहर ढलने तक दुकानों की खिड़कियों में देखता रहा। जब मैं अपनी परछत्ती पर वापिस लौटा तो वह हद दरजे तक खाली-खाली लग रही थी। एक कुर्सी पर पानी का टब रखा हुआ था। आधा पानी से भरा हुआ। मेरी दो कमीजें और एक बनियान उसमें भिगोने के लिए रखे हुए थे। मैंने तलाशना शुरू किया। घर में खाने को कुछ भी नहीं था। अल्मारी में सिर्फ चाय की पत्ती का आधा भरा पैकेट रखा हुआ था। मेंटलपीस पर मां का पर्स रखा हुआ था जिसमें मुझे तीन पेनी के सिक्के और गिरवी वाली दुकान की कई पर्चियां मिलीं। मेज के कोने पर वही कैंडी रखी हुई थी जो उसने मुझे सुबह दी थी। जब मैं अपने आपको संभाल नहीं पाया और फूट फूट कर रोया।

भावनात्मक रूप से मैं चुक गया था। उस रात मैं गहरी नींद सोया। सुबह मैं जागा तो कमरे का खालीपन भांय भांय कर रहा था। फर्श पर बढ़ती आती सूर्य की किरणें जैसे मां की गैर मौजूदगी का अहसास करवा रही थीं। बाद में मकान मालकिन आयी और बताने लगी कि मैं वहां पर तब तक रह सकता हूं जब तब वह कमरा किराये पर नहीं दे देती और अगर मुझे खाने की ज़रूरत हो तो मुझे कहने भर की देर होगी। मैंने उसका आभार माना और उसे बताया कि जब सिडनी वापिस आयेगा तो उसके सारे कर्जे उतार देगा। लेकिन मैं इतना शरमा रहा था कि खाने के लिए कह ही नहीं पाया।

हालांकि मैंने मां से वायदा किया था कि अगले दिन उससे मिलने जाऊंगा लेकिन मैं नहीं गया। मैं जा ही नहीं पाया। जाने का मतलब उसे और विचलित करना होता। लेकिन मकान मालकिन डॉक्टर से मिली। डॉक्टर ने उसे बताया कि मां को पहले ही केन हिल पागल खाने में ले जाया जा चुका है। इस उदासी भरी खबर ने मेरी आत्मा पर से बोझ हटा दिया क्योंकि केन हिल पागलखाना वहां से बीस मील दूर था और वहां तक जाने का मेरे पास कोई जरिया नहीं था। सिडनी जल्दी ही लौटने वाला था और तब हम दोनों उसे देखने जा पाते। पहले कुछ दिन तक तो मैं न अपने किसी परिचित से मिला और न ही किसी से बात ही की।

मैं सुबह सुबह ही घर से निकल जाता और सारा दिन मारा मारा फिरता। मैं कहीं न कहीं से खाने का जुगाड़ कर ही लेता। इसके अलावा, एक आध बार का खाना गोल कर जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक सुबह जब मैं चुपके से सरक कर बाहर जा रहा था तो मकान मालकिन की निगाह मुझ पर पड़ गयी और उसने पूछा कि क्या मैंने नाश्ता किया है।

मैंने सिर हिलाया, वह मुझे अपने साथ ले गयी,"तब चलो मेरे साथ," उसने अपनी भारी आवाज में कहा।

मैं मैक्कार्थी परिवार से दूर दूर ही रहा क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि उन्हें मां के बारे में पता चले। मैं किसी भगोड़े सैनिक की तरह सबकी निगाहों से बचता ही रहा।

मां को गये एक सप्ताह बीत चुका था और मैंने राम भरोसे रहने की आदत डाल ली थी जिस पर न तो अफसोस किया जा सकता था और न ही उसे आनंददायक ही कहा जा सकता था। मेरी सबसे बड़ी चिंता मकान मालकिन थी क्योंकि अगर सिडनी वापिस न आया तो देर सबेर वह मेरे बारे में सुधारगृह वालों को बता ही देगी और मुझे एक बार फिर हैनवेल स्कूल में भेज दिया जायेगा, इसलिए मैं उसके सामने पड़ने से कतरा रहा था और कई बार तो बाहर ही सो जाता।

मैं कुछ लकड़ी चीरने वालों से जा टकराया जो केनिंगटन रोड के पिछवाड़े की तरफ एक घुड़साल में काम करते थे। ये सड़क छाप से दिखने वाले लोग थे जो एक अंधेरे से भरे दालान में काम करते थे और फुसफुसा कर बातें करते, सारा दिन लकड़ियां चीरते और कुल्हाड़ी से उनकी फांकें तैयार करते। बाद में वे उनके आधी आधी पेनी के बंडल बना देते। मैं उनके खुले दरवाजे के आस पास मंडराता रहता और उन्हें काम करते हुए देखता। उनके पास एक फुट का लकड़ी का गुटका होता। वे उसकी पतली पतली फांकें बनाते और फिर से इन फांकों को तीलियों में बदल डालते। वे इतनी तेजी से लकड़ियां चीरते कि मैं हैरान हो कर देखता ही रह जाता। मुझे उनका ये काम बेहद आकर्षित करता। जल्द ही मैं उनकी मदद करने लगा। वे अपने लिए लकड़ी के लट्ठे इमारतें गिराने वाले ठेकेदारों से लाते और उन्हें ढो कर शेड तक लाते, उनके चट्टे बना कर रखते। इस काम में पूरा एक दिन लग जाता। फिर वे एक दिन लकड़ियां चीरने का काम करते और उससे अगले दिन उसकी तीलियां बनाते। शुक्रवार और शनिवार वे जलावन की लकड़ियां बेचने के लिए निकलते लेकिन बेचने के काम में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। शेड में काम करना कहीं ज्यादा रोमांचक लगता था।

वे लोग तीस और चालीस बरस की उम्र के बीच के शालीन, शांत लोग थे हालांकि वे बरताव बड़ी उम्र के लोगों का करते और लगते भी ज्यादा उम्र के थे। बॉस (जैसा कि हम उसे कहा करते थे) मधुमेह की वजह से लाल नाक वाला था। उसके ऊपर के दांत झड़ गये थे, बस एक ही दांत लटकता रहता लेकिन फिर भी न जाने क्यों उसके चेहरे में एक अपनेपन का अहसास होता था। अच्छा लगता था वह। वह अजीब तरीके से हँसता जिससे उसका इकलौता दांत दिखायी देने लगता। जब चाय के लिए एक और कप की ज़रूरत होती तो वह दूध का टिन उठाता, उसे धोता, पोंछता और कहता,"क्या ख्याल है इसके बारे में?"

दूसरा आदमी हालांकि सहमत लगता, शांत, सूजे से चेहरे वाला, मोटे होंठों वाला, व्यक्ति था। वह बहुत धीरे धीरे बोलता, एक बजे के करीब बॉस मेरी तरफ देखता,"ऐय क्या तुमने कभी चीज़ की पपड़ी से बना अधपके मांस का स्वाद लिया है?"

"हमने इसे कई बार खाया है," मैं जवाब देता।

तब ठहाके लगाते हुए और खींसे निपोरते हुए वह मुझे दो पेंस देता और मैं ऐश की राशन की दुकान पर जाता, ये कोने पर चाय की दुकान थी। वह मुझे पसंद करता था और मेरे पैसों पर हमेशा ढेर सारी चीजें दे दिया करता। मैं वहां से एक पेनी की चीज की पपड़ी लेता, और एक पेनी की बेड। चीज को धो लेने और उसकी पपड़ियां बना लेने के बाद हम उसमें पानी मिलाते, थोड़ा नमक और काली मिर्च डालते, कई बार बॉस उसमें थोड़ी सी सूअर की चर्बी और कतरे हुए प्याज भी छोड़ देता और ये सारी चीजें मिल कर चाय के कैन के साथ बहुत ही पेट भर कर खाने वाला मामला हो जाता।

हालांकि मैं कभी पैसों के लिए पूछता नहीं था, हफ्ता बीतने पर बॉस ने मुझे छ: पेंस दिये। ये मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। जो, जिसका चेहरा फूला हुआ था, उसे मिर्गी के दौरे पड़ते। तब बॉस उसे होश में लाने के लिए उसकी नाक के नीचे खाकी कागज जला कर उसे सुंघाता। कई बार तो उसके मुंह से झाग निकलने शुरू हो जाते और वह अपनी जीभ काटने लगता। जब वह होश में आता तो बेहद दयनीय और शर्मिंदा लगता।

लकड़हारे सुबह सात बजे से लेकर रात के सात बजे तक काम करते रहते। कई बार उसके बाद भी। जब वे शेड में ताला लगा कर घर की तरफ रवाना होते, मैं हमेशा उदास हो जाया करता। एक दिन बॉस ने तय किया कि वह हम सबको ट्रीट देगा और साउथ म्यूजिक हॉल में दो पेनी की गेलरी सीटों पर शो दिखायेगा। मैं और जो पहले ही हाथ मुंह धो चुके थे और बॉस का इंतजार कर रहे थे। मैं बेहद रोमांचित था क्योंकि उस हफ्ते फ्रेड कार्नो की कॉमेडी अर्ली बर्ड्स ( इस कम्पनी में मैं कई बरस बाद शामिल हुआ) चल रहा था। जो घुड़साल की दीवार के सहारे खड़ा हुआ था और मैं उसके सामने उत्साहित और रोमांचित खड़ा हुआ था। तभी अचानक जो ने बहुत तेज आवाज़ में चीख मारी और उसे दौरा पड़ा और वह उसी में दीवार के सहारे ही नीचे गिर गया। जो होना था, वह कुछ ज्यादा ही था। जब जो को होश आया तो बॉस चाहते थे कि वे वहीं रुक कर उसकी देखभाल करें लेकिन जो ने जिद की कि वह एकदम ठीक है और हम दोनों उसके बगैर चले जायें। वह सुबह तक एकदम चंगा हो जायेगा।

स्कूल की धमकी एक ऐसी दानव था जिसने कभी भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। बीच बीच में लकड़ी चीरने वाले मुझसे स्कूल के बारे में सवाल पूछ लेते। जब छुट्टियां खत्म हो गयीं तो वे थोड़े से बेचैने हो गये। अब मैं साढ़े चार बजे तक, यानी स्कूल के छूटने के वक्त तक गलियों में मारा मारा फिरता, लेकिन ये बहुत मुश्किल काम था। बेमतलब गलियों में फिरते रहना और साढ़े चार बजे तक इंतज़ार करना जब मैं अपनी राहत की जगह पर और लकड़ी चीरने वालों के पास लौट सकता।

एक रात जब मैं चुपके से सोने के लिए अपने बिस्तर में सरक रहा था, मकान मालकिन मुझसे मिलने के लिए आयी। वह बेचारी मेरी राह देखती बैठी थी। वह बहुत उत्तेजित थी। उसने मुझे एक तार थमाया जिस पर लिखा था,"कल सुबह दस बजे वाटरलू स्टेशन परे पहुंचूंगा। प्यार, सिडनी।

जिस वक्त मैं उससे स्टेशन पर मिला तो मेरी हालत वाकई खराब थी। मेरे कपड़े गंदे और फटे हुए थे और मेरी कैप में से धागे इस तरह से लटके हुए थे मानो किसी लड़की के स्कर्ट के नीचे झालरें लटकती नज़र आती हैं। मैंने लकड़ी चीरने वालों के यहां ही मुंह धो लिया था और इस तरह से मैं तीसरी मंज़िल तक दो डोल पानी के भर कर ले जाने और मकान मालकिन की रसोई के आगे से गुज़रने की जहमत उठाने से बच गया था। जब मैं सिडनी से मिला तो मेरे कानों और गर्दन के आस पास रात की गंदगी और मैल की परत दिखायी दे रही थी।

मेरी तरफ देखते हुए सिडनी ने पूछा,"क्या हुआ है?"

मैंने सीधे ही खबर नहीं दी। थोड़ा वक्त लिया,"मां पागल हो गयी है और हमें उसे अस्पताल भेजना पड़ा।"

उसका चेहरा चिंता से घिर गया लेकिन उसने अपने आप पर काबू पा लिया,"तो तुम कहां रह रहे हो इस वक्त?"

"वहीं पाउनाल टैरेस"

वह अपना सामान देखने के लिए मुड़ा। उसने एक हाथ गाड़ी का आर्डर दिया और जब कुलियों ने उस पर उसके सामान के चट्टे लगाये तो सबसे ऊपर केलों की एक गेल भी थी।

"ये हमारे हैं क्या?" मैं बेसब्री से पूछा।

उसने सिर हिलाया,"अभी ये कच्चे हैं। इनके तैयार होने में हमें एकाध दिन का इंतज़ार करना पड़ेगा।"

घर आते समय रास्ते में उसने मां के बारे में सवाल पूछने शुरू कर दिये। मैं इतने उत्साह में था कि सारी बातें सिलसिलेवार बता ही नहीं पाया लेकिन उसे सारे सूत्र मिल गये थे। तब उसने बताया कि वह बीमार हो गया था और उसे केप टाउन में उतार कर अस्पताल में ही छोड़ दिया गया था। और कि वापसी की यात्रा में उसने बीस पाउंड कमा लिये थे। ये पैसे वह मां को दे कर जाना चाहता था। उसने ये पैसे सैनिकों के लिए जूए और लाटरी के इंतजाम करके कमाये थे।

उसने मुझे अपनी योजनाओं के बारे में बताया। वह अब अपनी समुद्री यात्राएं छोड़ देने का इरादा रखता था और अभिनेता बनना चाहता था। उसने बताया कि ये पैसे हमारे लिए बीस हफ्तों के लिए काफी होंगे और तब तक उसे थियेटर में कोई न कोई काम मिल ही जायेगा।

जब हम टैक्सी में केलों की गेल के साथ घर पहुंचे तो पड़ोसियों और मकान मालकिन पर इसका बहुत अच्छा असर पड़ा। मकान मालकिन ने सिडनी को मां के बारे में बताया लेकिन सारे डरावने ब्यौरे नहीं बताये।

उसी दिन सिडनी शॉपिंग के लिए गया और मेरे लिए नये कपड़े खरीदे। और उसी रात पूरी सज धज के साथ हम दोनों साउथ म्यूजिकल हॉल के स्टाल में जा पहुंचे। नाटक के दौरान सिडनी लगातार कहता रहा,"जरा सोचो तो, मां के लिए इस सब का क्या मतलब होता।"

उसी हफ्ते हम मां को देखने के लिए केन हिल गये। जिस वक्त हम विजिटिंग रूम में बैठे हुए थे, वहां बैठ कर इंतज़ार करना बहुत कठिन काम लग रहा था। मुझे याद है कि चाभी घूमने की आवाज़ आयी थी और मां चल कर आ रही थी। वह पीली ऩज़र आ रही थी। उसके होंठ नीले पड़ गये थे। हालांकि उसने हमें पहचान लिया था, उसमें उत्साह नहीं था और उसकी पुरानी जीवन शक्ति जा चुकी थी। उसके साथ एक नर्स आयी थी। बातूनी और भली महिला। वह खड़ी हो कर बात करना चाह रही थी। कहने लगी,"आप लोग बहुत ही गलत वक्त पर आये हैं। आज आपकी मां की हालत बहुत अच्छी नहीं है। नहीं क्या?" उसने मां की तरफ देखा।

मां विनम्रता से मुसकुरायी मानो उसके जाने की राह देख रही हो।

नर्स ने आगे कहा,"अगली बार जब मां की हालत अच्छी हो तुम लोग ज़रूर आना।"

आखिरकार वह चली गयी और हमें अकेला छोड़ दिया गया। हालांकि सिडनी ने मां का मूड बेहतर करने की कोशिश की और उसे अपनी किसमत के चमकने और पैसा कमाने और इतने अरसे तक बाहर रहने के बारे में किस्से बताता रहा, वह बैठी सिर्फ सुनती रही और सिर हिलाती रही। वह अपने ही ख्यालों में गुम लग रही थी। मैंने मां को बताया कि वह जल्दी ही चंगी हो जायेगी। "हां बेशक," मां ने मायूसी से कहा,"काश उस दोपहर तुमने मुझे एक कप चाय दे दी होती तो मैं एक दम ठीक हो जाती।"

बाद में डॉक्टर ने सिडनी को बताया कि कम खुराक मिलने की वजह से मां के दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ा है और उसे ठीक ठाक इलाज की ज़रूरत है और कि हालांकि उसे बीच ब्ची में बातें याद आती हैं, पूरी तरह से ठीक होने मे उसे कई महीने लगेंगे।

लेकिन मैं कई दिन तक मां के इस जुमले से मुक्त नहीं हो सका कि "काश उस दोपहर तुमने मुझे एक कप चाय दे दी होती तो मैं एक दम ठीक हो जाती।"