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रत्नावली 15

रत्नावली
रामगोपाल भावुक


पदह
रत्नावली जैसे ही चटाई डालकर लेटीं, सोमवती के बाद मिलने के काल्पनिक विम्ब मन ही मन बनाने-मिटाने लगीं। यों ही सोचते-सोचते थकावट के कारण पता नहीं कब नींद लग गयी ?
सोमवती के दिन घाट पर बहुत अधिक भीड़ थी। ये लोग भी भीड़ के कारण दिन निकलने तक निवृत हो पाये।
कामतानाथ के दर्शन करने जाना ही था। वे राम घाट से निकल कर नाले को पार करते हुये गाड़ी की गड़वात के रास्ते से चलते हुये कामदगिरि पर्वत के मुखारविन्द पर जा पहंचे। वहॉं भगवान कामतानाथ की मूर्ति के उन्होंने भक्ति भाव से दर्शन किये। श्रीफल फोड़कर तथा धूप दीप से प्रभू की पूजा-अर्चना की। उसके बाद वे कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा के लिए निकल पड़े़। पर्वत के नीचे-नीचे पगडण्डी से होते हुये, घने जंगल के बीचों-बीच परिक्रमा लगाने लगे। जय श्रीराम जै जै श्रीराम की ध्वनि उनके अन्तस् से फूटने लगी। श्रीराम की धुन में वे पूरी तरह लीन हो गये। अब वे उस स्थान पर आ गये जहॉं तुलसीदास जी ने अपना चातुर्मास व्यतीत किया था। स्थान की रमणीयता उनके मन को भा गयी । वे उस आश्रम में अन्दर पहॅुंचगये। अभी भी कुछ साधू-महात्मा वहॉं अपनी धूनी रमाये हुये थे। श्रीराम के नाम का कीर्तन चल रहा था। लोग साधु-महात्माओं के चरण छूने दौड़े चले आ रहे थे। यह देखकर रत्नावली सोच रही थीं- इन बाबा-बैरागियों के मजे हैं। अच्छे-अच्छे चरण छूने चले आ रहे हैं। और ये हैं कि अपने चरण छुवाने में भी नखड़े कर रहे हैं। जैसे, कोई उनके चरण छूकर जाने क्या लूट ले जायेगा! ...और वह कुछ ले भी गया तो वह लूट के माल की तरह अस्थाई भी होगा। अरे, किसी को कुछ मिलेगा तो अपनी ही श्रम-साधना से ।
यहाँ कुछ समय के विश्राम के बाद, स्थान की रमणीयता को मन में बसाकर वे आगे बढ़े। बूढ़े पीपल की परिक्रमा करते हुये वे लक्ष्मण टेकरी पर जा पहुँच। यहाँ एक मन्दिर बना हुआ था। उन्होंने वहां का पूरा आनन्द लिया। वे वहॉं से कामदगिरि पर्वत की ऊपरी सतह का अवलोकन करने लगे। परिक्रमा में कई छोटे-छोटे मन्दिर बनते जा रहे थे। उस स्थान का आनन्द रत्नावली के हृदय में पूरी तरह समा गया जहॉं भगवान श्रीराम और भरत का मिलन हुआ था। पत्थर के शिला खण्डों पर दोनों के चरण चिन्ह देखकर उन्हें लगा-‘ये उस समय की घटना की याद दिलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं।‘
जब परिक्रमा समाप्त हो गयी , उनके मन ने निष्कर्ष निकाला- निश्चय ही परिक्रमा के मनमोहक दृश्य आत्मसन्तोष प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं।
भ्रमण का क्रम चल रहा था। अगले दिन मंगलवार का दिन था। वे हनुमान धारा की तरफ मुड़ गये। तीसरे दिन जत्था चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़ा। घने जंगलों के बीच से पगडंडी रास्ते से चलते हुये जानकी कुण्ड से फटिक सिला के दर्शन करते हुये आगे बढ़े। रत्नावली गुमसुम सोच रही थीं- श्री राम ने सीता के साथ में जीवन का सुख-दुख यहीं भोगा है...और आपको तो मुझसे मिलने के लिए समय ही नहीं है! रामजी तो इतने निष्ठुर नहीं हैं.......समझ नहीं आता, उसी इष्ट ने आपको इतना निष्ठुर कैसे बना दिया?
रास्ते में एक साधु यात्रियों का जत्था भी मिल गया। साधुओें की बजह से रास्ते की जानकारी में परेशानी नहीं हुयी। वे अंधेरा होते-होते सती अनुसुइया के आश्रम पर जा पहुँचे। पर्वत के नीचे थी एक साधु महाराज की कुटिया। रात यहीं व्यतीत करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं था। कुछ लोग अपने साथ आटा और नमक-मिर्च लिए थे। रास्ते में से सूखी लकडियां बीन ली गयी थीं। सती अनसुइया के चरणों के दर्शन करने के बाद, एक पेड़ के नीचे उन्होंने डेरा जमा लिया। आग जला ली गयी । तीन चार जगह स्त्रियाँ अपनी बिरादरी के हिसाब से इस आग को घेरकर बैठ गयीं। अलग-अलग झुन्डों में रोटियाँ सेकी जाने लगीं।
जंगली जानवरों से बचने के लिए रात भर आग जलाये रखने की आवश्यकता थी। पुरुष वर्ग इसकी तैयारी करने लगा ।
भोर के चले थे। सभी भूखे थे, । रोटियाँ सिककर तैयार हो गयी । उनने जंगल में रोटियो का भरपूर आनन्द लिया। जब वे निवृत हो गये तो लोकगीतों का स्वर फूट पड़ा।
रत्नावली इस जगह के बारे में विस्तार से सोच रही थीं कि क्या भगवान राम इसी जगह माँअनसुइया के दर्शन करने आये थे? क्या यहीं सीता माता को मातेश्वरी अनसुइया ने सतीत्व के बारे में उपदेश दिया था! मतेश्वरी अनुसुइया इस घने जंगल में रहती थीं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को इन्होंने ही बालक बनाकर अपने यहंाँ पालने में झुलाया था। धरती और स्वर्ग का समन्वय था इस जगह।
इसी समय शेर की दहाडने की आवाज से जंगल गूंज गया। कुटिया से साधु महाराज यात्रियो को दम दिलासा देने बाहर निकल आये, बोले-‘आप लोग डरें नहीं। यहॉं शेर कभी नहीं आता। अनुसुइया माँ के नाम का जाप करते रहें। आप उन पर भरोसा रखें। हॉं किसी के मन में यदि माँकी शक्ति पर शंका हो गयी तो हमें दोष न देना। जिसे माँपर सन्देह हो, वह हमारी कुटिया में चलें।’ यह कहकर साधु महाराज कुटिया में चले गये। सभी ने तेज आग जला ली थी।
रामा भैया बोले ‘आप लोग सो जाओ। मैं आग जलाता रहूँगा। शेर आग को देखकर उसके पास नहीं आता। आप डरें नहीं।‘
रत्नावली सोच रही थी- मुझे इस शेर का क्या डर? मुझे तो द्वन्द्व रूपी शेर हर घड़ी मार रहा है। इससे बचने के लिए कौनसी आग जलाऊँ!
खैर, ऐसे में नींद किसे आती। रात मातेश्वरी अनुसुइया के नाम की माला फेरने में व्यतीत हो गयी । सुबह पक्षियों का कलरव आश्रम में आये लागों का स्वागत करने लगा। लोगों के मन में शेर की आशंका दूर हो गयी । अब उन्होंने मन्दाकिनी के कल-कल करते प्रवाह में स्नान किया। सती अनुसुइया जी के चरणों का वनफूलों के साथ जल से अभिषेक किया और वहॉं से चल दिये। वह साधु सन्यासियों का दल भी साथ था ही। इसलिए जंगल को पार करने में कठिनाई नहीं हुयी। चलते ही गये। दोपहर होने को हो गयी । तब कहीं एक गाँवमिला। उन ने गाँव के पास बहते झरने से जल पिया। उन्हें तेज भूख लगी थी। झोपड़ों की तरफ दृष्टि डाली तो उनके अपने अभावों के दृश्य को देखकर उनने आगे बढ़ने का निश्चय किया।
रत्नावली लोगों के अभाव देखकर सोचने लगी- सती अनुसुइया के धाम में इतनी विपन्नता! ऐसे चमत्कारिक स्थानों पर इतने अभाव तो न रहें, इससे आस्था डगमगाने लगती है।
चित्रकूट पहुँचते-पहुँचते दिन ढल गया। पीपल की छाया में आकर बैठ गये। मेला समाप्त हो गया था। यात्री जा चुके थे। कुछ शेष बचे थे। वे भी लौटने की तैयारी कर रहे थे। रामा भैया गोस्वामी जी से मिलने चले गये। जब लौटे, अपने साथ प्रसादी लिए थे। वे प्रसादी बाँटते हुये बोले-‘पहले प्रसादी पा लो, मन्दाकिनी मैया का शीतल जल पी लो। फिर भोजन बनने दो। आटा-दाल की गोस्वामी जी ने व्यवस्था कर दी है।‘ उन्हें लग रहा था- गोस्वामी जी हमारा कितना ध्यान रख रहे हैं ?
सभी अपना-अपना भोजन बनाने लगे। रत्ना मैया ने भी अपना भोजन बनाया। जब भोजन बन गया तो रत्नावली सोचने लगीं- मैं इनसे मिलने यहाँ आयी हूँ तो भोजन करने का निमंत्रण ही भेज दूँ! वैसे ये आने वाले तो हैं नहीं। मैं इनके मन को खूब जानती हूँ, फिर भी स्त्री धर्म के नाते बुलाना न भेजना मेरी चूक होगी। यह सोचकर बोली-‘रामा भैया , जाकर अपने गुरुजी को भोजन के लिए बुला लाओ। वे शायद, आज मेरे हाथ का भोजन कर लें।‘
रामा भैया चुपचाप चले गये। उन्हें लौटने में देर हो गयी । तब तक सब भूखे ही बैठे रहे।
जब रामा भैया लौट कर आये, बहुत देर हो चुकी थी। वे भूखे प्यासे गोस्वामी जी की प्रतीक्षा में ऊॅंघ रहे थे। उन्हें अकेले आया देखकर वे समझ गये, गोस्वामी जी नहीं आये। आशा की डोर से बंधा मन टूट गया। रत्नावली सोचने लगी- राज जी का भक्त इतना निर्मोही क्यों हो गया?
उसी समय रामा भैया की आवाज उनके कानांे में सुन पड़ी ‘जब मैं वहॉं पहुँचा, वे भोजन कर रहे थे। फिर मैं क्या कहता ? जब वे भोजन कर चुके तो मैंने यहॉंँ की बात कही तो वे बोले-‘रामा भैया उनसे कहना, किसी दिन उनके हाथ का प्रसाद अवश्य ग्रहण करूॅंँगा। लेकिन भैया, पहले उसके हाथ के प्रसाद के लायक मुझे बन तो जाने दो।‘
इतना कहकर वे चुप हो गये। वे लोग कुछ और सुनने की इच्छा से चुप बने रहे। उनके मन में प्रश्न उठ रहा था कि और क्या कहा गुरुजी ने ? लेकिन वे यह सोचकर रह गये, कुछ कहा होता तो रामा भैया कहे बिना रुकते नहीं। कुछ देर की चुप्पी के बाद गणपति की माँभगवती बोली-‘चलो अब उठो भी, भाये सो खा-पी लो फिर हम सोयेंगे ,दिन भर के हारे-थके हैं।‘
रामा भैया की टूटी हुयी हिम्मत पुनः लौट आयी, बोले-‘उपाध्यायिन भौजी ठीक कहती हैं, अब देर न करो। महाराज आज नहीं तो किसी और दिन सही, भौजी के हाथ का प्रसाद अवश्य ग्रहण करेंगे। देखा, हमारी भौजी को गुरुजी कितना ऊँॅंचा मानते हैं ?‘
उनकी बात से सभी अति उत्साहित हो गये। उन्होंने अपनी-अपनी रोटियाँ अपने सामने रखलीं। यह देखकर रत्नावली ने भी ऐसा ही किया। वे सभी भोजन करने लगे।
भोजन करने के बाद वे राम मन्दिर के उसी दालान में सोने के लिए चले गये। रत्नावली यह सोचते हुये सो गयी कि यहॉंँ से जाते समय वे एक बार उनसे राजापुर आने का आग्रह जरुर करेगी।...
सुबह सब लोग आराम से सोकर उठे। अलसाये मन से स्नान करने के लिए राम घाट पर पहॅुंच गये। कुछ ने अपना मन बदला, जानकी कुण्ड पर स्नान किया जाये। वहॉं के राम मन्दिर के पुनः दर्शन हो जायेंगे। रत्ना मैया का मन लिया गया। वे जानकी कुण्ड पर जाने तैयार हो गयीं। तब कुछ ही समय में वे सब वहॉं पहुँच गये।

इस स्थान को प्रकृति ने अपने हाथों से सजाया है। मन्दाकनी का कलकल करता प्रवाह, दोनों किनारों पर बडे़-बड़े वृक्ष इस तरह खड़े हैं मानों प्रकृति का आनन्द लेने ही उन्होंने धरती पर अवतार लिया हो! सो, इन्होंने भी इस पवित्र स्थान का पूरा आनन्द लिया। एक बोला-‘यह स्थान इतना सुन्दर न होता तो गोस्वामी जी शायद इसे अपनी तपस्या के लिए न चुनते। निश्चय ही यहॉंँ प्रकृति के रुप में राम जी के साक्षात् दर्शन होते रहते हैं।‘
जब वे स्नान-ध्यान से निवृत हो गये तो जानकी कुण्ड के जल में आचमन लेने एकत्रित हो गये। यहॉं सभी ने एक साथ इस छोटे से कुण्ड में से अपने-अपने हाथ से जल लेकर आचमन किया। इससे कुण्ड का जल अपवित्र नहीं हुआ। भेदभाव का सारा बातावरण तिरोहित हो गया। रत्नावली कह रहीं थीं-‘‘तीर्थयात्रा में ऊॅँच-नीच, छुआ-छूत का भाव यदि किन्चित भी रहा फिर तीर्थयात्रा करने का कोई औचित्य नहीं है।’’
रत्नावली की बात को सभी आत्मसात करने लगे।सभी को सोच में डूबा देख उनने अपने मन की बात कही-‘भैया, अब आप अपने गुरुजी के दर्शन तो करवा दीजिये।‘
रामा भैया ने उन्हें दिलासा देते हुये कहा-‘आप इस बात की चिन्ता नहीं करें। आपके इस अधिकार को कोई नहीं छीन सकता।‘
बस, यही बात सुनकर रतना तिलमिला गयी पर उन्होंने अपने मन का ताप जाहिर न होने दिया।
तब सभी लोग उठ खडे़ हुये। सबका मन हुआ- प्रमोदवन में राम जी के दर्शन करते हुये चलेंगे। अब वे प्रमोदवन के राममन्दिर के दर्शन करते हुये रामघाट के लिए निकल पड़े।
गोस्वामी जी के साथ गुफा में निवास करने वाला एक साधु घाट पर ही मिल गया। इन्हें देखते ही बोला-‘मैं आप लोगों की प्रतीक्षा में था। आप लोगों के लिए भोजन तैयार है। चलिए वहीं गुफा पर चलें।‘
वे तेज कदमों से गुफा में पहॅुँच गये। गोस्वामी जी एक तख्त पर शांत मुद्रा में बैठे हुये थे। सभी ने उनके चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया। रत्नावली ने भी अन्य लोगों की तरह उन्हे प्रणाम किया। सभी तख्त को घेरकर बैठ गये। गोस्वामी जी ने हरको को लक्ष्य करके प्रश्न किया-‘कहो हरको ठीक तो हो ?’
हरको समझ गयी प्रश्न रत्ना भौजी से हुआ है। मगर क्षण भर की शान्ति के बाद उसने पाया कि भौजी कुछ नहीं बोल रही हैं तो वह बोली-‘आप सब जानते हैं.... तारा तो हाथों से चला ही गया।‘
उस बात पर तुलसीदास चुप रहे। सभा में पूरी तरह सन्नाटा बना रहा। तब रामा भैया ने मौन तोड़ा-‘ अब तो भैाजी बिलकुल अकेली पड़ गयी हैं। पाठक नाना जी तीर्थ यात्रा पर चले गये हैं। एक साल होने को हो रही है। लौटे नहीं है। कौन जाने मरे या जिये! गंगेश्वर के हाल तो आप जानते ही हो। खबर जायेगी तब कहीं श्रीमान आयेंगे।‘
तुलसीदास सोचने की मुद्रा में बोले-‘भैया, जिसका जितना लेन-देन है, उसका हिसाब चुकता होने पर आदमी एक क्षण के लिए नहीं रुक सकता। अब समझ लो, तारा का लेन-देन इतना ही था। वह इतने ही दिनों का मेहमान था। रही तारा की माँ की बात, सो हमारी तरह उन्हें भी राम का आश्रय पकड़ लेना चाहिए। राम के भरोसे से बड़ा संसार में कोई दूसरा भरोसा नहीं।‘
लम्बी चुप्पी के बाद, वे पुनः बोले ‘एक बात और कह दॅंू, हमें अब हाड़मांस की प्रीति तो छोड़ना ही पड़ेगी। हमें अपनी प्रीति राम से ही जोड़ना उचित है। वे ही समाधान दे सकते हैं।‘
गणपति की माँपार्वती बड़ी देर से मौन साधे हुये थीं। अब उनसे न रहा गया तो बोलीं-‘यह तो आपने वही बात दोहरा दी।‘
तुलसीदास जी झट से बोले-‘इससे बड़ा संसार में आस्थायें प्रदान करने वाला मुझे कोई दूसरा मंत्र नहीं लगा।‘
सभा में लम्बा सन्नाटा फिर शुरू हो गया। जब यह लगने लगा, अब किसी के मन में कोई शंका नहीं है। प्रश्न रामा भैया ने किया-‘गुरु जी चित्रकूट के सभी स्थानों के दर्शन हो गये हैं, अब क्या आज्ञा है ?‘
गोस्वामी जी बोले ‘जब तक आप लोगों को यहॉं रहना है रहिये। यहॉं का आनन्द लीजिये।‘ रत्नावली को लगा- अब जाने की आज्ञा मांग लेना चाहिए। यह सोचकर बोलीं-‘और हमें क्या आज्ञा है ?‘
गोस्वामी जी बोले ‘आप राजापुर में ही रहें। आपकी पाठशाला के बारे में रामा भैया से सुन लिया है। बहुत अच्छा कार्य है।‘
‘मैं चाहती हॅंू....‘ कहते-कहते रत्नावली रुक गयी ।
‘रुक क्यों गयी ? कहो-कहो।‘ तुल्सी बोले।
तो रत्ना के मुँह से निकला-‘कहते हैं भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के बाद एक बार अपने घर आये थे।‘
तुलसीदास जी समझ गये रत्ना क्या कहना चाहती हैं ? यह सोचकर बोले ‘पहले कुछ प्राप्त तो कर लेने दो, फिर राम जी चाहेंगे वही होगा।‘
यह सुनकर सभी समझ गये कि गोस्वामी अपने लक्ष्य पर पहँुचने के बाद ही राजापुर आयेंगे।
अब लम्बी चुप्पी फिर शुरु हो गयी । गोस्वामी जी को ही कहना पड़ा-‘अब आप लोग भोजन करके आराम कीजिये।‘
रत्नावली बोलीं-‘कल सुबह ही हमारा यहाँ से निकलने का इरादा है।‘
उत्तर मिला-‘ठीक है। आज शाम के भोजन की व्यवस्था यहीं हो जायेगी और रामा भैया तुम रास्ते के लिए आटा-दाल लिए जाना। कहीं टिक्कर बनाकर खा लेना। ठीक है अब जाओ । आराम करो ,कल फिर मंजिल तय करना है।‘
आदेश पाकर वे उठ पड़े, उनके चरण छुये। गोस्वामी जी के मुंह से बारम्बार यही शब्द निकल रहे थे-‘सीताराम कहो सीताराम।‘
शाम को सभी के साथ रत्नावली भोजन करने तो गयी पर सभी के साथ ही लौट आयी। भोर ही घर चलने की तैयारी शुरू हो गयी । सुबह लोग जल्दी उठ गये। नहा-धोकर तैयार होकर गोस्वामी जी की गुफा पर पहॅुंच गये। गोस्वामी जी भजन-पूजन से निवृत होते जा रहे थे। इन्हें देखकर गुफा से बाहर निकल आये। सभी ने चरण छूकर आज्ञा मांगी। सबसे अंत में रत्नावली ने उनके चरण छुये और बोलीं-‘मुझे आप अपने मार्ग में बाधक न समझें। अब मैं आनन्द से जीवन व्यतीत करुँगी।‘
इसके उत्तर में गोस्वामी जी बोले-‘सीताराम कहो, सीताराम कहो, जै जै सीताराम।‘
लोगों के मुँह से निकला-‘जै जै सीताराम।‘ सभी उठ पड़े। उन की ऑंखें गीली थीं। किंतु रतना की आँखें शुष्क...वे अनन्त आकाश की ओर न जाने क्या ताक रही थीं।
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