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रत्नावली 10

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

दस

संसार अपनी तरह ही दूसरों का मूल्याँकन करता है। मानवीय कमजोरियों को भी अपनी तरह ही दूसरों पर आरोपित करने में उसे जरा भी संकोच नहीं होता। हरको यही सोच रही थी कि उसे महावीर प्रसाद जैन के यहाँॅ से बुलाना आया। उनके लड़के को मियादी बुखार बन गया है। रात भर किसी न किसी को जागना पड़ता है। सो किसे बुलाया जावे ? गाँव भर में एक ही नाम था हरको। हरको रत्नावली से आज्ञा लेकर उसके यहाँॅ चली गयी।

जब दो दिन बाद वह लौट कर आयी। आते ही रत्नावली ने शिकायत की-‘हरको बाई मैं तुम्हारे बिना बेेचैन रहती हॅूँ। तुमसे समय अच्छा निकल जाता है। सो तुम्हारे दो दिन बाद दर्शन हो रहे हैं।‘

हरको ने सफाई दी-‘भैाजी किसी के दुःख तकलीफ में न जाओ, मुझसे रहा नहीं जाता। फिर वहॉँ से निकल ही नहीं पायी। रामा भैया की दवा चल रही है। उसे आज आराम मिला है। रात भर जागना पड़ता था। घर के लोग दिन भर तो धंधे- पानी में लगे रहते हैं। रात वेसुध सो जाते हैं। अब मरीज के पास कौन बैठे ? मै अकेली रात भर डटी रहती थी। सभी मेरी हिम्मत की बड़ी प्रशंसा कर रहे थे। मैंने तो कह दिया-‘मेरे शरीर की पनहियाँ तो बनना है नहीं। लेकिन जैन की लुगाई बड़ी खराब है। ऐसी-ऐसी बातें करती है कि आदमी मरवाने में कसर नहीं छोड़ती।‘

रत्नावली के मन में यह बात सुनने के लिए उत्सुकता वेगवती नदी की तरह तीव्र हो गयी, बोली-‘कैसी बातें ?‘

उत्तर में हरको बोली-‘वैसी ही बिना सिर पैर की बातें।‘

उत्सुकता में वे पुनः पूछ बैठी-‘आखिर कैसी ? मैं भी तो सुनूँ।‘

हरको का मन बात टालने का हो गया क्योंकि बात गले में बड़े ग्रास की तरह अटक गयी थी। गला साफ करते हुये बोली-‘छोड़ो भौजी आपका मन दुःखी होगा। संसार है अपनी तरह की बातें करता है।‘

उसने आदेश के स्वर में पूछा-‘सुनूँ तो ?‘

उसने मन ही मन पश्चाताप किया। क्यों इनके सामने यह चर्चा करने बैठ गयी। उसने थूक का घूंट निगला और बोली-‘वैसी ही बाते जैसी मेरा आदमी करता था कि मेरे शास्त्री जी से खराब सम्बन्ध हैं। बोलो भौजी, ऐसे देवता को भी लोग नहीं छोड़ते। वे तो अपने मन से जाने क्या-क्या बातें बना कर कहने लगते हैं ?‘

रत्नावली उनकी इस बात पर खीझ उठी, बोली ‘घण्टे भर से पूछ रही हॅूँ। पहेलियॉँ बुझाने में लगी है। साफ-साफ कहने में तेरी नानी क्यों मर रही है ?‘

अबकी बार उसने बात को एक सॉँस में कड़वी दवा की तरह निगलते हुये कहा ‘आपका और रामा भैया का मेल-जोल लोगों को अच्छा नहीं लगता। इसी पर कीचड़ उछालने लगे हैं।‘

रत्नावली सन्न रह गयी। उसे लगा-‘हे धरती माता फट नहीं जातीं, जिससे सीतामाता की तरह मैं भी उसमें समा जाऊॅँ। पर न अब धरती में सत्य है न आकाश में मर्यादा। कलियुग है कलियुग। इसका अर्थ तो यह नहीं कि चाहे जिसके बारे में जो सोचते चलें। सच पूछो तो जैसा हमारा चिन्तन होगा, वैसा ही हमारा आचरण बन जायेगा। हम वैसे ही कार्य करने लगेंगे। रत्नावली को सोचते देखकर, हरको ने उनके सोचने पर विराम लगाते हुये कहा-‘भौजी आप क्या सोचने लगी ? आपको और गुरुजी को इस धरती पर आना ही नहीं चाहिए था। आप लोगों के जाने किस जन्म के पाप यहॉँ ले आये हैं ?‘

रत्नावली ने अपनी वेदना उॅंडेली-‘हरको बाई जन्मों को क्यों दोष देती हो। ये कैसे जिन हैं ? जिनके मनों में ऐसे विचार आते हैं। कोई किसी के दुःख-दर्द की पूछ जाता है, इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं भी वासना की ही पुतली हॅूँ।‘

हरको को बात के शमन के लिए तिनके का सहारा मिल गया। बोली-‘यदि वासना की पुतली होती तो गुरु जी को क्यों डाँटतीं? इतनी सी बात लोगों के समझ में नहीं आती।‘

यह सुनकर वे गम्भीर हो गयीं। जेवने घर में तारापति के खटपट करने की आवाज सुन पड़ रही थी। उसे डॉँटते हुये रत्ना ने कमरे के अंदर प्रवेश किया-‘क्यां रे तारा। क्या उत्पात मचा रहा है। इतना ऊधम मत मचाया कर।‘

अन्दर जा कर उसे उठा लिया। गम्भीरता मिटाने के लिए उसे दो तीन बार चूम लिया। वह तोतली बोली में बोला ‘डण्डा दे दे माँ। डण्डा .........।‘

रत्नावली यह सुनकर बड़बड़ाई। ‘सुसरा डण्डा चलायेगा। तेरे पिता सुनेगे कि बेटा डण्डा चलाने लगा है। तो मेरे मत्थे पर तुझे बिगाड़ने का दोष लगाये बिना न मानेंगे। मैं अच्छी तरह जानती हॅूँ। उन्हंे। समझे?‘

हरको बातें सुनकर समझाते हुये बोली-‘भौजी तारा को क्यों डाँट रही हो? अभी बच्चा है, कुछ समझता नहीं हैं। आप चिन्ता न करे, जब उसे समझ आयेगी शास्त्री जी से कम विद्वान न निकलेगा।‘

रत्नावली सहज बनते हुये बोली- ‘यों बातों-बातों में दोपहर हो चली। अभी तक निवृत्त ही नहीं हो पायी। तुम चली गयी तो घर के काम-काज में सारे दिन लगा रहना पड़ता था।‘

दरवाजे पर रामा भैया की आवाज सुन पड़ी ‘भौजी .......।‘

यह सुन तारापति को लिए हुये पौर में आ गयी। तारा रामा भैया को पहचान गया था। उसने उन पर जाने को हाथ बढ़़ा दिये। वह समझ गया घुमाने ले जायेंगे तो ये ही। जब तारा उनपर चला गया, रत्नावली इस उधेड़बुन में आ गयी कि बात को इनके सामने रखूँ या नहीं। रखूँ भी तो किन शब्दों में। उसने शब्द ढॅूंढना चाहे। सभी शब्द अपना-अपना अस्तित्व बचाने के लिए खिसकने लगे। उन्होंने कुछ शब्दों को बलात् रोका और बोलीं-‘लोगों को आपका यहॉँ आना अच्छा नहीं लगता।‘

रामा भैया ने बात के, एक ही क्षण में सारे निष्कर्ष निकाल लिए और बोले-‘भौजी, जिन लोगों के मन में चोर बसता है, वे ही ऐसी बातें सोचते होंगे।‘

एक क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने निष्कर्ष सुनाया-‘भौजी लोगों ने सीता माता को नहीं छोड़ा। लेकिन भौजी, सत्य के पग बडे़ दृढ़ होते हैं। अच्छा चलता हूँ। जै-जै सीताराम।‘

रत्नवली को लगा- उनके ये शब्द करुणा के सागर में से मथकर निकले हैं। इन्होंने उत्तर दिया-‘जै जै सीताराम।‘

अगले दिन से रामा भैया ने अपनी दिन चर्या बदल दी। दैनिक कार्यो से निवृत्त होकर हनुमान जी के मन्दिर पर बैठक जमा लेते। किसी को भेज कर तारापति को बुलवा लेते। वहीं उसे दूध पिला देते। कभी-कभी दिन ढले तक जब तक वह अपनी मॉँ की याद न करने लगता, वहीं बनाये रखते। गॉँव भर की निगाहें इस बात पर भी जाये बिना न रहीं। सभी अपने-अपने दिलों को टटोलने लगे ,कहीं किसी ने इनके बारे में कोई बात इनसे कह तो नहीं दी है?

इससे राजापुर गॉँव के लोगों के मनों में जो द्वन्द्व चल रहा था, वह पश्चाताप एवं आत्मग्लानि के अलावा कर्तव्यबोध भी करा रहा था। रत्नावली और रामा भैया अपने कार्य से क्षुब्ध न होकर आत्मोत्कर्ष के पथ पर आगे बढ़़ रहे थे।

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