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रत्नावली 3

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

तीन

दीनबंधु पाठक की पत्नी बहुत पहले ही चल बसी थी। भाई विंदेश्वर की पत्नी केशर और उसका लड़का गंगेश्वर, उसकी पत्नी शान्ती घर के सदस्यों में थे। इसके अतिरिक्त रत्नावली एवं उसका पुत्र तारापति का भार और अधिक बढ़ गया था। जब से पण्डित दीनबन्धु पाठक ने यह सुना कि दामाद ने वैराग्य ले लिया है तब से वे भी मन से पूरे बैरागी बन गये। घर गृहस्थी में मोह न रह गया था। घर चलाने की दृष्टि से मन से बैरागी होने के बाद भी वे पाँण्डित्य वृति से नाता तोड़ नहीं पा रहे थे। घर से निकलने की बात सोचते तो रत्नावली घर छोडकर सन्यास लेने की विरोधी थी। दिन भर इस विद्रोही लड़की की विचारधारा के सम्बन्ध में तर्क-वितर्क मन में आते रहते थे।

गाँव में तो कोई मन्दिर न था। कुछ छोटे तबके के लोग कबीर पन्थी बन गये थे। देर रात तक कबीर की साखियाँ गाया करते थे। एक गाता दूसरे उसे दोहराते थे। रत्नावली ने बचपन से ही घर बैठे उन साखियों को सुना था। उन्हें गुना भी था। पिताजी कबीर की बातों के विरोधी थे। इस बात को लेकर पिता-पुत्री में तर्क-वितर्क हो जाता था। पहले रत्नावली चुप रह जाती थी, किन्तु अब खुलकर सामने आने लगी। रत्नावली का कहना है, कबीर भी तो घर गृहस्थी बसाकर बैरागी थे। उसे ऐसा ही वैराग्य भाता है। बाकी और बातें उसे ढोंग लगती हैं।

दीनबन्धु सुबह ही राजापुर के हनुमान मन्दिर पर निकल जाते। कभी-कभी लौटते में बहुत देर हो जाती थी।

शाम को गाँव में एक-दो बूढे-पुराने बैठने चले आते, बातें चल पड़ती थीं। कभी घर गृहस्थी की बातें, कभी देश की बातें और कभी धर्म की बातें। आज का विषय था देश। कन्हैयालाला का कहना था-‘जमाना बडा खराब आ गया है। सारा वातावरण ही खराब होता जा रहा है। मुगलों के काल में इन लड़के बच्चों को जो हवा लगी है, सत्यानाश ही हो गया है।‘

दूसरे ने धर्म की बात उठा दी-‘धर्म का हृास हो रहा है। लोगों की धर्म से आस्था ही उठती जा रही है। बेईमानी और अत्याचारों का बोलवाला बढ़़ रहा है। सुना है, मुगलों के कारिन्दे रिश्वत भी खा जाते हैं। लोग पद के लोभ में मुसलमान बनते जा रहे हैं। कुछ राजपूतों ने तो अपनी बेटियॉँ ही मुसलमानों को ब्याह दी हैं। अब तो वे भी उनके गुलाम बन गये हैं। इस समय ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोगों को राह दिखा सके।‘

तीसरे ने अपनी बात कही-‘बस कबीर की न कहें उसने तो ऐसी-ऐसी बातें कह दी हैं कि आज तक धरती पर किसी ने नहीं कहीं।‘

पाठक जी कबीर का नाम सुनते ही गुस्से में आ गये। रत्ना से तो कुछ न कह पाते थे, इस समय वही गुस्सा उड़ेलने का उन्हें अच्छा मौका हाथ लग गया। बोले-‘न जिसके बाप का पता न जाति का। उसने तो धर्म का ही सत्यानाश कर दिया, सुना है वह विधवा ब्राह्मणी का बेटा है। उस ब्राह्मणी से डूबकर मरा भी न गया। इतनी बडीं यमुना-गंगा बहती हैं। कौन क्या कर लेता ? पर........ पर मुसलमानों में तो सब चलन हैं। लेकिन यह समझ नहीं आता, उसके पीछे हिन्दू क्यों लग गये हैं।‘

पाठक जी की बातों का कौन क्या उत्तर देता ? सब चुप रह गये थे।

जब से रत्नावली ने पति के वैराग्य के बारे में सुना था, तब से मन में तरह-तरह के विचार आते रहते थे- समय तेजी से बदल रहा है। समय की गति को ध्यान में रखकर ही कोई कदम उठाने की आवश्यकता है। आज के समय में प्राचीन युग की तरह आश्रम प्रणाली सम्भव नहीं है। पहले चोरी-डकैती की कभी एकाध घटना सुन पड़ती थी। अब प्रतिदिन इनके बारे में सुना जा सकता है। राज्य केवल कर वसूलने तक ही सीमित रह गया है। सरकारी कर्मचारी भी अत्याचार करने लगे हैं। बादशाह को इन बातों की खबर भी नहीं लगती। राजा और प्रजा की दूरी बढ़़ रही है। प्रजा के बादशाह तो ये राज कर्मचारी हैं और बादशाह की प्रजा वे ही। असली प्रजा के दुख-दर्द का बादशाह को क्या पता ? राजपूतों की वीरता क्षीण हो गयी है।

कभी रत्नावली यों सोचती- इधर आदमी का मन भी बदला है। पहले आदमी संसार में रहकर सन्तुलित जीवन व्यतीत करता था। अब ऐसा नहीं है। दिन-रात काम-वासना के सागर में डूबा रहना चाहता है। ऐसे आदमी को उपदेश देने पर वह क्रोध ही प्रदर्शित करेगा।

आप सुन्दरता के उपासक थे। लेकिन ऐसे ही उपासक आप काम-वासना के भी थे। क्या सुन्दरता का बस यही उपयोग है कि काम-वासना के काम आये। सुन्दरता वासनामय हो जाये, ये आपका कौन सा धर्म था ? इधर आप धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते थे।.....और मैंने धर्म लेख की बात की तो आपने नाता तोड़ लिया। अरे नारी में भी काम-वासना है! लेकिन उसमें प्रजनन भी है। धर्म-कर्म है। नियम-संयम भी है।

हम नारियों के हिस्से में तो सुपथ की कामना ही रही है। उनका जो लक्ष्य प्रताड़ना से बना है, कहीं वह प्यार की भावना से बना होता तो, यही सोचकर वह गुनगुनाने लगी-

बन गया है लक्ष्य जो प्रताड़ना से।

नहीं बन सके प्यार की भावना से।।

मैं जी रहीं वन्दना पद गुनगुनाकर,

मुड़ गये हैं पथ तुम्हारे वासना से।। नहीं......

जी उठती हैं प्रणय की घडियॉँ

तुम्हारे प्यार की संकल्पना से।। नहीं........

आँसुओं से सींचती हूँ पथ तुम्हारे

पल्लवित हो सकेंगे वो अर्चना से।। नहीं........

बन गयी बहुत ही भावुक मैं तो

लोक सौन्दर्य की परिकल्पना से।। नहीं........

महेवा गाँव का कबीर भजन मण्डल दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो चुका था। गाँव छोटा था। नाई, धोबी, चमार, बढ़़ई, कुम्हार, और मुसलमान आदि सभी जातियों के लोग यहॉँ निवास करते थे। गाँव में नीम के वृक्षों की अधिकता थी। कच्ची दीवारों के खपरेलों वाले घर थे। एक दो घरों में लकडी की छत डालकर, दो मंजिल घर बना लिए थे। उनके ऊपर खपरैल ही थी। गाँव में कोई पक्का मकान न था। गॉँव में भजनों का कार्यक्रम नित्य प्रति, देर रात तक चलता रहता था। कबीर भजन मण्डल का प्रमुख गायक कल्याण प्रसाद देर रात जब घर लौटा, पत्नी लाडो ने उसे कोसना शुरू कर दिया-‘सारे दिन मेहनत मजूरी में लगे रहो। जरा भी सो नहीं पाते। शाम को नींद लगती है सो तुम्हारी बाट चाहते रहो। समझ नहीं आता, ये कबीर के कैसे भजन हैं ? अरे जिसमें अपने धर्म का विरोध हो वह काहे का भजन ! रत्ना बिटिया कबीर की बड़ी-बड़ी बातें करती थी। देख लिया क्या परिणाम निकला ? तुलसी धरम- करम वाले पण्डित थे। उन्हें ये बातें क्यों अच्छी लगने लगीं ? सो घर छोडकर चले गये।‘

कल्याण प्रसाद ने रत्नावली का पक्ष लिया। बोला-‘वह विद्रोही किस्म की लड़की है। उसने तुलसी से राम की बात कह दी, सो बुरा मान गये। इसमें रत्ना बिटिया का कोई दोष नहीं हैं।‘ यह सुनकर पत्नी लाडो चुप रह गयी थी।

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