रत्नावली
रामगोपाल भावुक
सोलह
होली के पावन पर्व पर हम होली न खेलें। फिर भी उसके छींटे ऊपर पड़े बिना नहीं रह सकते। यह सोचते हुये हरको अपने पति की शिकायत करते हुये रत्नावली से बोली-‘देखो तो भौजी, आज वो होली में मेरा रास्ता रोककर खड़ा हो गया- बड़ी, छोटी से तो मेरा जी भर गया। ऐसा कर, छोटी को गुरुआन के यहॉं पहॅँचा दे और तू घर में आकर रहने लग। उसने मेरे कान भर-भर के तुझे घर से निकलवा दिया। अब हर घड़ी लड़ती रहती है।‘
भौजी मैंने तो उससे कह दिया-‘मैं अब तेरी बातों में आने वाली नहीं हूँ।‘
रत्नावली हास्य का भाव लाते हुये बोली-‘एक बार उसकी बात मान कर देख तो ?‘
हरको दोनों कान पकड़ते हुये बोली-‘सारी जिन्दगी आपके दरबार में पड़े-पड़े निकल गयी। बाल सफेद हो चले। एक बार संसार में से निकल आयी। अब उधर निगाह उठाकर देखने वाली भी नहीं हूँ। ‘ रत्नावली ने इस सम्बन्ध में कुछ भी बात करना उचित नहीं समझा इसलिए वे चुप ही रहीं।
दूसरे दिन हरको की सौत हरको से मिलने आयी। उसके लूंगरा में कई थेगरा लगे हुये थे। देखने में बहुत कमजोर हो गयी थी। आते ही मैया के चरण छूकर बोली-‘प्रणाम मैया‘
रत्नावली ने सहज में ही कहा ‘सौभाग्यवती रहो।‘
आशीष पाकर वह बोली-‘मैया बड़ी की तरह मुझे भी अपनी शरण में ले लो।‘
रत्नावली सब कुछ समझ गयी। दुर्गा पहले इधर कभी न आयी थी। आवाज सुनकर हरको पौर में आ गयी। हरको को देखते ही दुर्गा बोली-‘बडी राम-राम।‘
यह सम्मानजनक राम-राम सुनकर उसे लगा- यह कितने अच्छे ढ्रंग से बात कर रही है। हरको के मुँह से शब्द निकले-‘राम-राम। कहो छोटी, कैसे आना हुआ ?‘
वह रिरियाते हुये बोली-‘उम्र ढल चली। वह सुसरा धोती वाले पण्डित का पक्का चेला बन गया है। रोज उनके यहाँॅं जाता-आता रहता है। लौटते हुये गांजे की चिलम लगा आता है। अच्छा-अच्छा खाने को मॉंगता है। कमाना-धमाना बन्द है ही। जितना बनता है सुई-डोरा का काम, मैं ही करती रहती हूँ। उसे तो अच्छा-अच्छा खाने को चाहिए। थोड़ी कसर पड़ी कि मार ही मार मचाये रखता है। कल से कहने लगा है-‘बडी घर में रहने को तैयार है। तू भाग यहॉंँ से। बोल-बड़ी, अब मैं कहॉं जाऊॅँ?‘
यह कहकर वह फुसक-फुसक कर रोने लगी। हरको उसे समझाते हुये बोली-‘छोटी शान्त रह शान्त। वह तो मेरे और तुम्हारे पूर्व जन्म के संस्कार हैं ,जो इसके चक्कर में फंस गये। रही अब मेरी उसके यहाँ जाने की बात, तो छोटी तू उससे कह देना। मेरे बाल सफेद होने शुरू हो गये हैं। दशरथ जी ने अपने बाल देखकर राम का राज तिलक करना चाहा था। मैं इस पड़ाव पर पहॅुँच कर वहॉं क्या करूँगी ? मैं तो उसके यहॉं अब मरी भी न आऊॅँंगी।‘
रत्ना मैया कुछ बोलती, निर्णय पहले ही हरको ने सुना दिया था। बात छोटी से सुननी थी तो रत्ना ने अपना मुँह छोटी की तरफ मोड़ लिया। छोटी यह इशारा समझते हुये बोली-‘मैं भी उसके साथ नहीं रह सकती।‘
रत्नावली बोली-‘देख छोटी, हरको की बात और है। उसे शरण गुरुजी ही दे गये हैं। रही तुम्हारी, तो तुम्हें अपने पति के यहीं रहना चाहिए। उसमें जो दोष हैं, सारी जिन्दगी तुम्हें साथ रहते हो गयी, तुम उसे सुधार नहीं पायीं। प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाता है। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो हरको की समाज में जो इज्जत बनी है ,सब धूल में मिल जायेगी।‘
यह बात सुन दुर्गा बोली-‘मैया मैं सब जानती हॅंूँ। गाँव भर में आपकी बजह से बडी ने जो इज्जत पायी है, वह अच्छे-अच्छे रहीसों को भी नहीं मिली। और क्या कहूँ बड़ी पंचायत तक निपटा आती है।‘
रत्नावली ने बात आगे बढ़़ाते हुये कहा-‘दुर्गा मैं तो कही आती-जाती नहीं हूँ। जो भी समस्या आती है ,सब हरको निपटा लेती है। गाँवभर की सेवा टहल करती रहती है। इससे अब उस कीचड़ में जाने की कहँॅंू तो यह उसमें जाना न चाहेगी। समझी।‘
दुर्गा बोली-‘जी, मैं समझ गयी।‘
तब रत्नावली पुनः बोली-‘हरको ,अन्दर के घर में मेरा एक पुराना लंहगा और चुनरी रखी है। मैं इसे पहनती नहीं हूँ, इसे दे दो।‘
इस पर हरको बोली-‘जी वह तो गुरुजी की याद का है। उन्होंने ही तो उसे बनवाया था।‘
यह सुनकर भी रत्नावली बोली-‘इसे दुर्गा को दे दे।’ यह कहकर वे सोचने लगीं- मैं अब झूठी यादों में जीने वाली नहीं हूँ। यथार्थ के धरातल पर रहकर जिऊँगी।
आज्ञा पाकर वह अन्दर चली गयी। लंहगा और चुनरी को उठा लायी। सोचने लगी- मैं कितने दिनों से सोच रही थी, भौजी किसी दिन इसे मुझे पहनने को देंगी। लेकिन इसे छोटी लिए जा रही है। छोटी पर अब राम जी की पूरी कृपा हो गयी है।
छोटी को लंहगा चुनरी देते हुये हरको बोली-‘इसे भौजी का प्रसाद समझ ले। तू भी बहुत भाग्यवाली है समझी।‘
वह लंहगा चुनरी लेते हुये बोली-‘बड़ी यह तो तुम्हारी और मैया की मुझ पर दया है।‘
अब वह दोनों को प्रणाम करके चली गयी। उसके जाते ही हरको के चहरे पर विजय की मुस्कान थी।
रत्ना मैया उसके जाने के बाद आराम करने पलंग पर लेट गयी। हरको उनके पॉंव दबाने के बहाने उनके पास बैठ गयी। उनके पैरों पर हाथ रख लिये। यह देखकर रत्ना मैया बोली-‘हरको रहने दे, आदत पड़ जायेगी।‘
हरको मना करने पर भी पॉंव दबाते हुये बोली-‘आप हमेशा यह कह कर टाल देती है।‘
इस पर रत्नावली बोली-‘दुःख दर्द की बात और होती है। सामान्यतः आदमी को अपनी आदतें नहीं बिगाड़नी चाहिए।‘
मगर उनके विरोध के बावजूद हरको उनके पैर धीरे-धीरे दबाती रही।
आदमी युवावस्था को तो अभावों मे भी काट लेता है। साथियों से बतिया कर अथवा अपने बुजुर्गों के समक्ष अपनी पीड़ा का रोना रोकर युवावस्था तो कैसे भी व्यतीत कर लेता है। किन्तु उसे जैसे ही बोध हुआ कि उसकी वृद्धावस्था आ रही है वह उसके बारे में चिंतित दिखाई देने लगता है। लोग श्रम करके वृद्धावस्था के लिए धन अर्जित करके रखते हैं। जिससे वृद्धावस्था सार्थक बन सके। इसके लिए आदमी अपनी संतान को योग्य बनाने में लगा रहता है। यदि संतान न हुयी तो सहारे की तलाश में उसका मन जाने कहॉं-कहाँ भटकता रहता है। मातेश्वरी रत्नावली स्वामी के जाने के बाद इसी उधेडबुन में रहने लगीं थीं।
आज हरको और रत्नावली आमने-सामने बैठीं थीं। रत्नावली किसी पुस्तक के पृष्ठों को पलट रही थी। हरको उनके सुन्दर बालों की ओर देख रही थी। उसी समय हरको को रत्नावली के सिर में कुछ श्वेत बाल दिखाई पड़े। यह देखकर, श्वेत बालों का संकेत सहेली होने के नाते रत्नावली को देना अपना कर्तव्य लगा। वह आनंदित होते हुये बोली-‘भौजी बाल सफेद हो चले। अब तो समझ लो जिन्दगी कट गयी।‘
रत्नावली ने अपना ध्यान पुस्तक से हटाकर हरको की ओर कर लिया। हरको बिना प्रश्न किये हुये ही समझ गयी कि उनका अगला प्रश्न क्या है। यह सोचकर पुनः बोली-‘भौजी आज आपके सिर में सफेद बाल दिखाई पड़े है।‘
रत्नावली सब कुछ समझ गयी। बोली-‘तू ठीक कहती है, यह युवावस्था ही कठिन होती है। परित्यक्ताओं के लिए तो यह और भी दुष्कर होती है, पर मुझे यह युवावस्था ऐसी नहीं लगी। तुम जैसी सहृदय सहेलियों के साथ गुजर गयी। लेकिन कठिन तो अब यह वृद्धावस्था लग रही है। इसमें तो वे सोचेंगे। अब वे मेरी कुछ न कुछ व्यवस्था कर सकते हैं।‘
इसी समय शिष्य गणपति भी वहीं आ गया था तो उसे देखकर प्रसंग बदलते हुये रत्नावली बोली-‘अरे गणपति! एक पहर दिन व्यतीत हो गया अभी तक शिष्य पढ़ने नही आये?‘
यह सुनकर गणपति ने उत्तर दिया-‘मैया आने वाले होंगे।‘
तभी अन्य पढ़ने वाले शिष्य पौर में आ गये। यह देखकर दोनों जेबने घर में से बाहर निकल आयी।
दूसरे दिन शाम को हरको तीव्र गति से चलती हुयी, रत्नावली के पास आते ही बोली-‘भौजी । ओ भौजी ।‘
रत्नावली ने पूछा-‘क्या बात है ? आज बड़ी खुश दिख रही है।‘
यह सुनकर हरको ने बडी उत्सुकता से उत्तर दिया-‘आज कुछ साधु महात्मा हनुमान मंदिर पर आये हैं, वे कह रहे थे गोस्वामी जी इन दिनों अयोध्या में ठहरे हुये हैं।‘
रत्नावली ने उत्तर दिया-‘अयोध्या तो उनके प्रभु का धाम है। उनके लिए इससे अच्छी जगह और कहाँ हो सकती है।
उसी समय रामा भैया ने यही सूचना देने के लिए दस्तक दी। आते ही बोले-‘भौजी जय सीताराम !‘
उत्तर निकला-‘जय सीताराम। कहो भैया, आज इस समय इधर कैसे भूल पड़े़?‘
प्रश्न सुनकर रामा भैया बोले-‘आज अयोध्या से आने वाले और अयोध्या की ओर प्रस्थान करने वाले दोनों ओर के साधु अपने हनुमान जी के मंदिर पर ठहरे हुये है। कोई सूचना भेजनी हो तो भेज सकते हैं। यह सुनकर रत्नावली आनन्द के सागर में गोते लगाते हुये बोली-‘भैया मैंने एक दोहा लिखकर रखा है, आप और हरको दोनों अनुमति दें तो उसे ही उनके पास संदेश के रूप में भेज देती हूँ।‘
हरको और रामा भैया संयुक्त स्वर में बोले-‘हॉं-हाँ भेज ही देना चाहिए।‘
अब दोनों की जिह्वा प्रश्न पूछने से रुक गयी कि क्या लिखा है ऐसा उस दोहे में, जिसे मैया गुरुजी के पास भेजना चाहती हैं। दोनों के चहरे के भाव समझकर रत्नावली ने बिना पूछे ही वह कागज का टुकडा एक हस्तलिखित पुस्तक में से निकाल कर उन दोनों की ओर बढ़ाते हुये कहा-‘आप इसे पढ़कर देख लें।‘
कागज का पुर्जा रामा भैया ने हाथ में ले लिया और उसे खोलकर जोर-जोर से पढा-
‘कटि की छीनी कनक सी, रहति सखिन्ह संग सोय।’
‘ और कटे को डर नहीं, अंत कटे डर होय।’
हरको समझ गयी यह दोहा मैंने जो श्वेत बालों का संकेत दिया था, उसी का परिणाम है। यही सोचकर बोली-‘वाह-वाह! भौजी अपने इस एक दोहे में क्या नहीं लिख दिया। युवा अवस्था में पतली कमर वाली सुन्दरी अपनी सखियों के साथ रहकर समय व्यतीत कर लेती है। भौजी आपको गुरुजी के चले जाने के बाद कोई चिन्ता, भय अथवा पीड़ा नहीं रही है। किन्तु अब जीवन वृद्धावस्था में केसे कटेगा, मात्र यही डर सता रहा है।‘
यह कहकर हरको रामा भैया की ओर देखने लगी उसके देखने से रामा भैया समझ गये कि इस संबंध में अब मुझे कुछ कहना है ,वे यही सोचकर बोले-‘गुरुजी को आपके इस प्रश्न का उत्तर देना ही पड़े़गा। ‘
यह सुनकर रत्नावली बोली-‘मेरी यह चिन्ता स्वाभाविक ही है।‘
अब कुछ कहने की बारी रामा भैया की थी। वे अपना निर्णय सुनाते हुये बोले-‘आज ही इसे उन साधुओं के साथ अयोध्या रवाना करता हूँ। अच्छा चलता हूँ। भौजी, जय-जय सीताराम।‘
रत्नावली ने उनको जाने की स्वीकृति प्रदान की-‘जय-जय सीताराम।‘
रामा भैया पत्र लेकर चले गये। उस दिन से रत्नावली का चित्त पत्र के साथ रहने लगा- इस पत्र का क्या प्रभाव पड़ेगा उनके चित्त पर? वे इसका क्या उत्तर दे सकते हैं। इस एक दोहे में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों का उल्लेख है। क्या उत्तर हो सकता है उनका? मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूँ। वे विद्वान है कोई न कोई ऐसा हल निकालकर लिख भेजेंगे और मुझे उनके उत्तर से सहज में ही संतुष्ट हो जाना पड़े़गा।
संभव है वे कोई उत्तर ही न दें! मुझसे उन्हें अब क्या लेना-देना? ऐसे निष्ठुर आदमी को तो पत्र भेजना ही नहीं था...जैसे, युवावस्था कट गयी, वैसे बुढ़ापा भी कट जाता।
इसी उधेड़बुन में लम्बा समय गुजर गया। अब तो उत्तर आने की प्रतीक्षा ही धूमिल हो चली थी। सोमवती का अवसर आ गया। यमुना के घाट से आने जाने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी। आज अचानक एक साधुओं का झुण्ड दरवाजे पर आ गया। स्वभाव के अनुसार रत्नावली उनके यात्रा प्रसंग सुनने पौर में आ गयी। उन्हें आया देखकर साधु ने प्रश्न कर दिया-‘आप रत्ना मैया हैं ना ?‘
अपना नाम सुनकर रत्नावली के मन में शंका उत्पन्न हो गयी-‘हॉं कहिये ,मैं ही हॅूँ।‘
उत्तर सुनकर दूसरे साधु ने अपनी झोली में से एक कागज का छोटा सा पुर्जा निकाला और रत्ना मैया की ओर बढ़ाते हुये कहा-‘हम अयोध्या से आ रहे हैं गोस्वामी तुलसीदास जी ने आपके लिए पत्र भेजा है।‘
यह सुनकर रत्नावली परमानंद के परमपद को प्राप्त करने की अनुभूति जैसा बोध प्राप्त करते हुये बोली-‘अरे मुझ पर इतनी कृपा!‘ पत्र हाथ में ले लिया। उसे उसी क्षण अति उत्सुकता में उसे खोला। उसमें भी एक दोहा लिखा था-
कटे एक रघुनाथ संग, बांध जटा सिर केस।
हम तो चाखे प्रेम रस, पत्नी के उपदेश।।
पाती पढ़कर हृदय से चिपका ली। इतने लंबे समय बाद उन्हें मेरा स्मरण तो हुआ! यही सोचकर बोलीं-‘मुझे उत्तर मिल गया है। रघुनाथ श्री राम के साथ अपना शेष जीवन व्यतीत करने के लिए मुझे आदेशित किया है।‘ उपस्थित जनों की उत्सुकता मिटाने रत्नावली ने वह पत्र उन सब की ओर बढ़ा दिया। सभी ने इसे पढा और सराहा। कस्बे में जो-जो सुनता गया। मैया के पास आता गया। उनके हाथ की सुन्दर लिखावट का स्पर्श पाकर सभी अपने को धन्य समझ रहे थे और रत्नावली अपने अतीत के सागर में गोते लगा रही थी।
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