कामरेड का कोट-सृंजय राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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कामरेड का कोट-सृंजय

कामरेड का कोट-सृंजय

कहानीसंग्रह सशक्त वैचारिक वृतांत कथाएँ:

आठवें दशक के अंतिम वर्षों में कुछ कथा लेखकों ने एकाएक ख्याति प्राप्त की थी। इन लेखकों का अन्दाज ए बयां भिन्न-भिन्न था। “हंस“ और दीगर पत्रिकाओं में इन कहानीकारों और उनकी कहानियों की जमकर चर्चा हुई। इन लेखकों में उदयप्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति और सृंजय प्रमुख थे। इन सभी में सृंजय सबसे कम उम्र के कहानीकार हैं, लेकिन विचार और अनुभूति के तौर पर काफी प्रौढ़ और गंभीर भी है। सृंजय सन इकसठ में जन्मं और चौरासी में उन्होंने लिखना शुरू कियाः समाजवादी, मानवतावादी, आर्यसमाजी तथा वामपंथी पंगठनों से जुडनें के कारण उनकी कहानियों में एक पारदर्शी दृष्टि हैं, जन प्रिय लहजा है और गहरे तक जुड जाने वाले मुद्दे है।

राधाकृष्ण प्रकाशन ने सृंजय का पहला कहानी संग्रह “कामरेड़ का कोट“ प्रकाशित किया है। इसमें उनकी पाँच कहानियाँ शामिल है। पहली कहानी “बैल बधिया“ में मुरली हलवाले को देवी चौधरी का बिना-बधिया संाड हल में जुते रहने से छिटकते समय अपनें सींग से घायल कर देता हैं और चौधरी दुआरे पर ही मुरली यह कहते प्राण त्याग देता हैं कि-“पहले.....बैल.....बधिया......करा....।“ चौधरी के इंजीनियर पुत्र, मुरली के बेटे को घेरलु नौकर कें लिए शहर ले जाना चाहते हैं और बहाना हैं, कि उसे पढा-लिखाकर नौकरी में लगाएंगे। लेकिन मुरली बहू ऐन वक्त पर बिफर जाती हैं और अपने बेटे को कहीं न भेजने का एलान करती है। यहाँ तक कि देवी चौधरी के पक्ष में बोलते बिरादरी वालों को झिटकती हुई खुद ही मृत देह का अंतिम संस्कार करने को आगे बढती है कि बिरादरी वाले लज्जवश खुद आगे आते हैं। अंत में देवी चौधरी और मुरली की पत्नी का वार्तालाप बहुत रोचक व सारगर्भित हैं, सनकी मत बन जयशंकर की माई। मुरली को प्रेतयोनि में भटकने से रोकों। इसी बछड़ें को मुरली के नाम पर सांड छोड़ दूंगा। तुम तो आगा-पीछा कुछ सोचती नहीं, मगर मुझे तो जयशंकर की चिन्ता है।

“जानक हुई मालक“ अपने बछड़े को सांड बनाइगा अउर हमरे बछड़ें का बधिया करवाइएगा। इहे ना इरादा हैं, मालिक। ससुर के बाद हमरा मरद आपके हिंया बैल बना, अब हमरे बेटे भी टकटकी लगाए है। ई आशा छोड़ दें मालिक।

“तख्त-ओ-ताब“ में दो बच्चों द्वारा खेल-खेल में गंभरता धारण कर लेने का जिक्र है। अम्मी और अब्बा सो रहें है, दोंपहरी में अपने घर में बंद अनीका और शरजिल सारे खेलों से ऊब कर बादशाद और बजीर का खेल खेलते है। बादशाह बना शरजिल बात-बात में वजीर बनी अनीका पर नाराज होता हैं, और उसे दंडित करने के लिए सख्ती से उसका पीछा करता है। हाल-बेहाल अनीका उससे माफी माँगती हैं, रोती गिडगिड़ातीं, पर शरजिल नहीं मानता और अवश अनीका एक झाडु उसके पैरों में फंसा देती हैं, जिससे वह मेज को लिए-लिए नीचे जा गिरता है। उसके दो दांत भी टूटे जाते है। खेल खत्म तो होता ही हैं, अम्मी व अब्बू जग जाते है। इस कहानी का एक स्वर नारी जाग्रति और उसका सबल प्रतिकार भी है।

शीर्शक कहानी “कामरेड का कोट“ भी एक लम्बी कहानी है और यही वह कहानी है जिसने सृंजय को सर्वाधिक प्रसिद्ध और चर्चित बना दिया। इस कहानी के माध्यम से वामपंथी आंदोलन के भीतर व्याप्त कृत्रिमता, आराम तलबी, जमीन से कटा नेतृत्व और समझौतावादी मानसिकता का खुला चित्रण है।

इस कहानी को वामपंथी आत्म परीक्षण और सिंहावलोकन की बजाए आंदोलन की निंदा मानकर लेखक पर पिल बैठे थे। जमीन से जुड़ें कार्यकर्ता कमलाकांत उपाध्याय, क्षेत्र में हुए मजदूर-हत्याकांड सिलसिले में आयोजित पार्टी की एक गुप्त बैठक में भाग लेने, अपने बीमार बेटे को छोड़कर कउ़ी ठंड में मीलों चलकर पहुंचते है। वहाँ कामरेड़ भट्टाचार्य, रक्तध्वज, चक्रधर आदि तमाम नेता एकत्रित है। किसी को मजदूरों की अशा की फिक्र नहीं है। सब केवल इसी चिन्ता में है कि आंदोलन किस तरह से इस क्षेत्र में फैलाया जाए। कमलाकांत सही और खरी बातें कहता हैं तो उसे पार्टी विरोधी करार दे दिया जाता है-सबलोग उसे उग्र वादी कहते है। बैठक के बाद शानदार दावत का इंतजाम है। घी में तर माल लोग चटखारे लेकर खातें है और पार्टी की बैठक व उसके मुद्दे लगभग भुला से दिये जाते है। अंत में घर लौटते समय जब भूगोल भूइलोटन पर रक्तध्वज को रूस यात्रा में मिले “कोट“ के चुराने का संदेह किया जाता हैं, तो व्यथित और क्षुब्ध कमलाकांत खुद वह कोट उठाकर पहन लेते है। घबराए-आतंकित लोगों को वह सैद्धांतिक बहसों में उलझे रहनें के लिए बाद में लताड़तें हुए कोट उतार के दे देते है। और गॉंव लौट पड़तें है।

इन कहानियों की संवेदना बड़ी गहरी है। लेखक का भाषा पर ऐसा नियंत्रण है कि कहीं भी शाब्दिक विवशता संवेदना के संप्रेशण में बाधा नहीं बनती। लेखक सच और खरा बोलने के लिए कटिबद्ध दिखाई देता है। सृंजय का लेखन जमीन का लेखन है। वे पाठक के आस-पास कहानी का ताना-बाना ऐसा फैला देते हैं, कि उसमें संपृक्त हुए बिना पाठक का विमोचन संभव नहीं होता। इन कहानियों का संसार बड़ा व्यापक है। इनमें हलवाहे और बंधुआ मजदूरों के साथ-साथ गॉंव के संकटसर्जक चौधरी लोग भी है। रोज-रोज रोकर दिन काटते क्लर्क-मुंशी हैं, मोटी तोंद वाले सेठ है। छोटे अवसरवादी दुकानदार है। ग्रामीण निरक्षक है। अकूड़ ठाकूर है। गॉंव की स्त्रियाँ हैं, उनके गीत हैं, रीजि-रिवाज है। गॉंव में बसते पढे-लिखे युवक है। जमीन से जुडें साक्षर और निरक्षक राजनीतिक कार्यकर्ता है। पार्टी के बड़ें अधिकारी है। झूठे बाना वाले मिथ्यावादी वक्ता और शड्यंत्रकारी नेताओं के चमचे है। कुल मिलाकर जीता-जागता बहु आयामी समाज यहाँ विद्यमान है।

कहानी में पाठक को जो चीज बांध लेती हैं वह है-वृतांतता। सृंजय की कहानियों में वृतांत है। पाठक का पंक्ति-दर-पंक्ति कौतूहल बढता जाता है कि आगे क्या होगा, पाठक् कहानी पूरी पढें बिना नहीं छोड़ता। यसही सृंजय की सबसे बड़ी सफलता है। यदि ऐसी कहानियाँ लगातार लिखी जाने लगें तो कहानी को पाठकों का अभाव नहीं रहेगा।

पुस्तक- “कामरेड़ का कोट“

लेखक- सृंजय

प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य-60 रूपये