जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 12 Neerja Hemendra द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 12

कहानी 12 -

’’ समर्पण से कहीं आगे ’’

रेचल शनै-शनै सीढियाँ चढ़ती हुई छत पर आ गई। प्रातः के नौ बज रहे थे। वह आज छत की साफ-सफाई करवाने के लिए ऊपर आयी है। मजदूर छत पर बेकार पड़ी वस्तुओं को एक तरफ हटा कर रख रहा था। वह उसे अनावश्यक पड़ी वस्तुओं हटाने तथा आवश्यक चीजों को सही स्थान पर रखने का निर्देश देती जा रही थी। । अगले माह रेचल की बड़ी पुत्री का व्याह है। विवाह की तैयारियों मे अजीत भी जी-जान से जुटा है। रेचल ने छत से चारों तरफ देखा। आज खुला आसमान कितना अद्भुत और सुन्दर लग रहा है। खुला, विस्तृत, नीला आसमान। इस नीले आसमान में उसे आज मात्र नीला रंग ही नही, असंख्य अन्य रंग भी बिखरे प्रतीत हो रहे थे। मार्च माह का प्रथम सप्ताह है यह। वासंती बयार कितनी सुखद लग रही है। छत से चारों ओर का दृश्य कितना मोहक लग रहा है। धरती-असमान सब कुछ सुन्दर लग रहा है। पतझर की ऋतु समप्त हो गयी है। पतझर के जाने और वसंत के अगमन के मध्य का यह सन्धिकाल प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण हो रहा है। यह छोटा-सा शहर जहाँ वह रहती है कंक्रीट के घरों के साथ ही साथ अपने मध्य प्राकृतिक सौन्दर्य को भी समेटे हुए है। सड़कांे के दोनों तरफ व्यवस्थित रूप से लगे गुलमोहर, ढ़ाक, अमलतास के वृक्ष फूलों से भरने लगे हैं। वृक्षों की निपात टहनियों पर नव-पल्लवों ने दस्तक दे दी है। रेचल इस प्राकृतिक सौन्दर्य को बड़े ही मनोयोग से देख रही थी। मानो प्रथम बार यह सब कुछ देख रही हो। जब कि ऋतुएँ तो प्रतिवर्ष आती और जाती हैं। उसके बालों, चेहरे व वस्त्रों को स्पर्श करती हुई यह पुरवाई उसमें अजीब-सी सिहरन भर रही है। इस मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते-देखते जैसे ये ऋतु उसे विगतृ दिनों की स्मृतियों में ले जाने लगी। उसे याद आने लगे सत्रह वर्ष पूर्व के वे दिन जब उसका व अजीत का अनाम रिश्ता नाम से भी अधिक पहचाना गया। लोगों की कटु आलोचनाओं को झेलते-झेलते एक आर्दश स्थापित करने में कामयाब हो गया।

बिलकुल ऐसी ही ऋतु थी वह। उसे भली प्रकार स्मरण है मार्च का ही महीना था वह। प्रतिदिन की भाँति वह कर्यालय जाने के लिए घर से निकली थी।

वह ठीक आठ बजे घर से कार्यालय के लिए निकलती थी। उसे ठीक नौ बजे कार्यालय पहँुचना होता था। उसका प्रयत्न यही रहता कि वह कार्यालय समय से पहुँचे, कभी विलम्ब न हो। कार्यालय उसके घर से आधे घंटे की दूरी पर था, किन्तु उसे आने-जाने के लिए रिक्शा या आॅटो रिक्शा लेना पड़ता था। अतः उसे समय कुछ अधिक लग जाता था।

उस दिन भी वह प्रतिदिन की भाँति कार्यालय के लिए निकली। घर से निकलते समय उसने घड़ी की तरफ देखा। अभी आठ बजने में दस मिनट शेष थे। उसे बड़ी प्रसन्नता हो रही थी कि घर के दैनन्दिन कार्यों को पूर्ण कर के वह समय से पूर्व तैयार हो गयी थी। बाहर निकलने से पूर्व उसने पीटर को आवाज लगाई कि वह आ कर दरवाजा बन्द कर ले। वह तीव्र गति से पैदल ही आॅटो स्टैण्ड की तरफ बढ़ चली। आॅटो स्टैण्ड उसके घर से कुछ ही दूरी पर स्थित था। यही कोई आठ-दस मिनट की दूरी पर। मार्ग में चलते समय उसे सब कुछ अच्छा लग रहा था। रिक्शे में बैठ कर विद्यालय जाते छोटे बच्चे तो स्कूटियों में फर्राटे भरती युवतियाँ, सड़कों पर भागता शहर सब कुछ अच्छा लग रहा था। जिस दिन यदि किसी कारण वश उसे देर हो जाती तो उसे कुछ भी अच्छा नही लगता। उसका प्रयत्न होता कि कार्यालय वह समय से पहुँचे।

उस दिन वह समय से कार्यालय पहुँच कर कार्य में व्यस्त हो गई थी। वह प्रतिदिन की भाँति उसकी मेज के समीप आ कर खड़ा हो गया था। ’’नमस्ते ’’ स्वर कान में पड़ते ही गर्दन उसकी तरफ उठा कर उसने भी प्रत्युत्तर में ’नमस्ते कहा। वह अपने कार्य में पुनः व्यस्त होना चाहती थी किन्तु वह वहीं खड़ा रहा। वह जानती

थी कि वो उससे और भी बातें करना चाहता है। इसी उद्देश्य से बातों को आगे बढ़ाते हुए उससे पूछ रहा है कि, ’’ घर में सब कुछ ठीक है। ’’ प्रतिदिन की भाँति एक गैर जरूरी आवश्यक प्रश्न। उसने ’हाँ’ में सिर हिला दिया। कुछ क्षण उसी प्रकार खड़े रह कर वह उसे देखता रहा। वह अपने कार्य में व्यस्त रही। तत्पश्चात् वह अपनी मेज पर जा कर आॅफिस के कार्य में व्यस्त हो गया।

उसका नाम अजीत है, अजीत सिंह। अच्छे सम्पन्न घर का, ठाकुर परिवार का इकलौता पुत्र है। कार्यालय आते-जाते मार्ग में उसका घर दिखाई देता है, जो कि कार्यालय के समीप ही है। उसका घर आर्कषक व बड़ा-सा है। उसके अत्यन्त आग्रह पर वह एक-दो बार उसके घर गई है। उसके घर में उसकी माँ-पिता व उसकी एक अविवाहित छोटी बहन हैं। अजीत के साथ कार्य करते हुए सात वर्ष हो गये हैं। अजीत स्वभाव से अत्यन्त सरल व हँसमुख है। किसी से द्वेष व मनमुटाव की भावना न रखना अजीत के स्वभाव में है।

आज अक्टूबर माह की पाँच तारीख़ है। वह जानती है कि उसके जन्मदिन पर अजीत एक उपहार अवश्य लायेगा। मना करने के पश्चात् भी वह प्रति वर्ष वह ऐसा ही करता है। अजित इस दिन को एक विशेष दिन के रूप में मनाता है। उसने सोच लिया है कि आज वह उससे अवश्य पूछेगी, ’’ क्यों?’’

अजीत उससे उम्र में नौ वर्ष छोटा है, तथा आकर्षक भी। आज कार्यालय पहुँचते ही अजीत उसकी मेज के समीप आ कर खड़ा हो गया। वह प्रतिदिन ही ऐसा करता है। उसके हाथों में लाल गुलाबों का एक पुष्प गुच्छ था। वह जानती थी कि वह ऐसा ही कुछ करेगा। उसके लिये कुछ विशेष व सबसे अलग। पुष्प गुच्छ उसकी ओर बढ़ाते हुए अजीत ने उसे ’’ हैप्पी बर्थ डे ’’ कहा। वह फाइलों से अपना चेहरा उठा कर अजीत की तरफ देख कर मुस्कुरा पड़ी। पुष्प गुच्छ ले कर ’’थैंक्स ’’ कह कर पुनः काम में लग जाना चाहती थी। किन्तु अजीत मुस्कुराते हुए अब तक वहीं खड़ा था। वह आज अजीत से कह पड़ी जो उसने कभी कहने की आवश्यकता नही समझी थी। ’’ अब क्या है ? तुम जाओ। मैं काम कर रही हूँ। प्रतिदिन यहाँ खड़े हो कर अपना समय बर्बाद मत किया करो।’’ किन्तु अजीत पर उसकी बातों का कोई प्रभाव नही पड़ा। वह वहीं खड़ा रहा तथा कुछ ही क्षणों पश्चात् अपनी शर्ट की जेब से एक छोटी सी डिबिया निकाल कर उसके समक्ष रख दिया। अब उसके चैंकने की बारी थी। वह प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी तरफ देखने लगी। एक क्षण का विलम्ब किये बिना अजीत ने डिबिया खोल कर उसके समक्ष रखते हुए कहा, ’’ इसे पहन लिजिए।’’ डिबिया में अंगूठी थी। अंगूठी देख कर वह हतप्रभ रह गयी। उसके मन में अनेक प्रश्न उठने लगे। उन प्रश्नों में उलझते हुए वह वह अजीत से पुनः कह पड़ी, ’’ क्या मतलब है इसका ? मुझे यह कीमती अंगूठी क्यों दे रहे हो ? ’’

’’ शाम को बताऊँगा।’’ कह कर तथा अंगूठी वहीं मेज छोड़ कर अजीत चला गया।

शाम के पाँच बजे कार्यालय के कर्मचारी घर के लिए निकलने लगे। कार्यालय बन्द होने का समय हो गया था। वह भी घर जाने को तत्पर थी कि अजीत आ गया। उसने उससे अंगूठी देने का औचित्य पूछ लिया।

अजीत ने कहा, ’’कार्यालय के बाहर आइए। मैं सब कुछ बताता हूँ।’’ अजीत के चेहरे पर फैली दृढ़ निश्चय की भावना देख कर उसके मन में अनेक आशंकाये उठने लगीं। वह उसके साथ चलने लगी। उसके साथ चलते हुए आशंकित थी कि अजीत न जाने क्या कहने वाला है। घर न जा कर वह उसे विपरीत दिशा में ले कर चलने लगा। वह भी न जाने क्यों उसके साथ चलती चली जा रही थी। कुछ दूर तक दोनों खामोश साथ चलते रहे। अमर ने बोलना प्रारम्भ किया, ’’ रेचल जी, मैं आपसे प्रेम करता हूँ। बहुत.....बहुत....प्रेम। मैं अपना सम्पूर्ण जीवन आपके साथ व्यतीत करना चाहता हूँ।’’ उसने दृढ़ शब्दों में कह कर अपनी बात समाप्त कर दी। उसके शब्द दृढ़ थे किन्तु उन शब्दों को सुन कर मैं काँप रही थी। मैंने देखा अमर मेरी ओर देख रहा था।

’’ आप मुझे बहुत सारी बातें समझायेंगी। यदि यह एकतरफा प्रेम है मेरी तरफ से तो, यह ही सही। मैंने अपना जीवन आपके नाम कर दिया है। यदि आपकी तरफ से मेरे प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम नही मिलता है तो भी मैंने अपना यह जीवन आपके नाम कर दिया है। ’’ अजीत मेरी तरफ ही देख रहा था।

अजीत की बातें सुन कर वह सकते में आ गई। कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् वह बोल पड़ी, ’’क्या कह रहे हो तुम? अपनी बातों का मतलब समझते भी हो। तुम मुझसे प्रेम कैसे कर सकते हो? ’’ अमर की तरफ देखे बिना वह बोलती जा रह थी। ’’ मैं रेचल डेविड हूँ। तुम अमर सिंह हो। मैं विवाहिता हूँ। मेरे दो छोटे बच्चे हैं। मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूँ......एक-दो वर्ष नही पूरे नौ वर्ष। यह सब बोलने से पहले तुम्हे मेरा पारिवारिक जीवन नही दिखा। ’’ मैं आवेश में बोलती जा रही थी। ’’ मेरा पारिवारिक जीवन सुखी है। ये कैसी बातें तुमने की है आज ? ’’ कह कर वह चुप हो गयी तथा दूसरी तरफ देखने लगी। अजीत के फूट-फूट कर रोने के स्वर से वह चैंक पड़ी तथा उसकी ओर देखते हुए बोली, ’’तुम युवा हो, आकर्षक हो। तुम्हे कुलीन घर की, तुम्हारे जाति वर्ग की आकर्षक लडकियाँ मिल जायेंगी। तुम इस प्रकार की निरर्थक बातें मत करों मुझसे।’’ समझाते हुए अजीत से कहा। ’’आओ, वापस चलें। मुझे घर जाने में विलम्ब हो रही है। पति व बच्चे प्रतिक्षा कर रहे होंगे।’’ कह कर मैं चलने को तत्पर हो गयी।

’’ नही , कदापि नही, मैं अब इस मार्ग पर आगे ही बढँूगा, पीछे नही। आप मेरे दी गई अंगूठी स्वंय ही पहन लीजिए या मुझे पहनाने दीजिए। आज....इसी समय, यह मेरा दृढ़ निश्चय है। मैं आपको कहीं नही जाने दे रहा हूँ। आज न तो मैं घर जा रहा हूँ न तो आपको जाने दे रहा हूँ। दोनों के परिवार बदनाम होते हैं तो हो जायें। यह आप पर निर्भर करता है कि आप सब कुछ बचा लें। ’’ वह मेरी तरफ बिना पलकंे झपकाये देख रहा था। इस आकस्मिक घटनाक्रम से मैं स्तब्ध थी। प्रतिदिन मेरे पास आकर बेवजह खड़े होना, मुझसे बातें करने के अवसर ढूँढना। कभी- कभी मुझे यह संदेह अवश्य होता था कि कहीं यह मेरी तरफ आकृष्ट तो नही हो रहा है। फिर यह सोच कर मन को समझा लेती कि नही.....ऐसा नही हो सकता है। सबके साथ सरल व मृदु व्यवहार रखना उसके स्वभाव में है। किन्तु वह तो....। उसकी आँखें में प्रेम था या नही यह मैं नही कह सकती, किन्तु दृढ़ निश्चय के भाव से उसके नेत्र भरे थे। मैं घर आ गई। उसकी दी अंगूठी अब भी मेरे पर्स में पड़ी थी, जिसे मैं वापस न कर सकी थी। मैं उससे या वो मुझसे दूर कैसे जा सकते थे ? हम दोनों का कार्यालय जो एक था। दूसरे दिन मैं उससे दृष्टि बचा कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गयी। कल की घटना की वजह से मंै असहजता का अनुभव कर रही थी। कुछ ही मिनटों में वह मेरे समक्ष खड़ा था, मेरा अभिवादन करता हुआ। उसकी सरलता, अथाह प्रेम, उसका समर्पण कब मुझे उसकी ओर खींच ले गया यह मैं नही जान पायी। उम्र, जाति, धर्म, सामाजिक वर्जनाओं, बन्धनों को तोड़ते हुए मैं उसकी हो गई। अब कभी-कभी कार्यालय के कार्यों की अधिकतावश विलम्ब हो जाने पर मैं उसके घर भी रूक जाती। अपने घर में मुझे वह पत्नी का स्थान देते हुए सम्मान के साथ रखता। मैं उसकी हो चुकी थी आत्मिक व शारीरिक रूप से।

इस प्रकार के सम्बन्धों को हम अधिक दिनों तक समाज से छुपा कर नही रख सकते। बातें मेरे पति तक पहुँचीं। उनके प्रश्नों के उत्तर मैंने पूर्ण सत्यता से दिये। वह कुछ दिनों तक चुप रहे। अथक वैचारिक संघर्षों के उपरान्त उन्होने कटु सत्य का सामना किया। पीटर ने मेरा हाथ थामें रखा। अपना परिवार मेरे साथ ही पूर्ण रखा।

अजीत ने मेरी इच्छाओं और भावनाओं को प्राथमिकता देते हुए मुझसे चर्च में विवाह किया। वह घर्म परिवर्तन हेतु भी तैयार था। मैं अजीत जैसी सर्वोत्कृष्ट प्रेम का प्रतीक तो नही बन सकती किन्तु उसका साथ व उसके प्रेम ने मुझमें भी अच्छाईयों का समावेश किया व मैंने उसे ऐसा करने से रोक दिया। अजीत का प्रेम तो सांसारिक बन्धनों से ऊपर था। दूसरे वर्ष मेरा व अजीत का बेटा रूसलान मेरी गोद में आ गया। रूसलान भी मेरे पति पीटर की देखभाल व स्नेह की छाँव में पलने लगा। मैं कार्यालय चली जाती तो मेरे पति पहले दो और अब तीन बच्चों को स्कूल छोड़ने व लाने का कार्य पूर्ववत् करते। वह एक मिशनरी धर्मार्थ संस्था में कार्यरत् थे जहाँ कार्य व समय की बंदिशें नही थीं। अतः वह बच्चों की देखभाल के लिए समय निकाल लेते थे। कभी- कभी मैं सोचती कि यदि मैं पीटर की जगह होती तो क्या उन्हंे क्षमा कर पाती। मन अत्यन्त विचलित होता यह सोचकर और अन्तरात्मा से यही स्वर निकलता कि कदापि नही...... किन्तु पीटर ने भी एक परिपक्व वैवाहिक प्रेम का उदाहरण मेरे व समाज के समक्ष रखा। अजीत से भी कहीं बड़ा व महानतम् प्रेम। उसे अजीत के घर रूकना पड़ता तो ऐसी स्थिति में पीटर तीनों बच्चों की व घर की भी देखभाल करते। यह पीटर की अच्छाईयाँ थीं।

समय चक्र अपनी ही रफ्तार से आगे बढ़ता रहा। ऋतुएँ परिवर्तित होती रहीं। नयी ऋतुओं का आगमन होता रहा। समय अपने चिह्नन हमारे हृदय पर, हमारे शरीर पर छोड़ता हुआ आगे बढ़ता रहा। अजीत से विवाह के समय अजीत पच्चीस-छब्बीस वर्ष का गौरवर्णीय, लम्बा, स्वस्थ नवयुवक था। वह चैंतीस -पैंतीस वर्षीय विवाहिता, क्रमशः सात व छः वर्षीय दो बच्चों की माँ तथा सामान्य शक्ल की क्रिश्चियन महिला थी। अजीत ने न जाने उसमें क्या देखा, क्या पाया कि अपना सम्पूर्ण जीवन उसके नाम कर दिया। वह भी उसकी हो गई। यह न जाने कौन-सा बन्धन था।

बच्चे बड़े होने लगे। अगले माह मेरी बड़ी पुत्री का विवाह है। पीटर विवाह की तैयारियों में व्यस्त हैं। अजीत दिन भर यहाँ रह कर पीटर के साथ विवाह की तैयारियों में उसका हाथ बटाँता है। शाम को अपने घर चला जाता है। बच्चे उसे ’अंकल’ कह कर संबोधित करते हैं। अजीत के घर में उसकी मम्मी व उसकी छोटी बहन रहते हैं। उसकी माँ उसे अपनी बहू मान चुकी हैं। अजीत की बहन भी उसे भाभी-सा स्नेह देती है। जब कभी अवसर मिलता वह भी उसके घर में कई-कई दिनों तक रूक कर उसकी गृहस्थी को सजाती-सँवारतीं। उसे स्मरण है वे दिन जब एक बार वह अजीत के घर में थी तथा अस्वस्थ हो गई थी। अस्वस्थता इतनी बढ़ गयी थी कि चलने-फिरने में असमर्थ हो गई। उन दिनों अजीत के घर में सबने उसकी बड़ी देख-भाल की थी। अजीत ने भी कार्यालय से अवकाश ले लिया था। अजीत में इतना प्रेम, इतनी सहृदयता देख वह सोचती कि यदि वह अजीत के प्रेम-निवेदन को अस्वीकार कर देती तो क्या अजीत किसी अन्य से विवाह का विकल्प चुनता? कदाचित् नही। क्यों कि अजीत ने इस विषय पर पुनः कभी भी चर्चा-परिचर्चा करना पसन्द नही किया। यह उसका दृढ़ व अलौकिक निर्णय था।

अजीत के जीवन को उससे ही पूर्णता मिली है। किन्तु अजीत की एक इच्छा अपूर्ण है......शेष है....। वह इच्छा ये है कि मेरे तीनों बच्चे उसे ’अंकल’ न कह कर ’पापा’ कहें। बच्चों ने जो शब्द प्रथम बार मुख से उच्चारित किए वह उनका स्वभाव बन गया। यहाँ तक कि रूसलान भी मेरे व पीटर के बच्चों के साथ पलते-बढ़ते हुए अजीत को प्रथम बार ’अंकल’ कहा तो आज तक अंकल ही कहता है। मैं भी तो बेबस हूँ, असहाय हूँ बच्चों के स्वभाव को परिवर्तित करने में । मैंने सुना है कि ऐसे विशेष बन्धन कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर अपना अमूल्य मूल्य चुकाते हैं। बच्चों के मुख से ’पापा’ शब्द सुनने की तृष्णा में मृगतृष्णा की भाँति भटकतीं अजीत की ज्ञानेन्द्रियाँ कदाचित् इस बात की सत्यता को व्यक्त करती हैं।

नीरजा हेमेन्द्र