कहानी -10-
’’ विमर्श आवश्यक नही ’’
जीवन के जो क्षण, दिन, माह, वर्ष, व्यतीत हो जाते हैं, वो क्यों नही हमारी स्मृतियों से भी मिट जाते। बीते समय क्यों हमारे एकान्त पलों में दस्तक देने लगते हैं, स्मृतियों के पन्ने खुलते जाते हंै पृष्ठ दर पृष्ठ................
.......... ’’ नताशा ! देखना बेटा, वरूण की दवा का समय होने वाला है।’’ अपने श्वसुर रामदीन के कहने से पूर्व ही नताशा वरूण की दवा देने के समय का पूरा ध्यान रखे हुए थी। वरूण को ठीक एक बजे खाना देना है। उससे पूर्व उसे दवा देनी है। खाना तैयार है। वह बस एक बजने की ही प्रतीक्षा कर रही है। वरूण नताशा का पति है। उनके विवाह को बारह वर्ष हो चुके हैं। दो बच्चे हैं। बड़ी बेटी वान्या नौ वर्ष की है, तथा बेटा राजंश सात वर्ष का है। वान्या तीसरी कक्षा में पढ़ती है, राजंश पहली कक्षा में है।
विवाह के समय वरूण आकर्षक, ह्नष्ट-पुष्ट युवा था। उसने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी तथा एक निजी मोबाईल कम्पनी में कार्यरत था। छोटे-से कस्बे में रहने वाले कृषक रामदीन स्वंय तो पढ़े लिखे न थे, किन्तु वरूण को उन्हांेने परिश्रम व लगन से पढ़या था। वरूण के नौकरी में लगते ही उन्होंने उसके विवाह के लिए योग्य, पढ़ी-लिखी कन्या की तलाश प्रारम्भ कर दी। वरूण उनका इकलौता पुत्र था। उस छोटे-से कस्बे में इतनी शिक्षा तथा नौकरी प्राप्त करना सरल नही था। उसमें रामदीन के स्वप्न व परिश्रम का मिश्रण था। उनकी दो पुत्रियाँ भी है जो वरूण से छोटी हैं, उनका विवाह हो चुका है। उनकी ससुराल पड़ोस के कस्बे में है।
वरूण के लिए उचित कन्या की तलाश उन्हें नताशा के घर ले आयी है। नताशा भी तो उसी छोटे-से शहर में रहती है तथा दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर आगे उच्च शिक्षा प्राप्त कर कुछ करने के, कुछ बनने के सपने देख रही है। नताशा के पिता की आर्थिक स्थिति भी वरूण के घर की भाँति ही है निम्न मध्यम वर्ग की। अन्तर मात्र यह है कि नताशा के पाँच और भाई-बहन भी है। सबकी शिक्षा व विवाह का उत्तरदायित्व उसके पिता को पूर्ण करना है। अतः नताशा का विवाह अट्ठारह वर्ष पूर्ण होने से पूर्व ही हो गया। पिता की विवशता व उनके उत्तरदायिव को नताशा न समझती तो और कौन समझता?
वह वरूण के घर आ गई। उसे लगता है कि वरूण से विवाह का उसका निर्णय उचित था। क्यों कि वरूण के पिता के अनेक गुणों में एक गुण यह भी था कि वे लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे। उनके व वरूण के प्रोत्साहन के फलस्वरूप वह विवाहोपरान्त स्नातक तक शिक्षा पूर्ण कर सकी। इस बीच दोनों बच्चे भी उनके जीवन में आ चुके थे। स्नातक के पश्चात् उसने स्वतः आगे पढ़ने का विचार त्याग दिया। घर व बच्चों के प्रति उत्तरदायितव उसे ऐसा करने से रोक रहे थे, जो उचित भी था।
बच्चे शनैः शनैः बड़े होने लगे। पढ़ने जाने लगे। कम्पनी ने वरूण का स्थानान्तरण एक बड़े शहर में कर दिया है। जीवन में आने वाले कुछ धूप-छाँव के अतिरिक्त सब कुछ ठीक था। व्यवस्थित था, कि इधर छः माह से वरूण को न जाने क्या हो गया है? वह अस्वस्थ चल रहा है। दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा है। ज्वर चढ़ता है, उतरता है। डाॅक्टर ने बताया है कि उसे जांडिस हो गया है। वह दिन रात उसकी देखभाल कर रही है। समय पर दवा, पथ्य व उसके आराम का पूरा ध्यान रख रही है। जब चिकित्सकांे ने यह बताया कि इस बीमारी से उसकी किडनी प्रभावित हो गयी है तो बदहवास हो कर उसने वरूण के पिता को यहाँ बुला लिया है। उनके आने से इस कठिन समय में उसे बड़ी राहत मिली है।
रामदीन के कहने से पूर्व ही उसे वरूण के दवा देने के समय का पूर्ण ध्यान था। वरूण के नई जाचों की सभी रिपोर्टे आ गई हैं। कल उसे चिकित्सक को दिखाने पुनः जाना है।
दूसरे दिन अस्पताल जाने पर चिकित्सकों ने जो भी बताया उसे सुन कर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसकती प्रतीत हुई। चिकित्सकों के अनुसार वरूण की दोनों किडनी खराब हो चुकी हंै। उसे समझ में नही आ रहा था कि उससे कब? कहाँ? कौन-सी त्रुटि हो गई है? वह तो प्रारम्भ से ही वरूण के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रख रही थी। फिर ये कैसे हो गया? अभी वरूण की आयु ही क्या है? मात्र पैंतिस वर्ष......?
वरूण अपने पिता का इकलौता पुत्र है। उसका भी तो इस संसार में वरूण के अतिरिक्त कोई नही है। दोनों बच्चों के उदास चेहरे बता रहे थे कि वे भी अपने पिता की गम्भीर बीमारी से अनभिज्ञ नही है। बात जब किडनी के प्रत्यारोपण की आई तो सबकी उम्मीदंे उस तक आ कर थम र्गइं , जो कि उचित है। ’’ हाँ, वह देगी अपनी एक किडनी वरूण को। ’’ एक विवश पिता, प्यारे बच्चों व अन्ततः अपने लिए मैंने एक किडनी वरूण को दी। कुछ दिनों चिकित्सीय देखरेख में रहने के पश्चात् मैं वरूण को ले कर अस्पताल से घर आ गई। वरूण की देखभाल, उसकी औषधियाँ सब कुछ चिकित्सीय देखभाल परामर्शानुसार चल रही थीं। शनैः शनै मैं स्वस्थ हो गई थी।
मेरे सामने था खुला नभ। जिसमें निर्धारित मार्ग, अव्यवस्थित पगडंडियों व निश्चित् गंतव्य की बाधायें नही थीं। बस, मुझे खुले असमान में उड़ते चले जाना था, वरूण के हाथों को थामें। किन्तु वरूण मेरा हाथ छोड़ कर मुझे इस संसार में, यथार्थ के धरातल पर अकेला छोड़ कर चला गया । यर्थाथ का ऐसा धरातल जहाँ पग-पग पर कंटक भरे पथरीले मार्गो के अतिरिक्त मुझे कुछ भी दृष्टिगोचर नही होता था। मैं शारीरिक व मानसिक रूप से अपूर्ण जीने के लिए विवश थी। जीने की विवशता थी तो मात्र बच्चों के लिए। कुछ समय हमारे साथ रहने के पश्चात् वरूण के पिता भी गाँव चले गये। गाँव उन्हें खेतों व बेटियों के प्रति उत्तरदायित्व पूर्ण करने के लिए बुला रहा था। मैं अपनी छोटी-सी नौकरी व दोनों बच्चों के साथ किराये के एक छोटे-से घर में रहने लगी हूँ। जीवन में आर्थिक अभाव तो है ही, जो महत्वपूर्ण हंै या गौण ये मैं नही जानती किन्तु प्रसन्नता के छोटे-छोटे पलों का भी अभाव है। बड़ी खुशियाँ तो न जाने मुझसे कितनी दूर हैं।
वरूण को गये तीन वर्ष होने को हैं। मेरे कार्यालय में मेरे साथ काम करने वाला युवक सौरभ आजकल मेरी सहायता को तत्पर रहता है। पहले मुझसे बातें करने में संकोच करता था, किन्तु जब से उसे मेरे जीवन में घटी त्रासदी के बारे में पता चला है तब से वह बिना कहे मेरी आवश्यकतायें समझने लगा है।अपनी घर गृहस्थी से संबन्धित सभी कार्य मैं स्वंय करना पसंद करती हूँ। आजकल न जाने क्या हो गया है बिजली का बिल भरना, बैंक, बच्चों की फीस इत्यादि जैसे कार्यों पर उस पर निर्भर रहने लगी हूँ।
वरूण के पिता, मेरे भाई व पिता आते ही रहते हैं मेरा हाल पूछने मेरे पास। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता जा रहा है उनके आने में अन्तराल की अवधि लम्बी होती जा रही है। आखि़र उनकी भी तो अपनी दुश्वारियाँ व मजबूरियाँ हैं। यह शहर है भी तो दूर मेरे गाँव से। परिवार के प्रति उनके उत्तरदायित्व हैं। कब तक वो मेरे पास आते रहेंगे? कब तक मुझे संबल देते रहेंगे? मुझे स्वंय जीना सीखना होगा। मेरे दोनों बच्चे ही मेरे जीने की वजह, मेरा संबल, मेरा सर्वस्व हैं। ये बच्चे मेरा उत्तरदायित्व भी हैं।
बच्चों को देखते ही मेरे भीतर साहस का संचार होने लगता है। मेरी आयु अट्ठाईस वर्ष की हो चुकी है किन्तु मुझे लगता है कि मेरे भीतर नन्ही-सी नताशा अब भी है जो अक्सर बाहर आ जाती है। वो नन्ही है अतः डरती भी है तथा अट्ठाईस वर्ष की नताश को कभी-कभी भयभीत भी कर देती है।
भयभीत तो मैं कभी-कभी सौरभ से भी होने लगती हूँ। मेरी आवश्यकतायें व उसकी तत्परता दोनों मिल कर मुझे उससे बातचीत करने पर विवश कर देती हैं। उसे मेरे जीवन में घटित हुई उस त्रासद घटना के विषय में व उसके पश्चात् मेरे अकेलेपन की परिस्थितियों के बारे में ज्ञात है। कुछ उसने मुझसे जाना है, कुछ कार्यालय के लोगों से। अकेलेपन के क्षणों में अक्सर स्वंय से प्रतिज्ञा करती हूँ कि मैं कभी भी अपने अन्दर की स्त्री के स्त्रीत्व की शुचिता को अपवित्र नही करूँगी। मेरी इस प्रतिज्ञा के साक्षी मेरे दोनों बच्चे व वरूण की स्मृतियाँ हैं।
आज पुरानी स्मृतियाँ क्यों चलचित्र की भाँति मेरे हृदय के पटल पर उभरती जा रही हैं। वरूण क्यों आज मेरी स्मतियों में समाहित होता जा रहा है। आज मेरे हृदय में ये कैसी आशंकायें व्याप्त होती जा रही हैं।
विवाह के इतने वर्षों के पश्चात् मम्मी-पापा के घर से प्रारम्भ हो कर स्मृतियों का करवां वरूण से विवाह, दोनों बच्चों का जन्म, रोजी-रोटी की तलाश में इस बड़े शहर में आना, वरूण की अस्वस्थता, उसका आसमान के असंख्य तारों में एक तारा बन जाना....... मुझे ले कर कहाँ कहाँ से गुजरता जा रहा है। ये स्मृतियाँ क्यों नही हमारे अपनों के साथ ही चली जाती हैं। आज हृदय में स्मृतियों व विषादों के अतिरिक्त कुछ भी नही है।
अभी सांय के सात बज रहे हैं। बच्चे विद्यालय में मिला गृहकार्य करके टी0वी0 देख रहे हैं। वे आठ बजे तक खाना खा कर सो जायेंगे। आज मुझे सौरभ के साथ आवश्यक कार्य से बाहर जाना है। रात का समय है इसलिए मैंने सौरभ को आने के लिए कह दिया है। अब से पूर्व मैं कभी भी उसके साथ बाहर नही गई हूँ। किन्तु मेरी विवशता ही ऐसी है, समय मैंने आठ बजे का दिया है। जब बच्चे खाना खा कर सो जायेंगे। बच्चों किसी प्रकार की कठिनाई न हो अतः मैंने सौरभ को पहले से ही बता दिया है।
मैं बच्चों भोजन करा कर सुलाने के पश्चात् घर से निकल पड़ी। सौरभ भी वहीं आ जाएगा। किन्तु यह क्या? घर से कुछ कदम दूर जाने पर मार्ग में सौरभ बाइक ले कर प्रतीक्षारत खड़ा मिला। वह मुझसे पहले किसी अन्य अत्यावश्यक कार्य से कहीं चलने का अनुरोध करने लगता है। तत्पश्चात् वह मेरे कार्य के लिए चलेगा। बस कुछ मिनटों की बात है, सोच कर मैं उसके साथ चल पड़ी। वैसे भी गर्मियों के दिन हैं। बाजारों में, मार्गों पर पर्याप्त चहल-पहल है। अतः मेरे अन्दर किसी प्रकार की घबराहट या डर नही है। वैसे भी मैं स्त्री के साथ ही साथ पुरूष का भी उत्तरदायित्व वहन करने में सक्षम हूँ। कर रही हूँ।
सौरभ मुझे येे कहाँ ले आया? यह स्थान कुछ सुनसान-सा लग रहा है। किसी छोटे-से गाँव के बाहर स्थित सरकारी विद्यालय का भवन लग रहा है। यहाँ अँधेरा-सा है। कदाचित् इस सरकारी विद्यालय में बिजली नही है। यहाँ दो युवक पहले से ही खड़े हैं। सौरभ उन्हें देख कर मुस्करा पडा़। कदाचित् सौरभ को इनसे ही कुछ काम हैं बाईक एक तरफ खड़ी कर सौरभ उनकी तरफ बढ़ चला। मैं वहीं एक किनारे खड़ी रही। वे सौरभ के साथ कुछ देर तक बातें करते रहे। पाँच मिनटों तक। तत्पश्चात् सौरभ मेरे पास आया कुछ समय और लगने की बात कह कर मुझसे विद्यालय के अन्दर आने की बात कहने लगा। उस विद्यालय की चारदीवारी में गेट नही लगा था। मैं चुपचाप अन्दर आ कर विद्यालय के बरामदे में बने पत्थर की बेंच पर आ कर बैठ गयी। कुछ ही क्षणों में वे दोनों और सौरभ मेरे पास आ कर बेंच पर दोनों तरफ से बैठ गये। मुझे रत्तीभर सौरभ की नियत पर संदेह नही था तो उसके मित्रों पर संदेह कैसे करती? मैं दोनांे तरफ से घिर चुकी थी। वे मुझे निरन्तर स्पर्श करते जा रहे थे व बातें करते जा रहे थे। मैं समझ चुकी थी कि सौरभ व उसके मित्रों ने इस शहर में मुझे अकेला व अबला समझ मेरी पवित्रता व स्त्रीत्व से खेलने का कार्यक्रम बना रखा है। मैं भी कितनी सरल व निश्छल स्वभाव की हूँ। सौरभ की आँखें से टपकते वहशीपन व दरीन्दगी को मैं समझ क्यों न सकी?
मैं अबला व निरीह स्त्री नही हूँ। जीवन में मैं माँ के साथ ही साथ पिता का भी दायित्व उठाने में सक्षम हूँ, बल्कि उठा रही हूँ। मैं इन दरीन्दों को यह समझा कर रहूँगी कि स्त्री अबला व कमजोर नही है। मैं उनकी गिरफ्त से निकल कर, तीव्र गति से बेंच से उठ कर, खुले गेट की तरफ भागना चाह रही थी कि इन दरिन्दों ने दौड़ कर मुझे पकड़ लिया। मेरे हाथ-पैर उनकी पकड़ में अवश्य आ चुके थे किन्तु मेरी आवाज़ मुक्त थी। मैं पूरी हिम्मत के साथ मदद के लिए पुकारने लगी। इस आशा में कि आसपास के किसी ग्रामीण या आते-जाते किसी पथिक तक मेरे स्वर पहुँच जायें। किन्तु यह विद्यालय गाँव के बाहरी हिस्से में था। तुरन्त उन सबने मेरा मुहँ किसी कपड़े से बाँध दिया। मैं भयभीत-सी सौरभ की तरफ देखने लगी। वे दोनों मेरे लिए अजनबी थे किन्तु सौरभ.....मैं सौरभ से अपने दोनो हाथों को जोड़ कर अपने बच्चों के लिए यह जीवन माँग लेती। मेरे हाथ-पैर, मेरे स्वर..... सब कुछ उन दरिन्दों ने बाँध दिया था। मेरे नेत्रों की पीड़ा व मेरी विवशता का सौरभ पर कोई प्रभाव नही पड़ा। उन तीनों नरभक्षी भेडि़यों ने कुछ ही देर में मुझे बेदम कर दिया। मेरी चींखे मेरे गले में ही घुट कर रह गयीं। गला सूख रहा था। उन तीनों कुकर्मियों ने मेरे साथ बलात्कार का, वासना का खूनी खेल प्रारम्भ कर दिया था। उनमें सौरभ सबसे खूँखार भेडि़या निकला। उफ्! उसे मैं पहचान क्यों नही पाई? मानव शरीर में छिपे उसके अन्दर के भेडि़ये को मैं ज़रा भी नही तो जान नही पायी। उसने दुष्कर्म का यह खेल खेलने के लिए मानवता का छद्म आवरण पहन रखा था। मेरे शरीर के चीथड़े कर डाले उन वहशियों ने।
इस समय मेरे दोनांे बच्चे मुझे अत्यन्त याद आ रहे हैं, जिन्हंे मैं घर में सोता हुआ छोड़ कर आई हूँ। उन्हे यह आभास तक नही कि उनकी माँ किस प्रकार वहशीपन का शिकार हो गयी। यहाँ से कई कि0मी0 दूर मेरे माता-पिता को, वरूण के पिता को कैसे पता होगा कि उनकी बेटी इस समय कितनी पीड़ा से गुज़र रही है। मेरे पास कुछ साँसे शेष हैं तीनों दरीन्दे जा चुके हैं। मेरे हाथ-पैर खुले हैं। कदाचित् उन्होंने मुझे मृत समझ कर मेरे हाथ-पैर, मुँह खोल दिए हैं। मेरे शरीर से रक्त बह रहा है। गला सूख रहा है। वरूण मेरे पास खड़ा है। मुझे ढाढ़स बँधा रहा है। मेरी प्यास बढ़ती जा रही है।
सामने विद्यालय का हैंडपम्प है। अथक प्रयत्नों के पश्चात् मैं बेंच से नीचे उतर पा रही हूँ। उठ कर खड़ी होने का प्रयत्न कर रही हूँ, किन्तु असमर्थ हूँ। मैं भूमि पर लेट कर हैंडपम्प की तरफ देख रही हूँ, शनै शनै घिसटती हुई उसकी तरफ बढ़ रही हूँ। मेरी आवाज़ बन्द हो चुकी है। शरीर का सम्पूर्ण रक्त बह चुका है। यदि मुझे जल की कुछ बूँदें मिल जायंे तो मैं चैतन्य हो कर बच्चों के पास जा सकती हूँ। मैं घिसटते-घिसटते किसी प्रकार हैंण्डपम्प तक पहुँच ही जाती हूँ। हैंडपम्प चला नही पाती रही हूँ। हैण्डपम्प खराब हो चुका है या मेरा शरीर निष्क्रिय मैं समझ नही पा रही हूँ। व्याकुल हो हैंडपम्प के चारों तरफ घिसट रही हूँ। मेरे शरीर की चन्द साँसें भी मेरा साथ छोड़ रही हैं। मेरे नेत्र बन्द व चेतना विलुप्त होती जा रही है।
नीरजा हेमेन्द्र