हमारा शहर उस बरस -गीतांजलि श्री राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

हमारा शहर उस बरस -गीतांजलि श्री

उपन्यास

हमारा शहर उस बरस -गीतांजलि श्री

बौद्धिक विषय

गीतांजली श्री हिन्दी की उन लेखिकाओं में से है जो कम लिखने के बाद भी खूब चर्चित है। इस चर्चा का कारण उनकी रचनायें है जो ज्वलंत विषय तथा अंदाज में लिखी गई हैं उनका नया उपन्यास हमारा शहर उस बरस एक वृहद विश्लेषण परख ग्रन्थ बन गया है।

इस उपन्यास की कथा सैक्यूलर सोच के तीन युवा दोस्तों की आपसी विमर्श तथा उन पर क्षण क्षण पड़ते बाह्नय प्रभाव की कथा है। इस मूल कथा से जुड़ी, युनिवर्सिटी के समाज शास्त्र विभाग की भीतरी उठा पटक और शहर में नये उठ रहे मठ की कथायें भी पाठक को टुकड़ों-टुकडों में जानने को मिलती है। हनीफ और उनकी पत्नी श्रुति अपने मित्र शरद के मकान में किराये से रहते है। शरद और हनीफ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। श्रुति एक लेखिका है। शरद के पिता जो ’दद्दू’ कहे जाते है एक बोल्ड और प्रेग्रेसिव बुजुर्ग है। वे इन तीनों की हर बेठक में शामिल रहते है, यहाँ तक पीने पिलाने में भी शहर में साम्प्रदायिक विद्वेष तथा धार्मिक उभार की आंधी चल रही है। शरद और हनीफ अपने पर्चो और भाषणों के जरियें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिये प्रयत्न करते रहते है, और ऐसे में ही एक बार शरद पर हमला भी होता है। किसी जमाने में छोटे आकार में रहा साधुओं का एक मठ और मंदिर आज अनुकुल परिस्थितिया पाकर अपना विस्तार करता जा रहा है। शहर में कहरता फैलती जा रही है। उधर हक ऐसा मुस्लिम नेता हैं जो अपने तौर पर कहरता फैला रहा है। कलाकार में शरद और हनीफ के बीच वैचारिक दूरिया बढ़ने लगती है, और श्रुति का सेतु बनने का प्रयास भी सुल नही होता। शरद अपने डिपार्टमेंट के मध्यम मार्गी प्रोफेसरों की और झुकता जाता है। और हनीफ हक की तरफ अग्रसर होता जाता है। एक दिन अचानक कुछ उग्रयुवक हनीफ पर हमले के लिए घर में घुसते है की उनका सामना श्रुति और दद्दू से होता है वे लोग दद्दू को निर्ममता से पीटते है और उन्हें घायल करके लौट जाते है।

इस घटना के वाद दद्दू मनही मन टूट चुके है, और इसी विषम स्थिति में उपन्यास का अंत हो जाता है कथा आरम्भ से ही पाठक यह अनुमान लगा सकता है कि इसी घटना के बाद हनीफ और श्रुति ’पुल के उस पर ’ की मुस्लिम बस्ती में चले गये होगें, हालाकि उपन्यास में इसका जिक्र नही है।

शिल्प के क्षैत्र में इस समय नये प्रयोग हो रहे है। गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास में कथा कहने का माध्यम ’ कलम ’ रखा है जो कि फटाफट उस स्थिति दृष्य और सवाद की काॅपी कर लेती है जो उसके सामने आती है यह शिल्प कुछ नया सा होने से अच्छा तो लगता है पर बांध नहीं पाता।

बाधने को तो पूरा उपन्यास ही पाठक को बाॅध नहीं पाता। पाठक का मन बार-बार उचटता है, बोर होता है। शायद भावना, परंपरा और संवेदना को हर किनार करके केवल तर्क और बौद्धिकता को आधार बना कर लिखें जाने वाले उपन्यास का यही हश्र हो सकता था। गीतांजलि श्री के कथा संग्रह ’ अनुगूज ’ तथा उपन्यास ’भाई ’ में मोजूद ’कहन’ का यहा अभाव ही है , जो इस उपन्यास को पाठकीय मजे से दूर कर देता है। यह तो सही है कि द्वंद्व और विचार ही वे भीतरी पोषक तत्व है, जो सौन्दर्य, सौष्ठव और संपूर्णता प्रदान करते है, पर नेरेशन का अपना महत्व हैं इस उपन्यास में द्वंद्व बहस, विचार और तर्को का अतिरेक है। इसलिए कोई भी मात्र श्रुति ही बची है, पर कहीं न उसकी उम्र का वर्णन है न उसकी दैहिक आवृति और सूरत शकल का परिचय ही इसलिए वह भी काल्पनिक पात्र लगती है इसमें इसमें सारी घटनाएं सुनी सुनाये रूप में सामने आती है अतः सत्य की तरह प्रभावित नहीं करती । उपन्यास के पात्र सहीं मायने में बुद्धिजिवी के रूप् मेूं सामने आते है- बंद कमरे में बहस करते हुए हो उनकी बहस का माध्यम और भाषा जरूर सरल है सशक्त कथ्य की दृष्टि से यह उपन्यास एक शानदार कवि के रूप में सामने आ सकता था, बल्कि लेखिका के तर्क, विचार और दृष्टि बहुत परिपक्व होने के कारण यह सांगोपांग रचना बन सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और यह उपन्यास की जगह विचार विश्लेषण के ग्रंथ का ही कथात्मक रूप बन सका है।