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चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर - 21

चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर 21

Chanderi-Jhansi-Orchha-gwalior ki sair 21

सोनागिरी गांव में प्रवेश के पहले हैं। इमे एक सरकारी रेस्ट हाउस और अस्पताल दिखाई दिया। गांवके बीचो.बीच स्थित, सोनागिरी मंदिरों के प्रवेश द्वार पर हमने जीप रोकी। सामने ही मंदिरो की पहाडी पर जाने का प्रवेश द्वार था।

जीप मे जूते मौके उतार के हम लोग मंदिर वाली पहाड़ियांे के प्रवेष द्वार तरफ चले तो वहॉ। घूम रहे एक सज्जन ने हमे हाथ धोने का संकेत दिया। हैण्ड पंप चला कर पानी से हाथ पंाव धोकर हम आगे बढ़ लिए।

पता लगा कि पहाडी पर कुल 86 जैन मंदिर है। सब मंदिंर सैकड़ों साल पुराने हैं । एक मंदिर से दूसरे तक जाने के लिए पहाड़ी पर पत्थर का फर्सीकरण कराकें रास्ता बनाया गया है। ये मंदिर ईसा पूर्व शताब्दी से लेकर मध्य काल तक के युग मे बनाये गये हैं । यहॉं हम को बुन्देला स्थापत्य कला के भी दर्शन हुए ।

मुख्य मंदिर चंन्द्र प्रभु का मंदिर है । जिसमें 12 फुट उंची विशाल मूर्ति मौजुद है । इसी के पास नारियल के आकार का एक छोटा सा कुंड एक चट्टान में बना है। जिसे लोग नारियल कुंड के नाम से ही जानते हैं। यात्री यहॉं नारियल चढाते हैं जो कि गुप्तमार्ग से चट्टान के भीतर बहता हुआ दूर जाकर वापस मिलता है।

एक जगह लिखा था- बाजनी शिला !

वहॉ एक चट्टान रखी थी। पता लगा कि इस चट्टान में ंकंकड ठोकने से वह मधुर स्वर में आवाज गुंजाती है, इस लिए इसे बाजनी शिला कहते हैं।

मुख्य मंदिर के पास खड़े होकर हमने तब मंदिर को देखा तो हमें बड़ा अच्छा लगा। उंची नीचे जगहों पर बने सफेद पुते इंन मंदिरो को देखकर बहुत अच्छा लगता है जैसे कई सफेद हंस एक हरे भरे पेड़ पर जाकर बैठ गये हो।

नीचे उतरते हम थक गये । पता लगा कि सोनागिरी बहुत छोटा गांव है, अतः वहॉं खाने पीने की ज्यादा चीजे नही मिलती । चाय और बिस्कुट से काम चलाके हम लोग दतिया लौट आये।

सोनागिरि से लौटकर हम दतिया में प्रवेश कर ही रहे थे कि सड़क किनारे एक ढाबा दिखा। मैंने बच्चों से सहमति ली और जीप को ढाबे के पास रूकवा दिया । ढाबे को चाय बनाने को कहा। मैंने कहा कि शुद्व दूध मिलेगा क्या, तो उसने हॉ ं कहा । सब बच्चों को दूध का एक एक गिलास बनाने का आदेश देकर मै यहॉ पडी खटिया पर लेट गया। दूसरी खाटों पर बच्चें भी बैठे और सोनागिरी के मंदिर के बारे में बातें करने लगे ।

मैंन उन्हें बताया कि सोनागिरि हजारों वर्षो से साधना स्थली रही है । सनातन और सन्यासी तथा जैन मुनि ने यहॉं रहकर कठोर साधना की है। यहॉ सुन्दर प्राकृतिक स्थल है , और एकांत भी है, इसलिए यहॉ वार्षिक यात्रि के अलावा घुम्मकड लोग भी आते रहते है ।

हमारी बातें सुनकर ढाबे वाला बोला कि आप लोग बाहर से घुमने के लिए आये है क्या। तो मैंने स्वीकृत में सिर हिलाया। वह बोला कि आपको दतियां भाण्डेर सड़कपर स्थित चंदेबा की बावडी देखना चाहिए। पता चला कि यह बावडी भांण्डेर रोड पर बनी हुईहै।

फिर क्याथा । चाय -दूध पीकर हम लोग तुरंत ही दतिया होते हुए भांण्डेर रोड पर चल पडे। भांण्डेर यहॉं से 30 किलो मीटर है । चंदेवा की बावडी कुल 9 किलामीटर की दूरी पर है ।

दतिया से 9 किलामीटर चलने के बाद हमे एक पुरानी इमारत दिखाई दी जो सड़क के ठीक किनारें पर बनी थी। वहॉं जीप पहुॅंची तो हमने देखा कि यह इमारत तो बड़ी है। उंची उंची बाउण्ड्रीवाल के सामने वाले हिस्से मे खूब बड़ा दरवाजा बना था। पता लगा कि यही चंदेवा की बावड़ी है । बावड़ी यानि पानी की जगह।

दरवाजे को पार करके अंदर पॅहुचे तो देखा कि भीतर ख्ूाब बड़ा आंगन सा है। आंगन के बीच के हिस्सें में लंबी सी बावडी दिख रही थी।

प्रवेश द्वार के एकदम पास से ही नीेचे जाती सीढ़ियां दिखी तों हम लोग उत्सुकता वश नीचे उतर गये। अब हम एक बरामदें जैसी जगह में थे। यह बरामदा खूब बड़ा था। इसमे ढाई तीन सौ आदमी विश्राम कर सकते थे। बीच में आंगन की तरह गहरी बावडी थी और चारों ओर छत की तरह यह बरामदा था।

बीच मे बावड़ी मे कालाकाला पानी दिख रहा था। बरामदे में मिट्टी पत्थर और कूड़ा करकट मौजूद था। शायद यहॉ ज्यादा पर्यटक नही आते होंगें । इसलिए इसकी देखभाल नही होती होगी।

पता चला कि चंदेवा की बावडी का निर्माण सन् 1675 मे बीरसिंह देव ने कराया था। यह बावड़ी यात्रियों के ठहरने के भी काम आती थी। हमने देखा कि बाहरी दरवाजा बंद कर देने के बाद सचमुच यह इमारत पूरी तरह सुुरक्षित हो जाती होगी । इसलिए यात्री बिना भय के इस सराय का उपयोग करते होगें ।

मुझे तो यह लगा कि इस सुरक्षित जगह का उपयोग तेा डाकू लोग भी करते होंगे क्यांकि यह बावडी भले ही सड़क के किनारे है, लेकिन अंदर जाकर देखने वाला शायद दिन मे एक भी नही होता होगा।

डाकुओ कांे नाम याद आने पर मैंनं बच्चों से पूॅंछा कि क्या वे डाकुओं के क्षेत्र को भी देखना चाहेंगे। तो उन सबने सहमति से सिर हिला दिया ।

हम लोग बावडी से निकल कर लॉज की तरफ चल पडे। अब कल सुबह दतिया जिले के सेंवड़ा में जाना चाहते थंे।ं मैं रात को देर तक में बच्चों को डाकुओं के किस्से सुनाता रहा काफी देर बाद सब लोग सो सके ।

दतिया- दतिया मध्यप्रदेश का सबसे छोटा जिला कहा जाता है। इसकी केवल देा तहसील थीं दतिया और सेंवड़ा । जिला पुनर्गठन के समय ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील के दतिया में मिल जाने से अब इसमें 3 तहसील हो गयी हैं।

क्या देखने योग्य- दतिया में पंद्रहवीं से अठारवीं सदी तक के बीच बनायी गयी इमारतों में दतिया का सतखण्डा महल, दतिया का किला, करण सागर, चंदेवा की बावड़ी, राजगड़ महल, दतिया संग्रहालय, पीताम्बरा पीठ और दतिया जिले का सोनागिरि नामक पहाड़ी क्षेत्रों में बने सैकड़ो साल पुराने मंदिर व भौगोलिक क्षेत्र का विंहंगम दृश्य तथा दतिया जिले की सेंवड़ा नामक तहसील का मुख्यालय है जहां सिंध नदी का सनकुंआ कुण्ड और पानी की बरसात से पहाड़ी व निर्जन स्थानों पर हर साल बनते विगड़ते भू दृश्य है जिनहे बीहड़ कहा जाता है और डाकू लोग जिनमें छिपे रहते थे।

साधन- दतिया पहुंचने के लिए दिल्ली से मुम्बई रेलवे लाइन पर ग्वालियर व झांसी के बीच दतिया स्टेशन हैं अतएव रेलवे से भी यहां पहुंचा जा सकता है। झांसी से 30 ग्वालियर से 75 किलोमीटर और शिवपुरी से 98 किलोमीटर के सड़क मार्ग से बस से भी दतिया पहुंचा जा सकता है।

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