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चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर - 20

चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर 20

Chanderi-Jhansi-Orchha-gwalior ki sair 20

सुबह लॉज मालिक राजा सिंह यादव से पता लगा कि दतिया मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण जिला है। पहले यह विंन्ध्यप्रदेश मे था। दतिया मे कलेक्टर, एस,पी और जिला न्यायाधीश के कार्यालय के लिए खूब बडी़ इमारत बनवायी गई हैं, लॉज मालिक ने बताया कि इस इमारत बनाने वाले ठेकेदार चाण्डी को इमारत बनाने का कोई मेहनताना ही नही मिला जिससे कि एक समय दतिया का सबसे धनाढय रहा यह ठेकेदार इन दिनों बेहद गरीबी में दिन काट रहा है और इंतजार कर रहा है कि उसे भुगतान मिले तो वह वापस केरल चला जाये । यहॉं आजादी के बाद खूब विकास हुआ यहॉं का चिकित्सालय पुराने जमाने में काफी प्रसिद्व रहा है । पुराने रानी महल मे यहॅा का महाविद्यालय चलता है । यह महल बड़ा सुंदर एवं विशाल व कलात्मक है । दतिया मे दो महाद्यिालय, तीन इंटर कालेज, चार हॉईस्कुल तथा लगभग दस मिडिल स्कूल है। संस्कृत विद्यालय, एक उर्दू स्कूल तथा दो दर्जन से ज्यादा मांटेसरी पद्वति के पब्लिक स्कूल यहॉ चल रहे हैं ।

नाश्ता करके हमने सुबह नौ बजे अपना पर्यटन फिर शुरू कर दिया। पीतांबरा पीठ के ठीक सामने एक पहाडी पर राजगढ महल बना है। हम सबने पहले राजगढ को ही देखने का निर्णय लियस । वहॉ पहुंच कर हमने महल देखा यह महल दतिया नरेश शत्रुजीत ने सन् 1824 में बनवाया था। इस महल मे राजा का राजकाज चलता था इसलिए इसे राजगढ़ कहाजाता है। महल मे बड़़े बड़़े कई कमरा के अलावा एक विशाल और दरबार हॉल भी मौजूद है। बताया गया है कि अभी पंद्रह वर्ष पहले तक इस इमारत मे दतिया के जिला प्रशासन के सभी प्रमुख कार्यालय थे । कलेक्टर, एस.पी. और जिला न्यायालय उन दिनों ं यही स्थित थे । लोक निर्माण विभाग ने अब इसे खतरनाक बताकर इसमें से तुरंत कार्यालय हटाने की सलाह दी तब ही इस इमारत को खाली किया गया । इसके कुछ हिस्से मे आज भी रिकार्ड रूम तथा संग्रहालय मौजूद है। दरबार हॉल को देखकर हमसब लोग खूूब प्रभावित हुए । लगभग बीस फुट उंचा यह कक्ष इतना ही चौड़ा एवं तीस फुट लंबा है।इसके छत में बेशकीमती झाड़ फानुस टंगा हुआ है । इसकी खिड़की और झाड़ फानुस में बेल्जियम को बना कांच लगा बताया जाता है । दरबार हाल की दीवारे दूध जैसी सफैदी से पुती है । इसकी दीवारें एकदम चिकनी है। पुराने जमाने मे ऐसी चिकनाई बिना सिंमेट के कैसे की गई होगी, मै यही सोचता रहा । राजगढ के पीछे के कुछ कमरे गिर गये और वहॉं अब ख्ंडहर दिखते हैं ।

राजगढ के पश्चिमी हिस्से में दतिया का संग्रहालय बनाया गया है । हम जब संग्रहालय के दरवाजे से अदर पॅहुचे तो वहॉं के कर्मचारियों की नजरों मे उत्सुकता बढ गई । पता चला कि यहॉं कोई भी सग्रहालय देखने नही आता इसलिए कर्मचारी निराश हुए रहते हैं । इस संग्रहालय मे बुदेला राजाओं द्वारा शिकार मे मारे गये कई शेर को भूसा भरकर लगाया गया है। आक्रामक मुद्रा मे खड़े कुछ शेरों को देखकर लगता है कि वे कुछ ही देर मे हमला करने वाले है । लडाई मे उपयोग किये जाने वाले पुराने हथियार यहॉं कांच में लगाकर रखे गये है। बरछी, भाला, तलवार, तेग, कृपाण, धनुषबाण से लेकर एकनाली और दुनाली बंदूके भी यहॉ मौजुद थी

एक बरामदे मे दतिया क्षेत्र मे पाई गयीपत्थर की मूर्तिया सजी हुई रखीथी। पत्थर की बनी ये मूर्तिया छठवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक के काल की बनी हुई थी। दुखः ये हुआ की यहॉं एक भी मूर्ति साबुत नही थी। हर मूर्ति कहीं न कहीं से ख्ंाडित थीं।

दतियां मे किसी जमाने में प्रचलित रहे सिक्कों को भी संग्रहालय मे क्रमबद्व ढंग सें सजाकर प्रस्तुत किया गया था। इन सिक्कों मे मिट्टी से बने छोटे छोटे सिक्के देख कर बच्चे बहुत ही प्रसन्न हुए। मेरी जानकारी के मुताबिक मिट्टी के ये सिक्के किसी जगह नही चंलते थे। पुरानी पुस्तकें, पाडुलिपियों और पोशाकों को देखके हम लोग राजगढ के टीले से नीचे उतर आए।

अब हमारी जीप दतिया के संतखडा महल की ओर दौड रही थी। मैंने देखा की दतिया शहर के चारो ओर भी एक विशाल दीवार बडी की गई है, जिसमें कि बड़े बड़े दरवाजे हैं । स्थानीय लोग इस परकोटे की दीवार को रर कहते है। राजगढ के समीप वाले दरवाजे से हमने शहर मे प्रवेश किया। पता लगा कि इस दरवाजे को राजगढ फाटक (दरवाजा) कहा जाताहै। गांधी मार्ग और तिगैलिया होते हुए हम बाजार मे पहुंचे तो सामने एक ,खूब बडी भव्य इमारत दिखाई दी। इमारत के सामने खुब सारी सीढिया दिखी उपर घंटा घर की मीनार थींे। जिसमे इक पुरानी घड़ी लगी थी जो बंद हैं। पता लगा कि यह इमारत टाउन हाल कहलाती है जो कि कभी राजा के मित्रों और नागरिकों की मिलने की जगह थी।

टाउन हाल के पास में गोविंदगंज है । दतियां क भूतपूर्व नरेश गोविन्द्र सिहं और गोविंद जी मंदिर के नाम पर यह गंज बनाया गया था। गंज का अर्थ मण्डी या बाजार होता है। बताते है कि पहले यहॉं गल्ला मण्डी थी, मण्ंडी के चारो और दीवार खडी करके दो दरवाजे बनाये गये थे जो आज तक भी मौजूद है ।

टाउन हाल के पास से यह गली गई है जिसमे आगे जाकर दतिया का सतखंडा महल है । हमने दूर से ही देखा कि दतिया का यह महल बड़ा सुन्दर एवं मध्य दिखाई दे रहा है। महल की दीवारों पर जीम काई तथा पानी के काले दाग महल की प्राचीनता और सुन्दरता को और ज्यादा बढ़ा रहे थे।

महल के प्रवेश द्वार के पास पुरातत्व विभाग का कार्यालय भी है । वहॉ संपर्क करके हम महल के जीने चढ़ने लगे तो पुरातत्व विभाग का एक आदमी हमको महल दिखाने के लिए साथ चल पड़ा।

महल की आकृति पर नजर पडते ही िप्रंयका बोली कि ये महल तो एकदम ओरछा के जहॉंगीर महल जैसा दिखता है । तो पुरातत्व के कर्मचारी ने बताया कि इसका और ओरछा के महल का नक्क्षा सचमुच एक जैसा है । यह महल भी जहांगीर के दतिया आगमन के समय ही बना था। इसलिए इसे जहांगीर महल ही कहा जाता है । यह महल बराबर लंबाई चौड़ाई में बना हैं, कहा जाता है कि इस मंहल के सात खंड थे (सात मंजिले थी) जिनमें से चार मंजिले तलघर में भी और तीन उपर। नीचे वाली मंजिले बंद करने की बात भी यहॉ के लोग बताते है। उपर की तीन मंजिले में अनगिनत कमरे है। हर मंजिल पर खूब रोशनदान दरवाजे और खिड़की होने से इसमें ज्यादा अंधेरा रहता है ।

इस महल का निर्माण राजा वीरसिहं देव ने कराया। मुगल सरदारों की जीवनी मासिर उल नामा में लिखा है कि इस महल ंके निर्माण पर पैंतीस लाख से अधिक रूपये खर्च हुए और यह महल नौ वर्षो में जाकर बन पाया। इस महल की हर मंजिल में चार हिस्से चार आंगन है। यह महल चूनापत्थर से बना है। उपर की मंजिल मे छत पर बने चार गलियारें बीच आंगन मे आकर मिलते हैं। इन गलियारों के दोनों तरफ लगी पत्थर की जाली के अंधिकांश कंगुरे टूटे हुए हैं, कहावत है कि कारीगर ने कहा कि एक कंगूरे में हीरा रखा है तो दर्शनार्थीयों ने सारे कंगूरे तोड़ डाले ।

महल के कुछ कमरों में छतो पर नीले व लाल रंग के बडे़ सुंदर चित्र बने हुए है , जो पांच वर्ष बाद भी आज तक नये लगते हैं ।

महल के कमरां की दीवारें एकदम काली एवं जीर्णशीर्ण लगी तो हमने इसका कारण पूछा। पता लगा कि आजादी के बाद पाकिस्तान से आये सिंध प्रांत के शरणार्थीयों को सबसे पहले यहीं ठहराया गया था। लकड़ी जलाकर रोटी बनाने के कारण यहॉ धुआं भरता था और दीवारें काली होजाती थी। आज भी महल में आने वाले स्थानीय लोग दीवार खंरोच देते हैं । या पत्थर के कंगूरांे केा तोड कर अपने घर ले जाते हैं । ओरछा राज्य गजेटिअर के मुताबिक इस महल की शुरूआत दिंसबर 1918 में की गई थी। महल का कुछ भाग अधूरा सा दिखता है । शायद इसका कारण यह है कि वीरसिंह देव की मुत्यु 1627 ईंसवी मे हुई थी तब तक यह महल पूरा नही बन सका होगा।

महल की गुबंदे छतरियों,मेहराबे और पत्थर की जालियों में अद्भुत कला है। मुगल और राजपूत कला की मिली जुली यह शिल्पकला बुंदेला स्थापत्य के रूप में जानी जाती है।

महल के नीचे उतरे तो हम काफी थके हुए थे । दोपहर के बारह बजे थे। टाउन हाल के पास में बनी नगर के प्रसिद्धा मण्टी हलवाई की पूड़ी साग की दुकान पर हमने भोजन किया और दतिया दर्शन के लिए निकल पड़े । दतिया हमको आकार में एक ऐसा छोटा कस्बा लगा जिसे शहर या नगर बनने मे बरसांे लगेंगे।

दतिया- दतिया मध्यप्रदेश का सबसे छोटा जिला कहा जाता है। इसकी केवल देा तहसील थीं दतिया और सेंवड़ा । जिला पुनर्गठन के समय ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील के दतिया में मिल जाने से अब इसमें 3 तहसील हो गयी हैं।

क्या देखने योग्य- दतिया में पंद्रहवीं से अठारवीं सदी तक के बीच बनायी गयी इमारतों में दतिया का सतखण्डा महल, दतिया का किला, करण सागर, चंदेवा की बावड़ी, राजगड़ महल, दतिया संग्रहालय, पीताम्बरा पीठ और दतिया जिले का सोनागिरि नामक पहाड़ी क्षेत्रों में बने सैकड़ो साल पुराने मंदिर व भौगोलिक क्षेत्र का विंहंगम दृश्य तथा दतिया जिले की सेंवड़ा नामक तहसील का मुख्यालय है जहां सिंध नदी का सनकुंआ कुण्ड और पानी की बरसात से पहाड़ी व निर्जन स्थानों पर हर साल बनते विगड़ते भू दृश्य है जिनहे बीहड़ कहा जाता है और डाकू लोग जिनमें छिपे रहते थे।

साधन- दतिया पहुंचने के लिए दिल्ली से मुम्बई रेलवे लाइन पर ग्वालियर व झांसी के बीच दतिया स्टेशन हैं अतएव रेलवे से भी यहां पहुंचा जा सकता है। झांसी से 30 ग्वालियर से 75 किलोमीटर और शिवपुरी से 98 किलोमीटर के सड़क मार्ग से बस से भी दतिया पहुंचा जा सकता है।

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