झंझावात में चिड़िया - 8 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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झंझावात में चिड़िया - 8

रात के ग्यारह बजे थे। प्रेस क्लब भीड़ - भाड़ से ख़ाली होने लगा था।
हम लोग भी उठकर जाने ही लगे थे कि हमारी मित्र मंडली में शामिल एक सज्जन ने आदतन कहा - दो मिनट प्लीज़, मैं अभी आया।
किसी की आवाज़ आई - बैठो, वो अब पंद्रह मिनट से पहले नहीं आने वाले। वाशरूम गए हैं, उनका पेट मसाला डोसा आने के पहले से ही गुड़गुड़ा रहा था। ऊपर से खा भी लिया है।
सब हंस पड़े।
हम इंतज़ार में एक दूसरी टेबल पर जा बैठे जिस पर कुछ परिचित लोग बैठे बातों में मशगूल थे।
सबके ज़ोर से हंसने के बावजूद शहर के एक चर्चित अख़बार समूह के बेहद सीनियर रिपोर्टर बिल्कुल भी हंसे नहीं बल्कि पूरी गंभीरता से अपनी बातों में लगे रहे।
मैं उनके कुछ करीब होकर उन्हें ध्यान से सुनने लगा।
वे कह रहे थे कि कल हमारी मैगज़ीन का कवर फ़ाइनल करते हुए रात के तीन बज गए।
- क्यों?
- अरे ऐन वक्त पर एडिटर का ध्यान चला गया कि कवर पर जिस महिला का खेलते हुए फ़ोटो जा रहा है उसमें एक गड़बड़ है।
- क्या? कुछ कमी थी क्या? एक - दो लोग हंस पड़े।
पर वो नहीं हंसे। उसी तरह गंभीरता से बोले - उसकी थाइज़ के पास स्कर्ट के लहराते हुए उठान के नीचे थोड़ा सा उसका नाड़ा लटका हुआ दिख रहा था फ़ोटो में!
- धत! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। दो- तीन लोग ज़ोर से हंस पड़े।
पर वो नहीं हंसे। किसी विशेषज्ञ की सी दक्षता और संजीदगी से समझा कर बोले - डिप्टी साहब तलब हुए, जिन्होंने फ़ोटो एडिट किया था।
- फ़िर?
- फ़िर क्या, नाेंक - झोंक हुई घंटे भर तक। डिप्टी साहब लाख समझाते रहे कि जब गर्दन के नीचे क़मर के पास से ब्रा का स्ट्रैप लटका हुआ दिख रहा है तो व्हाइट कॉटन की ये पतली सी स्ट्रिंग क्या नुकसान करेगी?
पर एडिटर टस से मस नहीं हुए। बोले - ट्राई टू अंडरस्टैंड, कोई अनवॉन्टेड वेबसाइट दिख जाना इतना हार्मफुल नहीं है जितना उसका लिंक!
- बट देट इज़ ट्रू इन केस ऑफ़ "अनवॉन्टेड" न ?
साहब उखड़ गए, बोले - व्हाट डू यू मीन!
बातचीत रोचक होती जा रही थी पर मित्र निपट कर आ गया था और हम लोग उठ गए।
जाते - जाते एक मित्र ने कहा - प्वॉइंट टू बी नोटेड.. लिंक इज़ हार्मफुल, नॉट द वेबसाइट... समझे? आगे से ध्यान रखना।
मुझे एक मशहूर शायर की लिखी पंक्तियां याद आ गईं, ला पिला दे साकिया ...बात मतलब की करूंगा होश में आने के बाद।
धीरे- धीरे अब देश में ऐसा माहौल बनने लगा था कि आम जन खिलाडि़यों को भी नेताओं- अभिनेताओं की तरह स्टार का दर्ज़ा देने लगे थे। खेल मैदान की सनसनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में भी सनसनी बनने लगी।
विज्ञापन एजेंसियों का ध्यान अब बखूबी इस बात पर जाने लगा।
ऐसा लगता था कि इस विविध संस्कृतियों वाले देश के विज्ञापन व प्रचार के बेसिक्स बदलने लगे थे। और ये बदलाव इसलिए हो रहा था क्योंकि ये दुनिया भर में हो रहा था। ये शायद ग्लोबल चेंज था।
अब ये कहना बहुत मुश्किल, बल्कि नामुमकिन था कि क्या अच्छा है। ये बता पाने वाली नज़रें बूढ़ी होकर ओझल हो रही थीं कि क्या अच्छा है। उनकी जगह ये देखने वाली निगाहें लेती जा रही थीं कि क्या देखा जायेगा। अब सौंदर्य के पारखी नहीं, उन भविष्यवेत्ताओं का बोलबाला होने लगा था जो ये आंक सकें कि सौंदर्य के नाम पर किस कंटेंट की ब्रांड वैल्यू बना ली जाए? क्या देखा जायेगा। चाहे पसंद से, चाहे हैरानी से, चाहे आश्चर्य से, चाहे वितृष्णा से, चाहे भय से, चाहे लालच से, चाहे विकल्पहीनता से। बस देख लिया जाय!
देश में बड़ी - बड़ी एड कंपनियां उभर कर आ रही थीं। उनका काम खोजना नहीं, गढ़ना बनता जा रहा था।
ये सब तो सार्वजनिक था, विश्वव्यापी था, समय सापेक्ष था, इसका प्रकाश पादुकोण की कहानी से क्या वास्ता?
लेकिन ये था।
और जब था तो प्रकाश की कहानी से भी इसे कहीं न कहीं, कैसे न कैसे जुड़ना ही था।
जब दो बातें, दो विचार, दो प्रवृत्तियां, दो प्रवाह एक ही काल खंड में हों तो कहीं न कहीं आपस में टकरायेंगे ही।
प्रकाश की ज़िंदगी और कहानी में कुछ बातें किसी चमकते स्फटिक की भांति साफ़ थीं।
प्रकाश केवल उम्दा बेहतरीन खिलाड़ी ही नहीं, एक संजीदा, ख़ूबसूरत, लंबे चौड़े और शालीन इंसान भी ठहरे।
वो अपने माता - पिता के इतने सुशील, संकोची, आज्ञाकारी पुत्र रहे जो अपने जीवनसाथी के चुनाव तक के लिए अपने अभिभावकों पर ही निर्भर रहे। देश -विदेश घूमते हुए भी उन्होंने अपनी नज़र और अपना दिल इस हेतु काम में नहीं लिया।
और जब माता - पिता की नज़र से जीवन साथी तलाश करके अरेंज्ड मैरिज होती है तो अक़्सर जीवन साथी भी अच्छी तरह देखभाल कर जोड़ का ही ढूंढा जाता है। वहां दिल आने की बात है, कह कर कुछ भी स्वीकार नहीं लिया जाता। अतः उनकी धर्मपत्नी उज्ज्वला भी उनकी भांति सौम्य, शिष्ट और संस्कारी ही रहीं।
ऐसे जोड़े की संतान से चाहे कोई अपेक्षा करे या न करे, ये तय है कि वो भी अनुशासित, संस्कारी, समझदार और शिष्ट ही होगी। यहां इसमें सुंदर भी जोड़ा जा सकता है। इस परिवार की दोनों सुपुत्रियां इस कसौटी पर खरी ही रहीं।
किसी भी बच्चे की परवरिश और व्यक्तित्व निर्माण में मोटे तौर पर तीन फ़ोर्स तो काम करते ही हैं। एक अंश जो उसके पिता से आता है, दूसरा जो उसे माता के व्यक्तित्व से मिलता है और तीसरा जो परवरिश के परिवेश से उसे मिलता है।
प्रकाश के दोनों बच्चों ने दुनिया में आंख खोलने के साथ ही पिता के प्रति लोगों का आदर, खेल के प्रति पिता का ज़ुनून, जीत के प्रति भीड़ की उत्तेजना, देखने योग्य पल के प्रति कैमरों की प्यास और सनसनी से मीडिया का आत्मीय रिश्ता ख़ूब देखा था।
उन्हें आधुनिक दुनिया का वो दस्तूर गोद में रहने के दौरान ही समझ में आने लगा था जिसे भांपने - समझने में आम बच्चों की ज़िंदगी गुज़र जाती है।
प्रकाश और उज्ज्वला विश्वशिखर के यायावर होते हुए भी पूरी तरह "डाउन टू अर्थ" रहे। ये गुण बच्चों ने भी लिया।
सादगी, सम्पन्नता और विनय, संभ्रांतता और योग्यता के साथ मिलकर विलक्षणता बन जाते हैं। और अगर उसमें ज़माने के नसीब से सुंदरता का मणि - कांचन संयोग भी मिल जाए तो इतिहास बन जाता है। ऐसे संयोग बरसों में एक बार कभी - कभी ही आते हैं।
और जब आते हैं तो ख़ूब गुल खिलाते हैं।