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पछतावा

सुनिए ये एड्रेस बता सकेंगी। एक अजनबी की आवाज़ आयी और गेट खोलते हुए ही उसने पीछे मुड़ कर देखा, ये तो सुबोध ही उसके सामने खड़ा था। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। फिर अचानक खुद को संभालती हुई बोली – आप कौन?”

सुनैना को अपने सामने देखकर सुबोध स्तब्ध रह गया।

उसकी आंखों के सामने अतीत के पन्ने इतनी जल्दी जल्दी पलटने लगे जैसे तेज़ आंधी के झोंके से उड़ते ;पेड़ के सूखे पत्ते।

ये वही सुनैना है जिसको सुबोध 3 साल पहले छोड़ चुका था।

सुनैना एक साधारण सी लड़की थी, शादी के बाद पहली बार शहर देखा, सुबोध आए दिन कुछ ना कुछ नसीहत उसके लिए तैयार रखता।

आज तुम्हें ऐसे चलना सीखना है, ऐसा पहनावा, ऐसी भाषा, ऐसा खाना।

सुनैना सुबोध के रंग में इतना रंग गई थी कि अपनी ही पहचान को खो चुकी थी।

सुनैना को हिंदी में स्नातकोत्तर में गोल्ड मेडल मिला था। परन्तु सुबोध के लिए वो डिग्री ना के बराबर ही थी।

एक दिन अचानक सुनैना को पता चला कि सुबोध ने दूसरी शादी कर ली है, सुनैना से शादी तो सुबोध के पिता जी के दबाव के चलते हुईं।

सुबोध हमेशा ही शिकायत करता रहा कि सुनैना मेरी पसंद की लड़की नहीं है, उसे शहर के रहन सहन का कुछ नहीं पता।

दोस्तों से मिलवाने में भी उसे शर्मिंदगी सी महसूस होती थी, उसने अपने ऑफिस की टीना से ही शादी कर ली थी।

जब सुनैना को इस गुप्त विवाह का पता चला तो वो पेड़ से टूटे हुए पत्ते सी हो गई, जिसके लिए अपने आपको बदल चुकी थी ; आज वो किसी और के लिए बदल गया।

सुनैना ने हिम्मत करते हुए पूछा -” तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?”

सुबोध -“मेरे माता – पिताजी ने जबरदस्ती मुझे तुम जैसी अनपढ़ गंवार के साथ बांध दिया। तुम चिंता मत करो ! तुम्हें तलाक़ नहीं दूंगा। यहां रहो, खाओ ; मुझसे किसी तरह की कोई उम्मीद ना रखना।”

सुनैना का सब्र जवाब दे रहा था, अचानक चीखकर बोली -” मैं जानवर नहीं हूं कि सिर्फ खाने के लिए तुम्हारे खूंटे से बंधी रहूं। जा रही हूं मैं। तुम फिक्र मत करना तुम्हारे माता पिता को तुम्हारे इस गुप्त विवाह का नहीं पता चलेगा।”

सुबोध -” रुको!! तुम जाओगी कहां? यहां तो किसी को जानती भी नहीं, अपने घर जाओगी तो बात फैलेगी। तुम्हारी बहनें भी तो कुंवारी हैं!!”

सुनैना -” मेरी कुंवारी बहनों से तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिए। अब हटो मेरे रास्ते से!!”

सुनैना ने अपना सामान उठाया और चली गई।

सुबोध को समझ नहीं आ रहा था कि उसे सुनैना के जाने की खुशी है या माता पिता की बदनामी का डर।

उसे लगा कहीं सुनैना सबको बता ना दे, इसलिए उसने ही सुनैना के घर फोन कर दिया कि सुनैना इस शादी से खुश नहीं थी , इसलिए घर छोड़कर पता नहीं कहां चली गई।

सुनैना के माता पिता तक भी खबर पहुंची, उनको विश्वास ना हुआ कि उनकी बेटी ऐसा कोई कदम उठा सकती है।

सुबोध, सुनैना पर दोष डालकर अपनी निजी जिंदगी जी तो रहा था, परंतु उसे ये सोच खाए जा रही थी कि सुनैना गई कहां!!

कुछ रोज बाद सुनैना के पिताजी आए, उन्होंने सुबोध को बताया कि सुनैना अब तक घर नहीं आई है।

सुबोध ने उन्हें बुरा भला कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया।

सुनैना के पिताजी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने थाने पहुंचे।

थाने में रिपोर्ट लिखवाने के बाद एक स्थानीय अखबार के ऑफिस में इश्तिहार देने गए।

वहां जाकर देखा तो सुनैना मिली, उसने पिताजी को अपने केबिन में बिठाया और पूरी बात बताई।

पिताजी को पहले ही यकीन था कि बेटी के साथ जरुर कुछ अनहोनी हुई है।

सुनैना ने बताया कि घर से निकलकर वो पास के ही शेल्टर होम में चली गई थी, वहां बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती, शेल्टर होम की सचिव ने उसकी लिखी कविता, कहानियां पढ़ी और एक अखबार के संपादक को भेजी।

सुनैना बतौर अनुवादक वहां काम करने लग गई थी, उसने पिताजी को कुछ पैसे दिए और वापिस गांव भेज दिया ।

टीना सुबोध की रोक टोक की आदत से परेशान हो चुकी थी, और उनका तलाक़ हो गया।

उसके बाद सुनैना का ख्याल सुबोध के मन में आया।
उसे लगा लोग उसमें की कमियां निकालेंगे। इसी डर से उसने सुनैना कि तलाश शुरू कर दी।

सुबोध ने हर जगह सुनैना को ढूंढा पर उसका कुछ पता नहीं चल सका।

सुबोध के ऑफिस से उसे इंटरव्यू के लिए एक नए साहित्यकार , जिसे अभी सम्मानित किया था; के पते पर भेजा गया ।

वो दिए गए एड्रेस को ढूंढ रहा था, सुनैना नाम पढ़कर उसे थोड़ा अजीब लगा।

लेकिन उसको ढूंढते हुए वो इतना थक चुका था, और साहित्यकार तो वो नहीं सकती ये सोचकर एड्रेस को ढूंढ रहा था।

सुनैना अपनी गाड़ी पार्क करके गेट बंद ही कर रही थी कि उससे किसी ने एड्रेस पूछा, ये एड्रेस तो सुनैना के घर का ही पता था और पता पूछने वाला सुनैना के अतीत की किताब का सबसे खराब पन्ना।

दोनों एक दूसरे को देखकर निशब्द हो गए, सुबोध कुछ बोलता इससे पहले ही सुनैना ने खुद को संभाला।

सुनैना -” आप कौन! इस एड्रेस की मालकिन अभी घर नहीं है। बाद में आना!”

ये कहकर सुनैना ने घर का दरवाज़ा बंद कर दिया।

सुबोध में इतनी हिम्मत नहीं थी कि फिर से दरवाजे पर दस्तक देता।

सुबोध के दिमाग में अब भी यही चल रहा था कि शायद गरीबी से तंग आकर सुनैना ने किसी के घर नौकरी शुरू कर दी है।

वो दोबारा वहां नहीं जाना चाहता था।

उसके ऑफिस से उसने किसी दूसरे को ये काम सौंपा।

जब पत्रिका का अंक प्रकाशित हुआ तो पढ़कर वो स्तब्ध रह गया, वो साहित्यकार जिसे वो खोजते हुए सुनैना तक पहुंचा।

वो सुनैना वो ही थी, जिसे वो अनपढ़, गंवार समझकर छोड़ चुका था।

सुबोध के हाथ पांव ठंडे पड़ गए, अचानक हाथ से पत्रिका छूट गई, उसके हाथों ने उसके सीने को जोर से दबाया और उसकी चीख निकली।

अचानक बेहोश होकर कुर्सी से नीचे गिर गया।

ऑफिस के लोग उसे उठाकर हॉस्पिटल ले गए, सुबोध को हृदयाघात हुआ था।

उसने होश में आते ही सुनैना के पिताजी को फोन किया, -” सुनैना मिल गई पिताजी!!”

पिताजी -” सुनैना तो कभी खोई ही नहीं थी, तुम कौन बोल रहे हो भाई??”

सुबोध को पता चल गया कि उसके झूठ से पर्दा उठ चुका है।

अब सिवाय पछतावे के उसके पास सिर्फ हॉस्पिटल का सन्नाटा था।

ये पछतावा ही उसकी बची ज़िन्दगी का सहारा था।

सुबोध ने सुनैना के पते पर खत भेजा -
सुनैना!!
मेरा अपराध क्षमा करने लायक तो नहीं , फिर भी तुमसे माफी मांगता हूं।
मैं कभी तुम्हारे दिल को, तुम्हारी प्रतिभा को, तुम्हारे आत्मसमर्पण को, तुम्हारी वफ़ा को समझ ही नहीं पाया।
मुझे माफ़ करना ।
तुम्हारा सुबोध।

सुनैना ने सुबोध के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया, उसे पता था सुबोध अब हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उसे फ़ॉलो करता है।

उसने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा
" मुश्किल कहां है,
औरत के दिल का रास्ता,
औरत का भी दिल होता है,
बस इतना ही समझ लीजिए।
जब दिल की मौजूदगी को ही
झुठला देते हो;
तो माफ़ी की चाह को भी
भुला दीजिए।

सुबोध का जवाब मिल गया था।..


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