सुलझे...अनसुलझे - 24 Pragati Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुलझे...अनसुलझे - 24

सुलझे...अनसुलझे

हरी सिंह

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बात उन दिनों की है जब हमने एक एम्बुलेंस उन जरूरतमन्द मरीज़ों को लाने और ले जाने के लिए ली हुई थी, जिनको किसी भी तरह की आने-जाने में असमर्थता होती थी| शाररिक या आर्थिक रूप से कमज़ोर मरीज़ों को यह सुविधा हमारे सेंटर की तरफ से निःशुल्क थी|

हमने अपने ड्राईवर को भी निर्देश दे रखे थे कि वह किसी भी मरीज़ से भी छिपकर रुपया न ले| बीच में एक ड्राईवर ऐसा भी आया जोकि पंडित था और उसने मरीज़ों से पंडिताई कर रुपया ऐठना शुरू कर दिया था| उस ड्राईवर को लगता था डॉक्टर साहिब तो कुछ लेते नहीं हैं, मैं अगर दस-बीस रूपये ले लूँगा तो डॉक्टर साहिब को पता नहीं चलेगा|

चूँकि हमारा भाव जरूरतमदों की मदद का था तो उस ड्राईवर को हटाना पड़ा| खैर नया ड्राईवर रखते समय उसको पहले से ही सब बातों के लिए चेता दिया जाता था कि एम्बुलेंस रखने का मकसद क्या है| हमारी तरफ से ड्राईवर को कुछ भी गलत करने पर नौकरी से हटा देने कि चेतावनी पहले दिन ही नौकरी पर आते ही दे दी जाती थी| एम्बुलेंस ड्राईवर को गाड़ी स्पीड लिमिट के हिसाब से चलाने के निर्देश भी थे| बीच-बीच में ड्राइवर्स की ड्राइविंग को चेक करना हमारी आदतों में शुमार था|

उस दिन रात के क़रीब आठ बजे थे सेंटर से अपनी ड्यूटी को ख़त्म करके एम्बुलेंस का ड्राईवर हरी सिंह सेंटर से निकला ही था कि दस मिनट में उसका फ़ोन डॉक्टर गुप्ता के पास आ गया..

‘सर एम्बुलेंस से एक बुजुर्ग टकरा गए है| जोकि शराब पीकर स्कूटर चला रहे थे और उनका संतुलन बिगड़ जाने के वजह से ऐसा हादसा हुआ है|...मैं उनको लेकर सत्या अस्पताल जा रहा हूँ|’...

हमको हरी सिंह की ड्राइविंग पर विश्वास था क्यों कि वह कोई भी नशा पत्ता नहीं करता था| उसने यह भी बताया कि दुर्घटना इस अस्पताल के पास ही हुई थी इसलिए वह आहत को सत्या अस्पताल ले जा रहा है| हरी सिंह का यह निर्णय डॉक्टर गुप्ता को बहुत उचित लगा और उन्होंने शीघ्र ही ख़ुद के भी वहाँ पहुँचने का बोल हरी सिंह को हिम्मत दी|

चूँकि गाड़ी एम्बुलेंस थी और यह व्यक्ति एम्बुलेंस से टकराया था| तो उसके चोटिल होने के बाद अस्पताल ले जाने का निर्णय उस ड्राईवर की सहृदयता को दर्शा गया| बाजदफ़ा तो लोग गलती होने और न होने पर, रुकते तक नहीं| हर व्यक्ति गलत न होने कि स्थिति में पुलिस या किसी भी झंझट से बचना चाहता है|

डॉ. गुप्ता जैसे ही अस्पताल पहुंचे तब तक वहां कम से कम पचास-साठ लोग इककठे हो चुके थे| चोटिल व्यक्ति जिसका नाम सत्यनारायण था, वह सब उसके रिश्तेदार थे|

सभी ने घेरा बनाकर हरी सिंह को घेर रखा था| अब तक न जाने कितने थप्पड़ उन लोगों ने बेचारे हरी सिंह को लगा दिए थे| सत्यनारायण जी के दोनों बेटे ही सबसे ज्यादा उन्मादी हो रहे थे| शायद इस बीच में हरी सिंह ने न जाने कितनी ही बार अपने बेगुनाह होने का सबूत पेश करना चाहा| पर उसको सुनना कौन चाहता था| सभी को गाड़ी वाले की गलती दिख रही थी|

इस बीच मेरे पास भी फ़ोन आ गया था कि मैं वहां पहुंचूं क्यों कि वहां की स्थिति बिगडती ही जा रही थी| उस उन्माद को रोकने के लिए अस्पताल का पूरा स्टाफ भी लगा हुआ था पर स्थिति बिगड़ रही थी| किसी ने एम्बुलेंस का शीशा भी तोड़ दिया था| उन्मादी भीड़ की कुछ इस तरह की प्रवृत्ति होती है कि जो भी देखे उस पर अपना क्रोध उतारो| तभी तो भीड़ को संभाल पाना बहुत मुश्किल होता है| सच्चाई भी यही है कि भीड़ का व्यवहार किस ओर रुख करेगा बता पाना बहुत मुश्किल होता है| किसी भी तरह सबसे पहले हमने अपने ड्राईवर को वहां से निकाला| नहीं तो बेचारा बगैर बात के ही पिट रहा था|

सत्यनारायण जी को देखने वाले डॉक्टर की रिपोर्ट आ चुकी थी कि उन्होंने काफ़ी मात्रा में शराब का सेवन कर रखा था| पर प्रथम दृश्य तो यही सोचा जाता है कि गाड़ी वाले की गलती होगी| तभी उन सभी का व्यवहार बगैर सोचे-समझे ड्राईवर के साथ उन्मादी-सा था| उस समय तो उनका बस चलता तो उपस्थित डॉक्टरों के ऊपर भी उनका हाथ उठ जाता| भीड़ तो वैसे भी इंसान की सोचने समझने की सारी शक्ति को ही हर लेती है|

तभी मुझे मौका मिला सत्यनारायण जी के बड़े बेटे से बात करने का, जिसका कि नाम ललित था| उसके नाम का मैंने वहां होने वाली बातचीत से पता लगा लिया था| वही सबसे ज्यादा उन्मादी हो रहा था| उम्र यही कोई तेईस-चौबीस के आस-पास लग रही थी| यह उम्र शायद होती ही ऐसी है जिसमें कई बार व्यक्ति वह नहीं सोच पाता जो सोचना चाहिए| जब किसी बहुत अपने के चोटिल होने की बात हो तो सोच समझ और भी गुम हो जाती है| मैंने उसको नाम से ही पुकार कर ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया...

‘ललित जी! क्या अब हम झगड़ा गाली गलोज को छोड़ कर मरीज़ के उपचार के लिए भी सोचेगे| आप प्लीज सबसे पहले अपने पिताजी के इलाज़ को जल्द ही शुरू करवाने में मदद करें|’..

मेरा इतने सारे पुरुषों की आवाजों के बीच इस तरह का प्रश्न सभी को एक मिनिट के लिए मेरी तरफ सोचने को मजबूर कर गया| ललित और उसका छोटा भाई समीर अब मेरे पास आ चुके थे| शायद उनकी दृष्टि में एक प्रश्न था मैं कौन हूँ जो इस तरह की बात कर रही हूँ| मैंने बगैर अपना परिचय दिए अपनी बात आगे जारी रखी....

मरीज़ आई.सी.यू.में है ललित जी| सबसे पहले कैसे उनको श्रेष्ठ उपचार दिया जाए, हम और आप इस पर विचार करें तो बहुत अच्छा होगा| ललित और समीर मेरे पास ही खड़े थे| शायद इस समय मेरा स्त्री होना बहुत काम आया| चूँकि मैं उनके पिताजी के इलाज़ की बात कर रही थी वो उनके मन को सांत्वना देने जैसे था|

‘आपके पिताजी को जितनी जल्दी मेडिकल ऐड मिलेगी उतनी ही जल्दी सुचारू रूप से इलाज़ शुरू हो सकेगा| आपको पता है कि डॉक्टर्स की रिपोर्ट्स आ गयी है| सत्यनारायण जी ने काफ़ी मात्रा में शराब का सेवन कर रखा था| जिसकी वजह से उनका संतुलन बिगड़ा और वह आहत हुए हैं| अगर अब आप मन को शांत कर अपनी सहमति इलाज़ के लिए डॉक्टर को दें तो डॉक्टर अपना काम शुरू करे|’...

इतना बोल कर मैं चुप हो गई...विपरीत परिस्थितिओं में इंसान की एक प्रवृत्ति होती है कि वह कुछ भी ऐसा नहीं सोच पाता जिससे उसका विवेक जगे| ऐसे में स्थितिओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अगर व्यक्ति को संभाला जाये तो सकारात्मक रूप देखने को मिल सकते है| यह मैंने इस केस मैंने महसूस किया|

डॉक्टर की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी ललित और समीर अपने पिता की गलती बिल्कुल भी नहीं स्वीकारना चाहते थे| उनका एक बार इलाज़ की सहमती देने के बाद पुनः वही राग शुरू हो गया था| हम डॉ गुप्ता आप पर और आपके ड्राईवर के ऊपर केस करेगे|...

सबसे जरूरी जो मैंने इस एक्सीडेंट के बाद उस समय महसूस किया कि जब सत्यनारायण जी के रिश्तेदारों की भीड़ में से दो व्यक्ति ऐसे थे| जिनका इलाज़ कभी डॉक्टर गुप्ता ने किया होगा और वह उस भीड़ के उन्मादीपन के समय हमारे साथ खड़े होकर हमारी बातों को समर्थन देने लगे थे| उन्होंने अपने स्तर पर अपने रिश्तेदारों को शांत कर हमारा जब साथ दिया| उस समय मुझे यही लगा कि कब हमारे अच्छे कर्म, खराब समय में हमारे साथ आकर चुपचाप खड़े हो जाते है हम में से कोई नहीं जानता|

इसलिए हर व्यक्ति को अपने विवेक के हिसाब से किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए| कब हमारे कौन से कर्म परेशानी के समय साथ आकर हमारी हिम्मत बन जाते है यह विपदा कि घड़ी में हम सभी को अनुभव होता है|

किसी भी तरह हमने अपने ड्राईवर को दो तीन दिन अस्पताल आने को मना किया| क्यों कि हमको नहीं पता था कब इन युवाओं का गुस्सा पुनः उबल पड़े| खैर अस्पताल में शुरू के तीन दिन सत्यनारायण जी के लिए बहुत जुझारू थे| उनके कई ऑपरेशन हुए पर डॉक्टरों की पूरी टीम की मेहनत रंग लाई|

तीसरे दिन से सत्यनारायण जी ने धीरे-धीरे स्वस्थ होना शुरू कर दिया था| क़रीब-क़रीब आठ-नौ दिन सत्यनारायण जी अस्पताल में रहे| उस समय मेरा व डॉक्टर गुप्ता का यह नियम था कि सवेरे व शाम सत्यनारायण जी को देखने जाना ही है| ऐसे में मेरा काम था कि ऱोज ही ललित और समीर से मिलना| उनको हर स्तर पर यह महसूस करवाना कि हम आप दोनों के साथ है|

चूँकि हमने गलत न होते हुए भी इंसानियत के तहद मरीज़ के इलाज़ का सारा खर्च स्वयं वहन किया| तो उस स्तर पर उनके पास कुछ बोलने को नहीं था| पर आठ-नौ दिन बाद मेरी लगातार काउंसिलिंग का यह असर हुआ कि दोनों ही भाई, एक तो कोर्ट की धमकियों से बाहर आए| दूसरा उनको कहीं यह भी महसूस हुआ कि उन दोनों के रिश्तेदारों की वजह से एम्बुलेंस की तोड़-फोड़ कर नुकसान करने के बाद भी, डॉक्टर होने के नाते हम निरंतर सिर्फ इस प्रयत्न में है कि मरीज़ की बेहतरी कैसे हो|

जो एक तरह का दिमागी कीड़ा इंसानों के जहन में आजकल डॉक्टरों के लिए चल पड़ा है कि डॉक्टर सिर्फ पैसा देखते है वह कहीं साफ़ हुआ| डॉक्टर बेहतरी भी सोचते है| लगातार मरीज़ के और मरीज़ के रिश्तेदार से मिलते रहने से उनके दिमाग़ के फितूर भी हटे|

साथ ही आठ-नौ दिन बाद अस्पताल से जब सत्यनारायण जी को छुट्टी मिली और जब ललित और समीर मुझे से मिलने आए तो बोले....‘मैम आप और सर बहुत अच्छे है आप दोनों ने हमारी डॉक्टरों के प्रति सोच को न सिर्फ बदला बल्कि हमको आप दोनों की सहृदयता बहुत कुछ महसूस करवा गई| अगर आपको जीवन में कभी भी कही भी किसी तरह की जरूरत हो तो मैम प्लीज हमको याद करिएगा|’

इस हादसे ने मुझे बहुत कुछ सिखाया| जीवन में हर व्यक्ति को जानकर ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए| जिससे किसी को पीड़ा पहुंचे| सच्चे मन से किया हुआ व्यक्ति के आड़े समय में किसी भी रूप में उसका संबल बनकर उसके साथ जुटता है|

जैसा कि हमने महसूस किया, जब भीड़ बहुत उन्मादी हो रही थी, तब उनके ही रिश्तेदार में से दो लोगों हमारे सपोर्ट में खड़े हो गए| उन्होंने हमारी हर संभव मदद की| यह सब ईश्वरीय ही था| साथ ही उन लोगों ने हमारा इतना नुक्सान किया फिर भी हमारा उनके पिता की बेहतरी के लिए न सिर्फ सोचना बल्कि करना भी, ललित और समीर को बहुत कुछ सकारात्मक सोचने के लिए भी मजबूर कर गया|

प्रगति गुप्ता