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सुलझे...अनसुलझे - 4

सुलझे...अनसुलझे

आहत मासूमियत

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करीब दो घंटे से एक युवती को अपने चेम्बर के बाहर गुमसुम बैठा देखकर मेरे मन में एक सवाल उठा क्यों बैठी है यह युवती? जबकि दो बार रिसेप्शनिस्ट ने उसको आवाज़ दे कर पूछ लिया, क्या हुआ है आपको? क्या चाहती है आप? किसी परिचित का इंतज़ार है आपको? आपके यहां आने की वज़ह क्या है? पर उसने कोई जवाब नहीं दिया|

चूंकि रिसेप्शनिस्ट की आवाज़ बुलंद थी तो मुझे उसका कहा हुआ तो सुनाई दिया| पर उस युवती ने क्या कहा मेरे कानों तक नही पहुँचा।

मेरे भी मरीज़ लगातार आ-जा रहे थे तो मैं भी उसको बीच-बीच में देख लेती थी| पर उठकर उसके पास जाने का नही सोच पाई। जब उसको क़रीब-क़रीब दो घंटे से गुमसुम ही बैठा देख मुझ से रहा नही गया, तो उठ कर उसके पास पहुँची और मैंने उसको कहा...

‘मेरे चेम्बर में अंदर आने का मन हो तो अंदर आ जाओ| क्या नाम है तुम्हारा?’

मेरे पूछते ही वह मशीन के जैसे भावविहीन उठ खड़ी हुई और अंदर आकर मेरे पास की कुर्सी पर बैठ गई|....उसके चेहरे को देखकर उसके मन के अशांत होने का भान हो रहा था| मैंने उससे वापस कहा...

‘कुछ कहना चाहोगी....’

‘दिशा हूँ मैं।’ कहकर वह शांत मेरे चेहरे की तरफ एकटक देखने लगी|...

उसकी चुप्पी को तोड़ने के उद्देश्य से मैंने उस से अगला प्रश्न पूछा.......

‘दिशा! तुम कैसा महसूस कर रही हो इस समय| अगर तुम ठीक महसूस कर रही हो तो कुछ पूछुं तुमसे।

'हम्ममम्म...करके वो तो चुप हो गई पर उसकी आँखों से आँसुओ की एक अविरल धारा बह चली।

शायद मेरे व्यवहार में उसको कुछ अपनापन महसूस हुआ हो और उसके हृदय के उद्वेग उमड़ पड़े हो। अपनी कुर्सी उठ कर मैंने उसके सिर पर हाथ रखा ही था कि उसने मेरे से चिपककर सुबकते हुए रोना शुरू कर दिया। उसके लिए मैंने पानी मंगवाया और उससे पूछा-

‘दिशा अगर अभी और रोना चाहती हो तो पूरी भड़ास निकाल लो| फिर शांत होकर, चाहो तो मुझे अपना मानकर,कुछ अपनी बातें कह सकती हो। कोई भी दबाब नही है| आज नही तो कल जब तुमको ठीक लगेगा हम बात करेंगे| पर आज इस अनकहे सैलाब की वज़ह को निर्द्वन्द ही बहने दो।‘

काफी देर रोने के बाद जब उसका रोना बंद हुआ,तब हल्की-सी अनचाही मुस्कुराहट के साथ वह उठी और बोली...

‘मेरा कल का कोई समय नियत कर दीजिए| आज मेरे से अच्छी तरह आपसे बात नही होगी मैम। मैं कल आऊँगी|’

मैंने सवेरे नौ बजे का समय उसके लिए निश्चत कर दिया।

अगले दिन सवेरे-सवेरे जब मैं पहुँची तो दिशा को सामने पाया ।

‘गुड मार्निंग दिशा... कैसी हो? अच्छा लगा तुमको नियत समय पर पाकर। आज मेरे से बात करना चाहोगी| ऐसा तुमको देख कर मैं महसूस कर पा रही हूं।‘

‘जी मैम! आज आपको मुझे थोड़ा ज्यादा समय देना ही होगा क्योंकि मैं स्वमं के लिए ही परेशान हूँ। मेरी समस्या मेरे से ही जुड़ी है। मेरा अपना क्रोध मेरे लिए बहुत बड़ी समस्या बनता जा रहा है। मेरे पति उच्चपदासीन है। दो बच्चों से मेरा घर कुसुमित है। मुझे किसी भी बात या किसी चीज़ की कमी नही है पर मुझे किसी भी छोटी या बड़ी बात पर आया हुआ क्रोध घर की शांति को भंग कर देता है।....

इस अवस्था में मुझे समझ नही आता, मुझे क्या करना चाहिए क्या नही? मैं सिर्फ़ उल्टा-सीधा बोलकर ही चुप नही होती हूँ बल्कि जो हाथ में आ जाये उसको भी फेंक देती हूं। ऐसी स्थिति में मेरे पति व बच्चे सब इधर-उधर हो जाते है ,क्योंकि उनको भी नही पता इस स्थिति में क्या करना चाहिए। कल जब मैं यहां दो घंटे तक बैठी रही तब क्रोध की स्थिति में ही घर से आई थी। तब आपने अवलोकन किया होगा कि इतना समय गुजरने के बाद भी मैं आपसे बात करने की स्थिति में नही थी।‘...

दिशा अपनी बात बोलकर अब चुप होकर मेरी और एकटक देखने लगी| शायद उसे मेरी प्रतिक्रिया अपेक्षित थी...

‘हम्म्म्म..बोलती जाओ दिशा...मैं सुन रही हूं तुमको। सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी ख़ुद के प्रति ईमानदारी बहुत पसंद आई। अब अगर अपना बचपन से जुड़ा कुछ मुझसे शेयर करोगी तो अच्छा लगेगा क्योंकि कई बार समस्याओं के समाधान भूतकाल के किसी भी कालखंड में छिपे हो सकते है।‘

मेरी बात को सुनकर दिशा ने आगे बोलना जारी रखा।

‘व्यक्तिगत रूप में मेरे माता-पिता दोनो ही बहुत पढ़े लिखे, अच्छे इंसान थे। पापा उच्चपदासीन और माँ सुघड़ गृहणी। पर दोनों के बीच आये दिन किसी न किसी बात पर मन-मुटाव इतना बढ़ता की महीनों तक बातचीत के आसार नज़र नही आते। आज सोचती हूँ तो लगता है दोनों का अहम बहुत बड़ा था| वही उन दोनों के आपसी कलह की वज़ह भी था।

उस समय दोनों के बीच का अवसाद हम बच्चों पर उतरता। तेज-तेज चीखों के बीच होता उनका वार्तालाप, मुझे दहशत में भर देता और कभी रात-रात भर जागने को मज़बूर कर देता। जब बहुत छोटी थी तो बहुत ज्यादा समझ नहीं आता था| पर जैसे-जैसे बड़ी हुई तो समझ आया कि बेमेल विवाह जैसी चीज़े भी होती है। जहां साथ रहना कभी बच्चों की वजह से मज़बूरी होती है तो कभी वापस विवाह न कर पाने की आर्थिक स्थिति भी होती है।

जब मां-पापा लड़ते थे, तब कसकर अपनी मुट्ठियों को भींचकर या अपने कान बंद कर उनकी चीखों को दबाने की भरसक कोशिशें करती थी| पर हम दोनों भाई-बहन को बेवज़ह की पिटाई बहुत आहत करती थी|....

बचपन का क्रोध कब मेरे अंदर-अंदर गहराता गया मेरा युवा होता मन कभी नही समझ पाया। आज मेरे बच्चे और पति बहुत अच्छे है| उन्होंने मेरे इस क्रोध को कम करने की बहुत कोशिश की पर वो भी हार गए। उनके कहने पर ही मैं आपके सामने अपनी समस्या को लेकर आ पाई हूँ,क्योंकि ख़ुद से ही मैंने बहुत परेशान हूँ|

दिशा को एक गिलास पानी पिला मैंने उसको निश्चिंत रहने का आश्वासन दिया और हफ्ते में चार दिन उसकी कॉउंसिललिंग का समय नियत कर बराबर आने को कहा। कुछ दवाइयों और योग के मिले जुले अभ्यास से दिशा तो चार-छः महीने में धीरे-धीरे स्वस्थता की ओर बढ़ती गई|

हर सेशन में उस से हुई बातचीत न जाने कितनी ही बार मुझे सोचने पर मज़बूर करती गई कि नन्ही कोपलें कितनी ही बार वो दर्द अंदर ही अंदर सहेजती जाती है जो कि उनकी पीड़ा की वजह बनती है। स्वस्थ बचपन हर बच्चे के सर्वागीय विकास के लिए कितना जरूरी होता है| मेरी सोच के साथ-साथ अनगिनत प्रश्न खड़े करता गया।

परिवार की नींव रखते ही पति-पत्नी को नवजीव को लाने से पूर्व यह नियोजित जरूर करना चाहिए कि वो वास्तव में मां -पिता बनने योग्य है भी कि नहीं। शारारिक और मानसिक रूप से सकारात्मक व स्वस्थ्य होना दोनों के आपसी रिश्ते के लिए ही नही बल्कि आने वाले नवागंतुक के लिए भी जरूरी है। कोई भी मासूम उनके कलह का भागी बने ,सोचनीय है| क्रोध नकारात्म सोच की चरम प्रतिक्रिया है| जहां सोच-विचार जैसे भाव खत्म हो जाते है और नकारात्मक उर्जा ही प्रवाहित होती है।

जब तक कोई भी नकारात्मक भाव स्वमं तक ही सीमित रहे तब तक ही ठीक रहता है| पर जब किसी भी नकारामक भाव का असर आस-पास के लोगों पर भी होने लगे तो समस्याएं जन्म लेती है| ऐसे ही नकारात्मक भावों का असर जब परिवार में बच्चों पर पड़ने लगे तो नवांकुर बचपन बिखरने लगता है और मासूमियत बहुत आहत होती है।

विषय बहुत सोचनीय है क्यों कि वर्तमान के अनुभव, भविष्य में किस रूप में सामने आएंगे इसका निर्धारण बहुत कुछ सोचने विचारने से जुड़ा हुआ है। पर क्यों आहत हो मासूमियत?

परिवार की नींव परिपक्व सोच और प्रेम से सींची हो तो मासूस व्यक्तित्व में भी बिखराव कम नज़र आएगा।। सोचिएगा जरूर...

प्रगति गुप्ता

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