चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 15 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 15

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

15

हमें यात्रा करते हुए बारह दिन हो चुके थे, और हमारा अगला पड़ाव क्यूबेक था। बेहद खराब मौसम और चारों तरफ लहराता हुआ महासमुद। तीन दिन तक तो हम टूटी पतवार लेकर पड़े रहे, इसके बावज़ूद मैं तो एक दूसरी ही दुनिया में जाने के विचार से उल्लसित था और अपने आपको बहुत हल्का महसूस कर रहा था। मवेशियों वाली नाव पर हम कनाडा हो कर जा रहे थे। नाव पर गाय, बैल, भेड़, बकरी भले ही न हों, पर चूहे ढेर सारे थे और रह-रह कर वे बड़ी हेकड़ी से मेरी बर्थ पर आ धमकते और जूता चलाने पर ही भागते।

सितंबर की शुरुआत थी और न्यू फाउंडलैंड हमने कोहरे में पार किया। आखिर मुख्य भूमि के दर्शन हुए। फुहार पड़ रही थी और दिन में भी सेंट लांरेस नदी के तट निर्जन नज़र आ रहे थे। नाव से क्यूबेक उस चहारदीवारी की तरह लग रहा था जहाँ हैमलेट का भूत चला करता होगा। मेरा मन स्टेट्स के बारे में कुतूहल से भर उठा।

पर जैसे-जैसे हम टोरंटो की ओर बढ़ते गए, पतझड़ के रंगों से देश और खूबसूरत होता चला गया और मेरी उम्मीदें पहले से ज्यादा रंगीन हो उठीं।

टोरंटो में हमने गाड़ी बदली और अमेरिकी आप्रवासन के दफ्तर से होकर गुज़रे। आखिरकार रविवार सुबह दस बजे हम न्यूयार्क आ पहुँचे। टाइम्स स्क्वायर में जब हम टैक्सी से उतरे तो कुछ निराशा सी हुई। सड़कों और फुटपाथों पर अखबार इधर-उधर उड़ रहे थे। ब्रॉडवे बेरौनक दिख रहा था, मानो फूहड़-सी कोई औरत अभी-अभी बिस्तर से उतरी हो। प्राय: हरेक नुक्कड़ पर ऊँची ऊँची कुर्सियां थीं जिसमें जूतों के साँचे लगे थे और लोग बिना कोट वगैरह के, केवल कमीज़ पहने हुए आराम से बैठ कर अपने जूते पॉलिश करवा रहे थे। देख कर लगा, मानो वे लोग सड़क पर ही शौच आदि से निवृत्त हुए हों। कई लोग अजनबियों सरीखे लगे जो फुटपाथों पर यूं ही खड़े थे मानो अभी-अभी रेलवे स्टेशन से बाहर निकले हों और अगली गाड़ी के आने तक का समय काट रहे हों।

जो भी हो, ये न्यू यार्क था, रोमांचक, अक्कल चकरा देने वाला और कुछ-कुछ डरावना। दूसरी तरफ पेरिस ज्यादा दोस्ताना था। मैं फ्रेंच भले ही नहीं बोल पाता था पर बिस्तास और कैफे वाले पेरिस ने हरेक नुक्कड़ पर मेरा स्वागत किया था। लेकिन न्यू यार्क बड़े कारोबार की जगह थी। गर्व से भरी निष्ठुर, ऊँची-ऊँची आकाश को छूने वाली इमारतों को आम आदमी की तकलीफ से कोई सरोकार नहीं था। सैलून बार में भी ग्राहकों के बैठने की कोई जगह नहीं थी। सिर्फ पीतल की लम्बी रेलिंग लगी हुई थी जिस पर आप पैर टिका सकें, और खाने की नामी जगहें, बेशक साफ-सुथरी थी, सफेद संगमरमर लगे हुए थे वहां लेकिन ये जगहें भी मुझे बेजान और अस्पतालनुमा लगीं।

फोर्टी-थर्ड स्ट्रीट से कुछ दूर ब्राउन स्टोन हाउसेस में मैंने पिछवाड़े का एक कमरा लिया, जहाँ अब पुरानी टाइम्स बिल्डिंग खड़ी है। घर बड़ा ही मनहूस और गंदा था और इसे देख कर मुझे लंदन और अपने छोटे से फ्लैट की याद सताने लगी। बेसमेंट में धुलाई और इस्तरी का कारोबार चलता था और हफ्ते के दिनों में भाप के साथ ऊपर उड़कर आती इस्तरी होते कपड़ों की बू मेरी परेशानियों को और बढ़ाती।

उस पहले दिन मैंने अपने आपको बहुत ही अधूरा पाया। किसी रेस्तरां में जाना और कुछ ऑर्डर करना तो अग्नि परीक्षा थी क्योंकि मेरा अंग्रेज़ी उच्चारण उनसे अलग था और मैं धीरे-धीरे बोलता था। कई लोग इतने फर्राटे से और झटका देकर बोलते थे कि मुझे इस डर से असुविधा होने लगती कि मैं बोलने चला तो हकलाने लगूंगा और उनका भी समय बरबाद होगा।

ये चमक-दमक और ये रफ्तार मेरे लिए नई थी। न्यू यॉर्क में छोटे से छोटे कारोबार वाला आदमी भी फुर्ती से काम करता है। जूता पॉलिश करने वाला लड़का पॉलिश वाले कपड़े को फुर्ती से झटकता है, बार में बियर देने वाला ही वैसी ही फुर्ती से बार की चमचमाती सतह पर बीयर आपकी ओर सरका देगा। अण्डे की जर्दी मिले माल्ट देते वक्त सोडा क्लर्क किसी कूदते फांदते कलाबाज की तरह काम करता है। एक ही बार में वह एक गिलास झटकता है और जो भी चीज़ें डालनी हैं, उन पर टूट पड़ता है। वनीला फ्लेवर, आइसक्रीम का छोटा-सा टुकड़ा, दो चम्मच माल्ट, कच्चा अण्डा, बस एक बार में फोड़ डाला, दूध मिलाया, फिर इन सबको लेकर एक बर्तन में ज़ोर से हिला कर मिलाया और लीजिए पेश है। ये सब कुछ एक मिनट से भी कम समय में।

एवेन्यू पर उस पहले दिन कई लोग वैसे नज़र आए जैसा मैं महसूस कर रहा था - अकेले और कटे-फटे। इनमें से कुछ ऐसे हाव-भाव में थे जैसे वही उस जगह के मालिक हों। कई तो बड़े ढीठ और बदमिजाज थे मानो सज्जनता और विनम्रता से पेश आएंंगे तो कोई उन्हें कमज़ोर समझ लेगा। लेकिन शाम को गर्मियों के कपड़े पहनी हुई भीड़ के साथ जब मैं ब्रॉडवे होकर जा रहा था तो जो देखा उससे मेरा मन आश्वस्त हो गया। कड़ाके की सितंबर के ठंड के बीच हमने इंगलैण्ड छोड़ा था और झुलसा देने वाली अस्सी डिग्री की गर्मी में न्यू यार्क पहुँचे थे। अभी मैं चल ही रहा था कि बिजली की ढेर सारी रंग-बिरंगी बत्तियों से ब्रॉडवे जगमगाने लगा और बेशकीमती जवाहरात की तरह चमकने लगा। गर्मी की उस रात में मेरा नज़रिया बदला और अमेरिका का नया मतलब मेरे ज़ेहन में उतरता चला गया। बहुमंज़िला इमारतों, चमकती खुशनुमा रोशनियों और गुदगुदा देने वाले विज्ञापनों ने मेरे मन में आशा और रोमांच की हलचल मचा दी। यही है - मैंने अपने आपसे कहा - मैं इसी जगह से वास्ता रखता हूँ।

ब्रॉडवे पर लगता था हर कोई किसी न किसी कारोबार में है: अभिनेता, हास्य कलाकार, मजमे वाले, सरकस में काम करने वाले और मनोरंजन वाले हर जगह थे। सड़क पर, रेस्तराओं में, होटलों और डिपार्टमेंटल स्टोरों में हर आदमी धंधे की बात कर रहा था। थिएटर मालिकों के नाम जहाँ-तहाँ सुनने को मिल जाते: ली शुबर्ट, मार्टिन बैक, विलियम मॉरिस, पर्सी विलियम्स, क्ला एंंड इरलैंगर, फ्रॉइमैन, सुलिवन एण्ड कान्सिडाइन, पैंटेजेज़। घरेलू नौकरीनी हो, लिफ्ट वाला हो, वेटर हो, टैक्सीवाला हो, बारमैन हो, दूध वाला हो या बेकरी वाला, जिसे देखो, शो मैन की तरह बात करता। राह चलते लोगों की बातचीत के सुनायी पड़ते अंश भी वही। बूढ़ी हो चली माताएं, दिखने में किसानों की बीवियों की तरह और बातें सुनिए तो - वह अभी-अभी वेस्ट में पैंटेज़ेज के लिए काम करके लौटा है। एक दिन में तीन-तीन शो थे। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो बड़ा हास्य कलाकार बनेगा।

एक दरबान कह रहा है,"तुमने विंटर गार्डन में जॉनसन को देखा?"

"जरूर, उसने जेक के शो की लाज रख ली।"

अखबारों का एक पूरा पन्ना हर दिन थिएटर को समर्पित होता था जिसमें रेसकोर्स वाले घोड़ों के रेसिंग चार्ट की मानिंद खबरें होतीं। हास्य कला में किसने कितना नाम कमाया, किस पर अधिक तालियां बजीं, इसके आधार पर रेस के घोड़ों की तरह पहले, दूसरे और तीसरे स्थान दिए जाते थे। अभी इस दौड़ में हम शामिल नहीं हुए थे और मुझे इस बात की चिंता रहती कि चार्ट में हम किस पोजीशन पर आएंगे। 56 हफ्तों तक हमारा कार्यम पर्सी विलियम्स सर्किट में था। इसके बाद और कोई बुकिंग नहीं थी। हमारा अमेरिका में टिकना इसी कार्यक्रम के परिणाम पर निर्भर था। नहीं चले, तो इंगलैंड लौट जाएंगे।

हम लोगों ने एक रिहर्सल रूम लिया और द' वाउ वाउज़ की एक हफ्ते तक रिहर्सल की। हमारे दल में ड्ररी लेन का प्रसिद्ध बूढ़ा सनकी जोकर वाकर था। सत्तर पार कर चुका था। आवाज़ तो बड़ी गंभीर थी पर रिहर्सल में पता चला कि साफ-साफ तो बोल ही नहीं पाता। ऊपर से प्लॉट का एक बड़ा हिस्सा दर्शको को समझाने का काम उसी को करना था। ऐसी कोई लाइन जैसे - मज़ाक बेहन्तहा डरावना होगा उससे बोला ही न जाए और वह कभी बोल पाया भी नहीं। पहली रात वह एब्लिब-एब्लिब ब़ड़बड़ाया। बाद में यह एब्लिब ही रह गया, पर आखिर तक सही शब्द नहीं ही निकला।

अमेरिका में कार्नो का बड़ा नाम था। इसलिए बेहतरीन कलाकारों के कार्यम में सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र हम ही होते थे। भले ही मुझे उस स्केच से नफरत थी, मैंने इसका भरपूर उपयोग किया। मुझे उम्मीद थी कि शायद यही वो चीज़ हो जाये जिसे कार्नो खालिस अमेरिका के लिए कहा करते थे।

पहली रात स्टेज पर आने से पहले मैं कितना नर्वस था, किस तकलीक और पसोपेश में था, मैं इसका बयान नहीं कर सकता और न ही इसका कि स्टेज के साइड में खड़े अमेरिकी कलाकार हमें देख रहे थे तो मुझ पर क्या बीत रही थी। इंगलैंड में मेरे पहले लतीफे पर ज़ोरदार ठहाके लगते थे और इससे पता चल जाता था कि बाकी की कॉमेडी कैसी चलेगी।

कैंप का सीन था, एक तंबू में चाय का कप लिए मैं प्रवेश करता हूं।

आर्ची (मैं) : गुड मार्निंग हडसन। मुझे थोड़ा-सा पानी चाहिए। देंगे ?

हडसन : जरूर, पर किसलिए

आर्ची : मैं नहाना चाहता हूँ।

(दर्शकों की ओर से एक हल्की आधी-अधूरी हँसी और फिर बेरुखी चुप्पी)

हडसन : रात की नींद कैसी रही, आर्ची?

आर्ची : अरे, मत पूछो। सपने में देखा, एक इल्ली मुझे दौड़ा रही है।

अब भी दर्शकों में वैसी ही मुर्दनगी। इस तरह हम बड़बड़ाते रहे और स्टेज के बगल में खड़े अमेरिकियों के थोबड़े और ज्यादा लटकते गए। लेकिन हमारे उस अंक को खत्म करने से पहले ही वे जा चुके थे।

ये स्केच बचकाना और नीरस था, और मैंने कार्नो को सलाह दी थी कि इससे शुरुआत न करें। हमारे पास दूसरे ज्यादा मज़ेदार स्केचेज थे जैसे स्केटिैग, द डैंडी थीव्स, द पोस्ट ऑफिस और मिस्टर पर्किंस, एम.पी. जो अमेरिकी दर्शकों को पसंद आते। लेकिन कार्नो अपनी ज़िद पर अड़े रहे।

जो भी कहिए, परदेस में नाकामी से तकलीफ तो होती ही है। हर रात ऐसे दर्शकों के सामने ह़ाजिरी बजाना वाकई दुष्कर काम था जो एक के बाद एक गुदगुदा देने वाली इंगलिश कॉमेडी के आगे बेरुखी से सन्नाटा ओढ़े बैठे रहें। स्टेज पर हमारा आना-जाना शरणार्थियों की तरह होता था। ये बेइज़्ज़ती हम लोगों ने छह हफ्ते तक झेली। दूसरे कलाकार हम लोगों से यूं अलग-थलग रहते थे जैसे हमें प्लेग हुआ हो। इस तरह से पटकनी खाने और ज़लील होने के बाद जब हम जाने के लिए स्टेज के पास खड़े हुए तो लगा मानो लाइन में खड़ा करके हम गोली मारी जानी है।

हालांकि मैं अपने आपको अकेला और ठुकराया हुआ महसूस करता था, फिर भी इस बात के लिए शुक्रगुज़ार था कि मैं अकेला रह रहा हूँ। कम से कम दूसरों के साथ अपनी बेइज़्ज़ती शेयर तो नहीं करनी पड़ती थी। दिन में मैं लंबी अंतहीन वीथियों पर चहलकदमी किया करता था। कभी चिड़िया घर, तो कभी पार्क, मछलीघर और कभी संग्रहालय जाकर मन बहला लेता था। अपनी नाकामी के बाद न्यू यार्क अब एकदम अपराजेय लगता था। इमारतें इतनी ऊँची जहाँ पहुँचा न जा सके और उनका प्रतिस्पर्धी परिवेश इतना दबाने वाला कि जिसके आगे आप खड़े नहीं हो सकते। इसकी शानदार ऊँची इमारतें और फैशनबेल दुकानें बेरहमी से मुझे मेरे अधूरेपन का अहसास कराती थीं। फिफ्थ एवेन्यू के परे आलीशान मकान सफलता के स्मारक थे, घर नहीं।

मैं पैदल चल कर शहर भर की धूल फांकता रहता और शहर से होते हुए झोपड़ पट्टी वाले इलाकों की ओर चला जाता। मेडिसन स्क्वायर के पार्क से होकर, जहाँ लावारिस बूढ़े अपने पैरों की तरफ भाव शून्यता से घूरते हुए हताशा में बेंच पर बैठे रहते थे। इसके बाद मैं सेकण्ड और थर्ड एवेन्यू की ओर चला। गरीबी यहां बेरहम, तीखी और मारक थी। जहाँ-तहाँ पसरी हुई, एक गुर्राती, अट्ठहास करती और चिल्लाती हुई गरीबी; दरवाजों पर, चिमनियों पर फैलती हुई और रास्तों पर वमन करती हुई गरीबी। मेरा दिल बैठने लगा और मेरा मन जल्द से जल्द ब्रॉडवे लौटने का करने लगा।

अमेरिकी आदमी आशावादी होता है। अथक चेष्टा करने वाला और सैकड़ों सपनों में डूबा रहने वाला। वह जल्द से जल्द बाजी मार लेना चाहता है। वह जैक पॉट हिट करो! निकल चलो! बेच डालो!। कमाओ और भागो! कोई दूसरा धंधा कर लो! में विश्वास करता है। लेकिन हद से गुज़र जाने के इसी अंदाज़ ने मेरी हिम्मत बँधानी शुरू कर दी। दूसरी ओर से देखा जाये तो अपनी नाकामियों के चलते मैं काफी हल्का महसूस करने लगा। ऐसा लगने लगा मानो अब कोई रुकावट नहीं है। अमेरिका में और भी कई संभावनाएं थीं। मैं थिएटर की दुनिया से क्यूँ चिपका रहूँ? मैं कला को समर्पित तो था नहीं। कोई दूसरा धंधा कर लेता। मुझमें आत्म विश्वास लौटने लगा। जो हो गया सो हो गया, मैंने अमेरिका में टिकने की ठान ली थी।

असफलता से ध्यान हटाने के लिए मैंने सोचा, कुछ पढूँ और अपना शैक्षिक स्तर उठाऊं। मैंने पुरानी किताबों की दुकानों के चक्कर लगाने शुरू किए। कई पाठ्य पुस्तकें खरीद डालीं - केलॉग्स रेटरिक, एक अंग्रेजी व्याकरण और एक लैटिन अंग्रेजी डिक्शनरी - और उन्हें पढ़ने की ठानी। लेकिन मेरा संकल्प धरा का धरा रह गया। किताबों को देखते ही मैंने उन्हें अपने संदूक में एकदम नीचे रख दिया और भूल गया - और स्टेट्स में दूसरी बार आने पर ही उनकी ओर देखा।

न्यू यार्क में पहले हफ्ते के कार्यक्रम में एक नाटक था, गस एडवार्ड्स स्कूल डेज। बच्चों को लेकर बनाया गया। इस मण्डली में एक आकर्षक चरित्र था जो दिखने में छोटा था, पर चाल-ढाल और तौर-तरीकों से पहुँची हुई च़ाज लगता था। उसे सिगरेट के कूपनों से जूए की लत थी जिसके बदले में युनाइटेड सिगार स्टोर से निकल प्लेटेड कॉफी के बरतनों से लेकर शानदार पियानो तक मिलने का चांस रहता था। उनके लिए वह किसी के भी साथ पाँसा फेंकने को तैयार था। वाल्टर विंचेल नामक यह व्यक्ति असाधारण तेज़ी से बात कर सकता था। उम्र हो जाने पर भी उसका धुँआधार बोलना जारी रहा, पर कई बार मुँह से कुछ का कुछ निकल जाया करता था।

हालांकि हमारा शो चला नहीं। व्यक्तिगत रूप से मैं लोगों का ध्यान खींचने में सफल रहा। वेरायटी के सिम सिल्वर मैन ने मेरे बारे में कहा,"मण्डली में कम से कम एक मज़ेदार अंग्रेज़ था, और वो अमेरिका में चलेगा।"

अब तक हम लोग बोरिया-बिस्तर समेट कर छ: हफ्तों के बाद इंगलैण्ड लौटने का मन बना चुके थे। पर तीसरे सप्ताह हमने अपना नाटक फिफ्थ एवेन्यू थिएटर में खेला। यहां ज्यादातर दर्शक अंग्ऱेज नौकर और खानसामे थे। सोमवार, पहली रात को हम धमाके से चले। हर चुटकुले पर वे हँसे। हम सभी चकित थे, मैं भी, क्योंकि मैंने भी हमेशा जैसी बेरुखी की उम्मीद की थी। मुझे लगता है, कामचलाऊ प्रदर्शन से मेरे ऊपर दबाव नहीं था और मैंने कोई गलती नहीं की।

उस सप्ताह एक एजेंट ने हम लोगों से मुलाकात की और सालिवन एण्ड कॉन्सिडाइन सर्किट में बीस हफ्तों के दौरे के लिए बुक कर लिया। ये चलताऊ रंगारंग विविध शो कार्यक्रम था, और हमें दिन में तीन शो करने थे।

सालिवन कॉन्सिडाइन के उस पहले दौरे में कोई जबर्दस्त धमाका तो हम लोगों ने नहीं किया लेकिन औरों के मुकाबले बीस ही रहे। उन दिनों मिडिल वेस्ट लुभावना था। उतनी भाग-दौड़ नहीं थी और माहौल रोमांटिक था। हरेक ड्रग स्टोर और सैलून में घुसते ही चौसर की टेबल होती थी जहां हर उस चीज के लिए पाँसा फेंका जा सकता था जो वहाँ बिक रही हो। रविवार की सुबह मेन स्ट्रीट खड़खड़ाते डाइस की प्यारी और दोस्ताना आवाज़ से भरी होती थी। कई बार मैं भी दस सेंट में एक डालर की चीज़ें जीत जाता।

जीवन यापन सस्ता था। एक हफ्ते में सात डॉलर पर किसी छोटे होटल में एक कमरा और दिन में तीन बार भोजन मिल जाता था। खाना बहुत ही सस्ता था। सैलून का फ्री लंच काउंटर हमारी मंडली के लिए बहुत बड़ा संबल था। एक निकल (पाँच सेण्ट) में एक गिलास बीयर और खाने की सबसे स्वादिष्ट और खास चीज़ें मिल जाया करती थीं। सूअर की रानें होती थीं, स्लाइस्ड हैम, आलू सलाद, सार्डिन मछलियां, मैकरॉनी चीज़, लीवर वुर्स्ट, कुलचा और हॉट डॉग! हमारे कुछ सदस्य इसका फायदा उठाते और अपनी प्लेटों पर तब तक ढेर लगाते जाते जब तक बार मैन टोक न दे,"ओए, उतना लाद कर कहाँ चल दिए - क्या क्लोनडाइक की तरफ?"

हमारे दल में पदह या कुछ अधिक लोग थे। ट्रेन की बर्थ के पैसे देने के बाद भी हर मेम्बर कम से कम अपना आधा मेहनताना बचा लेता था। मेरी तनख्वाह थी एक हफ्ते में पचहत्तर डॉलर और इसमें से पचास तो शान से बैंक ऑफ मैनहटन में नियमित रूप से पहुँच जाते।

दौरे के सिलसिले में हम लोग कोस्ट पहुँचे। रंगारंग कार्यक्रम की उसी टीम में हमारे साथ पश्चिम की तरफ चलने वालों में टेक्सास का एक सुंदर युवक था जो कसरती झूले पर करतब दिखाता था। वह ये तय नहीं कर पा रहा था कि और आगे भी अपने पार्टनर के साथ ही बना रहे या ईनामी दंगल लड़ा करे। रोज सुबह मैं बॉक्सिंग के दस्ताने पहन कर उसके साथ उतरता। वह बेशक मुझसे लंबा और भारी था, फिर भी मैं उसे जब जैसे चाहता, हिट कर सकता था। हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए और बॉक्सिंग की एक पारी के बाद हम साथ लंच लेते। वो कहा करता था कि उसके आदमी टेक्सॉस के सीधे सादे किसान हैं। वह फार्म की ज़िंदगी के बारे में घण्टों बतियाता। जल्दी ही हम लोग थिएटर का धंधा छोड़ने और साझेदारी में सूअर पालने के बारे में बात करने लगे।

हम दोनों के पास कुल मिलाकर दो हजार डॉलर थे और था, ढेर सारा पैसा कमाने का एक सपना। हमने योजना बनायी। अरकसॉन्स में पचास सेन्ट प्रति एकड़ के हिसाब से दो हज़ार एकड़ जमीन शुरू में ली जाए और बाकी पैसा सूअर खरीदने में लगाया जाए। हमने जोड़-जाड़ कर देखा कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक चला तो सूअरों के चवृद्धि ढंग से पैदा होने और औसतन हर साल पाँच के हिसाब से बच्चे जनने के हिसाब से पाँच वर्षों में हम एक लाख डॉलर बना सकते हैं।

रेलगाड़ी में सफ़र करते हुए हम खिड़की से बाहर देखते और सूअर बाड़ों को देखकर जोश से भर उठते। हमारे खाने, सोने और यहाँ तक कि सपने में भी सूअर ही सूअर। सूअर पालने के वैज्ञानिक तौर तरीकों पर मैंने एक किताब न खरीद ली होती तो शो बिजनेस छोडकर सूअर पालक बन गया होता। लेकिन उस किताब ने, जिसमें सूअरों को बधिया करने के सचित्र तरीके दिए गए थे, मेरा जोश ठण्डा कर दिया और जल्दी ही मैं इस धंधे को भूल गया।

इस दौरे पर अपने साथ मैं वायलिन और सेलो लेकर चला था। सोलह बरस की उम्र से ही अपने बेडरूम में मैं हर दिन चार से छह घण्टे इन्हें बजाने का अभ्यास किया करता था। हर हफ्ते मैं थिएटर संचालक से या जिसे वो कहता उससे वायलिन के सबक लेता था। मैं बाएँ हाथ से बजाता था इसलिए वायलिन भी बाएँ हाथ के हिसाब से बँधा था, जिसमें बास-बार और साउंडिंग पोस्ट उलट दिए गए थे। मेरी बड़ी इच्छा थी कि संगीत समारोह का कलाकार बनूंगा या ये नहीं कर पाया तो रंगारंग कार्यक्रम में बजाऊँगा। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, मेरी समझ में आ गया कि इसमें कभी माहिर नहीं हो पाऊँगा, सो मैंने इसे छोड़ दिया।

1910 का शिकागो अपनी कुरूपता, भयावहता और कालिमा में एक आकर्षण लिए हुए था। एक ऐसा शहर जिसमें अभी भी शुरुआती दिनों के मिजाज थे। कार्ल सैंडलिंग के शब्दों में धूंए और इस्पात का एक फलता-फूलता साहसी महानगर। मुझे इसके चारों ओर फैले समतल मैदान रूस के घास के मैदानों जैसे लगते हैं। कुछ नया करने का इसमें प्रचण्ड उल्लास था जो तन-मन को अनुप्राणित करता था। लेकिन इसके भीतर एक पौरुषी एकाकीपन धड़कता था। इस जिस्मानी बीमारी के काट के रूप में मौजूद था एक राष्ट्रीय मनोरंजन जिसे बर्लेस्क शो (प्रहसन/पैरोडी) कहा जाता था। इसमें बेहरतीन कॉमेडियनों का एक गुट होता था और साथ में बीस या कुछ अधिक कोरस लड़कियां होती थीं। कुछ सुंदर, कुछ घिसी-पिटी। कामेडियन मज़ेदार थे। ज्यादातर शो अश्लील होते थे, जनानखाने की कॉमेडी घटिया और बुराइयों से भरी हुई। पूरा माहौल ही मैन का था। क्षुद काम प्रतिद्वंद्विता से भरा हुआ जो देखने वालों को उल्टे किसी भी प्रकार की सामान्य कामेच्छा से अलग कर देता था। झूठ-मूठ की भावुकता दिखाना ही उनकी प्रतिक्रिया होती। ऐसे शो शिकागो में भरे पड़े थे। वाट्सन्स बीफ ट्रस्ट नामक ऐसे ही एक शो में अधेड़ उम्र की भारी-भरकम औरतें चुस्त कपड़ों में प्रदर्शन करती थीं। इस बात का प्रचार किया जाता था कि उन सभी का वजन टनों में है। थिएटर के बाहर शर्माये, सकुचाए पोज़ में उनकी तस्वीरें बड़ी दु:खद और निराशाजनक होती थीं।