कोख से कब्र तक: स्त्री-विमर्श के विभिन्न रूप Santosh Srivastav द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोख से कब्र तक: स्त्री-विमर्श के विभिन्न रूप

रवीन्द्र कात्यायन

"मुझे जन्म दो मांताकि मैं लपटों की रोशनाई से

आग की कलम पकड़कर

रचूं धूप का वह गीत

जो संदूकों में बंद

औरत के बुसाए सीलन भरे

अतीत को दफ़न कर

उगे सूरज की तरह

पूरब की दिशाओं में।" (स्व. हेमंत की कविता) 

पूरब की दिशाओं में सूरज की तरह उगने की कामना, लपटों की रोशनाई से आग की कलम पकड़कर धूप का गीत रचने का संकल्प आज की नारी के जीवन की वास्तविकता और आवश्यकता है। सदियों से दोयम दर्जे की ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त स्त्री की नियति को अगर बदलना है तो वो एक स्त्री ही कर सकती है। भारत की तरह पूरी दुनिया में स्त्री की ज़िन्दगी का अंधेरा धीरे-धीरे छँटने को कुलबुला रहा है- ज़रूरत है साहस, दृढ़ निश्चय और लगातार प्रयास की, कि स्त्री स्वयं आगे बढ़े और अपने होने की आज़ादी पा सके।

इसी प्रयास की एक सार्थक, सुनिश्चित और परिपक्व अभिव्यक्ति के रूप में हमारे सामने है- संतोष श्रीवास्तव की पुस्तक "मुझे जन्म दो माँ"। "मुझे जन्म दो माँ" संतोषजी द्वारा दस वर्षों में लिखे गए शोध लेखों का संग्रह है। ये लेख 'समरलोक' पत्रिका के 'अंगना' कॉलम में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए हैं। इस पुस्तक में लेखिका की दस वर्षों की मेहनत और शोधवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है क्योंकि इसका प्रत्येक लेख न केवल सोचने को बाध्य करता है बल्कि स्त्री विमर्श के कुछ ऐसे कोने खंगालता है जो पितृसत्ता या पुरुष सत्तात्मक समाज की जड़ता को उजागर करते हैं। स्त्री विमर्श व स्त्री मुक्ति पर व्यवस्थित इतिहास लेखन का कार्य हिंदी में अब शुरु हुआ है। सुधा अरोड़ा, कुसुम त्रिपाठी,.....आदि ने स्त्री विमर्श के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं को ध्यान में रखकर जो बहस शुरु की है, 'मुझे जन्म दो माँ' उसी आ विस्तार है। इस पुस्तक में 34 लेख हैं और वे नारी के जीवन को उसकी पीड़ा को, उसकी बदतर स्थिति को पर्त दर पर्त उधेड़ते हैं- उदाहरणों, आख्यानों और दृष्टांतों के द्वारा।

जीवन और समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों का आख्यान इसमें है। इस पुस्तक का केनवस बहुत बड़ा है। क्या भारत, क्या अमेरिका, क्या यू.के., क्या अफ़्रीका, क्या रूस, क्या लैटिन अमरीकी या खाड़ी के देश....हर जगह के स्त्री जीवन की खोज खबर लेती है ये लुस्तक और ऐतिहासिक, सामाजिक, पारंपरिक, सांस्कृतिक और जनजातीय स्तरों पर उसकी पड़ताल करती है। कन्या जन्म से पूर्व और उसकी मृत्यु तक की स्थितियाँ इतनी भयावह हैं कि हर उम्र की स्त्री को  उनसे जूझना ही पड़ता है। उच्च वर्ग की स्त्री हो या मध्यम वर्ग की अथवा निम्न वर्ग की सबके सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई है, अपने शोषण की चिंता है, और अपने आपको पहचानने की जिजीविषा है। वर्ग चेतना के साथ-साथ आदिवासी, दलित तथा जनजातीय स्त्री के संघर्ष पर भी इसमें विस्तार से लिखा गया है। सभ्य समाज की स्त्री के लिए जीवन चाहे जितना कठिन हो, उसकी तुलना दलित और आदिवासी या जनजातीय स्त्री से नहीं की जा सकती। जेलों में कैद स्त्री, विधवा, देवदासी, जबरन सती बना दी गई या बहुपतित्व का शिकार स्त्री हमारे समाज की सारी सभ्यता एवं विकास से अपिरिचित रखी जाती है। विकास के तमाम दावे खोखले साबित हो जाते हैं, जब इन स्त्रियों की नारकीय ज़िन्दगी के अभिशप्त पन्ने खुलते हैं। भारतीय समाज में अंग्रेज़ों ने सन 1871 में कुछ जनजातियों को आपराधिक घोषित कर दिया था। इन जनजातियों के पास न तो कोई धन रहता है, न कोई संपत्ति, न इनकी कोई व्यवस्थित पहचान ही रहती है, न नागरिकता, न कोई राष्ट्रीय पहचान-पत्र। सन 1952 में इन्हें सामान्य नागरिक का दर्जा दिया गया, पर इनके व्यवहार से इन्हें सामान्य नागरिक कभी माना नहीं गया- न सरकार द्वारा, न समाज द्वारा। इन जनजातियों के साथ देश में आज भी बहुत भेद-भाव माना जाता है। सन 1933 में इनकी जनसंख्या करीब छः करोड़ थी। उसके बाद इनकी जनगणना कभी नहीं की गई। अनुमान है कि इस समय इनकी जनसंख्या करीब 11 करोड़ पहुँच गई है। इनमें मुख्यतः कंजर, कबूतरा, मोघिया, कलंदर, पारधी, नट, बेड़िया आदि हैं। इस समाज की स्त्री अपने परिवार का पेट पालने के लिए कुछ भी कर सकती है। उसे वेश्यावृत्ति में भी जाना पड़ता है। किसी-किसी समुदाय में तो पुरुष ही अपनी पत्नी और बेटियों को वेश्यावृत्ति में उतारता है। उस स्त्री के लिए कौन सा समाज, कौन सा संविधान, कौन सा देश ज़िम्मेदार है? प्रस्तुत पुस्तक स्त्री से संबंधित इन सभी मुद्दों पर बहस करती है।

लेखिका ने विदेशी स्त्रियों के जीवन का भी गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया है। अफ़गानिस्तान, पकिस्तान, अमेरिका, रूस, युरोप, चीन, खाड़ी देश, लैटिन अमेरिकी देश आदि में स्त्रियों की वास्तविक चिंताओं को प्रकट किया गया है। विदेशी स्त्रियाँ भी पुरुष सत्तात्मक समाज की हिंसा, उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार हैं। कहने को तो वो विकसित समाज में रह रही हैं, पर उनके ख़िलाफ़ षड़यंत्र उतने ही भयावह हैं। अमेरिका में 11 सितंबर को हुए हमले में रेतिक और क्विर्ग्ल के पति मारे गए। इन्हें चारों तरफ से आर्थिक मदद मिली। इन्होंने "बियांड द् इलेवेंथ" नामक संस्था बनाई है जो ग़ैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर अफ़गानिस्तान की विधवाओं को शिक्षा, प्रशिक्षण और बुनियादी चीज़ें उपलब्ध करा रही हैं। तालिबानी शासन की समाप्ति के बावज़ूद अफ़गानिस्तान में स्त्रियों की शिक्षा, रोज़गार तथा पुनर्वास की चुनौती बहुत बड़ी है क्योंकि स्त्रियों की सहायता करने को कोई संस्था आगे नहीं आती। यही कारण है कि बहुत सी स्त्रियाँ अपने बच्चों के साथ पाकिस्तान पलायन कर रही हैं।

21वीं सदी की चौखट पर खड़ा भारतीय समाज आज क्या स्त्री को वह सम्मान दे पाया है जिसकी वो हकदार है? भ्रूण हत्या, बलात्कार, दहेज हत्या, शारीरिक शोषण, यौन प्रताड़ना, आदि ऐसे मुद्दे हैं जो विकास और उन्नति के सभी दावों को खोखला कर देते हैं। सोनोग्राफ़ी और अल्ट्रासाउंड की मशीनों की बदौलत भ्रूण हत्या का कारोबार शहरों, गाँवों सभी जगह फल-फूल रहा है। भ्रूण हत्या से बच भी गई लड़की तो बड़ी होकर समाज की हवस का शिकार बन जाएगी। उससे भी बच गई तो दहेज की बलि चढ़ जाएगी। इनमें से कुछ न कुछ तो लगभग हर स्त्री के साथ होता ही है। कारण वही हैं- पितृसत्ता के षड़यंत्र और स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने की संस्कृति। कौन करेगा हमारी तथाकथित इस महान संस्कृति और सभ्यता के विरोध में स्त्री को न्याय दिलाने की पहल? स्त्री के अतिरिक्त कोई दूसरा यह नहीं कर सकता। तो स्त्री को ही अपने लिए आवाज़ उठानी होगी, अपनों के विरुद्ध लड़ाई लड़नी होगी।

दहेज प्रथा जैसी बीमारी के चलते प्रतिदिन अनगिनत अपराध होते हैं, जिनमें से कुछ ही कानून की पकड़ में आ पाते हैं। बाकी साक्ष्यों के अभाव में या समाज के डर से दबा दिए जाते हैं। चांद को छूने की हसरत रखने वाली स्त्री अपने अस्तित्व और अधिकार की लड़ाई ही नहीं लड़ पाती। यह पुस्तक इन मुद्दों पर गहन प्रश्न करती है और सोचने को बाध्य करती है कि आख़िर ऐसा क्यों चल रहा है और कब तक चलता रहेगा?

सन् 2005, अगस्त में भारत सरकार ने घरेलू हिंसा निषेध कानून बनाया। इस कानून के बनने से महिला संगठनों ने प्रसन्नता ज़ाहिर की कि इस कानून से महिलाओं को न्याय मिलेगा और घरेलू हिंसा करने वाले पुरुष को दंड। लेकिन क्या ऐसा हो पाया? घरेलू हिंसा की शिकार औरतें पुलिस तक जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पातीं। और अगर वे पुलिस तक पहुँच भी गईं तो उनकी प्रताड़ना और पीड़ा अधिक बढ़ जाती है। पुलिस का रवैया उनके प्रति अमानवीय है। पुलिस हर अपराध को दहेज से जोड़ती है। जबकि घरेलू हिंसा के लिए बनी धारा 498 के तहत मुकदमा दायर ही नहीं करती। इस तरह की कानूनी लड़ाई लड़कर कितनी स्त्रियों को न्याय मिल पाता है? फिर भी धारा 498 स्त्रियों के लिए वरदान की तरह है। धीरे-धीरे स्त्रियाँ इसका सहारा लेने की हिम्मत भी पा जाएंगी।

संतोष श्रीवास्तव की यह पुस्तक स्त्री-विमर्श का किसी तरह का दावा नहीं पेश करती बल्कि स्त्रियों को उनके दायरे में रहते हुए अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने की बात करती है। परंपरागत ढाँचे में रहते हुए स्त्री को अपनी लड़ाई लड़नी है। कानूनी दायरे में रहते हुए ही स्त्री अपने आपको सशक्त बना सकती है। धारा 498, 498 A, 304 B, 494 आदि ऐसी धारएँ हैं जो संविधान में स्त्री को सशक्त बनाती है। ज़रूरत है समाज की सही सोच को प्रोत्साहित करने की, जिसमें स्त्री को कानून का सहारा लेने के लिए अधिक से अधिक प्रेरित किया जाए। लेखिका ने इन सभी मुद्दों पर अपनी बेबाक राय दी है और स्त्री को अपनी लड़ाई लड़ने लायक जानकारी भी देने का प्रयास किया है।

सामुदायिक उन्नति के लिए स्त्रियों के प्रयासों का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है। आज की स्त्री अकेली आगे नहीं बढ़ना चाहती, बल्कि अपने परिवार, समाज के साथ सामूहिक रूप से आगे बढ़ना चाहती है। पर पुरुष सत्ता को ये बात कब पसंद आई है? ऐसे में स्त्री जाति के लिए, कमज़ोर स्त्रियों के लिए, समाज की सबसे कमज़ोर स्त्रियों के लिए अपनी लड़ाई अकेली लड़ना संभव नहीं हो पाता। तब वह स्त्री अपने समुदाय को जागृत करके उसके साथ आगे बढ़ना चाहती है। समुदाय की उन्नति के लिए वह प्रयास करती है, संघर्ष करती है। इस तरह की महिलाओं में प्रेमापुरब, फ्लेविया एग्नेस जैसे कई नाम हैं। प्रेमा पुरब गोवा मुक्ति आंदोलन की सशक्त कार्यकर्ता थीं। उन्हें टॉर्चर करके, गोली मारकर भी पुलिस इनका मनोबल तोड़ने में नाकाम रही तो उन्हें गोवा से निर्वासित कर दिया गया। प्रेमा मुंबई आ गईं। मुंबई में किलेबंद हो रही थीं और कामगार भेखमरी का शिकार हो रहे थे। ऐसे  में उन्होंने 14 महिलाओं को इकट्ठा करके बैंक से कर्ज़ लिया और अन्नपूर्णा महिला-मंडल की स्थापना की। आज इसमें करीब दो लाख महिलाएं कार्यरत हैं। प्रेमा को पद्मश्री तथा 40 अन्य पुरस्कार मिले हैं। इसी तरह घरेलू हिंसा का शिकार फ्लेविया एग्नेस ने अपने घर से विद्रोह किया, एल.एल.बी. किया और मजलिस नामक संस्था की स्थापना की जो पीड़ित स्त्रियों को जागृत करने और उन्हें अधिकार दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी तरह हर शहर में, देश के कोने-कोने में कोई न कोई प्रेमा पुरब, कोई फ्लेविया एग्नेस अपनी लड़ाई के साथ-साथ पूरे समाज की लड़ाई लड़ रही है।

संतोष श्रीवास्तव का मानना है कि- "भूमंडलीकरण ने जितने फ़ैसले औरतों पर थोपे हैं उतने शायद किसी और ने नहीं। प्रगतिशीलता और आधुनिकता की परिभाषा तो बाज़ार ने गढ़ी ही है, परंपरा और संस्कृति की परिभाषा भी अब वह गढ़ने लगा है। सौंदर्य स्पर्धाओं के प्र्टि हर रोज़ बढ़ता आकर्षण भी बाज़ार की ही देन है। सुना तो यह भी गया है कि विश्व स्तर की सौंदर्य प्रतियोगिताएं विदेशी कंपनियों की साज़िश हैं।" (पृ.89)

विज्ञापन फ़िल्मों में, होर्डिंग्स में, फ़िल्मी पत्रिकाओं में, इंटरनेट के पृष्ठों पर स्त्री को उपयोग की वस्तु के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। अपनी अस्मिता के साथ खिलवाड़ होता देखकर भी स्त्री उन विज्ञापनों, उस बाज़ार के षडयंत्रों का शिकार बनती जा रही है क्योंकि उसको जितने प्रलोभन दिए जा रहे हैं वे अकल्पनीय हैं लेकिन सत्य भी। और इसीलिए अपनी अस्मिता को ताक पर रखकर स्त्री टी.वी., फ़िल्म और ग्लैमर की उस चकाचौंध का हिसा बनती चली जा रही है क्योंकि इससे अच्छा विकल्प उसे शायद मीडिया, बाज़ार या भूमंडलीकरण नहीं देता। स्त्री के श्रम का शोषण भी कई स्तरों पर हो रहा है। समान कार्य के लिए समान वेतन भी स्त्री को नहीं दिया जाता। पुरुष को स्त्री से अधिक मजदूरी दी जाती है, जबकि महिला मजदूर पुरुष की तरह ही परिश्रम में बराबर की हिस्सेदार है। ये सामाजिक असमानताएं और शोषण पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था का परिणाम हैं। लेखिका की कोशिश यही है कि कम से कम जागरूकता तो फैले, स्त्री अपने बारे में जाने तो सही।

"मुझे जन्म दो माँ" ऐसी पुस्तक है जो एक साथ कई स्तरों पर अलग-अलग मुद्दे उठाती है। ये मुद्दे सार्थक भी हैं, नारी जीवन के लिए ज़रूरी भी। लेखिका ने नारी जीवन के विरुद्ध अत्याचारों की विविधताओं के साथ-साथ उसकी जड़ताओं पर भी कड़े प्रहार किए हैं। अगर इसमें मातृसत्तात्मक परिवारों की विशेषताएँ हैं तो उसकी खामियाँ भी बताई गई हैं। इसमें जिस संतुलन और शोध के द्वारा स्त्री जीवन के सच्चे किंतु विवादित पक्षों का उदघाटन किया गया है, वो क़ाबिले तारीफ़ है। लेखिका मुद्दों को अनावश्यक विस्तार नहीं देती है। व्यस्थित रूप से स्त्री विमर्श की हलचल को कैसे रेखांकित किया जाए, प्रस्तुत पुस्तक बखूबी साबित करती है। इस पुस्तक में पश्चिम के आयातित नारीवादी आंदोलनों की झलक तो मिलती है परंतु भारत में उनकी गूँज कहीं दिखाई नहीं देती। नारीवाद को लेखिका ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही लिया है। दूसरी ज़रूरी बात उसने यह की है कि नारीवाद को उग्र रूप में नहीं प्रस्तुत किया है। भारतीय समाज में अभी उग्रता के साथ नारीवाद को रखना संभव नहीं है क्योंकि अभी हमारा समाज इतनी उग्रता के साथ इस विमर्श को स्वीकार नहीं कर पाएगा। इसलिए लेखिका जीवन जीते हुए अपनी परिस्थितियों में रहते हुए संघर्ष का रास्ता चुनने के बात करती है। कानून की सहायता भी अब नारी को मिलने लगी है पर समाज की सोच को बदलने में अभी वक्त है। अतः समाज को सोच को बदलने में कुछ समय और जाएगा। लेखिका सिर्फ़ स्त्रियों की ही नहीं बल्कि पुरुषों की सामुदायिक उन्नति की बात करती है। नारी अपनी नारी जाति के लिए बहुत कुछ कर सकती है। कई उदाहरण सामने हैं कि नारियों ने अपने समुदाय के साथ खड़े होकर समाज में कुछ करने का जज़्बा दिखाया है। लेखिका नारी की पक्षधर तो है लेकिन नारी को सम्मान से देखने वाले या उसका उत्थान चाहने वाले पुरुषों के विरुद्ध भी नहीं है। उसका मानना है कि आख़िर पुरुष और स्त्री मिलकर समाज की उन्नति में योगदान करेंगे तो ही समाज आगे बढ़ेगा। दस सालों में लिखे गए लेखों में एक संतुलित विचारधारा दिखाई देती है। प्रगतिशील सोच के साथ यह पुस्तक समाज को और स्त्री को आगे बढ़ाने की बात करती है। इसकी भाषा भी बहुत सरल और स्पष्ट है। आम स्त्री को समझने के लिए आम स्त्री की बात भी होनी चाहिए। कवि विजेंद्र के शब्दों में आज की स्त्री अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए किसी से भी टकरा सकती है-

अंदर ही अंदर झेल रही है   धरे कंठ में विष को       खेल अनूठा खेल रही है

साहस है उसका माटी   लू, बर्फाद, ओले, गर्जन   जो भी आए, आए...    (पृष्ठ 85)

यह पुस्तक उन लोगों को निराश करेगी जो इतिहास के आइने में स्त्री विमर्श को देखना चाहते हैं। इसमें भारत में नारी विमर्श का व्यवस्थित इतिहास उस तरह नहीं दिया गया है जैसे इतिहास की पुस्तकों में होता है। हाँ, स्त्री विमर्श का ऐतिहासिक विकास-क्रम इसे पढ़ने पर अवश्य पता चलता है। लेखिका किसी तरह का कोई दावा भी नहीं करती। बस जो उसे दिखता है, उसे सबको बताना चाहती है। स्त्री विमर्श के अध्ययन के लिए यह एक ज़रूरी पुस्तक इसलिए बन जाती है क्योंकि इसमें व्यावहारिक ज्ञान समाहित है। स्त्री विमर्श के अध्ययन-अध्यापन में इस किताब का शुमार हमेशा किया जाएगा क्योंकि इसमें लिखी हुई बातें समाज तक पहुँच रही हैं। और जो किताब समाज तक पहुँच जाती है वो हमेशा प्रासंगिक रहती है।

पुस्तक- मुझे जन्म दो माँलेखिका- संतोष श्रीवास्तवप्रकाशक- कल्याणी शिक्षा परिषद, नई दिल्ली.