ग्वालियर संभाग के राजनारायण बोहरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य
डॉ. पदमा शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी
शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0
-राजनारायण बोहरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्यः
राजनारायण बोहरे ग्राम्य जीवन को उकेरने में सिद्ध हस्त हैं। उनकी पैनी दृष्टि गाँव के रीतिरिवाज, परम्पराएँ एवं ग्राम्य परिवेश को गहराई से देखती चलती है गॉंव के खेत खलिहान, त्यौहार एवं क्रियाकलाप उनके वर्ण्य विषय हैं जो ग्राम्य शब्दों के साथ-गॉंव का सा वातावरण पैदा करने में सक्षम हैं। न सिर्फ ग्राम्य जीवन वार शहरी जीवन को भी उन्होंने बखूबी चित्रित किया है। ग्राम्य संस्कृति उनकी कहानियों में परिलक्षित होती है। व्यक्ति की आस्था, उसके संस्कार उसके तीज त्यौहार, उसका खान-पान, रहन सहन एवं समस्त क्रियाकलाप उनकी कहानियोें का विषय हैं। धर्म और संस्कृति उनकी कहानियों के प्राण हैं। धर्म तो इन्सान को इन्सान से जोड़ने का एक मार्ग मात्र है। जिसके मन में ’मानव मात्र के लिए प्रेम न हो, वह व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं कहा जा सकता। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति तो कभी किसी से नफरत कर ही नहीं सकता।’’1
उनकी कहानियों में साधु सन्यासियों की धार्मिक कट्टरता एवं आस्था है तो सुखजिंदर जैसे पात्र भी हैं जो हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्म में आस्था रखता है वह सभी धर्मों के पूज्य स्थलों पर जाकर धर्मानुसार वहाँ पूजो-अर्चना करता था। सुखजिंदर में सर्वधर्म समभाव था गुरू में एकनिष्ठ आस्था थी उसकी उसने मेरे संपर्क में आकर सनातन धर्म की अनेक बातें सीखी थीं। हर मंगलवार को हमारे साथ पढ़ते-पढ़ते सुन्दर काण्ड याद हो गया था उसे। मेरी अम्मा गाँव से कुछ दिन रहने के लिए कस्बे में आयी तो उनके चरण भी छुए। अम्मा को उसने कस्बे के सारे मन्दिरों के दर्ष न कराए और एक जगह प्रवचन सुनाने भी ले गया। धर्मों, धर्मशास्त्रों एवं रीति रिवाजों के बारे में गहरी जानकारी थी उसे। वह अपने दोस्तों को प्राचीन जैन मंदिर ले गया वहॉं वह झूम-झूमकर ’’णमोअरिहन्ताणाम’’ गाने लगा। क्रिसमस के दिन सबको चर्च ले गया और सबके साथ मिलकर प्रभु यीशु के जन्म की खुशी में प्रेयर गाने लगा।2
साधु सन्यासियों का जीवन संसार की रीति नीति से अलग होता है। उनके जीवन में वैराग्य होता है। उनका रहन-सहन, खान-पान सभी सामान्य जीवन से भिन्न होता है। उनके अलग-अलग अखाड़े और गुरू होते हैं उनके ही नियमानुसार वे जीवन व्यतीत करते हैं। ’’तन्दरूस्त वदन, कम उम्र लगभग चालीस बरस, कन्धों तक फैले खिचड़ी जटा - जूट, ’उन्नत ललाट, कण्ठ, माथे और भुजा इत्यादि माथे पर बारह तिलक लगाए, बाबा ओमदास ने कमर में केले के पत्ते का अड़िया और उसी को पीन धारण कर रखी है। फिर एक बार तेज दौड़ती ट्रेन के बाहर झांककर उन्होंने आसपास बैठे यात्रियों पर निगाह फेंकी और दहिने हाथ की अंजुरी से जल ले दोने के चारों ओर छिड़ककर हाथ जोड़। मिठाई का एक ग्रास तोड़ा और आसपास के लोगों को प्रसाद के रूप में बाँट दिया।....कल तक वे ऐसे सामान्य तरीके से भोग नहीं लगाते थे बल्कि बाकायदा साधुशाही जयकारे बोलकर कुछ छूते थे। याद आते ही म नही मन उन्होंने आदतमन जयकारे फिर दुहराए-’’ अखिल ब्रह्मण्ड नामक परात्पर ब्रह्म परमात्मा की जय सम्प्रदाय के आदि आचार्य महाराज की जय। गादीधारी आचार्य महाराज की जय अस्थान के महन्त मण्डलेश्वर की जय! सन्त पुजारी की जय! दाता भण्डारी की जय! अपने-अपने गुरू महाराज की जय।’’3
वे सत्संग करते हैं, भभूत मलकर नहाते हैं। भगवत भगत बनाते हैं और अपना एक ’अस्थान’ भी बनाते हैं। सिरपर जटाजूट बिखरी रहती हैं या पंचकेश में परिवर्तित होती है। माथे पर तिलक होता है। वे आपस में मिलते हं। तो अखाड़े के नाम से पहचाने जाते हैं।
’’सन्तजी का नाम और अखाड़ा द्वारा कौन-सा है। ’’संसार परब्रह्म परमात्मा का, सम्प्रदाय गादी महाराज का आर्शीर्वाद गुरू महाराज का साधु-समाज और इन सबका दिया हुआ मेरा नाम श्री ओमदास है।’’
’’आदि आचार्य महाराज के सम्प्रदाय में दादा गुरू एक हजार आठ श्री श्री गंगादास जी महाराज के शिष्य श्री श्री एक सौ आठ श्री प्रयागदास महाराज ही हमारे गुरू महाराज हैं। अखाड़ा द्वारा राजस्थान है - महाराज’’
ठीक से उत्तर पाकर महन्त ने समझ लिया कि साधु टकसाली है खड़िया नहीं है।’’4
मुखिया को महन्त कहा जाता था। यह केवल कोपीन पहनते थे सारा बदन उधारा रहता था। वे मंदिर की परिक्रमा लगाते पं. गति में भोजन करते थे। महन्त के कमरे के आगे किसी का हँस-हँसकर बात करना अभद्र तरीका माना जाता है जो साधु की मर्यादा के विरूद्ध है। शिष्य बनने के लिये भी लाख जतन करने पड़ते हैं। गुरू परीक्षा भी लेता है ’’सिद्धान्त पटल मे बताई प्रक्रिया से शिष्य बनाया जाता है अर्थात् दक्षकर्ण वेदमन्त्र गिवारं पूर्णमानसः। मन्त्रार्थ मन्त्र बीज वेतराड़ भित स्वर फला दिवम्।’’ सबसे पहले आसन जमाना सिखाया जाता है। आसन रखते समय मंत्र बोला जाता है -
’’ओम भूरभुवः स्वः कूर्माय नमः।’’
पृथ्वी की प्रार्थना करते समय उन्होंने मंत्र रटा - ’ओम पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना घृतां त्वं व धारण्य मां देवि पवित्रं कुरू चासनम्।’’
दीक्षा लेने के उपरान्त शिष्य की दिनचर्या एवं क्रियाकलाप परिवर्तित हो जाता है शिष्य को गुप्त गुरू नया नाम भी देता है। गुरू ने वेश समझाया, कमण्डल का आकार, कोपीन का तरीका, तिलक छप्पों का रहस्य, भी समझाया। साधु और खड़िया साधु के गुप्त भेद भी सिखाए।5
कुछ लोग गुरूवार का व्रत (डूबते जलपान) करते हैं तो कुछ नवरात्रि (विसात) का व्रत करते हैं, मंदिर दर्ष न करते हैं, प्रवचन भी सुनते हैं (लौट आओ सुखजिंदर)। मंगलवार और शनिवार को सुन्दरकाण्ड के वाचन की भी परम्परा है। पंडित गायन करक सुन्दरकाण्ड का पाठ करता है इसके लिये नयीधुन भी तैयार करता है जो नये प्रचलित गानों पर आधारित होती है (कुपच)। मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है कथा-भागवत भी होती है जिसमें आज के लोग जिजमान पंडित से ही पूजा का स्थान लिपवाते हैं, चौक पुराते हैं और उसी से आंटे की पंजीरी भी भुनवाते हैं। चावल, कपड़ा, नारियल सवा रूपया दक्षिणा में मिलता है और खाने के नाम पर एक थाली में सजा के आटा, दाल, गुड़, नमक, एक चम्मच घी का ’सीधा’ दिया जाता है।’’6
अपने-अपने क्षेत्र विशेष के प्रभाव के कारण तीज - त्यौहार मनाने के ढंग में अन्तर रहता है। सभी अपनी-अपनी रीति से उन्हें मनाते हैं। हमारे यहॉं तीज त्यौहार शुरू से ही उत्साह और उल्लास पूर्वक मनाये जाते है। हरियाली अमावस को सबका न्यौता होता है (इज्जत आबरू)। मालवा के कई त्यौहार उनकी कहानियों में मिलते हैं। पर्व एवं उत्सव व्यक्ति में उल्लास और उत्साह पैदा करते हैं। राखी बंधने के पूर्व श्रावणी पूजा होती है। पूजा के बाद ही राखी बंधना शुरू हो पाती है।
’’रक्षा बंधन का पर्व था उस दिन.......बारह बजे पड़ोस के मंदिर में श्रावणी पूजा निबटी थी। ग्यारह बजे से टिंकू वही पूजा देखता रहा था। दोंना पत्तल सामने रखकर दास-बारह पंडित बैठे थे। सबके हाथों में कुश की अजीब सी अॅंगूठी थी और उघारे बदन पर मोटे-मोटे जनेऊ टंगे थे। बांए कंधे से लेकर दांईं तरफ कमर तक झूलते हुए। पूजा की सामग्री में चंदन, अक्षत, फूल, राख, गोबर, गोमूत्र, गोदूध से लेकर घी और असली शहद तक शामिल था। पूजा के अंत में बांटा गया पंचामृत पिया, तो बड़ा अच्छा लगा पर पंचगवा पिया तो मुँुह का स्वाद विगड़ गया पूछने पर पता लगा कि गोमूत्र, गोबर, दूध, दही और घी का सम्मिश्रण था वह।’’7
दीवाली पर रात्रि में सबके यहॉं पूजा होती है लेकिन गाँव में दूसरे दिन भी उत्सव का माहौल होता है ढोर-डंगर जो उनके जीवन के साथी हैं उनकी उदर-पूर्ति के सहारे हैं उनको भी वे इस पर्व में सम्मिलित करते हैं। वे उनको बढ़िया तरीके से रंगों से सजाते हैं।
’’दिवाली के दूसरे दिन की बात है किसानों ने अपने-अपने ढोर रात को खूब सजाए थे। सींगों और खुरों में वार्निश करके, ढोरों के बदन पर रंग-बिरंगे हाथ उछार दिए थे। मोर पंखके बने मौहर, हार और गिरमा बॉंध के लोग स्कूल के चौगान में ढोर छोड़ने पहुँच रहे थे, कि ऊधमसिंह ने सबको रूकने का संकेत किया। लोग फुरसत में थे, जो रूक गए सजे-सॅवरे ढोरों की एक-दूसरे से खिलकौरी करते देखने लगे।’’8
समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह एक संस्था है रीति के अनुसार एक परम्परा जिसमें कई रस्मों का निर्वाह होता है। लड़का - लड़की देखने, पसन्द करने और उसे पक्का करने से शादी की रस्म शुरू हो जाती है पक्का करने को कुछ लोग ’रोकना’ भी कहते हैं। इसका तात्पर्य है विवाह हेतु वर वधू का चुना जाना दोनों को विवाह हेतु एक दूसरे को रोक कर रखना शादी की तारीख तय करना। जिसमें वर पक्ष को रूपये कपड़े दियेे जाते हैं और वधु को वर पक्ष से कपड़े, मिठाई व गहने मिलते हैं।
’’विपिन और उसके जीजाजी शादी की तारीख तय करके ही लौटे थे। रस्म के मुताबिक दिवा को विपिन की दीदी ने साड़ी - ब्लाउज के साथ सोने की एक चेन और मिठाई भेंट की थी। तब मम्मी ने दीदी के पैर छुआए थे उससे.......’’9
विवाह रस्मों, रीति एवं परम्पराओं का पुंज है। विवाह की अपनी उमंग एवं उत्साह होता है। कई सपनों का साकार रूप में परिणत होना होता है उस समय व्यूटीशियन केन्द्र नहीं हुआ करते थे इसलिये सौन्दर्य में निखार के लिये हल्दी का उवटन किया जाता था ताकि त्वचा में चमक और गोरा पन आये। आज भी इन परम्पराओं का निर्वाह होता है। इन अवसरों पर नाचना, गाना-बजाना होता है। अपने दैनिक क्रियाकलापों की चिन्ता को छोड़कर महिलायें उमंग और उत्साह में नाचती और गाती हैं। रात्रि में दुलहिन को मेंहदी लगाती हैं उस रात जागरण होता है। उसे रतजगा कहते हैं और हल्दी लगने वाले दिन को मांगर कहा जाता है।
’’घर में ब्याह के काम-काज शुरू हुए तो वह भी सबके बीच बैठकर खूब गाती, ढोलक बजाती और कभी-कभी नाचती थी। रतजगा हुआ और उसने बड़े चाव से मेंहदी रचाई। मांगर के दिन सारे शरीर पर हल्दी, तेल का लेपन कराया.......10
शादी में एक परम्परा होती है ’भात’ पहनने की जिसमें वर या वधु की माँ का भाई अपनी बहन बहनेऊ एवं पूरे परिवार के लिए कपड़े लाता है। इस परंपरा में भावनात्मक जुड़ाव भी होता है। इस अवसर पर ’भतैया’ यानि भाई के लिए गीत गाए जाते हैं जिसमें माँ के मायके पक्ष का प्रतिनिधित्व होता है। लड़की की भाभी, सखी या उसकी हमउम्र रिश्तेदार महिला लड़की को मानसिक स्तर पर भी विवाह हेतु तैयार करती हैं विवाह के वाद की रस्में जो ससुराल में होना है उनके बारे में पूर्व ज्ञान देती हैं-’’ हल्दी तेल चढ़े हुए भी उसने नैथारिन औरतों के बीच बैठकर गाया था-
’’तुरतई आते हुई हैं भतैया
गाड़ी से आते हुई हैं भतैया
’भतैया’ यानी मामा के आने के बाद जयपुर बाली मामी ने उसे अपने संरक्षण में लिया था और शुरू हो गया था उसका जरूरी प्रशिक्षण।’’11
विवाह में रात-रात भर गाना बजाना चलता है। बन्ने बन्नी गाये जाते हैं। दादरे भी गाये जाते हैं जिन्हें कुछ स्थानों पर ’ख्याल’ गाना भी कहा जाता है। ढोलक आदि बजती हैं, महिलायें नाचती हैं।
’’रात के ग्यारह बजे हैं, पड़ोस में शादी है शायद वही औरतें पूरे लालित्य के साथ गा रही हैं। ढोलक बज रही है। सबके सम्मिलित स्वरों से निकला गीत यहाँ तक खूब सुनाई दे रहा है।
’’बालापन की प्रीत सखी री,
बड़ी रंगीली होय,
सखी री बड़ी रसीली होय’’ 12
बारात का आगमन होता है तो वधू पक्ष उनकी अगवानी करता है और एक स्थान पर ठहराता है जिसे जनवासा, या बराती डेरा (मृगछलना) कहा जाता है। वधू वर के चहरे पर चावलों को फेंकने की रस्म अदा करती है। मालवा में यों कहें ग्वालियर संभाग में ’मंडवा मारने ’ की परम्परा है। मड़वा (लकड़ी का बना हुआ) को जमीन में गाढ़ा जाता है और उसके ऊपर आच्छादन भी किया जाता है यह एक रीति के अनुसार होता है उसी मढ़वे के चारों ओर घूमकर वर वधू फेरे लेते हैं। बारात आगमन के पूर्व दूल्हा अपने कुछ साथियों के साथ उस मण्डपाच्छादन पर वीजना(पंखा) फेंकने जाता है तभी वधू उसके मुख पर चावल फेंकती है ’’टीका के वक्त दूल्हा बने दिवेश भैया जब ’मंडवा मारने’ अपनी ससुराल के आँगन में प्रविष्ट हुए तो परेश भी कौतूहलवश उनके साथ चला गया था। मंडप के नीचे आँखें मूँदे दुल्हन बनी खड़ी क्षमा भाभी ने ’मंडप’ पर बीजना (बाँस का पंखा) फेंकते दिवेश भैया पर अछत उछाले थे,.............. ।13
’’बाद में वरमाला होती है (मृगछलना) और वधू के मामा अभिनंदन पत्र पड़ते हैं।
’’पति के’’ गले में वरमाला डालते हुए भी उसका साहस ऊपर देखने का नहीं हुआ था। मामा ने ऊँचे गले से अभिनंदन पत्र पड़ा था।’’14
कभी-कभी ऐसे समय चुहलबाजी भी होती हैं। बाद में जयमाला लिए भाभी को संभालती मधु मंच की ओर आती दिखी तो परेश लपककर दिवेश भैया के पास जा खड़ा हुआ था। भाभी के साथ ही मधु भी मंच पर चढ़ आयी थी’ ....दूल्हा दुलहिन ने परस्पर मालाएँ पहनाईं और तालियाँ बज ही रही थीं कि दिवेश भैया के एक मित्र ने चिल्लाकर उसे सम्बोधित किया - परेश तू तू भी पहना दे यार वरमाला उस पीछे वाली को।’’15
वर बधू द्वारा सात वचनों का संकल्प लिया जाता है जिसे ’सात फेरे सात वचन’’ कहा जाता है। फिर अन्तिम रस्म विदाई की होती है जिसमें मुहूर्त के अनुसार भाँवर यानि फेरे होते हैं साथ ही वधू को बधूपक्ष रोते हुए। ससुराल के लिये विदा करता है क्योंकि विवाह के बाद बेटी ससुराल की हो जाती है उस पर मायके के अधिकार समाप्त हो जाते हैं। वधू भी रोती है उसे दुःख होता है अपने परिवारजन को छोड़ने का।
’’रात को तनाव के माहौल में ही फेरे हुए। सात-पॉंच वचन हुए अलसुबह बारात विदा होने लगी। उसने डोली में बैठते समय अपने पापा को बिलखते देखा था। छोटी को सुबकते और मम्मी व मामी को दहाड़े मारकर रोते देख उसका कलेजा मँुह को आने लगा था। वह निरंतर रोती रही थी।’’16
निमाड़ के वघेली आदिवासियों में भगोरिया मेला लगता है। इस मेले में तरह-तरह की दुकानें लगती हैं और आदिवासी महिलाएँ सजी-संवरीं श्रृंगार का सामान खरीदती हैं। फागुन माह में यह मेला लगता है जो बसंत उत्सव के समान होता है। ’’भगोरिया माने............माने...........ये कहें कि आदिवासियों का बसंतोत्सव। फागुन के महीने में हर साल गाँव-गाँव में मनाया जाता है भगोरिया। होली का डांड़ा गढ़ा नहीं कि भगोरिया चालू हो जाते हैं इस अंचल में। जिस गाँव में जिस दिन की हाट हो उसी दिन वहाँ का भगोरिया मेला तय रहता है अपने आप।’’17
भगोरिया मेले में आदिवासियों के विवाह की प्रक्रिया चलती है। इस मेले में लड़की लड़के के साथ भाग जाती है जो उनके यहाँ विवाह की परंपरा में शामिल है। तब लड़की का पिता लड़के वालों के यहाँ झूठ-मूठ की लड़ाई करने जाता है जो वहाँ की रीति के अनुरूप है तत्पश्चात लड़की लड़के का विवाह कर दिया जाता है-
’’साहब मेरी छोकरी भाग गई कल के भगोरिया मेले में.............उधर के गाँव का एक लड़का भी घर से भागा है। ऐसा पता लगा है कि दोनों साथ-साथ.............।’’
’’तुम मेरे साथ चलो’’
तब तुलसा कहता है मेरे विरादरी वाले मुझे जाति से बाहर कर देंगे मैं ऐसा नहीं कर सकता।
’’अरे ये कैसा रिवाज है तुम्हारी विरादरी का।’’ वे चकित थे।
’’हमारे इधर ऐसा ही चलता है साहब! ऐसे ही शादी-ब्याह होते हैं हमारे यहाँ।’’
’’तो तुम क्या करोगे अब?’’
’’उस लड़के के बाप के साथ लड़ाई-झगड़ा करने जाना होगा।’’18
विवाह दो शरीर ही नहीं आत्माओं के मेल का नाम है। वधू जब ससुराल आती है कई रीति-परम्पराओं और रस्मों को पूरा करती है अन्त में रात्रि में उनका ’पलंग पूजन’ भी होता है जिसे कुछ स्थानों पर ’सुहागरात’ का नाम दिया जाता है। पहले यह वह रात हुआ करती थी जब दूल्हा-दुल्हन का परस्पर परिचय होता था, दोनों एक-दूसरे को देखते थे। माँ-बाप एवं रिश्तेदारों द्वारा विवाह तय कर दिया जाता था और वर वधु का एक-दूसरे से परिचय ज्ञान नहीं होता था। वे एक दूसरे में अनभिज्ञ रहते थे। वर या वधू हम उम्र और सुंदर होने पर वर-वधू को खुशी होती थी यदि यही स्थिति विपरीत हो तो विवाह का उल्लास खत्म हो जाता है और जीवन में विषाद की काली छाया मँडराने लगती है।
’’फिर आया था उसके जीवन का बहुप्रतीक्षित क्षण, जब उसके पति विशन दरवाजा ठेलकर उसके कमरे में प्रविष्ट हुए थे। वह अचकचाकर उठ बैठी थी सेहरे में छिपा चेहरा अब उसके सामने था और कनखियों से देखने की लालसा जैसे एक झटके के साथ समाप्त हो गयी थी। दूल्हे के कपड़े पहने जो व्यक्ति अंदर आया था, उसकी उम्र किसी भी हालत में चालीस से कम नहीं थी। कनपटियों के ऊपर सफेद वालों का गुच्छा दूर से ही चमक रहा था। चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और पतले हाथोें पर उभरी नसें, कामदा के मन में ऐसा भीषण आघात हुआ कि उसके मन में बैठी वह मृदुल, कमनीय मूर्ति खण्डित हो गयी जिसे उसने सहेलियों के बीच बैठकर बड़े जतन से बनाकर अपने भीतर विराजित किया था।’’19
विवाह के बाद दुल्हन द्वारा ससुराल में प्रथम बार भोजन बनवाया जाता है उसे ’चूल्हा छुआना’ कहा जाता है, कई जगह ’रसोई बनाना’ भी कहा जाता है। शादी के कुछ दिन बाद ही यह परम्परा निभाई जाती है और फिर शुरू हो जाता है नई नवेली का रसोई में प्रवेश और भोजन पकाने के काम में वह निरन्तर जुट जाती हैं।
’’शादी के चौथे दिन ही उस रसोई की राह दिखा दी गई जहाँ प्रविष्ट होते समय वह अपनी मम्मी को बेतहाशा याद करती रही थी, जिन्होंने स्त्रियोचित दूरगामी दृष्टि से दिवा को कच्चा-पक्का खाना बनाना सिखा ही दिया था। वह किसी तरह रसाईघर के मोर्चे पर भी अपरास्त हो, भिड़ गई थी चूल्हे - चक्की सेे.........’’20
बच्चे के पैदा होने से लेकर मृत्यु के उपरान्त तक जीवन में कई संस्कारों का निर्वाह होता है। ये संस्कार अपने-अपने क्षेत्र विशेष और स्तर के अनुसार होता है। मृत्यु के उपरान्त उसे जलाने की प्रक्रिया गाँव में ’’किरिया’’ (क्रियाकर्म) कही जाती है और जलाना ’लकड़ी देना’ कहा जाता है। उसमें सब लोग बैर भाव भूलकर उसे अन्तिम विदाई देने जाते हैं।
’’..........तोफान ने बताया कि गाँव के सब दोस्त-दुश्मन लकड़ी में शामिल थे। अब भी रोज आते हैं। बड़े भाई पहलवान सिंह पिता की किरिया कर रहे हैं। सो छोटे (तोफान) को मँझले के पास भेजा है, मदद के वास्ते.........।’’21
व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त उसकी शेष हड्डियों को ’फूल’ के रूप में किसी नदी या पवित्र स्थान पर सिराने की प्रक्रिया होती है। मृत व्यक्ति की चिता को अग्नि देने वाला पुरूष तथा घर के अन्य लोग साथ जाकर इस रीति को पूर्ण करते हैं। कुछ लोग तीसरे दिन या अच्छा दिन देखकर इस कार्य को पूर्ण करते हैं। कुछ लोग श्मशान घाट से हड्डियों को ले तो आते हैं और मंदिर के किसी पेड़ पर टांग देते हैं। रीति के अनुसार चौथे दिन उन्हें पवित्र तीर्थ स्थली नदी में सिराने ले जाते हैं। कुछ जगह वाद में तेरहवीं के उपरान्त भी उसे सिराने (बहाने) जाते हैं।’’
’’.............कक्का के फूल सिराने के काजे प्रयागराज भिजवाए?’’
’’अबें तो मंदर वारे पीपर पर घर दिए हैं। हम नुकता से निपट जाएँ तो फिर प्रागराज भी जै हैं।’’
’’बाद का रट्टा मत रखियो यार। अभी ही चले जाओ तुम।’’22
मृत व्यक्ति के परिवार में अग्नि देने वाला तथा परिवार के अन्य पुरूष सिर के बाल समर्पित करते हैं। सिर घुटवा लिया जाता है। नुकता (तेरहवीं, गंगापूजन) भी किया जाता है जिसमें भोज का आयोजन होता है इसे गंग भोज या ब्रह्मभोज भी कहते हैं। इसके लिये शोकपत्र बनाया जाता है और दूर दराज पहुँचाया जाता है। गाँव में इस प्रकार की चिट्ठियाँ लिखी जाता थीं ’’सिधसिरी राजकीय राजमान सरबोपमा लायक ठाकुर महीपसिंह, बाबूसिंह भुजबल सिंह की जोग लिखी।
बरखेड़ा से पटेल पहलवान सिंह, तोफानसिंह की राम-राम बचनों जी।
आगे ईश्वर को कोप भयो सो हमारे पूज्य पिताजी धरमसिंह को स्वर्गवास रविवार सुदी.............एकम को हो गया। उनके खर्च की रसोई सुदी तेरह दिन शुक्रवार को चढ़ेगी ’गंग भोज’ और ’ब्रह्मभोज’ चौदस दिन शनिवार को होवेंगा। सो जानियो जी।
कक्का ने नुकता (तेरही) की चिट्ठी थी यह।.....’’23
व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त परिवारजन दुःख में ही न डूबे रहे इसलिये गरूड़ पुराण बाँचने की परम्परा है। मृत व्यक्ति के चेटका पर भी दिया जलाया जाता है। परिवार में तथा कुटुम्ब में ’सूतक’ चलता है जिसके तहत बाहरी व्यक्ति से स्पर्ष हो जाने पर बाहरी व्यक्ति नहाता है। शुभ कार्य नहीं होते ।
’’....................भुजबल ने उसे छुआ तो वह अपने आप में सिकुड़ सा गया और सहमता - सा बोला, ’’हमारे इते सूतक चल रहो है। हल्के भैया। तिमने हमें छीलयों अब गंगाजल मिला के नहाइयों।’’
.............धरमसिंह कक्का बस अकेले तुम्हारे थे क्या? हमारे घर में पिताजी के बाद वे ही तो बुजुर्ग थे। हम भी तो उनके ही सहारे थे। बे चले गये तो हमारे इते भी सूतक है।24
समाज में संस्कारगत जड़ता मानव - मस्तिष्क में गहरे तक पैठी है। रीति रिवाज एवं परम्पराएँ समय और आवश्यकतानुसार बनायी गयी थी। जिनकी प्रासंगिकता समय के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। परम्परानुसार व्यक्ति की मृत्यु उपरान्त ’गंगभोज’ कराना आवश्यक होता है। यह इतना अधिक आवश्यक बन जाता है कि सामर्थ्य और रूपये पैसे न होने पर भी व्यक्ति कर्ज लेकर इस कार्य को पूरा करता है और बह यह सब न भी सोचे तो समाज, गाँव, बिरादरी और परिवार के लोग ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। लोगों की धारणा है कि क्रियाकर्म और तेरहवी का पुण्यफल परलोक तक साथ जाता है।
’’देखो भैया महतारी बाप तो ब्रह्मा विरंचि के लिखे सम्बंध हैं। ओर दुनिया चाहे फिर मिल जाए, महतारी-बाप बार-बार नहीं मिलते। अब आखिरी संस्कार बचो है उनको। परलोक में यही साथ जाएगो।25
’’.............तेरहवीं करना गाँव में प्रतिष्ठा का पर्याय बन चुकी है। जो जितने अधिक दिखावे के साथ, बड़ी जनसंख्या में भोज करवायेगा उसे उतना ही श्रेष्ठ समझा जायेगा। उसमें भी शान होती है। ऐसा दिखावा सामर्थ्य न होने के बाद भी दिखाया जाता है चाहे उसमें जमीन-जायदाद ही दाँव पर क्यों न लग जाये।
’’.................रूपया पैसों की फिकर मत करो, सब करवा लेंगे। पर सारे रिस्तेदार और बिरादरी के लोग याद करते रह जाएँ, ऐसा नुकता होना चाहिए कक्का को। आखिर चार गाँव में जस रहो उनको। कक्का को नाम.........न डूब जाए ध्यान रखनो है हम लोगन को। रह गई रूपया-पैसा की बात तो मदद के लाने तुम्हारे जान-पहचान वाले हैं, यार-दोस्त हैं। न हो तो हमारे भी दोस्त हैं, रिश्तेदार हैं.........कहीं न ...कहीं से इन्तजाम हो जाएगो।’’26
किवदंतियों के अनुसार चार पुत्र होने पर अर्थी को चार पुत्रों का कंधा मिल जाता है। तात्पर्य यह कि पुत्र की सेवा भी प्राप्त होती है । पुत्र आदि एक ही है तो उसकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। पुत्र माता-पिता की सेवा करता है। डूबते जलयान का बिपिन अपने पिता के बीमार होने पर उनकी सेवा सुश्रूषा करता है-
बाबूजी पर लकवे का दूसरा हमलां हुआ। फिर तो बिपिन प्राणपण से उनकी खिदमत में जुट पड़ा था। टैक्सी करके वह फिर इन्दौर भागा था और बाबूजी को भर्ती करा दिया था।
.........बाबूजी के हाथ-पॉव हिलाने के लिए कुछ एक्सर साइज भर उन्होंने बताई थीं। किंकर्तव्यविमूढ़ बिपिन दिन-रात बाबूजी की परिचर्या में व्यस्त रहने लगा था।’’27
भलमानसाहत और मानवीयता अभी भी लोगों में है। राह चलते सड़क पर किसी का लड़ाई-झगड़ा हो, किसी का मर्डर हो, या कोई घायल हो जाये किसी को उसके मामले में पड़ने की फुर्सत नहीं है। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरो की भलाई के लिये ही जीते हैं। इसमें धर्म और जाति भी आड़े नहीं आती। सद्भाव और भाई-चारे के रूप में टीका बब्बा जी जीती जागती मिसाल थे।
’’...........जाकिर भाई की पतोहू की डिलेवरी बिगड़ जाने पर रात ढाई बजे बिना बुलाए अपना तांगा जोतकर वे ही खुद जा पहुँचे थे। और पतोहू को तांगे में डालकर दौड़ाते हुए सरकारी अस्पताल ले गए थे। इस रात वे वहाँ से हिले तक नहीं और जब पता लगा कि बच्चा जच्चा ठीक है, तो सुबह जाकर ही वे अपनी कोठरी में लौटे और दिनभर सोते रहे। जाकिर भाई के बहनोई शरीफ मियाँ की मिट्टी को एक्सीडेंट के बाद वे ही तो अपने तांगे में डालकर लाए थे। दीना भइया की बिटिया के ब्याह में टीका बब्बा ने अपना ताँगा ही गिरवी रख दिया था और बाद में जाकर किश्त-किश्त चुकाकर वापस उठाया था।.............’’28
पिता के भोजन न करने पर बच्चे भूखे रहते हैं उनकी प्रतीक्षा करते हैं। पुत्र भी भोजन के लिये पिता को दुकान से लेने के लिये आता है। पारिवारिक प्यार और स्नेह वृद्धावस्था में बुजुर्गों के जीने के सहारे होते हैं।
’’आप तीन बजे तक खाना खाने घर नहीं लौटे तो पूरा घर परशान हो उठा है। वहाँ किसी ने खाना नहीं खाया है।
सुनकर पुलकित हो उठे थे वे। पूरा घर उनकी चिंता करता है, ये क्या कम बात है। यही तो उनकी सबसे बड़ी दौलत है। आपसी प्यार और चाहत ही तो चाहते रहे हैं वे अपने घर में। एक खुशनसीब घर को सबसे बड़ी जरूरत इसी की है.......’’29
मानवीयता लोगों के दिलों में है यही कारण है कि संसार में दुःखी व पीड़ित लोगों को मसीहा मिल जाते हैं। भिखारिन बुढ़िया का एक्सीडेंट होने पर ऑटो रिक्शा वाला अस्पताल ले आया और मार्केट में फोन कर दिया जिससे व्यापारी एकत्रित हो गये ताकि उसका इलाज हो सके।
ईमानदारी आज विलुप्त होती जा रही है। अच्छी पोस्ट पर पहुँचने के बाद व्यक्ति रिश्वत में लिप्त हो जाता है। कुछ पदों पर तो व्यक्ति इसलिये ही पहुँचता है कि वह ’कमाई’ कर सके। उसके परिवार वाले भी यही अपेक्षा रखते हैं। पर व्यक्ति यदि दृृढ़ संकल्पित हो जाये तो वह कदापि रिश्वत नहीं लेगा।
’’उन्होने एक कठोर निर्णय कर डाला था वे कभी भी रिश्वत नहीं लेंगे। हर बार होने वाले भुगतान के पहले उनके मन में द्वन्द्व शुरू हो जाता। वे रिश्वत लेने के मुद्दे पर अपने आप से भिड़ते रात-रातभर सोचते। बहन के बारे में सोचते। भाई की इच्छाओं के विषय में विचार करते। लेकिन यह न स्वीकार पाते कि वे लोगों के जीवन से खिलवाड़ करना शुरू कर दें।30
व्यक्ति यदि सरकारी कर्मचारी हो तो उसके लिये वेतन ही पर्याप्त होना चाहिये। अपने कर्तव्य में लापरवाही करना या काम में लायी जाने वाली सामग्री का कम प्रयोग करना सरकार के प्रति गद्दारी होती है। सरकारी धन की बर्बादी रोकना व्यक्ति का फर्ज होता है।
..............’’सरकारी पैसा बीच में खा जाना तो विष्टा खाना है। अरे भाई मस्टर खोला जाता है, जनता ने जरूरी दान के लिये, सुरक्षा के लिये और हम उसे बीच में ही गायब करदें, तो विष्टा खाना नहीं हुआ? भाई सरकार हमें तनख्वाह देती है, हमारी मालिक है, हमारा परिवार पालती है। हम उससे कैसे गद्दारी कर दें।31
आदिवासी तबके में अपनी अलग परम्परा व रीति होती है। भगोरिया मेले में आदिवासी समूह रूप में ढोल बजाते हुए नाचते गाते हैं। जो सबसे ऊँचा सुर लगता है वह उस समूह का मांदर (मांदल) होता है। उनका नृत्य अपनी अलग पहचान रखता है।
’’बदन में लाल रंग की कमीज और कमर के नीचे घुटनों तक बदन को ढकने के लिए धोती या गर्म शॉल लपेटे वे लोग मस्ती से सरावोर थे। नृत्य के नाम पर वे सब अपनी गरदन को दायें-बायें हिलाते हुए, कमर थिरकाते हल्के-हल्के उछाल-सी भर रहे थे।’’32
वे लोग अपनी परंपरा के गीत भी गा रहे थे-
’’कालिया खेत में डोंगली चुगदी/बिजले नारो डोंगली का रूपालो, डुरू/डुरू..../डुरू.....। सरपंच ने अर्थ समझाया यह झुंड कह रहा है कि हमने अपने काली मिट्टी वाले खेत में प्याज बोई है प्याज अब पक चुकी है और उसके पौधे का फूल काले खेत में ऐसी चमक मार रहा है जैसे आसमान में तारा।
दूसरे युवा समूह ने पहले समूह के गीत के खत्म होते ही नया गीत उठा लिया था-
’’अमु काका बाबा न पोरया रे, अमी डला डम/अमु मामा फूफा ना पोरया ने अमी डला डम/अमी डला डम।..........ओ डलियो खिलाडु डालियो/खिलाडुओ डामियो खिलाडुओ डामियो खिालडु ओ डम। बिना पूछे सरपंच ने बताया आदिवासी किशोेर किशोरियाँ कह रही हैं कि हम काका ताऊ और मामा फूफा के बच्चे हैं सब मिलजुल कर खेलेंगे।’’33
बच्चे के बड़े होने पर भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है जो शादी के महोत्सव से कम नहीं होता और जनेऊ संस्कार विवाह से कम तर नहीं होता इसमें हवन आदि किए जाते हैं-
’’.........रिटायर्ड प्रो. का बेटा अपने पुत्र का शास्त्रीय विधि विधान से यज्ञोपवीत करा रहा था, और कहता था कि हमारी परंपराओं के मुताबिक यज्ञोपवीत यानि जनेऊ का महत्व है, जनेऊ बोले तो धूम-धाम से की गई वह सार्वजनिक मुनादी के हमारा बेटा विवाह योग्य हो गया........आम के हरे पत्तों से आच्छादित किए गए मंडप के नीचे वाकायदा तीन यज्ञ वेदियाँ बनाकर बचपन, युवा अवस्था और वृद्धावस्था के लिए हवन किए जाते हैं, बालक का मुंडन होता है और वह अपने अभिभावकों से मोह तोड़कर वटुक वेश में भिक्षाटन करता है।’’34
इस दिन गाने गाए जाते हैं सजावट होती है और लोकगीत भी गाए जाते हैं-
’’आज दिन सोने को महाराज!
सोने को सब दिन, सोने की रातें
सोने को कलश धराये महाराज! आज दिन....?35
डाकू अपने बिजातीय लोगों की पकड़ करते हैं इसलिए अपहरण करते समय वे उनके नाम व जाति की पूछताछ करते हैं। यहाँ तक कि पुलिस वाले भी ऐसी जाति के व्यक्ति को मुखविर बनाते हैं जो डाकू की जाति का नहीं होता है-
’’लोग अपनी जाति-विरादरी और गाँव का नाम बताने लगे, गिरराज ने गौर किया की सवारी जब अपनी जाति बताती तो घोसी, गड़रिया, कोरी, कड़ेरा, नरवरिया और रैकवार सुनकर कृपाराम चुप रह जाता था लेकिन वामन-ठाकुर या कोई दूसरी जाति का आदमी पाता तो वह एक ही वाक्य वोलता था, ’’तू उतें बैठ मादर.........’’36
डाकू की आल्हाखण्ड देवी माँ में अधिक होती है वे हर साँझ विना नागा के देवी मैया की आरती उतारते थे। डाकू आलहखण्ड सुनने के शौकीन होते थे पर कभी-कभी फ़िल्मी गीतों मेंं भी रूचि लेते थे। वे कैसेट व प्लेयर साथ में रखते थे और शराब पीकर उन धुनों पर नाचते भी थे।
वे जिस गाँव में जाते थे उस गाँव का मुखिया या सरपंच उनके भोजन की व्यवस्था कर देता था। दूसरे गाँव में पलायन करने के पूर्व ही उस गाँव को इत्तला कर दी जाती थी भोजन की व्यवस्था करने की जो उनका विशिष्ट व्यक्ति करता था। बीहड़ों में भूख लगने पर घी का लोंदा खा लेते थे और कच्चे आटे में घी और शक्कर मिलाकर लड्डू तैयार करते थे उसे वे कचोंदा का लड्डू कहते थे-
’’गेंहू के कच्चे आटे में शक्कर और घी मिलाके लड्डू बनाए, लल्ला ने पूछा तो श्याम बाबू ने बताया कि ये कचोंदा के लड्डू हैं। ये थे कचोंदा के लड्डू। उन लोगों ने पहली बार देखे थे यह। बागियों ने पाँच-पाँच, सात-सात लड्डू फटकारे, फिर पकड़ के लोगों को खाने का हुक्म दिया। गिरराज और लल्ला को भला कच्चा आटा कहाँ सुहाता? सो उन्होंने कचोंदा खाने से मना कर दिया, ठाकुर भी नटने लगे...........श्याम बाबू और अजयराम बिगड़ पड़े। उन दोनों ने छःहों लोगों को दो-दो लड्डू खाने को विवश किया।..........’’37
ईमानदारी, सच्चाई, नैतिकता आज भी समाज में देखने को मिलती है। सभी लोग इस प्रवृत्ति के नहीं हैं। कुछ लोग अपने नियम करम से चलते हैं। छात्रों को अपने नाम से पुस्तकें निकालते हैं जब वे वापस नहीं मिलती तो खुद ही भुगतान करते हैं। परीक्षाओं में नकल का विरोध करने वाले ’रविबाबू’ लड़कों से भयाक्रांत होने लगते हैं तब उनका ही विघार्थी उन्हें सत्य पर अडिग बने रहने को कहता है-
’’क्षमा करें सर अक्सर आपकी ही कही हुई बात को आज दुहरा रहा हूँ कि सच, भले ही दुनियाँ में हर जगह सरुक्षित नहीं है। उसे तोड़ा जाता है, आहत किया जाता है, लेकिन इतना तय है कि सच कभी दुनिया से पूरी तरह खत्म नहीं होता। कोई-न-कोई उसको बचाए रखता है।
.................मैं यह चाहता हूँ सर, कि आइन्दा भी ऐसी स्थितियों में, नितान्त अकेले, बिना आतंकित हुए, आप हमेशा सच की ऐसी ही हिफाजत करते रहें, ताकि मुझ जैसे कई लोगों को सच्चाई के कदमों पर इसी तरह झुकते रहने की प्रेरणा मिलती रह सके।’’38
छुआछूत समाज में विघमान थी। छोटी जाति के लोग चाय पीने के बाद स्वयं ही कप धोकर रखते हैं (बिसात) हरिजन लोग जब बस्ती में रहने आते हैं तो ब्राह्मण लोगों के माथे पर बल पड़ जाते है। वे अपने बच्चों को भी वहाँ न जाने की हिदायत देते हैं साथ ही उनसे दूरसे रहने की भी। उनके मन में भावना भरी है कि ’’लोग नीच वर्ण के हैं और हम उच्च वर्ण के हैं (कुपच)।
इन्दिरा गाँधी की हत्या के उपरान्त उस कौम से पूरा देश आक्रोशित तथा यह आक्रोश उन लोगों, की दुकानें जलाकर, लूटकर, व्यक्ति को मारकर व्यक्त हो रहा था।
लौट आओ सुखबिंदर में जातिवाद की लहर चलने के कारण दोस्त की दोस्ती कुर्बान चढ़ जाती है। दोस्त अपने साथी को बचाने का प्रयास करते हैं उसमें कोेर असर नहीं छोड़ते लेकिन शहर में चली आग से बच पाना मुश्किल था-
’’क्यों मरवा रहे हो इस मुन्डे को। यहाँ खुले में बिठा रखा है?.....मर जावेगा अभी, छिपादो कही। सिखों की तलाश में जुलूस घूम रहा है उधर, किसी ने कह दियां तो कतर के फेंक देेंगे। लोग इसे।’’
लेखक ने गुना क्षेत्र का वर्णन किया है। वहाँ की तहज़ीव संस्कृति एवं वहाँ के लोगों के बारे में बताया है। वहाँ के लोगों में भाईचारा एवं सौहार्द्र था। लोग एक-दूसरे की भलाई चाहते थे। मिल-जुलकर रहते थे।
’’....यहाँ के मेले-ठेले, तीज-त्यौहार बड़े अनूठे और आपसी प्रेम बढ़ाने वाले रहे हैं। खाने-पीने की चीजें निराली होती थी यहाँ की।.....39
लोग खादी का कुर्ता, चश्मा, ढीला-ढाला सूट पहनते थे। औरतें साड़िया, लहँगा चुनरी, घाघरा फरिया पहनती थीं। मिडी सूट, चांदी की पायलें, लच्छे, कड़े भी पहने जाते थे। क्लिीनर लड़का गन्दे कपड़े पहनता था पर दूसरे क्लीनर, कण्डेक्टर साफ सुथरे, नये डिजाइन के कपडे़ पहनते थे (गाड़ी भर जौंक)। पण्डित जी और उनका बेटा कुर्ता धोती (कुपच) पहनते। लोग दाड़ी व मूँछ भी रखते थे। कुछ साधु कोपीन धारण करते थे (साधु यह देश विराना), तो कुछ साधु अलग वेश धारण करते थे ’’माथे पर बड़े तिलक-त्रिपुंड लगाए, सफा चट सिर और मोटी चोटी वाले भैरों प्रसाद के बदन पर हमेशा की तरह बंडी और बिना धुले लट्ठा की धोती शोभायमान थी।40
लोग नाश्ते में पोहा, खाने में पूड़ी खीर भी खाते में सब्जी अचार पूड़ी-साग, महेरी भी खाते थे। कई प्रकार के रिश्ते होते थे। बहन बहनोइ, ननद भाभी, सास ससुर, देवर भाभी, जेठ-जिठानी, मामा की लड़की, बुआ की लड़की, दामाद आदि। इसी तरह संबोधन भी भाँति-भाँति के थे। ठाकुर साहब (गाड़ी भर जोंक) साहब (बुल्डोजर) साब औतार उस्ताद सिरकार (हवाई जहाज), हेतम की माँ, भैया, मँझले भैया, हल्के भैया, भौजी (बिसात), पटेल कक्का, चौधरी दाज्जू, दादा, परमा कक्का, लल्ली, गनेशा की बाई (इज्ज़त आबरू) लल्लू की माँ (कुपच), आदि बोले जाते थे। शहर के नाम के साथ संबोधन भी दिये जाते थे जैसे- बीजुरी वाली जीजी, बरोदिया वाली, मुंगावली वाली, टकनेरी वाली जीजी, सिरोंजवाली चाची (लवंगी)। जमील चच्चा, बुद्धा खवास, कल्लू उस्ताद, लक्ष्मण के दादा (जमील चच्चा) लक्ष्मण के दादा (गोस्टा) टीका बब्बा, जाकिर भाई, (उम्मीद), बहू, पिताजी (उजास) ब्रदर (हड़ताल जाती है) जैसे संबोधन का प्रयोग हुआ है।
रिश्ते सगे न हों तो भी धर्म के रिश्ते भी चलते है-’’सारी कॉलोनी में वह गर्व से अपनी सास को लिये-लिये फिरी। दो दिन में ही कॉलोनी की तमाम स्त्रियों की मुँहबोली सास बन जाने पर इठलाती पत्नी बोली थी- भाई हम न जैहें, अब गाँव, कित्ती सारी बहुरियाँ यहीं मिल गई हमको बैठे बिठाये।’’ (उजास) नमस्ते, पैरछूना, दण्डवत करना एवं मर्यादा पूर्ण व्यवहार करना भी शामिल है।
उनकी कहानियाँ में ग्राम्य परिवेश का बखूबी चित्रण हुआ है इसलिये ग्राम्य शब्द भी भरपूर हैं। चूल्हा, लकड़ी, कण्डा, तिपहरिया, खेतों में बखर, चौहद्दी, ओसारे, भुनसारा, पौर, चिट्ठी, तेवरस, बिंडा, पई-पाहुने, बड़ारी, आंतरे, कारूँ का खजाना, बŸाल, दैया, कलेऊ, ढोरन, बटिया, हार, बइयरें, निखन्नी आदि।
संदर्भ-सूची
3- राजनारायण बोहरे की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य
स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या
01- लौट आयो सुखजिंदर - इज्ज़त-आबरू- पृ.-114
02- वही- पृ. 114
03- साधु यह देश विराना - इज्ज़त-आबरू - पृ. 72
04- वही-पृ. 74
05- वही पृ.- 79-80
06- समय साक्षीे - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ -पृ. 89
07- हड़ताल - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ- पृ. - 39
08- गोस्टा- गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ- पृ. - 104
09- डूबते जलयान - इज्ज़त-आबरू - पृ.- 26
10- अपनी खातिर - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ -पृ.-78
11- वही -पृ- 79
12- वही पृ. - 78
13- मृृगछलना - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ- पृ. - 26
14- अपनी खातिर - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ - पृ.-80
15- मृगछलना - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ - पृ.-27
16- अपनी खातिर - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ - पृ.-78
17- चलन-समकालीन भारतीय साहित्य जुलाई, अगस्त-2008 - पृ. - 84
18- वही पृ. 81-82
19- अपनी खातिर-गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ-पृ....81
20- डूबते जलयान - इज्ज़त-आबरू-पृ.-27
21- बिसात - इज्ज़त-आबरू - पृ. - 67
22- वही- पृ. 70
23- वही- पृ. - 67
24- वही- पृ. - 70
25- वही- पृ. - 71
26- वही - पृ. - 70
27- डूबते जलयान-इज्जत-आबरू - पृ. - 29
28- उम्मीद - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ - पृ. - 55-56
29- जमील चच्चा - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ - पृ. - 51
30- आदत-इज्ज़त-आबरू- पृ.53
31- वही पृ.-48
32- चलन - समकालीन भारतीय साहित्य जुलाई-अगस्त-2008 पृ. - 85
33- वही पृ. - 85
34- इकलसूंगड़ा - कथादेश जून - 2007 पृ. -44
35- वही पृ. -44
36- मुहिम-हंस - नबंबर - 2007 पृ. - 36
37- वही पृ.- 40
38- भय-इज्जत-आबरू - पृ.-44
39- उम्मीद- गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ-पृ.-55
40- गोस्टा-गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ- पृ. 99
राजनारायण बोहरे
राजनारायण बोहरे का जन्म अशोकनगर में 20 सितम्बर 1959 को हुआ था। इनकी माँ का नाम श्रीमती रामबाई है तथा पिता का नाम श्री बद्रीनारायण जी बोहरे था। इन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि हिन्दी साहित्य में प्राप्त की तथा एल.एल.बी. भी किया। पत्रकारिता व जनसम्पर्क में स्नातक भी किया। वर्तमान में वे वाणिज्यिक कर अधिकारी है। अखिल भारतीय सारिका कहानी प्रतियोगिता में (1985) पुरस्कृत ’हवाई जहाज’ पहली कहानी थी।
कृतित्व - कहानी संग्रह
01- इज्ज़त आबरू
02- गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ
03-हादसा
04-मेरी प्रिय कथाएँ
उपन्यास- मुखबिर
बाल उपन्यास
01-बाली का बेटा
02- रानी का प्रेत
03- छावनी का नक्शा
04-रोबोट वाले लुटेरे
05-अंतरिक्ष मे डायनासौर
06-जादूगर जँकाल और सोनपरी
पुरस्कार-
01- चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट दिल्ली से 1994 से में 2009 तक कहानी पुरस्कृत हुयी।
02- जाह्नवी अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 1996 में कहानी ’भय’(25,000 रू. प्राप्त) पुरस्कृत।
03- मध्य-प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार गोस्टा तथा अन्य कहानियों पर प्राप्त हुआ।
04- साहित्य अकादमी द्वारा मध्य-प्रदेश का सुभद्राकुमार चौहान पुरस्कार प्राप्त हुआ।
उनके कृतित्व के संबंध में भारती दीक्षित ने अपने शोध ग्रन्थ ’ग्वालियर चंबल संभाग के कहानीकारों के नारी-पात्र’ में लिखा है-
’’राजनारायण बोहरे उन कथा - लेखकों में से हैं जिन्होंने अस्सी के दशक की समाप्ति के साथ लिखना प्रारम्भ किया और ताबड़तोड़ लिखने में न जुटकर आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक कहानी रचते रहे।43
भोपाल से प्रकाशित जागरण सिटी भोपाल में अमिताभ फरोग लिखते हैं-
’’राजनारायण बोहरे प्रदेश के उन नामचीन कहानीकारों में शुमार किए जाते हैं, जिन्होंने ग्रामीण परिवेश की जीवनशैली, विसंगतियों और खूबियों पर खूब कलम चलाई।44
बोहरे जी का व्यक्तित्व ग्राम्य परिवेश से सम्पृक्त सीधा सहज एवं सरल है जो उनके लेखन में भी झलकता है। वे जमीन से जुड़े लेखक हैं उनकी कहानियों में मिट्टी की सोंधी खुशबू, ग्राम्य जीवन एवं परिवेश तथा तत्संबंधी समस्यायें ली गई हैं। ’गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ के रैपर पर प्रकाशक की टिप्पणी समीचीन प्रतीत होती है-
’’बौद्धिक विविधता और सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभवों में व्यावहारिक संलग्नता से समग्र रूप में विकसित राजनारायण बोहरे का व्यक्तित्व उनके रचनात्मक लेखन में भी प्रतिबिम्बित होेता है। उनकी सूक्ष्म दृष्टि सामान्य या विशिष्ट किसी घटना या प्रसंग को बचकर नहीं निकलने देती। वह उसे अनुभूति के स्तर पर ग्रहण और विश्लेषित करते हैं और उसे अतर्क्य न रहने देकर उसके आशयों की टोह लेते हैं। यही कारण है कि इन कहानियों में अनुभवों का विशद आयतन भी है और संवेदना के घनत्व का संकेन्द्रण भी।
साथ ही इन कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ का दूसरा पक्ष भी है जिसमें बिखरते सम्बन्धों और निराशाजनक स्थितियों के बाद भी उनमें कहीं आत्मीय संस्पर्ष बचे रहते हैं। यही ’उम्मीद’ बनते हैं और ’उजास’ के प्रति हमें आशावान बनाते है। इन कहानियों में निहित करूणा स्वयं ही संयोजकता का कार्य करती है।
प्रवाहपूर्ण ’नैरेशन’ और प्रभावपूर्ण चित्रण के ताने-बाने पर बुनी इन कहानियों में पाठक को प्रत्यक्ष संवाद का भी अनुभव होता है और घटित के साक्षी होने की सीधी संपृक्ति भी।’’45
वे आम आदमी के लेखक हैं। समाज के आम आदमी की समस्यायें एवं सामाजिक सरोकार उनकी कहानियों में दिखाई देते हैं। कहानी संग्रह ’इज्ज़त आबरू’ के रैपर पर प्रकाशक की टिप्पणी इसमें सहमति व्यक्त करती हैं -
’’राजनारायण बोहरे ने खुद अपनी भाषा चुनी है और शिल्प का विस्तार किया है जिसमें उनकी मौलिकता झलकती है।
संग्रह की बारह कहानियों में बुंदेलखण्ड के गाँवों कस्बों का अनगढ़ व अनावृत जीवन है। समाज की विसंगतियाँ हैं, पीड़ाएँ हैं और विडम्बनाएँ भी। इन कहानियों में आम आदमी के जीवन का स्पन्दन और गहरी हलचल है। इन कहानियों के माध्यम से आम आदमी के आत्म-संघर्ष को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया गया है। उनमें अन्तर्व्याप्त करूणा और संवेदना आम आदमी की चिन्ताओं को गहरे सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ती है।’’46