झंझावात में चिड़िया - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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झंझावात में चिड़िया - 2

ये अपने आप में एक रिकॉर्ड ही था कि पंद्रह सोलह साल की उम्र का किशोर पहले किसी खेल का जूनियर राष्ट्रीय चैम्पियन बने और लगभग उसी साल खेल का सीनियर वर्ग का राष्ट्रीय चैम्पियन भी बन जाए।
अपने तूफ़ानी खेल से दर्शकों का लगातार दिल जीतने वाला प्रकाश एक दिन बैडमिंटन को उस मुकाम पर ले आया जहां उसे क्रिकेट के बाद नई पीढ़ी का सबसे पसंदीदा खेल समझा जाने लगा।
सात वर्ष के प्रकाश ने ये चमत्कार कोई एक दिन में नहीं कर दिया बल्कि उसकी लगातार तपस्या जैसी कड़ी मेहनत उसे इस मंज़िल की ओर लाई।
पहली बार जूनियर राज्य चैंपियनशिप टूर्नामेंट में सफ़ल न हो पाने का उस पर इतना गहरा असर हुआ कि सिर्फ़ दो साल के अंतराल के बाद वो कर्नाटक राज्य का जूनियर चैंपियन बना। उसकी आयु अभी कुल नौ साल की थी।
अपने खेल को अपना जीवन समझने का लक्ष्य लेकर चल रहा ये बालक जब अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करके बैंगलोर के प्रतिष्ठित विद्यालय में आया तो उसे एक नई समस्या से दो - चार होना पड़ा।
खूबसूरत प्रकाश ने स्वस्थ शरीर के साथ - साथ अच्छा ख़ासा लंबा कद भी निकाल लिया। इसका नतीजा ये हुआ कि अब उसके दर्शकों में लड़कों से ज़्यादा संख्या लड़कियों की रहने लगी।
चाहे स्कूल का मैदान हो या सुबह शाम क्लब का बैडमिंटन कोर्ट, उसका खेल देखने और उसकी हौसला अफजाई करने ख़ासे दर्शक जुटते। और इससे उस पर लगातार बेहतर खेलने का दबाव बनता। वो भी इसमें कोई कोताही नहीं बरतता और अपने खेल में निरंतर सुधार लाता। माता पिता के साथ ही भाई बहनों का सहयोग भी उसे मिलता रहता।
हर समय तो किसी को प्रतिद्वंदियों के रूप में बेहतरीन खिलाड़ी मिलते नहीं हैं, लेकिन वह जिसके साथ भी खेलता, उसे अपना गंभीर प्रतिस्पर्धी मान कर पूरी निष्ठा के साथ खेलता।
उसे अपने से बड़ी उम्र के खिलाड़ी मिलते और उन्हें हराना उसके आत्मविश्वास में और भी इज़ाफ़ा करता।
प्रकाश एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखता था जहां पिता लंबे समय से मैसूर बैडमिंटन एसोसिएशन के सचिव होने के साथ - साथ ख़ुद एक बेहतरीन खिलाड़ी भी थे। उसे पिता से खेल के कई गुर सीखने को मिलते। लेकिन इस तथ्य ने एक नई बाधा भी उसके सामने रखी।
पिता और बड़ी उम्र के प्रतिद्वंदियों के साथ खेलते रहने से उसमें एक डिफेंसिव अर्थात रक्षात्मक खिलाड़ी होने के संकेत दिखने लगे। आदर, संकोच और कनिष्ठता उसे विवश करते कि वह ज़्यादा आक्रामक न होकर अपने बचाव की शैली में ही खेले।
जल्दी ही अपनी इस सीमा को प्रकाश ने पहचान लिया। उसके जीवन का जो लक्ष्य था उसे हासिल करने में ये शैली मददगार सिद्ध नहीं होने वाली थी। प्रकाश ने लगातार अपनी इस कमज़ोरी को बदलने और नियंत्रित करने का प्रयास किया। उसकी शैली दिनों दिन आक्रामक होती गई और उसके खेल में ज़बरदस्त फुर्तीलापन दिखाई देने लगा।
प्रकाश के पिता क्योंकि स्वयं बैडमिंटन एसोसिएशन के अधिकारी थे, वो खेलने के साथ - साथ खिलाडि़यों के मुद्दों पर भी अपनी बात आगे तक पहुंचाने में रुचि लेता था। उसका शुरू से ये मानना था कि खिलाड़ियों को सरकार से जो भी सुविधाएं या सहायता मिलती है वह जल्दी और तात्कालिक निर्णय लेकर समय पर ही उपलब्ध हो ताकि हमारे खिलाड़ी भी अन्य विकसित देशों के खिलाडि़यों की तरह कम उम्र में ही अपने सपनों के करीब पहुंच सकें।
ऐसी बातों से प्रकाश अपने साथी खिलाड़ियों के बीच लोकप्रिय और स्वीकार्य तो रहता ही, उसके आत्मविश्वास में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती।
चढ़ती उम्र का ये खूबसूरत और संजीदा किशोर बिजली की गति से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ता रहा। स्कूल और क्लबों में ढेर सारे टूर्नामेंट्स खेलता और जीतता हुआ वो पंद्रह साल का होते होते राष्ट्रीय चर्चा में आ गया।
सोलह साल के इस लड़के ने जूनियर राष्ट्रीय खिताब जीतने के अगले ही साल सीनियर वर्ग का खिताब भी चमत्कारिक ढंग से अपने नाम कर लिया।
एक प्रतिभा सम्पन्न खिलाड़ी के रूप में अपने बयानों से वो खेल जगत के पदाधिकारियों का ध्यानाकर्षण करने के साथ साथ सरकार के कानों का मैल भी लगातार साफ़ करता ही रहा।
इसी का सुखद नतीजा ये हुआ कि अगले ही वर्ष जब सरकार की ओर से प्रतिष्ठित अर्जुन अवॉर्ड्स देने की घोषणा हुई तो उस सूची में सत्रह साल के बच्चे प्रकाश का नाम भी जगमगा रहा था।
ये कर्नाटक राज्य ही नहीं, बल्कि बैडमिंटन के सभी शुभचिंतकों के लिए गौरव का क्षण था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रकाश को ये पुरस्कार प्रदान किया।
प्रायः ये देखा जाता है कि बड़े पुरस्कार खिलाडि़यों को तब मिलते हैं जब अपना बेहतरीन प्रदर्शन कर के खेल चुकने के बाद खिलाड़ी अपनी कामयाबी के दौर से ढलान पर होते हैं। ये केवल खेल ही नहीं बल्कि कला, साहित्य, फ़िल्म आदि के पुरस्कारों में भी होता है। अक्सर दर्शक भी कोई बड़ा नामचीन ईनाम किसी खिलाड़ी को मिल जाने के बाद उससे उदासीन होने लगते हैं। वे अब उससे बढ़िया खेलने की उम्मीद नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं कि अब ये शख़्स मीडिया का स्टार बन कर खेल मैदान के सिवा अन्य सभी जगहों पर दिखाई देगा।
किंतु प्रकाश के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। ये सीधा - सादा नवयुवक अपने खेल में उसी जोशोखरोश और फुर्ती से रमा रहा। जैसे वो जानता ही न हो कि खेल में ईनाम- इकराम और पैसा कमाना क्या होता है? उसे तो खेलने से मतलब था, जीतने का ज़ुनून था और अपने बल्ले से बला की मोहब्बत थी।
वो न तो खेलने के बाद उसके ऑटोग्राफ मांगने आई लड़कियों में दिलचस्पी रखता था और न उसके हर शॉट पर ताली - सीटी बजाने वाले दर्शकों पर अभिभूत होता था।
वो तो पूरी गंभीरता से अपने प्रतिद्वंदियों को हराते चले जाने का शौकीन था। एक से बढ़कर एक उपलब्धियों पर उसके चेहरे पर हंसी तो क्या, एक हल्की मुस्कान तक नहीं आती थी।
लगभग उन्हीं दिनों आई अमिताभ बच्चन की फ़िल्म "ज़ंजीर" में प्राण पर फिल्माया गया लोकप्रिय गाना - "तेरी हंसी की कीमत क्या है ये बता दे तू" मानो गीतकार ने खेल के मैदान में प्रकाश को देख कर ही लिखा हो!
खेल के प्रति उसके पैशन और ज़ुनून का ही ये नतीजा था कि छोटी सी आयु में अर्जुन अवॉर्ड पाया ये लड़का उसके बाद भी लगातार कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता चला गया।
जो राष्ट्रीय चैम्पियन का खिताब उसने मसें भीगने से भी पहले पाया था उसे अगले कई सालों तक लगातार वो अपने नाम करता रहा।
उजाला ही उजाला होता रहा इस प्रकाश के नाम से!