पूर्व कथा जानने के लिए पिछले अध्याय अवश्य पढ़ें।
आठवां अध्याय
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गतांक से आगे….
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शोभिता की कक्ष साथी थीं विमलेश जी,पैंसठ वर्षीया, रिटायर्ड प्रधानाध्यापिका।
स्नातक करते ही 21 वर्ष की आयु में विवाहोपरांत पति के साथ शहर में रहने आ गईं।पति डिग्री कॉलेज में लेक्चरर थे,सास-ससुर गांव में रहते थे।विमलेश जी की शिक्षा में रुचि देखकर पति ने आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया।अपने ही कॉलेज में एमए इंग्लिश में प्रवेश दिला दिया।एमए की फाइनल परीक्षा के साथ साथ मातृत्व की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लिया,एक बेटी की माँ बनकर।बेटी के छः माह की होते ही बीएड में प्रवेश ले लिया।बीएड पूर्ण होते ही सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका हों गईं।अगले साल दूसरी संतान पुत्र के रूप में पाकर उनका परिवार पूर्ण हो गया।शीघ्र ही उन्होंने तीन कमरे का मकान भी बनवा लिया।वैसे तो घर में पति का हस्तक्षेप नगण्य था, लेकिन बच्चों की परवरिश में वे पूरा सहयोग करते थे।घर की एकछत्र साम्राज्ञी थीं विमलेश जी।धीरे धीरे बच्चे बड़े हो गए।यथासमय बेटी का अच्छे घर में विवाह संपन्न हो गया।
बेटा हर तरह से बिल्कुल पिता का प्रतिबिंब था।पीएचडी करके वह भी महाविद्यालय में लेक्चरर हो गया।बेटे को नौकरी वाली पत्नी नहीं चाहिए थी,अतः विमलेश जी अच्छी तरह से देखभाल कर पढ़ी-लिखी सुंदर बहू ले आईं घर में।अबतक जिंदगी की गाड़ी बड़े ही आराम से चल रही थी एक इंसान को इससे अधिक और क्या चाहिए होता है।
बहू थी आजकल की युवा पीढ़ी की प्रतिनिधि, जिसे घर के कार्यों में विशेष रूचि नहीं होती।खैर, घर के कार्यों के लिए पूर्णकालिक गृह सहायिका थी जो खाना-कपड़ा, साफ-सफाई सभी कार्य निबटा देती थी।अब यहीं से दो पीढ़ियों के मध्य होने वाले वैचारिक विभिन्नता के कारण मतभेद प्रारंभ हो गए थे।
विमलेश जी चाहती थीं कि कम से कम एक वक़्त का खाना तो बहू बनाए।बहू कभी-कभार नाश्ता-चाय तो बना देती, परन्तु पूरा खाना बनाना उसे गवारा नहीं था।विमलेश जी ने नौकरी के साथ साथ भी भोजन सदैव अपने हाथों से बनाया था।बहू का जीन्स,टीशर्ट इत्यादि आधुनिक परिधानों में ससुर को बाय बोलकर बाहर निकल जाना बिल्कुल पसंद नहीं था।लेकिन पति-बेटे को कोई आपत्ति नहीं थी इन सबसे, अतः वे भनभना कर रह जातीं।बहू को उनका रोकना-टोकना कतई बर्दाश्त नहीं था।ज्यादा जबाब तो नहीं देती,लेकिन करती अपनी मर्जी के हिसाब से ही।
विवाह के दो साल बाद घर में पोती का आगमन हुआ।विमलेश जी ने जब पोती का नाम रखना चाहा तो बहू ने स्पष्ट कह दिया कि मां...आपने अपने बच्चों का तो नामकरण कर ही रखा है,अतः हमें अपने बच्चों का करने दीजिए।हालांकि कहा तो उसने सही ही था, परन्तु उन्हें बेहद दुःख हुआ था।
खैर, नोक-झोंक के साथ समय व्यतीत हो रहा था, तभी बेटे को प्रसिद्ध विश्वविद्यालय से 10 वर्षों के लिए विदेश जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसे उसने अविलंब स्वीकार कर लिया।आजकल के माता-पिता भी अपने बच्चों के विकास को अपने मोह से अवरुद्ध नहीं करते औऱ न ही युवा पीढ़ी अपने उन्नति पथ में किसी बाधा को स्वीकार करती है।
बेटा अपने पत्नी-बेटी सहित शिफ्ट हो गया।बच्चों की अनुपस्थिति से घर में खालीपन तो अत्यधिक आ गया था लेकिन पति-पत्नी तो साथ में थे।किंतु बेटे के जाने के एक वर्ष पश्चात ही पति साथ छोड़कर चले गए।बेटा अकेले ही आया था, संस्कारों के बाद औपचारिकता में साथ चलने को कहा,लेकिन वे तैयार नहीं हुईं, अतः वह वापस चला गया।
जब अकेलापन ज्यादा खलने लगा तो वे सांध्य-गृह में आ गईं, जो उनके ही शहर में था।वे यहां पहले भी एकाध बार पति के साथ आ चुकी थीं वहाँ की चर्चा सुनकर, क्योंकि हमारा सांध्य-गृह प्राइवेट क्षेत्र में प्रथम था इस शहर में।
क्रमशः …….
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