पूर्व कथा जानने के लिए पिछले अध्याय अवश्य पढ़ें।
नवां अध्याय
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गतांक से आगे….
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अब लोग विदेशों की तर्ज पर वृद्धाश्रम को स्वीकार करने लगे हैं, कुछ लोग मजबूरी में, कुछ स्वेच्छा से, क्योंकि आजकल छोटे परिवारों में बच्चे अपनी जिंदगी की आपाधापी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि वे चाहकर भी अपने बुजुर्गों को समय नहीं दे पाते और न ही बुजुर्ग अगली पीढ़ी के साथ सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं।इसलिए शहरों में वृद्धों के लिए समय व्यतीत करना अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता है, क्योंकि आसपास के घरों में भी आपस में ज्यादा परिचय नहीं होता है।
बच्चे अपने कैरियर के लिए कहीं दूर शिफ्ट हो जाते हैं, वहां नए परिवेश में बड़े-बुजुर्ग स्वयं को ढाल नहीं पाते हैं।मैं भी सामंजस्य नहीं बिठा पाता बेटे के आधुनिक परिवेश में।वह कई-कई दिन घर से बाहर रहता है, उसका कार्यक्षेत्र ही ऐसा है।इसलिए अपने सांध्य-गृह में सबके मध्य मुझे अकेलापन नहीं महसूस होता है।मैं चिकित्सक हूँ, अतः आसपास के क्षेत्र में मुझे जानने वालों की संख्या भी अत्यधिक है।
अभी कुछ दिनों पूर्व ही हमारे घर में 4 नए सदस्य शामिल हुए हैं,जो 8 औऱ 9 नम्बर कमरे में हैं।
आज मैं बात कर रहा हूं, आठ नम्बर कमरे में रहने वाले देवेश जी एवं उनकी धर्मपत्नी शिवानी जी की।देवेश जी सहकारी बैंक से क्लर्क पद से रिटायर हुए हैं।
छोटी बहन का विवाह, फिर अपने बेटे-बेटी की परवरिश, शिक्षा, फिर बेटी का विवाह करते-करते रिटायर हो गए।न विशेष जमा-पूंजी थी, न मकान बनवा सके थे।ये ग़नीमत थी कि पेंशन प्राप्त हो रही थी एवं बेटा इंजीनियरिंग करके एक अच्छी कम्पनी में अच्छे जॉब पर था।विवाह के समय बहू भी एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका थी, परन्तु प्रेग्नेंसी में तबियत अत्यधिक खराब होने के कारण जॉब छोड़ना पड़ा।फिर बच्चे की परवरिश में व्यस्त हो गई।
बेटे ने सोच रखा था कि 2-3 वर्ष में कुछ पैसे एकत्रित कर, शेष लोन लेकर एक छोटा सा मकान खरीद लेंगे।सभी मिलजुलकर सभी जिम्मेदारियों का आसानी से निर्वहन कर लेते थे।घर के सामान, सब्जी इत्यादि लाना,बिजली, पानी के बिल जमा करना एवं अन्य छोटे-मोटे कार्य देवेश जी कर लेते थे।शिवानी जी भी बच्चे को संभालने में तथा घर के कार्यों में भी यथासंभव बहू की सहायता कर देती थीं, घर में सौहार्दपूर्ण वातावरण था।
पर वही बात है, हर दिन होत न एक समान।इधर एक माह से देवेश जी महसूस कर रहे थे कि बेटा-बहू किसी बात से बेहद परेशान हैं।पहले तो उन्होंने सोचा कि कोई आपसी बात होगी, दोनों पढ़े-लिखे समझदार हैं, मामला सुलझा ही लेंगे।परन्तु एक दिन रात्रि में किचन में पानी लेने जा रहे थे तो बेटे की आवाज सुनाई पड़ी कि कई जगह कोशिश कर चुका हूं, लेकिन कहीं जॉब नहीं मिल रही है, समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं।तब उन्हें लगा कि मंदी के इस दौर में बेटे की जॉब छूट गई है।
सुबह होते ही शिवानी जी की उपस्थिति में बेटे-बहू से माजरा पूछा,तो हिचकते हुए बेटे ने बताया कि उनकी कम्पनी ने इंडिया से अपना कार्य समेट लिया है, बहुत से लोगों की छटनी हो गई है लेकिन उसके उत्तम कार्य को देखते हुए अमेरिका के ब्रांच में जॉब ऑफर किया है, मुझे एक माह में ही वहां ज्वाइन कर लेना है, मैं आप लोगों को छोड़कर जाना नहीं चाहता हूं, इसलिए यहीं दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर रहा था, परन्तु इस आपातकाल में मिल ही नहीं रही है।अब मात्र 10 दिन बचे हैं कन्फर्म करने के लिए, इसके बाद वे किसी और को अप्वाइंट कर देंगे।
कुछ समय सोचने के पश्चात देवेश जी ने दृढ़ता से स्पष्ट शब्दों में कहा कि बेटा, तुम निश्चिंत होकर जाओ,यहां की चिंता मत करो।अंततः बेटे को वहां जाना पड़ा।तीन महीने में सारी व्यवस्था कर वह सभी को लेने आया,परन्तु देवेश एवं शिवानी जी इस उम्र में अपने शहर को छोड़कर अनजाने देश में अजनबी लोगों के मध्य जाने को तैयार नहीं हुए।इसी शहर में पूरी जिंदगी गुजारी थी।बेटे को समझा-बुझाकर बहू-पोती को साथ भेज दिया।
कुछ समय पश्चात मकान मालिक को घर स्वयं के रहने के लिए चाहिए था, इसलिए दूसरी जगह जाने की बजाय उन्होंने सांध्य-गृह में शिफ्ट होना ज्यादा उचित समझा।
ग्राउंड फ्लोर पर एक बड़ा सा ड्राइंग-कम-डाइनिंग रूम है, उसी से लगा किचन है।उसके बाद चार कमरे हैं, शेष छः कमरे प्रथम तल पर हैं, एक बड़ी सी बालकनी है कमरों से पहले, जहां कुर्सियां रखी गई हैं।लता जी की ख्वाहिश थी बालकनी में झूले पर बैठकर बारिश में चाय पीना,इसलिए कुर्सियों के साथ एक छोटा सा झूला लगवा दिया था।बालकनी से ही लगा मेरा कमरा है।मैं अकेले ही रहता हूँ, जिससे जब बेटा मिलने आता है तो मेरे साथ कमरे में ठहरता है।हर कमरे में दो दीवान, दो अलमारी, दो कुर्सी-मेज की व्यवस्था है।एक छोटी सी LCD टीवी दीवार पर लगी हुई है।प्रथम तल पर एक छोटा सा किचन भी है, जिससे यदि किसी को चाय-कॉफी की जरूरत हो तो बार-बार नीचे न जाना पड़े।
क्रमशः ……..
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