बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 12 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 12

भाग - १२

' जीवन, दुनिया की खूबसूरती देखने का आपका नजरिया क्या है?'

'अब नजरिया का क्या कहूं, मैं जल्द से जल्द सब कुछ बदलना, देखना, चाहती थी। तो मैं हर महीने कोई ना कोई ऐसा सामान लाने लगी, जिससे घर में रौनक दिखे। रहन-सहन का स्तर कुछ ऊंचा हो। फ्रिज का ठंडा पानी पीने को हम पूरा परिवार तरस गए थे। लेकिन अब्बू उसे भी न जाने किस पागल, जाहिल के कहने पर मुसलमानों के लिए हराम मानते रहे। जबकि मुहल्ले के सारे मुसलमान परिवारों के यहां यह सब ना जाने कब का आ चुका था। अम्मी ने कई बार बात उठाई थी, लेकिन अब्बू उनकी बात सुनते तक नहीं थे, आखिर अम्मी ने कहना ही बंद कर दिया था। गर्मियों में फ्रिज के ठंडे पानी की प्यास, प्यास ही बनी रही।

मैंने परिवार की इस प्यास को बुझाने की ठानी। लेकिन अब परिवार में था ही कौन हम दो के सिवा। फिर भी सोचा अम्मी तो हैं। मैं तो हूं।

जब मैं मोबाइल ले रही थी, तभी उसके पास वाली दुकान पर मेरी नजरें फ्रिज पर पड़ीं थीं । उसी समय मेरे मन में यह बात बैठ गई थी कि, एक दिन यह भी ले जाऊँगी । अगले तीन महीने तक मैंने हर काम में बड़ी कटौती करके फ्रिज भर का पैसा इकट्ठा कर लिया। फिर जब किस्त जमा करने का टाइम आया तो पहले उसे जमा किया और लौटते वक्त फ्रिज ले आई।

जब दरवाजे पर रिक्शे से उतरी तो अम्मी दुकान पर बैठी थीं। मैं वापसी में पहली बार रिक्शे से आई थी। देखा अम्मी मुझे ध्यान से देख रही हैं। मेरे पीछे-पीछे ठेलिया वाला भी था, फ्रिज लिए हुए। अम्मी उस चश्मे के पीछे से, ध्यान से देखते हुए सारी बात समझने का प्रयास कर रहीं थीं, जिसे मैंने दो महीने पहले ही बनवाया था। नहीं तो अम्मी ऑंखें कमजोर हो जाने के बावजूद भी बिना चश्में के काम चला रही थीं। उनके मोतियाबिंद का ऑपरेशन तो सरकारी हॉस्पिटल के एक कैंप में फ्री में हो गया था। उस वक्त जो चश्मा बना था वह अम्मी से गिर कर टूट गया था। उसके बाद बनने की नौबत ही नहीं आ पा रही थी। उस वक्त हम मां-बेटी को बड़ी कोफ़्त हुई थी कि, हमें खुद को गरीब बताना पड़ा था। वास्तव में सच तो यही था।

मैंने फ्रिज अम्मी के कमरे में ही रखवाया। ठेलिया और रिक्शा वाला जब-तक फ्रिज रख रहे थे, तब-तक अम्मी चुपचाप आश्चर्यमिश्रित नजरों से मुझे देखती रहीं। फिर बाद में बोलीं, 'बेंज़ी यह क्या?'

मैंने कहा, 'फ्रिज'।

'वह तो मैं जान रही हूं। लेकिन इतने पैसे कहां से आये ?'

'अम्मी पिछले तीन महीने से इकट्ठा कर रही थी। तुम तो कुछ पूछती ही नहीं कि कितना पैसा कहां खर्च कर रही हो। तो मैंने जहां-तहां कटौती करके इकट्ठा किया। कुछ कम पड़ रहे थे तो वह अबकी वाली तनख्वाह से पूरे कर लिए। तुम से जाते समय इसलिए नहीं पूछा कि, कहीं तुम मना ना कर दो कि, काहे को इतना पैसा बर्बाद कर रही हो। काम तो चल रहा है ना। दुनिया में कितने लोग बिना फ्रिज के जी रहे हैं कि नहीं? अरे तेरा निकाह करना है। पैसे बचाना है। यही कहती ना तुम?'

'तू तो बड़ी सयानी हो गई है बेंज़ी, हमारे मन की बात जानने लगी है। तुम सच कह रही हो। पूछती तो मैं यही सब कहती।'

'मुझे इस गुस्ताखी के लिए माफ करना। मैं जब किराएदार को ठंडा पानी पीते देखती हूं तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है। सोचती हूं कि जो मेरे यहां किराएदार है, उसके यहां फ्रिज है। और किराएदार इतना नामाकूल है कि, इतनी गर्मी हो रही है। लेकिन कभी यह नहीं पूछता कि, आपके लिए भी दो बोतल पानी रख दूं या फिर बर्फ जमा दूं। उसकी बेगम सीधे मुंह बात तक नहीं करती। दोनों बगल से निकल जाते हैं, लेकिन एक लफ्ज बोलने को कौन कहे नजर तक नहीं मिलाते। हमारे मकान में रहकर हमीं से इतना घमंड। कभी-कभी मन करता है कि बड़ी हूर की परी बनी, कमर मटकाती निकलती है। इसकी चोटी पकड़ कर खींचते हुए बाहर फेंक दूं। साथ ही इसके मगरूर शौहर को भी। उनका सामान इनके मुंह पर मारते हुए कहूं कि, तुम जैसे कमजर्फ इंसान मेरे मकान में नहीं रह सकते। हमारा खाना-पीना, सोना सब हराम किया हुआ है।'

अचानक ही मैं गुस्से से भर उठी थी। अम्मी मुझे समझाती हुई बोलीं, 'बेंज़ी इतना गुस्सा काहे हो रही है। उनसे हमारा क्या लेना-देना। किराया देते हैं, तो रहते हैं। नहीं बोलते तो कोई बात नहीं, उनकी मर्जी। उनकी आवाज भी तो नहीं सुनाई देती। तब कहां से हमारा खाना-पीना, सोना हराम किया हुआ है। बिटिया किसी को ऐसे गुनहगार नहीं कहना चाहिए।'

अम्मी की इस बात पर मैंने सोचा क्या बताऊं अम्मी तुम्हारा खाना-पीना, सोना भले ना हराम किये हों, लेकिन मेरा तो कर ही रखा है। यही हैं जिनके कारण आए-दिन रात में मेरे कपड़े दीवारों से टकरा-टकरा कर गिरते हैं। मैं शर्मोहया छोड़कर बिना कपड़ों के ही पूरी-पूरी रात जमीन पर पड़ी रहती हूं। शर्मगाह, छातियों से लड़ते-लड़ते इतना थक जाती हूं कि मुर्दा सी हो सो जाती हूं।

तुम क्या जानो कि इन दोनों के कारण मुझ पर क्या बीत रही है। नहाने-धोने, खाने-पीने या फिर कोई भी काम करते वक्त तसव्वुर में यह दोनों आकर परेशान करते रहते हैं। ट्रेनिंग सेंटर में भी तो यह दोनों पीछा नहीं छोड़ते। मुझे चुप देखकर अम्मी परेशान हो गईं। बोलीं, ' क्या हुआ बेंज़ी, काहे इतना परेशान हो गई। कोई बात है क्या? मेरी कोई बात बुरी लगी ।' अम्मी की बातें सुनकर मुझे लगा कि मैं बहुत ज्यादा बोल गई हूं। तुरंत उनसे माफी मांगते हुए कहा कि, 'मैं सोच रही थी कि तू कितनी नेक है। अच्छा अम्मी सुन, आज से हम दोनों फ्रिज का ठंडा पानी पिया करेंगे।'

यह कहकर मैं अम्मी से लिपट गई। अम्मी ने भी मुझे दुआएं देते, प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'मेरी बेंज़ी, मेरी बच्ची।'

अगले महीने मैं बेडसाइड के दो कूलर ले आई। अम्मी ने फिर पैसे बचाने की बात कही तो मैंने बेफिक्र होकर कहा, ' अम्मी भूल जाओ मेरा निकाह-विकाह। देखो निकाह के लिए जितने पैसे चाहिए उतने पैसे तो सारा पेट काट-काट कर सारा जमा कर दूं। तो भी दसियों साल बाद भी इकट्ठा नहीं हो पायेंगे। तब-तक मैं पैंतालीस-छियालीस की हो जाऊँगी यानी कि निकाह के लिहाज से एक बुढिया।

ऐसे में मुझे दुगनी उम्र का कोई बुड्ढा ही मिलेगा। दर्जनभर बच्चों का हिलता-डुलता अब्बा। जो हिलते-डुलते मेरे बिस्तर पर भड़ाक से मुझ पर ही गिर पड़ेगा । फिर उसे खींचतान कर सीधा करके, कायदे से बिस्तर पर सुलाने की जिम्मेदारी भी मेरी ही होगी। मेरी जिम्मेदारी यह देखने की भी होगी कि गिरने से मेरे, बेचारे जर्जर बुड्ढे शौहर की हड्डी पसली तो बाहर नहीं निकल आई हैं, अगर निकल आई हैं, तो उनको भी मैं सही-सलामत लगाऊँ, और इसके बाद मैं करवट बदलती आंखों में रात गुजारूं।अगले दिन सवेरे उनकी पहले की बेगमों के ताने सुनूं और उसके दर्जनभर बच्चों, पूरे कुनबे की देखभाल, चीख-चिल्लाहट में मैं अपनी ज़िन्दगी खपाऊं। क्योंकि उम्र का तकाजा भी होगा, तो बहुत ही जल्दी खुद को बेवा हो जाने के आंसुओं में डुबोना भी पड़ेगा। फिर दर-दर की ठोकरें खानी पड़ेगी। क्योंकि उम्र का ही तकाज़ा होगा कि, मेरी तो कोई औलाद होगी नहीं, जो मेरी देखभाल करेगी।'

'बस कर बेंज़ी, बस कर।'

अम्मी ने सिर पीटते हुए मुझे बीच में ही टोक दिया। उनका चेहरा गुस्से से ऐसे तमतमा रहा था, जैसे वह मुझसे कहना तो बहुत कुछ चाहती हैं, लेकिन कह नहीं पा रहीं । कुछ देर शांत रहकर मैंने कहा, 'अम्मी मेरी बात को समझने की कोशिश करो ना। बेकार में हैरान-परेशान होने से क्या फायदा। ऐसा तो नहीं है कि, आमदनी कितनी है? वह तुम नहीं जानती। सब तो जानती हो, इन सारी बातों को ध्यान में रख कर सोचो ना, कि क्या मैं गलत कह रही हूं।

अब-तक तुमने जितनी कोशिश की हर बार ऐसे ही लोग तो आए, जो दो तलाक दे चुके थे या फिर एक को या फिर जिनके पहले से ही दो-तीन बीवियां थीं। किसी ऐसे इंसान से निकाह करके क्या मैं एक दिन भी सुकून से रह पाऊँगी। अब्बू के साथ तुमने कितने दिन सुकून से बिताये, क्या तुम्हें कुछ याद है ? अब तुम्हीं बताओ क्या यह सब जानते-बूझते हुए निकाह करना, क्या खुद ही कांटों भरे जंगल में घुसने जैसा नहीं होगा। जहां हर समय शरीर कांटों से लहू-लुहान होता रहेगा ।

इन सबके बावजूद यदि तुम चाहती हो कि मैं निकाह करूं तो ठीक है। तुम जब, जहां कहो, मैं तैयार हूं। मगर मुझे अपने से ज्यादा फिक्र तुम्हारी है। तुम्हें किसके सहारे छोड़ कर जाऊं। ऐसे तो हम एक दूसरे का सहारा बने हुए हैं। कट जाएगी ज़िन्दगी, किसी ना किसी तरह।' मेरी बात से अम्मी बहुत भावुक हो गईं । बोलीं, 'बेंज़ी मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मैं क्या करू। शायद ही कोई मुझ सी बदकिस्मत मां होगी, जो सुंदर काबिल बिटिया का निकाह भी ना कर पाए। क्या जवाब दूंगी कयामत के दिन अल्लाहताला को।'

'ओफ्फो ! अम्मी... फिर तुम नादानी कर रही हो। तुम्हें कोई जवाब नहीं देना होगा। वह सब जानता है। नाहक परेशान हो रही हो।'

अम्मी को मैंने खूब समझाया कि पुरानी बातों के फेर में ना पड़ो । दिमाग से काम लो। उनको मैंने रात में जमाई कुल्फी फ्रिज से निकाल कर खिलाई। फिर भी वह मेरी बातों से राजी नहीं हुईं। तो हारी मैं भी नहीं। मैंने और बड़ी देर तक उनसे खूब बातें कीं। बहुत सी बातें और भी ज्यादा खुलकर समझाईं। तब जाकर वह काफी हद तक राजी हो गईं।

कूलर की ठंडी हवा कैसी होती है, उसी दिन हम दोनों मां-बेटी ने सही मायने में महसूस किया। जल्दी ही टीवी की सारी किस्तें खत्म हो गईं। मुन्ना के सहारे ऑनलाइन बिजनेस भी मैं करने लगी थी। शुरू के दो-तीन महीने मुझे कुछ समझ में नहीं आया था लेकिन फिर धीरे- धीरे गाड़ी चल निकली। मुन्ना के कहे अनुसार मैंने लखनवी चिकनकारी पर ही जोर दिया। जो डिज़ाइन मैं ऑनलाइन शॉप पर शो करती वह किसी और को ना देती।

सोशल साइट के कई माध्यमों पर अपना प्रचार करती। साथ ही मुन्ना को शुक्रिया जरूर कहती थी कि, उन्होंने यह सब मुझे सिखाया। वह मुझे से बार-बार कहते कि, 'तुम अपने हुनर को नई बुलंदियों पर ले जाओ। नई-नई डिज़ाइन ईजाद करो।' उनकी बातें मेरे दिमाग में हमेशा चलती रहतीं।उसका नतीजा भी नई-नई डिज़ाइनों के रूप में मेरे सामने लगातार आने लगा था।

ऐसे ही एक रात मन में नया ख्याल आया। मैं जमीन पर ही बैठी कढाई कर रही थी। छोटा कूलर चल रहा था। मैं केवल दो भीतरी मतलब की ब्रीफ में थी। अचानक ही मुझे ब्रीफ चेंज करने की जरूरत महसूस हुई। अब-तक मैं तरह-तरह के फैंसी ब्रीफ खुद के लिए ले आती थी। चेंज करके जब मैं फिर काम करने के लिए बैठने लगी जमीन पर तो मन में यह बात आई कि अगर यह ब्रीफ चिकन के बना दूं तो? और फिर दो दिन में मैंने कई डिज़ाइन, कलर के चिकन ब्रीफऑनलाइन शॉप पर शो कर दिए। कीमत जानबूझकर बड़ी कंपनियों के प्रॉडक्ट से भी ज्यादा रखी। मगर मैं अचरज में पड़ गई कि, सभी देखते-देखते बिक गए।

अम्मी को मैंने यह नहीं बताया। इस सोच ने, सफलता ने जल्दी ही मेरी सोच के पंखों को और बड़ा कर दिया। मैं लेडीस स्लीपिंग सूट, बिकनी भी बनाकर बेचने लगी। उनके भी मुझे खूब पैसे मिलने लगे। सेल इतनी ज्यादा हो रही थी कि, मैं उतना बना नहीं पा रही थी और बार-बार आउट ऑफ स्टॉक हो रहा था।

मैं रात-दिन लगी रहती। मगर फिर भी नहीं हो पा रहा था तो अम्मी से बात की। सारी बात बता कर कहा, 'अम्मी अब इस परचून की दुकान को बंद कर दो। इससे कोई फायदा नहीं हो रहा है। एक ही काम को आगे बढाते हैं। उसी पर पूरा ध्यान देते हैं। बहुत समझाने पर वह तैयार हो गईं। इसके बाद दुकान का सारा सामान औने-पौने दाम में एक-दूसरे परचून वाले को बेच दिया। कामभर के पैसे, पहले से ही मैं इकट्ठा कर चुकी थी। जल्दी ही मैं एक साथ चार मशीनें ले आई और मुन्ना के यहां से ट्रेनिंग लेकर निकली कई लड़कियों से संपर्क कर उन्हें काम पर रख लिया।

उन्हें काम देकर सेंटर जाती कि, उन्हें क्या-क्या करना है। सेट के हिसाब से पैसा मिलना था तो लड़कियां अपने आप ही ज्यादा से ज्यादा काम निकाल रही थीं। अम्मी दिन भर उन्हें देखती रहतीं। लंच टाइम में मैं भी एक नजर डाल लेती थी। अम्मी को भी यह सब जंच गया। अब दिन भर अकेले ऊबने के बजाय वह लड़कियों के साथ थोड़ा बोल-बतिया भी लेती थीं।'

'वाह, ''एक पंथ दो काज'' तो सुना था। लेकिन यहां तो बात एक पंथ बहु काज जैसी हो गई है। और देख रहा हूं कि, इसके पीछे मेन एनर्जी मुन्ना हैं। उस एनर्जी का कंजम्शन बेनज़ीर के माध्यम से हो रहा है। जिसके परिणामस्वरुप उसके जीवन, घर में क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू हुए। क्या मैं सही कह रहा हूँ ?'

मेरी बात पर बेनज़ीर हंसकर बोलीं, 'हाँ आप सही कह रहे हैं। मुन्ना मेरे लिए एनर्जी बनकर ही सामने आये। मैं इंजन थी, तो वह इस इंजन की ऊर्जा। उनकी लगातार सलाह-मशविरा, उनके प्रयास से मेरे पंख बड़ेऔर बड़े होते जा रहे थे। इसके बावजूद उनका हद से ज्यादा संकोच मुझे बड़ी तकलीफ देता था। मैं जितना यह सोचती कि, वह बिजनेस की रूखी बातों के अलावा कुछ और बातें भी मुझसे कर लिया करें, उतना ही वह मुझसे दूर रहते। एक तो उनके पास समय भी बहुत कम रहता था।

जिस दिन नई मशीनें ले आई थी, उसी दिन उन्होंने फर्स्ट मीटिंग में ही बताया कि, 'गवर्नमेंट के दो नए प्रोजेक्ट मिल गए हैं। मुझे लगता है कि ट्रेनिंग-सेंटर के लिए मुझे तुम्हारी और ज्यादा मदद लेनी पड़ेगी।'

मैंने कहा, 'आप निःसंकोच बताइए। मुझसे जो हो सकेगा वह जरूर करूँगी।'

'ठीक है, आपको सुबह एक घंटा पहले आना होगा क्योंकि मेरे दोनों प्रोजेक्ट बाराबंकी में शुरू होंगे। मुझे नौ बजे ही यहां से निकलना होगा। आप एक घंटा पहले आ सकेंगी।'

'हाँ, मैं आ जाऊँगी। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।'

मैंने कह तो दिया था लेकिन जानती थी कि मुझे और मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन मुन्ना ने आखिर में यह कहकर मुझे और उत्साहित कर दिया कि, 'जो एक्स्ट्रा टाइम देंगी, उसका पेमेंट आपको अलग से मिलेगा।'

वह रोज सुबह मेरे सेंटर पहुंच जाने के बाद बाराबंकी निकल जाते थे। मेरे मन में बार-बार आता कि, पूछूं, वहां क्या काम है? क्या ऐसा भी कुछ काम है, जिसमें मैं भी कुछ कर सकती हूं। अपनी आमदनी और तेज़ी से बढ़ा सकती हूं। मुझसे ज्यादा सब्र नहीं हुआ तो मैंने एक दिन पूछ ही लिया।

उन्होंने बताया कि, 'वहां जल्दी ही एक दस दिवसीय कार्यशाला और प्रदर्शनी का आयोजन करवा रहा हूं। जिसमें अलग-अलग तरह के काम होंगे। कढाई-बुनाई सहित तमाम कुटीर-धंधों की बातें होंगी। उत्पादों की बिक्री, प्रदर्शनी होगी।'

तब मैंने पूछा, 'क्या मैं भी वहां चल सकती हूं।'

तो उन्होंने कहा, 'ख़ुशी-खुशी, क्यों नहीं, कोई भी भाग ले सकता है।आपसे इसलिए नहीं कहा कि, आप दूसरे शहर दस दिन तक चल पाएंगी या नहीं, यह तय करना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि आपकी अम्मी की तबीयत ठीक नहीं रहती। वहां जाने का मतलब है कि सुबह निकलना और देर रात तक लौटना। दूसरे आपकी अम्मी इतनी दूर, दिन-भर के लिए किसी के साथ भेजेंगी भी नहीं। यही सब सोचकर मैंने नहीं बताया कि वहां पर मैं क्या करने जा रहा हूं।'

अब-तक मैं मुन्ना से काफी खुलकर बात करने लगी थी। उनकी हिचक को मैंने खुद ही पहल कर के कुछ ही दिन में ख़त्म कर दिया था। हाँ सेंटर में हम बातचीत में ऑफिस की मर्यादा बनाये रखते थे। मैंने कहा, 'अम्मी को मैं समझा लूँगी। बस आप तैयार हो जाइए।' तब मुन्ना ने कहा, 'तो मुझे क्या समस्या हो सकती है। आप चलिए। यहाँ के लिए कुछ और व्यवस्था करता हूँ ।'