यादों के झरोखे से Part 7
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मेरे जीवनसाथी की डायरी के कुछ पन्ने - पहली विदेशी धरती ट्रिंकोमाली में घोर निराशा मिली पर सिंगापुर मार्केट बहुत अच्छा लगा
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14 दिसंबर 1968
आज मेरा जहाज बॉम्बे से कोचीन और मद्रास होते हुए सीलोन ( Ceylon ) का पोर्ट ट्रिंकोमाली में लंगर डाले खड़ा है , शायद छोटा पोर्ट है इतना गहरा पानी नहीं है कि जहाज किनारे बर्थ करे . 6 बजे शाम को मैं वाच खत्म कर इंजन रूम से बाहर आता हूँ तब फोर्थ इंजीनियर ने कहा “ हमलोग थोड़ी देर में बाहर घूमने जायेंगे , तुम्हें भी चलना है तो जल्दी से तैयार हो जाओ . “
यह मेरा पहला विदेशी पोर्ट था , मैं ना कैसे कहता . थोड़ी देर में रेडी हो कर सिविल ड्रेस में आया तो चार और बंदे मेरा वेट कर रहे थे , एक ने बोला “ अरे पांच साहब , जरा हाथ लगाओ विंच चलाओ , मोटर बोट नीचे पानी में उतारेंगे तभी तो किनारे घूमने जाओगे . “
मोटर बोट से 20 मिनट में हम शोर के निकट आये , एक ने कहा “ पतवार संभालो और किनारे लगाओ “
“ मुझे नहीं आता “ मैंने कहा तब वह बोला “ कैसा लल्लू आदमी है . तैरना आता कि नहीं ? “
मेरे ना कहने पर बोला “ आगे से बोट में लाइफ जैकेट ले कर उतरना . “
हम लोग ट्रिंकोमाली की सड़कों पर घूमने निकले पर घोर निराशा मिली . यह तो शहर लगता ही नहीं था बिल्कुल किसी गाँव की तरह . हम में से कोई भी पहले नहीं आया था वरना इतनी मेहनत न करते यहाँ आने के लिए .
16 दिसंबर 1968
कुछ कार्गो सुबह लोड कर ट्रिंकोमाली से कोलंबो के लिए निकले थे और आज 14 घंटे बाद कोलंबो पहुंचे . रेडियो सीलोन .और कोलंबो का बड़ा नाम सुना था . यह एक शहर जरूर था पर बॉम्बे या मद्रास जैसा आकर्षक नहीं लगा .
22 दिसंबर 1968
कोलंबो से करीब चार दिन की यात्रा के बाद आज सिंगापुर पोर्ट पहुंचे . सिंगापुर बहुत व्यस्त पोर्ट है बर्थ नहीं मिलने से थोड़ी दूर पर लंगर डालना पड़ा .सिंगापुर के बारे में बहुत सुना था - जीवन में एक बार आना सिंगापुर . यहाँ कंपनी की ओर से हर घंटे दो घंटे पर लांच से जहाज से शोर तक जाने का इंतजाम . दो कुलीग , जो पहले भी सिंगापुर आ चुके थे , के साथ घूमने निकले .
सिंगापुर शहर भी कुछ ख़ास आकर्षक नहीं लगा हाँ साफ़ सुथरा था . सिंगापुर अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते मशहूर है . सुदूर पूर्व जापान , ऑस्ट्रेलिया आदि देशों और पश्चिम से एशिया आने वाले जहाज यहाँ रुकते . जहाज को भी यहाँ से कुछ खास कार्गो नहीं लेना था पर यहाँ बन्करिंग यानि तेल भरना था .
पूरा मार्केट जापानी चीजों से भरा था - घड़ियाँ , खिलौने , इलेक्ट्रॉनिक्स , कपड़े यहाँ तक कि भारत के लिए बनी जापानी साड़ियाँ . फाउंटेन पेन चीनी मिलते थे . कंपनी के नियमानुसार भारत से सिंगापुर आने में जितने दिन लगे उतने दिन का पेमेंट हम सिंगापुर डॉलर्स में ले सकते थे या जिस भी देश में रहें सेलिंग डेज का वेतन वहां की मुद्रा में ले सकते हैं अभी 1 सिंगापुर डॉलर 2 . 33 भारतीय रुपये के बराबर है . मुझे कुछ खास दिन नहीं हुए थे सेलिंग किये इसलिए ज्यादा पैसे नहीं मिले थे फिर भी एक स्टीरियो रिकॉर्ड प्लेयर और कुछ रेकॉर्ड्स ख़रीदे जो शिप में मन बहलाने में काम आते .
27 दिसंबर 1968
चार दिन सिंगापुर में रुकने के बाद कुछ घंटे सेलिंग के बाद आज मलेशिया के पोर्ट स्वेटेनहम में आये हैं . यह शहर भी बहुत साधारण भारत के छोटे शहर जैसा ही था .ख़ुशी की बात यह है कि कल यहाँ से सीधे ऑस्ट्रेलिया के लिए सेल करना है , ऑस्ट्रेलिया देखने की इच्छा बहुत दिनों से थी .
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