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करवा चौथ



‘नाम बताओ।’
‘जी, राम रूप शाह।’
‘उम्र क्या है?’
‘चालीस साल।’
‘पहले क्या करते थे?’
‘जी, फौज में था।’
कंवल सिक्यरिटीज की रिसेप्सनिस्ट रीना ने सिर उठाकर उसे फिर से ध्यान से देखा, कुछ-कुछ नजरों से तोलने के भाव से
ऊंचा कद, दुबली काया, हलकी मूंछे, जो सेना में जवान रह चुके व्यक्ति से तो नहीं ही मेल खाती थीं। चेहरा चालीस के पेठे में पहुंचते ही बूढ़ा-सा दिखने लगा था। कपड़े ठीक-ठाक थे, पर प्रेस न होने के कारण असर छोड़ने में असमर्थ थे।
‘यह भला का सिक्योरिटी गार्ड का काम करेगा?’, सोचते हुए रीना ने सिर झटका ,पर फिर उसे अपने ब्यायफें्रड राकेश की बात याद आ गई। राकेश का काम था कि वह पकड़-पकड़कर लोगों को गार्ड के काम के लिए कंवल सिक्योरिटीज में लाता था। कई बार लाए गए व्यक्ति की हुलिया देककर रीना उसे झिड़कती, पर वह टका सा जवाब देता-‘यह काम तो वर्दी पहनने का है, पर इस वर्दी की कोई कीमत नहीं। कोई भी इनकी मां-बहन से अपना रिश्ता निकाल सकता है। यहां तो कोई भी वर्दी पहन सकता है, बस सम्मान नाम की चिड़िया से उसका वास्ता नहीं होना चाहिए।’
रीना ने अंदर बॉस को फोन मिलाया। राकेश द्वारा लाए गए इस नए रंगरूट रामरूप शाह के विषय में बास को बताया। वहां से बास ने पता नहीं, रामरूप के विषय में कुछ कहा या रीना के विषय में, रीना का चेहरा कानों तक लाल हो गया। मन ही मन बास को भद्दी-सी गाली देते हुए उसने रामरूप से कहा-‘सामने के सोफे पर बैठ जाओ। अभी मैनेजर साहब आएंगे। वही तुमसे बात करके कुछ फैसला करेंगे।’
अपने से आधी उम्र की लड़की से अपने लिए आप की जगह तुम का संबोधन सुन, रामरूप साह कुछ सिटपिटाया। फिर खुद को तसल्ली दी-‘यह बिहार नहीं, दिल्ली है। कोई नरमी से बात कर ले, यही काफी है।’
रामरूप शाह पास ही एक कोने में पड़े सोफे पर बैठ गया। अपने आने वाले कल की प्रतिक्षा में। पीछे की बातें भी उसे साथ-साथ याद आने लगीं।
रामरूप बिहार के एक पिछड़े हुए गांव का रहने वाला था। वहां के हिसाब से उसने पढ़ाई भी की। एक साथी फौज में गया, तो अगले साल उसी की देखा-देखी वह भी फौज में भर्ती हो गया। पहले घर में कुछ सवाल उठे, पर पहला वेतन पिता को भेजते ही सारा मामला शांत हो गया। एक साथ सौ-सौ के कई नोट उसके पिता ने शायद पहली बार ही देखे थे।
फिर अगले साल वह गांव आया तो जाते समय तक वह शादीसुदा बन चुका था। पड़ोस के गांव की रमिया उसकी दुल्हन बन घर आई थी। इस बार समय भी अच्छा बीता था। पिता ने उसके भेजे पैसों से एक खेत अपने नाम लिखवा लिया था। दिन में वह पिता के साथ खेत पर मेहनत करता और रात को नई दुलहन उसका इंतजार कर रही होती। शादी के पहले ही साल में वह बाप भी बन गया। फिर तो यह एक नियम सा हो गया। पहले पांच साल में जब भी वह गांव लौटता तो उसके बच्चों की फौज में एक और सिपाही की भर्ती हो चुकी होती।
पर समय एक सा नहीं रहा। पहले ताड़ी पी-पीकर पिता की मौत हुई फिर काले ज्वर से मां की। अब गांव में रमिया थी और पांच बच्चों की फौज। इसी कारण जैसे ही उसे मौका मिला, वह फौज से अवकाश ले गांव लौट आया।
इस बीच गांव ने तरक्की कर ली थी। वहां अब बिजली थी तो वह इलाका मंडल भी बन गया था। राजनीति की चालें भी वहां चलनी शुरू हो गई थीं। एक खास बिरादरी की सरकार होने के कारण वहां आपसी मन-मुटाव बढ़ गया था। हालाकि रामरूप भी सरकारी जाति का ही था, पर एक अदने से किसान को पूछे कौन।
एक बार वह भी सरकारी रैली में गया। वहां जमकर नारबाजी हुई, फिर सिर फुटौव्वल। मामला विधानसभा में भी उठा। सरकार को कुछ तो कार्यवाही करनी ही थी। इसलिए कुछ लोगों के नाम थाने में लिखा दिए गए। उनमें रामरूप शाह का नाम भी था। नतीजन पुलिस से बचने के लिए रातोरात जमीन औने-पौने दोमों में पड़ोसी को बेच वह दिल्ली आ गया था।
यहां पहले एक गंदे नाले के किनारे बड़ी मुश्किल से एक झोंपड़ी बनाई। इसके लिए इलाके के गुंडे को पैसे भी खिलाने पड़े थे। फिर उसी गुंडे ने आगे उसे राकेश से मिलवाया था जिसके सहारे आज वह कंवल सिक्योरिटीज के दफ्तर में बैठा था।
थोड़ी देर में मैनेजर साहब आ गए। राकेश के भेजे आदमी का पता चला तो रामरूप को बुला लिया। हुलिया देखा। फिर खड़े रहने का अंदाज देखा। एक फौजी होने के कारण रामरूप नए बॉस के सामने सावधान का मुद्रा में तनकर खड़ा था। मैनेजर ने देखा, तो हंस पड़ा बोला-‘जब नौकरी शुरू करना, तब बॉस के सामने ठीक से खड़े होना। यहां दिखावे की जरूरत नहीं। ’
‘दिखावा...! क्या मैं दिखावा कर रहा हूं।’- अपनी ही मुद्रा को ध्यान से देखते हुए धीरे-धीरे रामरूप शाह विश्राम की मुद्रा में आ गया। अब मैनेजर ने उससे पूछा-‘राकेश ने वेतन के विषय में कुछ बताया है?’
‘जी नहीं साहेब’
‘आजकल एक अस्पताल के लिए हम सिक्योरिटी गार्डों की भरती कर रहे हैं। वहां से एक गार्ड के लिए छह हजार रुपए मिलेंगे।’
‘छह हजार....।’ रामरूप को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। उसके गांव के किसी साथी ने तो शायद कभी छह हजार रुपए इक्ट्ठे देखे भी नहीं होंगे।
‘मुझे मंजूर है सर।’-कहते हुए रामरूप का शरीर खुशी से कांप गया।
‘मुझे मंजूर है? तू पागल हो गया है क्या...? तेरी औकात है, छह हजार रुपए लेने की? अबे, मुझे तो पांच हजार मिलते हैं, और तू छह हजार लेगा?’-मैनेजर तो हत्थे से ही उखड़ गया।
‘जी, मैंने क्या कहा। आप ही तो कह रहे थे कि अस्पताल वाले एक गार्ड के लिए छह हजार रुपए देंगे।’
‘हां कहा था। पर यह थोड़े न कहा था कि तुझे देंगे। वह यह रकम हमें देंगे। और हम एक गार्ड को बत्तीस सौ रुपए देते हैं। बाकी से हम कंपनी चलाते हैं।’
‘बत्तीस सौ रुपए!’ अब फूले हुए गुब्बारे से हवा निकलने लगी थी। धीरे से डरते-डरते रामरूप ने पूछा-‘और छुट्टियां?’
‘एक भी नहीं, यहां तक की रविवार को भी नहीं। बारह घंटे की ड्यूटी होगी। एक दम चाकचौबंद। हमारे आदमी निगरानी किया करेंगे। ड्यूटी में लापरवाही हुई, तो सौ का एक पत्ता कटा। अगर मंजूर हो, तो रिसेप्सन से फार्म लेकर भर दो, नहीं तो बाहर का रास्ता नापो।’ एक ही सांस में कहकर मैनेजर रामरूप की तरफ ऐसा देखा कि वह अब तक वहीं क्यों खड़ा है, गया क्यों नहीं।
रामरूप नजरों का अर्थ समझकर बाहर आ गया फिर सोफे की शरण में जा पहुंचा। सोचने लगा, नौकरी करूं कि न करूं। पर बाल-बच्चों और समय से पहले बुढि़याती बीबी के चेहरों के सामने आते ही न जाने कब वह उठा और कब फार्म भरकर अपने साइज की वरदी छांटकर वह घर लौटा, उसे पता ही नहीं चला।
नौकरी मिलने की खुशी में घर में खुशियां मनाई गईं। आखिर दिल्ली में पांव धरते ही नौकरी पा लेना आसान है क्या?
अगले दिन से ही रामरूप शाह काम पर लग गया। उसकी ड्यूटी अस्पताल के आपात कालीन वार्ड के बाहर लगी। अपने साथी गार्डों से भी परिचय हुआ। वह जल्दी ही काम समझकर उसे ठीक से अंजाम देने लगा। उसका काम था, एक मरीज के साथ एक ही व्यक्ति को अंदर जाने देना। बाकी किसी तरह अंदर न जाने पाए, इस पर विशेष ध्यान रखा जाता था। पर ऐसा करने में रामरूप को क्या परेशानी होती? वरदी पहनते ही उसका मन सैनिक वाले अपने पुराने रूप में जा अटका। शरीर अकड़ गया, तो आवाज भी कड़क हो गई। थोड़ी देर में ही वहां गेट पर एक अनुशासन कायम हो गया। अंदर की भीड़ भी काफी छंट गई। उसे खुशी हुई कि वह अपना काम ठीक से अंजाम दे रहा था। पर ...
कुछ दिनों बाद एक सफेद रंग की गाड़ी एमरजेंसी वार्ड के दरवाजे पर रुकी। एक मोटी-सी महिला बाहर निकली। साथ में दो लड़के भी। फटाफट स्टेचर लाया गया, गाड़ी से निकालकर एक बूढ़े को उस पर लिटाकर सभी अंदर की ओर लपके, पर तभी सामने रामरूप शाह आ गया और साथ ही उसका रटा रटाया जुमला-‘मरीज के साथ एक आदमी अंदर जा सकता है। पर स्टेचर है , इसलिए दो चले जाइए, पर एक को बाहर रुकना होगा।’
महिला ने जैसे सुना ही नहीं, वह अंदर की तरफ भागी। पर सामने रामरूप शाह नामक दीवार खड़ा था।
‘हमें अंदर जाने दे, बाबू जी बड़े सीरियस हैं।’-महिला फुंफकारती हुई सी बोली।
‘आप चले जाइए पर एक लड़के को बार छोड़ दीजिए।’-रामरूप ने सलाह दी।
‘अपनी औकात में रह, वरदी की रोब मत झाड़, कही शिकायत कर दी तो तू कहीं का नहीं रहेगा। तू हमें नहीं जानता।’
‘कुछ भी हो, पर दो ही आदमी अंदर जाएंगे।’ जैसे रामरूप ने फैसला सुना दिया। तिलमिलाकर महिला ने रामरूप की ओर देखा, कोई असर न होता देख, एक लड़के को बाहर ही छोड़ा और स्टेचर लेकर दूसरे लड़के के साथ अंदर चली गई। सबने रामरूप की तारीफ की। आधे घंटे बाद महिला वहां से बाहर निकली। वार्ड इंचार्ज के कमरे की ओर लपकी। जब लौटी, तो साथ में वार्ड इंचार्ज भी था।
‘क्यों रे, तुझे औरतों से बात करने की तमीज नहीं है’-आते ही वार्ड इंचार्ज ने फटकारते हुए रामरूप को डांटा।
‘साहब, इनको हम बोले थे...।’-रामरूप अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि वार्ड इंचार्ज फिर चिल्लाया-‘क्या बोले थे, तुम्हें दिखता नहीं कि सामने कौन है? पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होती। सामने वाले की हैसियत देखकर बात किया करो। अभी तुम्हारे सुपरवाइजर से बात करता हूं।’
सुपरवाइजर तक बात पहुंचने की बात होते ही अंदर से रामरूप शाह की आत्मा कांपने लगी। अब तक जिस आदर्श का सहारा लेकर वह उस औरत से लड़ रहा था, वह आदर्श, सौ का एक पत्ता वेतन में से कटने के अंदेशे से ही कपूर की तरह उड़ गया था।
वार्ड इंचार्ज ने सुपर वाइजर को बुलाया। उसकी शिकायत हुई। झाड़ पड़ी। और फिर सौ रुपए का जुर्माना भी। साथ ही ठीक से ड्यूटी करने की चेतावनी भी मिली।
‘अब और कैसे ठीक से ड्यूटी करूं!’-रामरूप भुनभुनाया।
अरे बेवकूफ, सामने वाले की हैसियत देखकर तय किया कर कि किसे अंदर आने देना है और किसे नहीं। हम भी तो यही करते हैं।’-एक साथी गार्ड ने सलाह दी।
आगे से रामरूप शाह ऐसा ही करने लगा। पर ऐसा भी कब तक चलता। इम गार्डों की स्थिति तो तरबूजे की तरह होती थी, चाहे तरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी तरबूजे पर, दोनों ही स्थिति में कटना तरबूज को ही था।
एक दिन वार्ड में बड़ी भीड़ थी। भीड़ से डाक्टर भी घबराए हुए थे। जितने मरीज थे, उनसे ज्यादा उनके रिश्तेदार एमरजेंसी वार्ड में थे। पता नहीं, डाक्टरों में क्या बात हुई, सारे के सारे काम छोड़कर बैठ गए। कुछ हल्ला हुआ और फिर उनकी रैली चींटियों की तरह कतारबद्ध होकर एम. एस. के कमरे की ओर चल पड़ी।
थोेड़ी देर बाद कुछ डाक्टरों के साथ एम. एस. आए। अंदर की भीड़ को देखा। ज्यादा सीरियस मरीजों को लेकर उनके रिश्तेदार दूसरे अस्पतालों की ओर भाग चुके थे। फिर भी कुछ भीड़ थी। एम. एस. ने मरीजों की गिनती की। फिर उनके नाते-रिश्तेदारों की। उनकी संख्या लगभग मरीजों से तीन गुनी थी। जब वह गार्डों की ओर मुड़े, तो नाथ सिंह नामक एक गार्ड बड़बड़ाया-‘एक पत्ता और कटा।’
वही हुआ। पहले तो एम.एस ने गार्डों को झाड़ा, फिर सुपरवाइजर से शिकायत की गई। फिर झाड़ का सिलसिला चला और साथ ही यह खबर भी दी गई कि ड्यूटी में कोताही बरतने के लिए अभी के सारे गार्डों की तन्ख्वाह से सौ-सौ रुपए कटेंगे।
यह सुनते ही सारे गार्ड सिर झुकाकर खड़े हो गए। विजयी अंदाज में सुपरवाइजर तो वहां से हट गया, पर झुके गर्दन वाले गार्ड मन ही मन हिसाब लगाने में व्यस्त थे कि अब तक वेतन में से कितने की कटौती हो चुकी है।
उस दिन जब शाम को रामरूप घर पहुंचा, तो उखड़ा हुआ था। उसके वेतन से अब तक दो बार सौ-सौ रुपए की कटौती हो चुकी थी। एक बार इसलिए कि अतिरिक्त आदमी अंदर जाने क्यों नहीं दिया और दूसरी बार इसलिए कि अतिरिक्त आदमी जाने क्यों दिया। ‘इन सबकी की तो मां की....’ मुंह से निकली गाली को किसी तरह रामरूप के संस्कार ने रोका । पर मां शब्द सुन सबसे छोटा लड़का रतन बाप से आ चिपका-‘पिताजी, क्या मां को बुलाऊं।’
परेशान रामरूप को बेटे का कोमल स्पर्श भी शांति न दे सका। उसने बेटे को हटाने की कोशिश की, तो नादान बेटे ने और जोर से चिपकने की। नतीजे में एक जोरदार थप्पड़ बेटे के कोमल गाल पर उसके गुस्से को साक्षात रूप से प्रकट कर दिया। घर में महाभारत छिड़ी। और उस महाभारत सेे खिन्न हुए मन को पंद्रह रुपए की देशी शराब की एक थैली ने शांत किया और उसने रामरूप को सोने में मदद की।
अगले दिन एमरजेंसी वार्ड के गार्ड बदल गए। रामरूप को भी वहां से हटाकर एक कोने में बने बच्चों के ओ.पी.डी. में भेज दिया गया। रात की चढ़ी ठीक से उतरी न थी। वह बार-बार अधिक तनकर खड़ा होने की कोशिश करता, पर शरीर उसके मन के हिसाब से चलने से मना कर देता। उसका विशेष प्रयास लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। नतीजन एक घंटे में ही उसे डांटकर घर वापस भेज दिया गया। उसकी ड्यूटी बदलकर उसे रात में बुलाया गया। पर रामरूप समझ गया था कि ड्यूटी से वापस भेजे जाने का मतलब है कि एक बार फिर दंड के रूप में पैसे कटेंगे।
घर पहुंचा, तो बीबी उसे देखकर चौंकी। फिर पूरी बात सुनकर कुछ बोलते न बना। आखिर वह पीने तो उससे हुई लड़ाई के बाद ही गया था। अब पति के मन को सहलाना चाहिए, यह सोचकर वह उसके पास बैठ गई। प्यार से बोली-‘सुनो जी, जैसे हमारे यहां तीज होता है, वैसे ही दिल्ली में सब करवा चौथ मनाते हैं। मैं भी मनाऊंगी। मुझे कुछ पैसे दो, सामान खरीदना है।’
रामरूप को अपनी पत्नी का स्पर्श भी बिच्छु का सा प्रतीत हुआ। उसे अपनी बाबी के चेहरे में अचानक सुपरवाइजर दिखाई देने लगा। लगा, इस बहाने वेतन से सौ का एक और पत्ता कटा। वह धीरे से बोला-‘क्या त्योहार मनाना जरूरी है? तुझे पता तो है ही कि कैसे हम लोग दिन काट रहे हैं।’
‘नहीं जी, यह तो जरूरी है, सुहागिनें इस दिन अपने पतियों के लिए व्रत रखती हैं। पूरे दिन भूखी रहकर उनकी लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं।’
‘लंबी आयु...।’, यह शब्द बंदूक से निकली गोली की तरह रामरूप शाह के दिल पर जा लगी। वह तिलमिलाकर अपनी पत्नी से अलग हुआ। उसकी तरफ पथराई आंखों से देखने लगा। उसकी आंखों में छाई वीरानी ने रमिया को दहला दिया। वह घिघियाकर बोली-‘हमने ऐसी कौन-सी बात बोल दी है, जो तुम गुस्सा गए?’
‘खबरदार, जो तूने व्रत रखा। मेर दुश्मनों की कमी है क्या, जो तू बीबी होकर भी मेरे लिए शाप मांग रही है। किस लंबी उमर चाहिए? क्या है मेरे पास, जिसे भोगने के लिए और जीवन पाकर मैं खुशियां मनाऊं। जो जीवन तू जी रही है, मेरे न रहने पर भी उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा। जैसी जिंदगी मेरे बच्चे जी रहे हैं, उसे देखते रहने के लिए और जिंदगी मुझे नहीं चाहिए।’-बोलते-बोलते रामरूप शाह की सांस फूलने लगी थी।

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