चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर - 13 राज बोहरे द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर - 13

चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर 13

Chanderi-Jhansi-Orchha-Gwalior ki sair 13

चौराहे पर जाकर हमने एक रेस्टोेरेंट में दाल रोटी चावल का भोजन किया ।

अब हम रामराजा मंदिर के ठीक सामने वाली रोड़ पर चल रहे थे। हमने देखा कि चारांे और से नदी ने उस पहाड़ी को घेर रखा था, जिस पर सारे के सारे महल बने हुए थे।नदी के उपर बने पुल से होकर ही महलांे की तरफ जाया जा सकता था। पुल पार करते ही सामने किले का विशाल परकोटा था। परकोटे की दीवार सात फिट चौड़ी और बीस फिट उंची थी।

परकोटे के सामने ही एक विशाल दरवाजा था। इस दरवाजे में प्रवेश करते समय हमने देखा कि इसके दोनांे और सैनिकांे के रहने की कोठरियां थी। ख मोटी लकडी के बडे़ बडे़ दो किवाड इस दरवाजे को बंद करने के लिए लगाये गये थे। मैंने बच्चों को बताया कि प्राचीन काल में जब शत्रु का हमला होता था और दुश्मन की फौजें नगर सारे घेरे तोड़कर नगर में घुस आतीथी तो महल में न घुस पाऐं इसके लिए ऐसी मोटी लकड़ी के बहुत विशाल किबाड़ बनवाये जाते थे। वे फौजें किवाड़ तोडकर अदंर नही आ सकती थी। क्यों कि किवाड़ तोडने के लिए उस जमाने में हाथी से ठोकर लगवायी जाती थी। हाथियों से सुरक्षा के लिए किवाड़ो में नोंकदार बहुत बड़े बड़े कीले लगवा दिये जाते थे। हाथी को कीले चुभेंगे तो वह पूरी ताकत न लगासकेगा और किबाड़ से दूर भाग जायेगा और किले का द्वार सुरक्षित रहेगा ।

इस दरवाजे को सिंह दरवाजा कहा जाताहै । सिंह द्वार को पार किया तो हमें दो रास्ते दिखे एक रास्ता दायें तरफ जा रहा था। जो पक्की सड़क के रूप में था। जबकि बांया रास्ता पैदल चढ़ने के लिए था। हम लोग बंाये रास्ते पर बढ़े तो कुछ दूर पर ही सामने चढ़ने के लिए पथरीला रास्ता बना था।उपर दिख रहा था शीश महल और जहॉगीर महल ।

कुछ उपर चढने पर हमलोग सीधी समतल जगह पर पॅहुचे तो हमे दायीं और वैसा ही चौड़ा बरामदा दिखा जैसे हरदौल के बैठका और आगरा के किले मे था। उपर राज महल की इमारत थी और नीचे बरामदा बना था। हम चढके भीतर पॅहुचे तो देखा लगभग पचास फिट चौड़ा और पचास फिट लंबा यह बरामदा सफेद रंग से पुता हुआ है और इसमे लगभग चौसठ खंबे दिख रहे थे । दीवार पर लगी पत्थर निर्मित एक सिहांसन थी। जिसके पीछे टिकने कोऔर हाथ टिकाने को तथा पीछे रानियों के पर्दा में रहकर झांकने को पत्थर की बनी बारीक जाली लगी हुइ्र थी। ओरछा वाले पण्डित जी ने हमे बताया कि यह भी राजा के आम दरबार की जगह थीं । सिंहासन पर बैठकर अभिशेक ने चारांे ओर देखा तो एक विश्ेाश बात समक्ष मे आई कि हर खम्भा किसी ख्ंाबें के पीछे था यानी कि सारे ख्ंाबे एक लाइन में थे जिनको इस अंदाज में लगा या गया था कि सिंहासनल पर बैठे राजा को दांये बांये नजर डालने पर आड़े तिरछे में कोई बाधा नही आती थी और इस बजह से दरबार मे मौजूद हर आदमी पर सिंहासन पर बैठे राजा की नजर पड़ती रहती थी।

आम दरबार के बरामदे से नीचे उतर के हम आगे बढ़े तो सामने पुरानी कोठरियां बनी हुर्इ्र थी। जिनमे प्राचीनकाल मे सैनिक रहते होगं।

कोठरियों के पास से एक जीना उपर जा रहा था जो खूब बड़ा और मजबूत था जीनों पर चढ़के हम ऐसे खुले आंगन मे पहॅुचे जो तीन ओर से घिरा था पर चौथी ओर खुला था।

आंगन के एक और जहॉगीर महल था, जिससे लगाथा शीश महल और उसके बगल में था राजमहल। शीशमहल के सामने की दिशा खुली थी। उधर से दूर तक खेत, जंगल और घाटियां दिख रही थी।

सबसे पहले हमने राजमहल देखने का निश्चय किया। राजमहल का निर्माण राजा मधुकर शाह ने कराया था। यह महल राजा व रानियों के निवास के काम में आता था। प्रवेशद्वार से अंदर जाने पर महल का चौड़ा आंगन दिया । अंागन के दांयी ओर बडे़ बडे़ कमरे बने थे , जिनमें एक कमरे मे छोटी सिहांसन थी। यानि कि यह कमरा भी राजा की बैठक के काम में आता था । बायें तरफ छोटे -छोटे कमरे थे, शायद यह कमरे नौकरों के लिए बनाये गये होगें । यहॉ कां हर कमरा सफेद रंग से पुता था। दीवारों और छतो पर यहॉं पशु पक्षियों तथा राजा रानियों के चित्र बनाकर उसमे रंग भरे हुए थे।

सामने ही एक दरवाजा था जिसमें किवाड़ न थे, अस्थायी गाइड पण्डित ने बताया कि यह रनिवास में जाने का रास्ता था। रनिवास का अर्थ जानने के लिए अभिषेक ने कोतुहल व्यक्त किया तो मैंने समझाया कि रनिवास का अर्थ है रानियों का वास! इस हिस्से में रानियां निवास करती थी।

रनिवास वाले हिस्से में बीच मे आंगन ,फिर बरामदे , तत्पश्चात कमरे ही कमरे थे, जिनमे से कई ख्ंाडहर रूप मे बचे थे। हर कमरे के बाहर पीछे की तरफ की दीवार में खिडकियां और रोशनदान बने हैं। इस कारण कमरों में अंधेरा नही है। एक बडे़ कमरे के उस पार छोटा सा बरामदा है और बरामदे की दीवार के पीछे की तरफ एक खिडकी बनी थी। हमने खिड़की में से झांका तो ठीक सामने चतुर्भज मंदिर दिखाई दिया। मंदिर का यह स्थान जहॉं कभी मूर्ति रखी रही होगी , इस खिड़की से साफ दिख रहा था। गाइड पण्डित जी ने बताया कि यह कमरा रोनी गणेश कुंवरि के लिए बनाया गया होगा , क्योंकि वे चाहती थी िकवे जब इस महल मेंरहे तो रोज सुबह उठकर अपने महल से ही सीधे इस खिड़की से रामजी की मूर्ति के दर्शन करलें ।

राजमहल की नीचे की मंजिल का रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था, पर यह सही था कि नीचे भी एक-दो मजिंले जरूर हांेगी। उपर भी एक मंजिल थी। बच्चों ने खिडकी से बाहर झांका तो सिहर गये हम लगभग डेढ सौ फिट उपर खडे थे, नीचे गहरी घाटी थी । घाटी में पतली सी एक छोटी नदी बह रही थी। ओरछा की छोटी सी बस्ती यहॉं छोटे -छोटे घंरांदो सी लग रही थी। उधर दूर बायीं तरफ बेतवा नदी यहीं से चमचमाती दिखाई दे रही थी। नदी पर बना पुल यहॉं से बड़ा छोटा दीख रहा था।

ओरछा- लगभग पांच सौ साल पहले मध्य भारत के बुन्देलखण्ड क्षेत्र की राजधानी रहा यह स्थान पर्यटन का बहुत बड़ा केंद्र है। यह दिल्ली-मुम्बई रेल लाइन के जंकशन झांसी से पंद्रह किलोमीटरदूर है।

साधन- झांसी से ओरछा के लिए सबसे सरल साधन बस और टैम्पा हैं। झांसी से ओरछा के लिए ऑटो टूसीटर भी चलते हैंऔर निजी कार टैक्सी भी चलती है। ओरछा नाम का रेल्वे स्टेशन झांसी से मउरानीपुर होते हुए मानिक पुर जाने वाली लाइन पर बस्ती से पंाच किलोमीटर दूर बनाया गया है।

ठहरने के साधन-ओरछा में लोक निर्माण विभाग और सिंचाई विभाग मध्यप्रदेश सरकार के रेस्ट हाउस, मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम की तरफ से संचालित बेतवा कॉटेज की वातानुकलित कॉटेज और होटल शीश महल तथा बहुत सारे थ्री स्टार और सुविधायुक्त निजी होटेल हैं। आजकल तो ओरछा में बहुत से लोग अपने घर में एक कमरा वातानुकूलित बनवा कर सैलानियों को देने लगे हैं जिनमें रहकर विदेशी यात्री भारतीय ग्रामीणों का रहन सहन , खाना पीना, रसोई वगैरह निकट से देखते हैं।