बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 10 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 10

भाग - १०

पिछली बार की तरह दरवाजे की आड़ में नहीं गई, लेकिन अम्मी की आड़ में जरूर बैठी रही। अम्मी ने उसे शुक्रिया कहा तो मुन्ना ने कहा, 'अरे चाची इसमें शुक्रिया की कोई बात नहीं है। बेनज़ीर की मेहनत का ही है सब। यह अपने काम में बहुत माहिर हैं । मुझे पता ही नहीं था। नहीं तो मैं पहले ही संपर्क करता। जो पैसे बाहर किसी को दे रहा था वह घर के घर में ही रहते।'

'बेटा क्या करें। समय के आगे हम कुछ नहीं कर पाते। जिस चीज का समय जब आता है, वह तभी होता है।' इसके साथ ही अम्मी ने मुन्ना से किस्त वाले पैसे लेने, ऑनलाइन सेल और साइन की बात उठाई तो उसने पैसों के लिए साफ मना करते हुए कहा, 'जब टीवी की किस्तें खत्म हो जाएं, तब आप मेरे पैसे दीजियेगा।' साइन के लिए बोला, 'कल एक कॉपी-पेन इन्हें दे दूंगा, साइन भी बता दूंगा, उसी में यह प्रैक्टिस करेंगी । ऑनलाइन सेल की कार्रवाई होती रहेगी । कल जब यह आएँगी तो वहीं कंप्यूटर पर कर दूंगा । ध्यान नहीं था, नहीं तो लैपटॉप लेकर आता।'

मुन्ना ने बड़े विस्तार से सब बता दिया। जब वह बता रहा था, तब मैं उसकी बातों में जैसे खो गई थी। मुझे उसकी बात करने का लहज़ा बहुत खूबसूरत लग रहा था। उनके जाते ही अम्मी ने कहा, ' बेंजी ऐसा है कल सबसे पहले किस्त जमा कर आओ। कल आखिरी दिन है। नहीं तो वह मुए फिर मुन्ना को फोन कर देंगे।'

'ठीक है अम्मी, लेकिन वह दस बजे के बाद पैसा जमा करते हैं। यहां सेंटर में नौ बजे पहुंचना है। बीच में छुट्टी लेना मुनासिब नहीं है। मुन्ना कहेंगे कि अभी पहली तनख्वाह उठाई और लापरवाही शुरू कर दी।'

' बात तो तू ठीक कह रही है, फिर कैसे होगा काम?'

' एक ही रास्ता है कि शाम को छः बजे जब सेंटर से लौटूं, तो तुरंत वहां चली जाऊं।'

'ठीक है। बेंजी एक बात कहूं, मैंने ख्वाबों में भी नहीं सोचा था कि, एक-एक करके मुझे सारे काम एक दिन अपनी फूल सी बेंजी के कंधे पर डालना होगा। मगर कर भी क्या सकती हूँ, जैसी अल्लाह की मर्जी। अच्छा हां, मुन्ना क्या कह रहा था कि वह कौन सा डाइट अरे वह भला सा नाम ले रहा था। बड़ा मोबाइल लेना पड़ेगा । तभी वह सब बेचने-बांचने का काम हो पायेगा ।'

' हां अम्मी, एंड्रॉयड मोबाइल के लिए कह रहा था। उसके बिना काम नहीं चल पायेगा।'

' बहुत महंगा होगा।'

' हाँ अम्मी, पन्द्रह-सोलह हज़ार से कम तो क्या होगा।'

मेरे मन में एक बार आया कि, , अम्मी को बता दूं कि बहनोइयों द्वारा चुपके से भेजा गया एक मोबाइल आज भी मेरे पास है। मैं उसे खूब अच्छे से चला लेती हूं। तुम्हारे साथ टीवी इसीलिए नहीं देखती क्योंकि मैं पहले से ही सब कुछ उसी पर देखती आ रही हूं। वह सब भी जो आपके साथ टीवी पर देख नहीं सकती। क्योंकि वह सब टीवी पर आ भी नहीं सकता।'

' ऐसा क्या देखती थीं मोबाईल पर वो टीवी पर नहीं आता और अम्मी के साथ देख भी नहीं सकती थीं ।'

मेरे इतना पूछते ही बेनज़ीर ने बड़ी अर्थ-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि, आप मेरी बातों का अर्थ नहीं समझ पाए। मेरे मुहं से ही सुनना चाहते हैं, तो सुनिए। मैं पॉर्न मूवीज की बात कर रही हूं। एक बात यह भी कह दूं कि, माने या ना माने, जिसके पास मोबाइल होता है, वह कभी न कभी जरूर देखता है। जैसे बहनों के जाने के बाद एक दिन अचानक ही खुल गया था, और मैं अचरज में पड़ कर देखती ही रह गई। तभी से जब मन होता था, तब देख लेती थी। ऐसे ही हर कोई किसी न किसी दिन देख लेता है। उसमें सारे के सारे औरत-मर्द ज़ाहिदा-रियाज़ वाला ही खेल खेलते दिखते हैं। सब बड़े गंदे -गंदे से दिखते हैं। फिर भी चाह कर भी देखने से हम खुद को रोक नहीं पाते। मैं भी जब देख लेती थी तो उन सबको तमाम लानत भेजती थी कि बेहया-बेशर्म कैमरे के सामने ऐसी हरकतें करते, अपनी शर्मगाहों की ऐसी नुमाइस करते तुम लोगों को लाज नहीं आती।

तुम्हारा दिल नहीं कांपता कि, तुम सारी दुनिया को दिखाने के लिए यह जो करते हो, दिखाते हो चंद रुपए के लिए, कभी सोचा है कि, तुम्हारी यह गन्दी हरकतें कभी तुम्हारे बच्चों की नजरों में पड़ जायेंगीं, तो क्या होगा? ना जाने कितने बच्चे इस दौर से गुजर चुके होंगे, देख कर वह क्या सोचते होंगे, कि उनके वालिद ऐसी गन्दी हरकतें करते हैं। लेकिन क्या ताज्जुब कि तुम सब बच्चों को भी यही सब दिखाकर, उनको भी अपने जैसा ही बना देते होगे । जिससे वह तुम पर उंगली ना उठाएं। जो भी हो मैं तुम सब पर हज़ार लानत भेजती हूं।

यह अजीब तमाशा देखिए कि, जिसके बारे में सोचती कि यह गलत है। लानत भेजती। और जब पहली तनख्वाह मिली तो ना जाने किस मूड में आ गई कि, इन बेशर्मों को खूब देख डाला।'

'क्या आज बता पाएंगी कि, उस दिन ऐसा मूड क्यों बन गया था? क्या पैसे मिलने के कारण एक तरह से आपने जश्न मनाया था? क्या चल रहा था उस समय मन में? कुछ तो साफ कीजिए।'

'मुझे लगता है किआज भी बता नहीं पाऊँगी । मन में बस अजीब सी खुशी थी। और उस खुशी को मनाने के लिए मेरे साथ कोई नहीं था। तो शायद वह ज़ज़्बात इस तरह से सामने आ गए। इससे ज्यादा कुछ बताने के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं।'

'कोई बात नहीं आप आगे बताइए।'

'आगे यह कि, मैं जब अगले दिन सेंटर पर गई, तो दिन भर बेसब्री से इंतजार करती रही कि कितनी जल्दी छुट्टी हो और मैं बाजार जाऊं। जब-तक घर नहीं पहुंची तब-तक मुझे यह इंतजार बहुत लंबा लगा।आते ही पहले अम्मी को चाय-नाश्ता दिया, फिर जल्दी से तैयार हुई कि देर ना हो जाए। नए कपड़े बदले। हल्के नीले रंग का खूब कढा हुआ चिकन का सूट पहन लिया था, कुर्ता और चूड़ीदार पजामा। उसको लाने के बाद, उसमें मैंने अपने मन से और ढेर सारी डिजाइनें बना दी थीं। जिससे वह देखने में और ज्यादा खूबसूरत और बहुत महंगा लग रहा था। दुकान द्वारा यह रिजेक्ट सूट भी मैं महीने भर की बचत के बाद खरीद पाई थी।

बड़े जोश में तैयार होकर अम्मी से पैसे मांगे। किस्त देने के अलावा कुछ और भी खरीदारी करनी थी। अम्मी ने पैसे देते हुए कहा, 'संभाल कर जाना। ज्यादा देर नहीं करना, ज्यादा अंधेरा ना होने पाए।'

सूट की तारीफ करते हुए कहा, 'बेंज़ी यह तुझ पर बहुत फब रहा है, बहुत खूबसूरत लग रहा है। अल्लाह से दुआ करती हूं कि मेरी बेंज़ी को दुनिया की नजर ना लगे ।'

वह दुआ दे रही थीं, और मैं सोच रही थी कि, कहीं अम्मी यह ना कह दें कि बेंज़ी चिकन के कपड़े हल्के होते हैं। तू बुर्का डालकर बाहर जा। लेकिन बच गई, वह इस बारे में कुछ बोलीं ही नहीं। मैंने उनकी दुआओं की ताकत लिए जल्दी से रिक्शा लिया और किस्त जमा कर दी। किस्त जमा करके मैंने इतनी राहत महसूस की बता नहीं सकती। वहां से निकली तो सबसे पहले कपड़ों की दुकान पर गई।

वहां अम्मी के लिए एक सेट कपड़ा, उनके बिस्तर के लिए दो चादर, तकिया कवर भी लिया क्योंकि चादर और तकिए के कवर बहुत पुराने हो गए थे। कई जगह फट गए थे। यही हाल मेरे बिस्तर का भी था। लेकिन अपने लिए नहीं लिया। सोचा पैसे बहुत ही ज्यादा खर्च हो जायेंगे, और फिर बिस्तर पर मैं सोती ही कितना हूं। महीने में बीस-बाईस दिन तो ज़ाहिदा -रियाज़ और फिर उनकी ही तरह के खेलकूद करने वाले लोगों को मोबाइल पर देखती हूं। उसके बाद तो जमीन मेरा बिस्तर, चादर, तकिया होते हैं। तन के सारे कपड़े रात भर के लिए दीवारों से टकराए पड़े होते हैं।

कपड़े, चादर आदि खरीदने के बाद मेरे पास अच्छे-खासे पैसे बचे थे। मन में आया चलो कुछ और भी खरीदारी कर लूं। मगर एक सामान सोचती तो कई और सामानों की फेहरिस्त सामने आ जाती। जिससे लगता कि पैसे कम पड़ जायेंगे, फिर वह सामान छूट जाता। मैं बाजार में इधर-उधर लोगों को देखती, खुद में सिमटती-संकुचाती, लोगों को कनखियों से देखती कि, क्या वह लोग मुझे देख रहे हैं, आगे बढती जा रही थी।

असल में मुझे कपड़े खरीदते समय दुकान पर बड़ा संकोच हो रहा था। वहां गल्ले (कैश काउंटर) पर बैठा आदमी बार-बार मुझ पर नजर फेंक रहा था। उसकी नजर मेरी भरी-पूरी छातियों से टकराकर लौट जा रही थीं। ऐसे ही टहलते-टहलते मैं काफी दूर तक चली गई। दुकानों में लगे सामानों को देखती उस मशहूर बाजार में पहुंच गई। जिसका बचपन से नाम सुनती आ रही थी।'' गड़-बड़झाला ''।'

लखनऊ में '' गड़-बड़झाला '' बाजार महिलाओं के अंदरूनी कपड़े, साज-श्रृंगार, क्रॉकरी, क्रॉफ्ट आदि की बड़ी बाजार है। ऐसी पतली-पतली गलियां कि लोग अगल-बगल से निकलें तो कंधे छिल जाएं। मेरे कंधे भी लोगों से टकरा रहे थे। अजीब सी सिहरन हो रही थी। खरीददारों में अधिकांश महिलाएं और लड़कियां ही थीं। बहुत सी महिलाओं के साथ दूध पीते बच्चों से लेकर दस-बारह साल तक के बच्चे भी थे। दुकानों पर सामान बेचने वाले करीब-करीब सब मर्द थे।

मैं इस बाजार की भूलभुलैया सी तंग गलियों में एक-एक दुकान, दुकानदारों, खरीदारों महिलाओं का मुआयना करती रही। मैं आश्चर्य में थी कि एक भी दुकानदार ऐसा नहीं मिला जो कपड़े वाले दुकानदार की तरह किसी महिला पर नजर फेंक रहा हो। जबकि सब के सब महिलाओं से जुड़े सामान ही बेच रहे थे। उनके अंदरूनी कपड़ों, बाकी समानों को डिब्बों से निकाल-निकाल कर, खोल-खोल कर दिखा रहे थे, और महिलाएं बेहिचक अपनी पसंद, अपना साइज बता रही थीं।

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि, मैं उसी दुनिया में हूं, जहां महिलाओं से छेड़-छाड़ बलात्कार की घटनाएं वैसे ही होती हैं, जैसे रोज सुबह-शाम होती है। छोटी-छोटी दुकानों पर हर तरफ महिलाओं के सामान ऐसे टंगे थे जैसे धोबी घाट पर, धोबी बड़ी सी डोरी बांधकर उस पर कपड़े फैलाता है।

अब-तक अंधेरा हो चुका था। दुकानें लाइट से जगमगा रही थीं। मैं न जाने कितनी दुकानों को देखती चलती रही और बड़ी देर बाद यह तय कर पाई कि, आज मैं अपने लिए अंदरूनी कपड़े खरीदूंगी। अम्मी तो अब कहीं निकलती नहीं। अब एक ना एक दिन तो मुझे खुद ही खरीदना ही पड़ेगा । मेरे अंदरूनी कपड़े भी तो अम्मी के बिस्तर की चादर और तकिए की तरह फट गए हैं। खींचतान कर, किसी तरह टांकें लगा-लगा कर काम चला रही हूं। अब तो रोज ट्रेनिंग सेंटर भी जाना पड़ता है। तमाम लोग होते हैं। कहीं कोई पट्टी-सट्टी खुल गई या टूट गई तो बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी ।

यह सोचते-सोचते मैं कोई ऐसी दुकान खोजने लगी, जिसमें सामान महिला बेच रही हो। लेकिन बड़ी मशक्कत के बाद भी ऐसी दुकान ढूंढ नहीं पाई, तो एक दुकान में बड़ी हिम्मत करके चली गई। बहुत ही छोटी सी दुकान में। दुकान के बराबर एक काउंटर बना हुआ था। दुकान की कुल लंबाई-चौड़ाई एक बेड के बराबर ही थी। अन्दर की तरफ दुकानदार था। एक पतली सी गली जिसमें ग्राहक खड़ा भर हो सकता था। मैं पहुंची तो एक महिला सामान पैक करवा कर निकल रही थी। चौदह-पन्द्रह साल की एक लड़की भी उसके साथ थी। शायद वह उसकी बेटी थी।

मेरे पहुंचते ही बड़ी तहजीब से दुकानदार बोला, 'आइए मैडम। बताइए क्या दिखाऊं।' उसकी बात सुनते ही मेरी जैसे घिघ्घी बन्ध गई। मुंह से आवाज ही नहीं निकल रही थी। सामने शीशे के शो-केस में दोनों कपड़े, बड़े ही करीने से लगे हुए थे। ढेरों टंगे हुए थे। दुकानदार ने दुबारा पूछा तो मैं थोड़ा अचकचा कर बोलने की कोशिश करने लगी ।

इतना बुरी तरह हकलाने लगी थी कि, शब्द साफ-साफ निकल ही नहीं रहे थे। बस कपड़े  की तरफ इशारा ही कर पाई। दुकानदार के लिए इतना इशारा काफी था। वह समझ गया कि मुझे क्या चाहिए। उसने बड़ी शालीनता से कहा, 'आप परेशान ना हों। मैं अच्छी से अच्छी कम्पनी का सामान दिखाऊंगा ।' फिर उसने नंबर पूछा तो मैं बगले झांकनें लगी । क्योंकि अम्मी ही लाकर देती थीं। उनमें कुछ में गिनती एक छोटी सी जगह लिखी तो रहती थी लेकिन उन्हें मैं कभी पढ़ ही नहीं पाई थी।'

' तो क्या आप को एक बार फिर से साइन करने वाली बात याद आ गई और आप में फिर वही गुस्सा, शर्मिंदगी ...।'

' अब क्या बताऊं उस समय जैसी हालत से मैं गुजरी, जो अहसास मैंने किया उसे क्या कहूं, कैसे कहूं, मेरी कुछ समझ में अभी तक नहीं आया। उस दुकानदार ने क्या सोचा, समझा यह भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा । मैं कुंए की मेढकी हूं।

मेरी यह हालत भांपते उसे देर नहीं लगी । उसने मुझे अनपढ समझा था या संकोची यह तो वही जाने, लेकिन उसने बिना देर किए काउंटर पर नीचे की तरफ बनी अलमारी में से एक के बाद एक कई डिब्बे निकाल कर रख दिये। ना जाने किन-किन कंपनियों के नाम ले लेकर कपड़े निकाल-निकाल कर दिखाने लगा । बोला, 'यह छियालिस नंबर आपके फिट होगा । इसका कपड़ा बहुत मुलायम है। गर्मी में बहुत आरामदायक है। यह चार कलर में मिल जाएगा। आप पसंद करिये वही पैक कर देता हूं। अगर कोई कमी-बेसी होगी तो कल दोपहर में आकर आप बदल भी सकती हैं। ' उसका नंबर बताना था कि मेरे रोंगटे एकदम खड़े हो गए । मुझे लगा जैसे मेरी छातियाँ उसके सामने खुली पड़ीं हैं, और वह उनकी नाप ले रहा है । तन-बदन में एकदम आग लग गई, जी में आया कि, इसी आग में पूरी दुनिया जला कर राख कर दूँ । जला दूँ उन सब को जिन्होंने मुझे जाहिल बना कर एक जानवर की तरह

भटकने के लिए छोड़ दिया।'

यह कहते-कहते बेनज़ीर इतनी भावुक हो गईं, कि आगे तुरंत कुछ बोल नहीं पाईं। मैं शांत उनकी मनःस्थिति को समझने का प्रयास करता रहा । मेरे मन में छात्र जीवन में पढे संस्कृत के दो श्लोक गूंजने लगे, पहला ''माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।'' और दूसरा '' येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।'' गुरु जी जब जीवन में शिक्षा का महत्व समझाते हुए यह श्लोक पढ़ते थे, तब उनकी बातों को जितनी गहराई तक समझा था, उससे कई गुना ज्यादा बेनज़ीर की स्थिति, उनकी बातों ने उन कुछ मिनटों में ही समझा दिया। मैंने सोचा बेनज़ीर इन दोनों ही श्लोकों की प्रभाव सीमा में नहीं है, लेकिन उस दूकानदार के सामने जिस हाहाकारी यातना से यह गुजरीं, उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? केवल माँ-बाप ?या वह समाज, वह व्यवस्था भी जिसके अंग इनके माँ -बाप थे, जिसके प्रभाव से अलग वह कुछ सोच ही नहीं पाए।

बेनज़ीर की हालत देख, मैंने सोचा आज बात-चीत को यहीं विराम देना पड़ेगा, लेकिन जल्दी ही वह सामान्य होती हुईं बोलीं, 'वह बिना रुके, कपड़ों के कसीदे पढे जा रहा था। मैं शर्म-संकोच से गड़ी जा रही थी। किसी तरह उसे रंग बताया नीला और सफेद। डिजाइनें बताईं जो अक्सर मोबाइल पर विदेशी औरतों को पहने देखा करती थी। लौटते वक्त मैंने अम्मी के लिए फल भी ले लिए। मेरा मन अब गुस्से को भूल चुका था।क्योंकि मन की चीजें खरीद चुकी थी।और मैं रिक्शा ना करके पैदल ही घर को चली।