UJALE KI OR - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 12

उजाले की ओर --12

------------------------

स्नेही मित्रो

नमस्कार

प्रभातकालीन बेला,पक्षियों का चहचहाना ,पुष्पों का खिलखिलाना फिर भी मानव मन का उदास हो जाना बड़ी कष्टदायक स्थिति उपस्थित कर देता है | हम यह भूल ही जाते हैं कि प्रकृति हमारे लिए है और हम प्रकृति के लिए |क्या प्रभु प्रतिदिन विभिन्न उपहार लेकर हमें प्रसन्न करने नहीं आते ? कभी सूर्य की उर्जा के रूप में तो कभी प्राणदायी वायु के रूप में ,कभी वर्षा की गुनगुनाती तरन्नुम लेकर तो कभी चंदा,तारों की लुभावनी तस्वीर लेकर|

प्रकृति के तत्वों से बना यह शरीर जब अपनी मानसिक स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता तब अनेकानेक झंझावातों में फँस जाता है | न जाने कितनी और कैसी बातों में घिर जाता है , हम छोटी-छोटी बातों में असहज हो उठते हैं और स्वयं को कोसने से बाज नहीं आते|

यदि हमारी मनचाही कोई बात न हो तब हम इतने झुंझला जाते हैं कि अपना पूरा दिन खराब कर डालते हैं |जीवन का एक-एक दिन नहीं एक-एक पल कितना बहुमूल्य है ,हम भुला बैठते हैं और पीछे घूमकर देखते रह जाते हैं जिसका किसी के पास कोई निदान नहीं होता |हाँ,निदान होता है ---वो भी किसी के पास नहीं,हमारे अपने पास,वो भी यदि हम चाहें तो !

हमारे मन का दर्पण हमें इस बात का अहसास कराता है कि हम वास्तव में कर क्या रहे हैं? अब यदि दर्पण की सच्चाई पर हम विश्वास नहीं कर पाते तब वह हमारी समस्या है ,दर्पण की नहीं | मन को इसीलिए दर्पण कहा गया है कि हम उसमें अपना प्रतिबिंब स्वयं ही देखें |आवश्यक नहीं है कि हमें कोई और हमारी तस्वीर दिखाए ,उलझन यहाँ सुलझ सकती है जब हम स्वयं अपनी तस्वीर पर चढी हुई धूलदेखकर स्वयं ही उसको साफ़ करें |

हम जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे अधिक अस्थिर होते जाते हैं,हमारे अनुपात में बच्चे अधिक स्थिर व सहज होते हैं |इसका कारण हमारी परिस्थितियाँ,हमसे जुड़े हुए लोग,उनके साथ हमारे अनुभव व अन्य कई प्रकार के कारण होते हैं |किन्तु यह भी सत्य है हम पर कोई अन्य हावी नहीं हो सकता,किसीके दुःख देने से हमें पीड़ित नहीं होना है |यह केवल हमारा मन ही है जो हमें स्वस्थ अथवा अस्वस्थ रखता है |हमें केवल अपने मन पर ध्यान केन्द्रित करना होता है कि उसके भीतर कितनी तीव्र आँधी चल रही है ! इस आँधी को पहचानकर हम स्वयं को उसकी चपेट से बचा सकते हैं |

जीवन की यात्रा में न जाने कितनी ऎसी घटनाएँ घटित हो जाती हैं जिनके बारे में हम कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकते और दुखों के घाव अपने मन को दे बैठते हैं |यदि ध्यान से सोचें तो पाएँगे कि अनहोनी किस युग में नहीं हुई हैं ?जीवन किसी भी काल अथवा युग का क्यों न हो उसमें कुछ न कुछ तो ऐसा घटित होता ही है जो मनुष्य को सोचने के लिए विवश कर देता है कि जीवन के नाटक में हम सब न जाने कितने नए और नाटक खेलते हैं और अपने विभिन्न पात्र अदा करते रहते हैं ! वास्तव में हम जीवन के मंच पर अपने पात्र ही तो निभा रहे हैं |किसीको कोई पात्र मिला है तो किसीको कोई | पुन: रंगमंच पर पात्र बदलते हैं ,उनकी वेशभूषा बदलती है ,उन सबके अनुसार ही उनके हव-भाव व विचार भी बदलते हैं | अब जैसा पात्र मिला है ,वैसा ही तो हमें निभाना है |

हम मनुष्यों को तो अपने पात्र ईमानदारी से निबाहते हुए उस सृष्टि के प्रति प्रतिपल धन्यवाद अर्पित करते रहना है जिसने हमें इन पात्रों को निबाहने का अवसर प्रदान किया |

कोई सुख दे अथवा दुःख ,आदर करे अथवा निरादर हमें यह समझना होगा कि ईश्वर ने उसे यही पात्र निबाहने के लिए दिया है ,उसे वही वेशभूषा धारण करनी है जो उसे मिली है और अपने पात्र को निबाहना है |

न किसी से शिकवा ,न शिकायत दोस्तों,

ज़िन्दगी है ,इसमें किरदार निभाने हैं|

पात्रता न पैदा कर सकें ,दोष नहीं किसीका

इसके लिए तो सैकड़ों बहाने हैं |

आपका दिन शुभ हो ,मंगलमय हो

इसी भावना के साथ

आप सबकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती

pranavabharti@gmail.com

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED