सौतेली मां राजनारायण बोहरे द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सौतेली मां

क्हानी-

छप्पर में से पड़ रहे टपके से एक बूंद और शरीर पर गिरी। उसके सारे शरीर में सिहरन आ गई। कमरे में नजर फेंकी तो सारा कमरा टप टप के शोर से भरा हुआ था, तिल रखने को भी जगह न थी। अपनी जगह पर ही गुड़ीमुड़ील होकर पड़ा रहा। लगता था कि पूरी अटारी टप टप टपक रही थी। वर्षा की टप टप को चीरते हुए एक तेज हंसी की आवाज गूंजी, तो उसने पहचाना, नीचे के कमरे में से आरही अमृत की ही आवाज थी। अमृत उसका बड़ा बेटा है जो कभी उसकी अनन्य सेवा करता था, इस वक्त वही कैसा मुक्त होकर आनंद की हंसी हंस रहा है, बिना इस बात की परवाह किए कि उसका बाप ठीक से सो भी नहीं पा रहा, टपकती अटारी में बूंदों की टपर टपर देखता हुआ बैठा है।

अमृत से छोटा उनका दूसरा बेटा जगन है। वह भी खूब सेवा करता था। दोनों मिलकर काम में भी हाथ न लगाने देते थे बल्कि उन्होंने ही काम छुड़ा दिया था । कितना प्रेम और आदर बताते थे! लेकिन आज लगता है जैसे सभी कुछ बदल गया है । उन दिनों दोनों सेवा करते थे, इस सबका कारण था इनकी सौतेली कही जाने वाली लेकिन अपने जाये से ज्यादा लाढ़ लढ़ाने वाली इनकी मां गंगा। गंगा यूं तो अपने परिवार और रिश्तेदारों में कड़क मिजाज मानी जाने वाली औरत थी पर पहली पत्नी के बेटो को कनक ने उसे सदा लाढ़ लढ़ाते देखा।

गंगा को ऐसे वक्त घर लाना पड़ा जब जुड़वा बेटे अमृत और जगन को जनम देकर उनकी मां जमुना सुरग सिधार गयी। रातों दिन रोते बच्चों ने घर ही नही मोहल्ले को हलाकान कर दिया था। हाल के जाये बेटे तो एक मां की गोदी चाहते हैं, और फिर इन्ही बच्चों के नाना ने तीसरे दिन हीकह दिया था कि रहने ऐसे तो ये दोनों मर ही जायेगे, लाला, आप ऐसा करो कि तुरत ही दूसरा ब्याह कर लो।

वह मुंह बाये अपने ससुर को देखता रह गया था , लेकिन वे बहुत दृड़ होकर यह बात कह रहे थे , और खुद ही अपने साले के पास जा पहुंचे थे जिनकी बेटी गंगा भी जमुना की हमउम्र थी और कमजोर माली हालत की वजह से बीस साल की होकर ब्याही नही हो पायी थी। तब बहनोई के दबाब के चलते जमुना के मामा ने अपनी बेटी का बहुत ही साधारण ब्याह जमुना की तेरहवीं होते होते उनसे कर दिया था। अपने घर में लड़की बन कर घूमती गंगा इस घर में घुसते ही लरकौरी हो गयी थी-यानि दो पुत्रों की मां। उसने बहुत ललक से दोनों बच्चे सम्हाले , और कुदरत का चमत्कार कि उसके भीतर छिपी मां झट से बाहर आ गयी थी जिसने इस लगन से बच्चों की परवरिश करना शुरू कर दिया कि उनकी सगी मां भी क्या करती।

गंगा तो उनके बच्चों को ही नही उनको भी जीवन देने वाली स्त्री भी थी । जिस दिन से उसका विवाह हुआ, उसे लगता वह धन्य हो गया था। गंगा ने आते ही कह दिया था कि हमको संतान नहीं चाहिए, तो पांच बरस तक उसने जाने क्या देशी जड़ी बूटी का इलाज किया कि सचमुच उसे कोई बच्चा नही हुआ फिर मोहल्ले की औरतों और नाते-रिश्तेदारों के दबाब में गगा उम्मीद से हुई तो उसे लड़की पैदा हुई, सब दुखी थे लेकिन वह चहक रही थी-’चलो मेरे बेटों कीकलाई राखी पर सूनी नही रहेगी, इनको राखी के धागे बांधने वाली आ गयी घर में। ’

एक के बाद एक और बेटी हुई तो भी उसे कोई दुख न था। सदा ही बेटियों को दूसरे नंबर पर रखती गंगा और बेेटों को पहले नम्बर पर। जीवन भर सेवा करती रही घर को धन-धान्य से भरती रही, आगत रिश्तेदारों को मानती रही। बहुत इत्मीनान से बच्चों को पाला पोसा, खुश रखा। खूब पढ़ाया । बच्चियों की शादी की, बेटों की भी बहुत चाव से बहुयें लेकर घर आयी। अपने दोनों लड़कों को भी वह जितना लाढ़ लढ़ाती उतना ही नियंत्रण में रखती थी।

लेकिन अंतिम दिनों में बीमारी के समय .....

उसका पूरा शरीर कंप जाता है गंगा की याद कर के । आखिरी दिनों में उसे पेट में जाने क्या बीमारी हो गई थी, कि दर्द ही दर्द बना रहता था, वह चल फिर नहीं पाती थी, सो चौबीसों घंटे लेटी रहती थी। अत्यंत दुबली हो गई थी वह। बहुत थोड़ा खाती पीती थी। लेकिन उन दिनों अमृत और जगन में बड़ा परिवर्तन हुआ था इन दिनों में । कुछ वर्षों पूर्व ही दोनों के विवाह कर दिए थे। दोनों बच्चों वाले हो गए थे । अब उनके मन में यह भाव आया था कि कितने ही लाढ़ लढ़ाए हों लेकिन गंगा उनकी सौतेली मां है। दोनों अपनी बीमार मां के पास भटकते न थे । वह बुलाती तो बच्चों को भेज देते और खुद घर सेस बाहर निकल जाते । पूछने पर उनकी घरवाली कहती थी- काम से गए हैं!

अपनी पत्नी की याद करके उसकी आंखें सजल हो आई । गंगा की आंखें उस समय सजल हुआ करती थी। वह भविष्य की चिंता में डूब जाती, और कहती- अमृत के दादा, देखना तुम मैं तो मर जाऊंगी यह दोनों दर-दर फिरेंगे । बड़ा तो धुआ लगा बेरोजगार है ही, छोटा भी कम नही। जगन भले ही मास्टर है , लेकिन मास्टर से क्या हुआ ,तनखाह से ज्यादा मिटाता है, बहुत फिजूल खर्च है । दोनेां में से यही लगता है कि जगन तुम्हें रख लेगा । उसी के पास रहना। हालांकि अभी तो भगवान ने तुम्हें समृद्ध बना रखा है ऐसे ही समृद्ध बने रहना, खुद काम करना। अपने हाथ का काम चालू रखना।’

वह कहता था कि ‘ऐसा ना कहो गंगा तुम अच्छी हो जाओगी।’

लेकिन वह कहती थी ‘यह तो मन बहलाने की बातें हैं। ’

एक रात को लगभग तीन बजे गंगा ने उन्हें हिलाया और कहा -‘अमृत के पिता देखो मैं जा रही हूं । मैं फिर कहती हूं तुम्हें इन पर आश्रित ना रहना, बेटियों के हाथ चले जाना, भगवान तुम्हें सलामत रखे! जरा अमृत को तू बुला दो।’

तब उसने अमृत को आवाज लगाई, लेकिन अमृत ने नहीं सुनी । जगन नौकरी पर था, अमृत घर में ही था ।दुबारा उसे पुकारा तो अमृत के बच्चों ने जवाब दिया -’दादा की तबीयत खराब है, सो सो रहे हैं! काहे को चिल्ला रहे हो ।’

वह जानता था कि अमृत जाग रहा है , सोच रहा होगा उठकर कौन आएगा। अम्मा बीमार है, परेशानी होगी। इसलिए बच्ची से यह कहलाकर टरका दिया। उसे बहुत क्रोध आया, लेकिन चुपचाप आकर पत्नी के सिरहाने बैठ गया।

उसे उदास देख पत्नी बोली ’तुम सोच काहे को करते हो? मैं जानती थी वह नहीं आएगा! सुनो मुझे बड़ी बैचेनी होरही है। मेरा सिर अपनी गोद में रख लो।’

ऐसा सुनकर उसकी आंखें बरस उठी। अपनी पत्नी का सिर गोदी में रखकर उसे एकटक देखता रहा। उसकी निश्छल चमकदार आंखें देख कर लगता था गंगा अभी भी स्वस्थ है ,वे आंखें मुंदती जा रही थी। बार-बार झटके से लग़ रहे थे । डूबती आवाज में बोली ‘ मेरी क्रिया कर्म में ज्यादा खलल डाले तो तुम जगन से कह के क्रिया कर्म ठीक से करा देना और तुम्हें यहां परेशानी दिखे तो मेरे मायके चले जाना। इन लोगों से ज्यादा बतबढ़ाव मत करना, मेरे नाथ, मैं चली मैं जा रही हूं ।’

और उसके हाथ गंगा के हाथ उसके पैरों की तरफ बढ़े अधूरे में ही रह गए कि वह अचानक बेहोश सी हो गई फिर कुछ देर बाद एक बड़ी सी हिचकी आई और उसने पाया कश्मीर का पिंजरा छोड़ कर आत्मा बाहर निकल गई है । उसने गंगा के हाथों को अपने हाथों में ले लिया और अपने सीने से लगा लिया । अगले ही पल वह चीख मारकर रोेपड़ा था। लेकिन गले की आवाज बंद थी। सोचने विचारने की शक्ति भी समाप्त हो गई थी, मस्तिष्क मौन हो चुका था और उसे भी बेहोशी आ गई थी।

वह उसी पर लेट गया। सुबह नींद खुली तो देखा वह रात भर से उसी के ऊपर झुका हुआ था।

गंगा को देखकर लगता था कि मैं गहरी नींद सो रही है । उसने उठकर गंगा पर चादर डाली और उठकर चल पड़ा था बाजार की ओर। आंखों में समंदर समा रहा था लेकिन वह उसको दबा के रोक रहा था। अंतिम संस्कार के लिए रोरी, आंटी, बताशे-मखाने और कफन दफन खरीद कर कुछ देर बाद जब वह लौटा तो देखा अमृत हंसता हुआ दरवाजे पर बैठा है । उसे शायद पता ही ना था कि घर में क्या हो गया है । उसके बच्चे किलोल कर रहे थे कि हाथ में लाल कपड़ा और दूसरा सामान देख कर भी सकते में आ गया। उसके पीछे पीछे घर में आकर खड़ा हो गया कि सहसा मुंह से निकला- कल गंगा हमें छोड़ गई । तुम्हारी तो तबीयत खराब थी ना , अब कैसी है तबीयत ?’

कहते-कहते गला भर गया और वह अटारी में चलागया ।

घर में जैसे हड़कंप मच गया सभी उसके अटारी की ओर दौड़ पड़े थे। उसने देखा कि अमृत की पत्नी दहाड़े मार-मार कर रो रही थी, बच्चे भी चीख रहे थे। उसके मन में एक नफरत सी भर गई मरने के पहले तो आखिरी क्षण में उसे देखने भी नहीं आये और अब ऐसा नाटक कर रहे हैं ।

उसके बाद 13 दिन तक तो उनका विवाह ठीक रहा । एकदम व्यवहार बदलने लगा । पूरा दिन हो जाता दोपहर के 3-4 बजे भी खाने के वास्ते कोई कुछ देता तो कभी किसी दिन भूखा ही रहता। बाद में जगन भी तेरह दिन में ही चला गया था, उसने झूठे सच्चे साथ चलने को कहा। जगप की पत्नी का बिल्कुल मन ना था तो उसने कहा अभी कुछ दिन तो मुझे यही हाल रहना है ।

कुस दिन यही हाल रहा, फिर वह कुछ सोचकर छोटी बेटी को ले आया और कहा कि महीना पंद्रह दिन यहीं रहो तुम्हारी मताई के बिना मुझे बुरा लगता है। अगले दिन से ही उसने अपने औजार सम्हाले थे । वह उम्दा बढ़ई था, हाथ का काम बहुत साफ मरता था। हाथ में वसूला हथोड़ा व कील का कटोरा लेकर वह गांधी पार्क पर चला गया था।

पहले ही दिन उसे काम मिल गया था। शाम तक उसने काम किया और सौ रूप्या कमा लाया था। लौटते में गृहस्ती का किराने का सामान ले आया था। बेटी को सामान दिया तो वह बोली कहां से ले आए ? कर्ज तो नहीं लिया ?

वह हंसा ‘नहीं अभी हाथ पांव च.लते हैं मेरे । कर्ज नहीं लिया।

उसने बेटी से कहा ‘बेटा अब तीनों तुम समझ लो यहीं रहोगी । चार चार महीने तीनों को रखूंगा। मैं अमृत के टुकड़ों पर नहीं पलूंगा।’

लेकिन यह बात अमृत की घरवाली ने सुन ली तो सारी योजना छार हो गई । वह तो काम करने के लिए बाहर निकला अमृत और उसकी घरवाली ने छोटी बेटी को खरी-खोटी सुना दी इतनी कि वह रोने लगी वे लोग कहने लगे तुम अम्मा के जेवर और दादा की कमाई समेटने के लिए आ गई हो तुम नहीं हो अकेली हिस्सा तो हमें भी चाहिए।’

घर लौटा तो छोटी बेटी धाड़े मार कर रो रही थी। उसे लगा कि क्या कहते हैं यह लोग ?

उसका दिल दहल उठा।

‘दादा तुम हमारे घर चलो । हम यहां नहीं रह पाएंगे ।

उसने टूटते मन से कहा कि - यहां रहो।

तो बेटी बोली - नहीं दादा हम यहां नहीं रह पाएंगे दादा और भाभी गुस्सा होते हैं ै

उसे अपने भाग्य पर ही रोना आ गया -कितना सही सोचा था गंगा ने!

जैसे तैसे लड़की को घर पर पहुंचा कर वापस लौटा।

आलमपुर जाने का सोचा उसने, आलमपुर यानी गंगा का मायका । आलमपुर पहुंचा तो उसे सब बदला बदला हुआ लगा। आलमपुर में उसके लिए पलके बिछाए रहते थे । वहां सब ने केवल खानापूरी की आओ कब आए हो? कैसे आए? कब तक रहोगे?

आखिर गंगा के नैहर में भी बदला हुआ व्यवहार देखकर वह जल्दी ही लौट आया।

फिर उसे ध्यान आया कि बड़ी लड़की की एक लड़की है उसे ले आता हूं खाना तो बना ही लेगी, यहीं पन्द्रह साल की होगी , पढ़ती लिखती रहेगी ।

वह उसी को ले आया, उसका स्कूल में एडमिशन करा दिया ।

कुछ दिन तो ठीक रहा फिर उसने देखा कि अमृत के बच्चे उसको भी पीटते और डांटते रहते थे । पता नहीं बेटी ने अपने बाप को पोस्ट कारड में क्या लिख भेजा कि दामाद अचानक आये और उसको ले गए ।

तब उसने विवश होकर एक खाना बनाने वाली लगा ली थी, जो सुबह सांझ आकर खाना बना जाती है वे हों न हो रख कर चली जाती है ।

अब कुछ दिनों से उस पर भी व्यंग बाण लगने लगे हैं -बुढ़ापे में क्या रंग चढ़ा है? बुढ़ापे में घर बसाने की इच्छा है, दादा के दादा पर डोरे डाल रही है !

आखिर रोटी बनाने वाली विधवा पंडिताइन भी तंग आकर कल कह रही थी कि- भैया अब नहीं सहा जाता है । यह सब तुम किसके लिए कर रहे हो ? तुम कल से किसी दूसरी रोटी वाली का इंतजाम कर लेना!

अभी अभी एक तो बूंद गिरी है । वह चौंका इस बार की बूंद बहुत गर्म थी। उसने छप्पर की तरफ देखा, पानी बंद हो गया था। छप्पर से तो पानी नहीं आ रहा था। ऐसा एहसास हुआ कि यह बरसात उसकी आंखों से हो रही है।

उसने आंखों में हाथ लगाया तो धारोंधार आंसू आ रहे थे । अपने आंसू रोक कर उसने चित लेट गया अभीवह हारा नही था, कोई न कोई रास्ता निकल ही आयेगा। सोचते हुए वह गहरी नींद सोगया।