पश्चाताप भाग -2 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पश्चाताप भाग -2

अब तक की कहानी मे पूर्णिमा किसी बात को लेकर बहुत दुखी है | उसी दुःख का अनुभव करती हुई वह अपनी बीती हुई ज़िन्दगी को याद कर रही है | पूर्णिमा अपने भाई बहन मे सबसे बड़ी है |बचपन मे ही उसकी माँ की मृत्यु हो जाने के कारण उसके छोटे भाई बहन की जिम्मेदारी उसके ऊपर आ जाती है | पूर्णिमा के जवान होने पर उसके पिता को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी | उसी की उम्र की और लड़कियों का विवाह होते देख वे और भी ज्यादा दुःखी हो गये थे | किन्तु उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर होने की वजह, और खाते-पीते घर के लड़को की ऊँची माँग को पूरा करने मे खुद को असमर्थ पा रहे थे | तभी दूर की एक रिश्तेदार ने उन्हें बिना दहेज के एक रिश्ता बताया | उसके पिता ने बिना जाँच पड़ताल किये रिश्ता स्वीकार कर लिया | यथा स्थिति विवाह सम्पन्न हो जाता है | ससुराल आकर पूर्णिमा को पता चलता है ,कि उसका पति शराबी है उससे पूर्णिमा को मानसिक व शारीरिक वेदना मिलती है |अब आगे...
पूरी रात आँखों मे नींद का कहीं पता न था | जैसे पूर्णिमा की रात्रि काले बादलो के बीच अपने चाँद को तलाशती है | वैसे ही आज यह पूर्णिमा भी जीवन के अस्तित्व को खुद मे ढूंढ रही थी |सुबह की चढ़ती धूप पूर्णिमा के माथे को धीरे से सहलाती है , जिससे उसका नींद का अालिंगन टूट जाता है, थोड़ी देर पहले ही जिसने अंक मे भरा था उसे | धीरे -धीरे खुद को सम्भालती हुई जैसे ही उठने को करती है कि अचानक पीछे से किसी ने उसका हाथ खींच लिया , पीछे मुड़कर देखती है, तो पति ने उसका हाथ पकड़ा हुआ था | किन्तु वह पकड़ रोज की भाँति अपनी तरफ जबरदस्ती खींचने वाली नही थी, फिर भी पूर्णिमा अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास करती हुई , कुछ कहने का प्रयास करती है कि, तभी उसके बोलने से पहले ही, "डरो मत पूर्णिमा ! मै कुछ नही करूँगा |" यह कहते हुए उसके पति ने उसका हाथ छोड़ दिया | पूर्णिमा उसी अवस्था मे खड़ी होकर सुनती रही | "मुझे माफ कर दो ! मैने तुम्हें बहुत दुःख पहुँचाया है न ?" छः साल की उम्र मे माँ गुजर गई | पिता जी ने खुद को शराब मे डुबो दिया | उनको देखा -देखी चोरी छिपे मै भी पीने लगा | एक दिन वो भी चल बसे | घर मे अकेला मै बचा गलत आदत की वजह से अच्छे लोग मुझसे दूर भागते | जैसे लोग मिले वैसी दोस्ती हो गई | पर अब मै अच्छी ज़िन्दगी गुजारना चाहता हूँ! तुम्हारे साथ! क्या तुम मेरा साथ दोगी! पूर्णिमा अपने पति मे अचानक आये इस बदलाव को समझ नही पा रही थी | बिना कुछ कहे वह शान्त होकर सबकुछ सुनती रही |वह क्या जवाब दे उसे कुछ समझ नही आ रहा था | वह धीरे से पंलग पर बैठ जाती है , उसका शान्त होकर बैठना मानो उसके पति के प्रति मौन समर्थन ही था | पूर्णिमा आज घर जल्दी आऊँगा | पूर्णिमा का पति एक ट्रक ड्राइवर था, कम्पनी से माल को इधर से उधर पहुँचाना उसका कार्य था| कभी -कभी इस कार्य की वजह से उसे शहर से बाहर भी भेज दिया जाता था | पूर्णिमा को अब यकीन नही था कि सबकुछ ठीक हो गया, किन्तु आशा के एक बीज ने उसके मन मे स्थान आखिर बना ही लिया था | आज पहली बार उसने अपना वह सूटकेस खोला जो उसे माईके से मिला था | सूटकेस खोलते ही कपड़ों के ऊपर कृष्ण जी कि मूर्ति देख उसकी आँखें भर आती हैं | उसके साथ ही एक परचा रख्खा था| जिसमे लिखा था ,"दीदी ! जीजा जी के प्रेम मे अपने बच्चों को मत भुला देना | " पूर्णिमा ने अपने भाई बहनो को आखिर माँ कि तरह ही तो पाला था | पत्र पढ़ते ही एक बार फिर पूर्णिमा बचपन की याद मे खो गई | उसे अपने छोटे भाई बहनो की शैतानिया याद आने लगी | उनके झगड़े मे वह किस प्रकार फैसले करवाती, अचानक जोर -जोर से हँसने लगती है |तभी सहसा उसे अपनी स्थिति का आभास होता है | चेहरे के भाव पुनः बदल जाते हैं| शादी के बाद आज पहली बार पूर्णिमा ने अपनी पसन्द की साड़ी पहन, सिंगार किया | आईना के सामने खड़ी देरतक खुद को कल्पना मे अपने पति की निगाहो से देखती रही ,कि तभी उसे पिछली घटनाएं एक-एक कर याद आने लगी, उसकी खुशियाँ शंकाओं के बादलो ने फिर से ढक कर मुँख पर मायूसी बिखेर दी हो जैसे | जल्दी-जल्दी सारा काम निपटा कर पूर्णिमा , पति का इन्तजार करने लगी, समय काफी बीत गया शाम से रात होने लगी | पूर्णिमा दलान मे ही कुर्सी लगाकर बैठ गई, न जाने कब आँख लग गई उसे पता ही न चला | अचानक आहट से नींद टूट जाती है, उसका ध्यान गेट की तरफ जाता है किन्तु यह आहट कही और से आई थी , इसका आभास होते ही वह खुद को घर मे अकेला जान भयभीत हो जाती है, और वहाँ से उठकर बेडरूम मे चली जाती | पुराने कबर्ड जो एक तरफ से पाया टूटा हुआ था , जिसे पूर्णिमा ने साफ सुथरा व्यवस्थित कर दीवार से सटा लगा दिया था | उसमे कुछ ढूंढने का प्रयास करती है ,यह उसकी तलाश थी, या फिर पति के इन्जार की उत्सुकता , जिसे व्यस्तता मे परिवर्तित कर खुद को बहलाने का प्रयास कर रही थी | अतः निराश होकर बिस्तर पर एक करवट लेट जाती है| नींद तो पहले ही टूट चकी थी , और फिर जो सोना ही न चाहे उसे नींद कैसी | रात घड़ी देखते हुए बीत रही थी कि ,अचानक सुबह होते -होते नींद ने फिर हल्की दस्तक दी | अचानक कुण्डी खड़काने की आवाज से पूर्णिमा चौक कर उठ जाती है दरवाजा खोलती है | सामने पति बड़े प्यार से पूर्णिमा का माथा चुमते हुए | पूर्णिमा शरमाती हुई, शिकायत भरे लहजे मे ये वक़्त है घर आने का ?? | कान पकड़ते हुए पूर्णिमा के पति ने कहा ,"माफ कर दो! आगे से देर से नही आऊँगा !" अच्छा हाथ मुँह धुल लीजिए खाना लगाती हूँ ! पूर्णिमा ने कहा | नही ! बहुत रात हो गई खाना नही खाऊँगा ! | पूर्णिमा शरमाती हुई फिर ?? | पति ने अंक मे भरकर फिर बताऊँ ! | तभी धड़ाक ! की आवाज से उसकी नींद टूट गई | यह आवज बाहर कुछ गिरने की थी | स्वप्न की गर्माहट ने पूर्णिमा को इस प्रकार सम्मोहित कर दिया था, कि आज सूर्य की किरणों का स्पर्श भी उसे न जगा सका | तीन दिन बीत गये पति का कुछ पता न था | आर्थिक हालात कुछ ऐसे थे कि आज तलाशने पर भी रसोई मे बनाने के लिए कुछ न था | भूख से व्याकुल पूर्णिमा पानी पीकर बाहर बरामदें मे बैठ जाती है | सहसा उसकी नजर बहन द्वारा दी कृष्ण जी की मूर्ति पर पड़ती है | जिसे पूर्णिमा ने बड़े प्यार से एक कोने मे चौकी लगाकर उन्हे स्थान दिया था | और कोई उपयुक्त जगह जो न थी | पूर्णिमा उन्हीं के समक्ष जा भूमि पर ही बैठ मूक वार्तालाप आँसुओं के भेट के साथ करने लगती हैं | तभी पड़ोस की एक महिला दरवाजे की कुण्डी खुली पाकर बिना कोई संकेत दिये अन्दर घुस आती है | पूर्णिमा को इस तरह देख वह भी चुप-चाप उसे लगातार देखती रहती है | अचानक पूर्णिमा का ध्यान टूटते ही उसकी नजर अपने समीप खड़ी महिला पर जाती है ,वह जल्दी -जल्दी अपने आँसू पोंछती सिर को पल्ले से ढक सकुचाते हुये, "माफ कीजिये! मैने पहचाना नही आप कौन? "अरे ! पहचानोगी कैसे? जब बाहर निकलोगी तब न पहचानोगी? अरे मै आपके पड़ोस मे ही रहती हूँ | मै आपको रोज देखती हूँ ! कपड़े निकालते और डालते ! | आपकी दलान मेरे घर की खिड़की से दिखाई पड़ती है | हमारा घर वो सामने दूसरी मंजिल पर है | "बहुत बार मन किया आपसे बात करने का , कई बार मैने आपको इशारे भी किये पर, ऐसा लगता था, कि आप कही खोये -खोये से रहते हो | आपने कभी मेरी तरफ देखा ही नहीं | आज आपका बाहर का गेट खुला देखा सो हिम्मत करके चली आई | अभी कुछ ही दिन हुए मुझे यहाँ आये | मेरे पति मल्टीनेशनल कम्पनी मे इन्जीनियर हैं | इनकी पोस्टिंग यहाँ हुई है | इनके जाने के बाद मै पूरी तरह अकेली हो जाती हूँ| कोई जान- पहचान या दोस्त भी नही मेरा | सारा दिन अकेली बोर हो जाती हूँ | आपको भी अकेली देखती हूँ, आपके पति क्या करते हैं? पति का नाम लेते ही पूर्णिमा सकपका गई, हाँ!हाँ! वो ड्राइवर हैं | मैने कभी आपके पति को नही देखा ? वह महिला पूछती है | पूर्णिमा थोड़ा सोचकर उनका काम ही ऐसा है| उन्हें अक्सर देर हो जाया करती है! | आप भी अकेले बोर हो जाते होगे न? पूर्णिमा ने हाँ मे सिर हिला कर उत्तर दिया | "चलिये! आज से हम दोनों दोस्त बनकर, एक -दूसरे का अकेलापन बाँट लेते हैं |" मेरा नाम प्रतिमा है !, और आपका? पूर्णिमा ! मेरा नाम पूर्णिमा है | बाते करते- करते दोनो एक दूसरे से इस प्रकार घुल -मिल गई ऐसा लग ही नही रहा था , कि वे आज पहली बार मिली है | जैसे वे पहले से ही एक दूसरे को जानती हों| अब प्रतिमा जो भी बनाती उसमे पूर्णिमा का हिस्सा जरूर लगाती | एक सप्ताह गुजर गया पूर्णिमा का पति घर वापस नही आया | प्रतिमा के साथ दिन कैसे गुजर जाता , पूर्णिमा को पता ही न चलता किन्तु रात्रि काटना उसके लिए भारी हो जाता | एक दिन बातो ही बातो मे पूर्णिमा मे अपने जीवन की सारी कहानी प्रेरणा को बता दी | उसे सुनकर प्रेरणा की आंखों मे आँसू आ गये, पोछते हुए बोली "आप कोई जॉब क्यों नहीं कर लेतीं? मुझ अनपढ़ को जॉब कौन देगा भला ? बचपन मे जिम्मेदारियों की वजह से खींच तान कर पूर्णिमा आठवीं कक्षा ही पार कर पाई थी | प्रेरणा कुछ सोचते हुए, "आपको जॉब मिल सकती है!| कैसे? पूर्णिमा बोली | "यह मै कल बताऊँगी !" अच्छा अभी मै जाती हूँ | इनके घर आने का समय हो गया | तभी एक घण्टे बाद कुण्डी खड़कने की आवाज आती है, पूर्णिमा को लगा उसका पति आ गया | दरवाजा खोला तो देखा प्रतिमा खड़ी थी, हाथ मे कुछ लिए हुए | "आप ने कुछ खाया? ?? ये आपके लिए! हाथ मे भोजन की थाली थमाते हुए | पूर्णिमा कुछ कह पाती इससे पहले ही, प्रतिमा यह कहते हुए, "इनका आने का समय हो गया है, मै जाती हूँ ! कल मिलेंगे! | " यह कहती हुई प्रतिमा तेजी से निकल जाती है | पूर्णिमा को प्रतिमा का साथ बहुत अच्छा लगता था | वह भी उसके पति के आफिस जाने के बाद उसके आने का इन्तजार करती , लेकिन आज बहुत देर बाद भी उसके न आने पर वह बार -बार दलान से, उसके घर कि तरफ देखती पर उसके घर पर कोई हलचल न थी, ऐसा लग रहा था कि सब बाहर गये हैं | दोपहर के शाम हो गई |तभी प्रतिमा हाथ मे कुछ लिए हुये, बड़ी खुश नज़र आ रही थी |कहाँ रह गई थी आज? देर लगा दी? क्या बात है कुछ खजाना मिल गया? पूर्णिमा मुस्कुराती हुई | प्रतिमा के साथ जितने भी पल बीतते सब हँसी ठहाकों के बीच, वह खुद को भूल जाती थी | ऐसे कैसे बता दूँ ? पहले मेरे हाथ मे कुछ रख्खो! | मै क्या रख्खूँ सब तुम्हारा ही तो है, एक तुम ही तो मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो | हम्म! अपना हाथ पूर्णिमा की तरफ बढ़ाने हुए | ये लो तुम्हारे लिए काम लाई हूँ! इसीलिए आज आने मे देर हो गई !| पूर्णिमा विषमय से प्रतिमा की तरफ देखती हुई | यह क्या है? एक दिन जब मैने तुमसे कहा था कि ये टेबल क्लाथ बहुत सुन्दर है, तुमने बताया इसे मैने काढ़ा हैं , कल तुम्हारी बात से मुझे ये आईडिया आया कि, तुम्हारे शौक और तुम्हारे हुनर, को तुम्हारी जाब मे बदल दूँ!एक दुकान से बात करके लाई हूँ ! बड़े कहने सुनने पर दिया है, किसी कस्टमर का है, उसे डर था कि कहीं खराब न हो जाये | मैने उससे कहा यदि खराब हुये तो मै इसके पूरे पैसे चुकता करूँगी तब जाकर दिया उसने | इसके एक फूल पर सौ रुपये मिलेंगे | पूर्णिमा काम पाकर काफी खुश थी | प्रतिमा से बोली "मै कैसे तुम्हारा एहसान चुकता कर पाऊँगी !" | प्रतिमा बोली "कर दी बेवकूफी वाली बात! , दोस्ती मे कैसा अहसान ! | "अगर एहसान मानना है तो लाओ वापस ले जाती हूँ! मुझे कोई शौक नही अहसान करने का!| "तभी दोनो ठहाके मार कर एकसाथ हँस पड़ती हैं |"क्रमशः.. मौलिक /