जिंदगी रुकती नहीं Alka Agrawal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी रुकती नहीं


मुनिया ने सुबह उठकर देखा, उसके दादाजी बालकनी में बैठे अकेले चाय पी रहे हैं। उनको देखने से लग रहा था कि वे बहुत उदास और दु:खी है । मम्मी रसोई में काम कर रही थी, पापा भी अपने काम में व्यस्त थे उसने घड़ी पर नजर दौड़ाई, सुबह के सात बजने वाले थे। वह भी जल्दी - जल्दी तैयार होने में जुट गई । सात बजे स्कूल बस आ जाती है और देर होने पर आज भी छुट्टी हो जायेगी, तब मम्मी तो डाँटेगीं ही, साथ ही आज की पढ़ाई भी खराब होगी। वह बैल्ट और टाई लगा ही रही थी कि मम्मी की आवाज आई, "बस आती ही होंगी, कितनी देर लगेगी तुम्हें तैयार होने में। बस मम्मी, मैं तैयार हूँ", कहते हुए उसने लंच-बॉक्स और बोतल उठाई और बाहर निकल गई।

मुनिया के मम्मी-पापा भी थोड़ी देर में तैयार हो कर चले जाएँगे। दोनों नौ बजे तक ऑफिस के लिए निकल जाते हैं। ऑफिस यहाँ से लगभग 25-30 किलोमीटर की दूरी पर है।"पिताजी, आपका खाना मैंने टेबल पर रख दिया है, अच्छी तरह से खाना है। कल भी आपने आधा ही खाया था । ऐसे तो आप बीमार हो जाएँगे।" यह मुनिया की माँ यानी महेश जी की बहू का स्वर था। बहू अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद, प्रयत्न कर रही थी कि ससुर जी के लिए उतना करे जितना कर सकती है। बहू के व्यवहार से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन वे यहाँ आकर अपनों के बीच में भी परायापन सा महसूस कर रहे थे। सबके जाने के बाद पहाड़ सा दिन काटना उनके लिए कितना कठिन हो जाता था, हालाँकि टेप- रिकार्डर, टी. वी., वी. सी. आर. वगैरह सब चीजें वहाँ थीं, लेकिन उन्हें हमेशा अकेलापन महसूस होता था । उन्हें मानव के स्थान पर मशीनों के साथ रहने की आदत जो नहीं थी ।

उन्होंने एक लंबी, गहरी साँस ली और सोचने लगे, एक पल में ही उनकी जिंदगी कितनी बदल गई? वे और उनकी पत्नी छोटे से शहर के उस साधारण से घर में कितनी अच्छी तरह रह रहे थे। जिंदगी की विभिन्न घटनाएँ किसी टी.वी. सीरियल के एपिसोड के रीकेप की तरह आँखों के सामने घूमने लगीं । दो वच्चे थे उनके, एक लड़का एक लड़की। सुंदर, सुशील, सुशिक्षित और समझदार पत्नी कमला, और यही उनका परिवार था। वे वहीं एक सीनियर सैकण्ड्री स्कूल में शिक्षक थे दोनों बच्चे भी पढ़ने में तेज थे, बेटी बड़ी थी, बेटा छोटा। कमला ने सलौनी को हर तरह से योग्य बनाया था। एम. ए. करने के बाद समय पर ही योग्य वर से उसका विवाह भी हो गया था। दामाद की ऑल इंडिया सर्विस है और इस समय वह तमिलनाडु में है । पर वे उसकी ओर से निश्चिंत हैं। बेटा प्रदीप हर क्लास में प्रथम आता रहा। बोर्ड की मेरिट लिस्ट में भी उसका नाम था, उसे बिना किसी तरह की कोचिंग के आई. आई. टी . दिल्ली में प्रवेश मिल गया था। उनके छोटे से शहर में तब लोगों की बधाई देने के लिए लाइन लग गई थी। दोनों पति-पत्नी गद्गद् हो गए थे। दोनों संतानों ने उन्हें जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ दी थीं। बच्चों की सफलता का श्रेय बच्चे व शिक्षक के अतिरिक्त सर्वाधिक माता-पिता को ही जाता है। सबकी जुबान पर यही बात थी । आखिर उन्होंने कितने त्याग और संयम से जीवन बिताया था । अपने मौज-शौक, मनोरंजन या सुविधाओं को बच्चों की पढ़ाई के सम्मुख उन्होंने हमेशा ही तुच्छ माना था।

प्रदीप एक बार पढ़ने दिल्ली क्या गया, वह दिल्ली का ही होकर रह गया । उसके ही कॉलेज में दीपिका भी पढ़ती थी। वे दोनों एक- दूसरे को पसंद करने लगे थे । अंतिम वर्ष में कैंपस इंटरव्यू में ही प्रदीप का एक बहुत अच्छी कम्पनी में चयन हो गया और दीपिका का दूसरी कम्पनी में। जब छुट्टियों में प्रदीप घर आया, बहुत से लड़की वाले रिश्ते की बात करने आने लगे थे । आखिर प्रदीप था भी तो लाखों में एक। प्रतिप्ठित और पैसे वाले अपनी लड़कियों का रिश्ता लेकर आ रहे थे लेकिन जब प्रदीप ने महेश जी व कमला को दीपिका से शादी करने का निश्चय बताया तो उन्होंने दीपिका के दूसरी जाति का होने पर भी उनके निर्णय का सम्मान किया । हालाँकि कुछ रिश्तेदारों ने विरोध किया, परन्तु जब उन्होंने देखा कि माँ-बाप को ही कोई आपत्ति नहीं है तो विरोध के स्वर अपने आप शांत हो गए।

उनका और उनके बेटे का निर्णय समय की कसौटी पर खरा उतरा। कमला के मन में हालाँकि दीपिका के प्रति आशंका का भाव था, क्योंकि वह महानगर में पली पढ़ी थी उनके घर की तुलना में उसके पिता का पद भी ऊँचा था और पैसा भी अधिक था। लेकिन उन्होंने हमेशा यह पाया कि उसमें गर्व का नाम भी नहीं था । उसका भी पालन-पोषण ऐसे संस्कारयुक्त वातावरण में हुआ था कि बहू के रूप में उसने आज तक शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था। महेश जी और कमला भगवान को धन्यवाद देते नहीं थकते थे। तभी बेटे के घर नन्ही गुड़िया, मुनिया का आगमन हुआ और घर उनका एक बार फिर खुशियों से भर गया । कमला ने पूरे मौहल्ले मे मिठाई बाँटी । अन्य सासों की तरह उसके लिए पोते-पोती में कोई अंतर नहीं था उसे लगता था पूर जीवन की ईमानदारी और त्याग के कारण ईश्वर ने दोनों हाथों से खुशियाँ उनकी झोली में डाल दी हैं। सुख के दिन समाप्त होते देर नहीं लगती। उसके बाद जैसे उनकी खुशियों को किसी की नजर लग गई। कमला अब बीमार रहने लगी थी। पहले तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया लेकिन हालत ज्यादा बिगड़ने लगी तो डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने दिल्ली जाकर दिखाने के लिए कहा । फोन करते ही प्रदीप आ गया था और दिल्ली ले गया था। परन्तु डॉक्टर को दिखाने पर जैसे उनके जीवन पर वज्रपात हुआ। कमला को कैंसर था और उसकी स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि अब दवा नहीं दुआ ही काम कर सकती थी। कुछ महीनों मृत्यु-शैया पर पड़ी पत्नी को याद करते ही वे अव भी सिहर जाते हैं और उनकी आँखें नम हो जाती हैं। अंत में जो ईश्वर को मंजूर था, वही हुआ। शायद अच्छे लोगों की ऊपर भी बहुत जरूरत होती है, इसलिए कमला वहीं चली गई।

माँ के जाने पर प्रदीप छोटे बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोया था, उसके लिए कमला केवल जन्म देने वाली माँ ही नहीं थी, बल्कि वह मानता था, उसकी माँ ने ही तराशकर उसे योग्य बनाया था । महेश जी भी अंदर से टूट गए थे। कमला दोनों के जीवन की धुरी थी। प्रदीप ने महेश जी से अब दिल्ली चलने का आग्रह किया, परन्तु उन्हें यहाँ से जाना, इस घर को छोड़ने की बात ही उन्हें दुखद लगती थी। वे नहीं जानते थे कि कमला उनके जीवन का ऐसा अभिन्न अंग है । घर की ऐसी कौनसी चीज थी, जिसके साथ उसकी स्मृतियाँ न जुड़ी हों। पत्नी को अर्धांगिनी माना गया है लेकिन वास्तव में उनका आधा अंग कोई काटकर ले गया है, उन्हें अब ऐसा महसूस होने लगा था। कमला के बिना घर, घर नहीं, ईंट पत्थरों का मकान मात्र रह गया था एक अच्छी पत्नी ही मकान को घर बनाती है और जीवन को स्वर्ग समान सुखों से परिपूर्ण रखती है। युवावस्था में पत्नी के साथ से भी ज्यादा, वृद्धावस्था में पत्नी का साथ जरूरी है । वे अब यह गहराई से महसूस करने लगे थे । इधर प्रदीप लगातार फोन पर उनसे आग्रह और अनुरोध कर रहा था कि वे दिल्ली आकर । अंत में महेश जी ने हथियार डाल दिए और दिल्ली आना स्वीकार किया।

घंटी बजने पर महेश जी की विचार-शृंखला टूटी , मुनिया स्कूल से आ गई थी। उसने देखा, दादाजी ने अभी तक खाना नहीं खाया है, उसने आते ही कहा, "क्या दादाजी आप भी बच्चों की तरह खाना नहीं खाते हैं । मुझे पता है, आपको खाने के बाद मिठाई पसंद है। कल ही पापा लाए थे। ये देखिए आपका मनपसंद अचार भी है। अच्छा, हम दोनों साथ-साथ खाएँगे।'' मुनिया ने स्नेह, उदारता, दूसरों का ध्यान रखने की प्रवृत्ति विरासत संस्कारों की घुट्टी में ही पाए थे उन्हें इस समय वह पोती कम और माँ ज्यादा लग रही थी। उसके निश्छल प्यार ने उनके मन पर छाए उदासी के बादलों को हटा दिया और दादा-पोती हँसी-मजाक करते हुए खाना खाने लगे । मुनिया अपने स्कूल की ढेर सारी मजेदार बातें उन्हें सुनाने लगी। महेश जी को पता ही नहीं चला कि बातों-बातों में कब शाम हो गई और प्रदीप व दीपिका घर आ गए।
नहीं दिया लेकिन हालत ज्यादा बिगड़ने लगी तो डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने दिल्ली जाकर दिखाने के लिए कहा । फोन करते ही प्रदीप आ गया था और दिल्ली ले गया था। परन्तु डॉक्टर को दिखाने पर जैसे उनके जीवन पर वज्रपात हुआ। कमला को कैंसर था और उसकी स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि अब दवा नहीं दुआ ही काम कर सकती थी। कुछ महीनों मृत्यु-शैया पर पड़ी पत्नी को याद करते ही वे अव भी सिहर जाते हैं और उनकी आँखें नम हो जाती हैं। अंत में जो ईश्वर को मंजूर था, वही हुआ। शायद अच्छे लोगों की ऊपर भी बहुत जरूरत होती है, इसलिए कमला वहीं चली गई।

माँ के जाने पर प्रदीप छोटे बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोया था, उसके लिए कमला केवल जन्म देने वाली माँ ही नहीं थी, बल्कि वह मानता था, उसकी माँ ने ही तराशकर उसे योग्य बनाया था । महेश जी भी अंदर से टूट गए थे। कमला दोनों के जीवन की धुरी थी। प्रदीप ने महेश जी से अब दिल्ली चलने का आग्रह किया, परन्तु उन्हें यहाँ से जाना, इस घर को छोड़ने की बात ही उन्हें दुखद लगती थी। वे नहीं जानते थे कि कमला उनके जीवन का ऐसा अभिन्न अंग है । घर की ऐसी कौनसी चीज थी, जिसके साथ उसकी स्मृतियाँ न जुड़ी हों। पत्नी को अर्धांगिनी माना गया है लेकिन वास्तव में उनका आधा अंग कोई काटकर ले गया है, उन्हें अब ऐसा महसूस होने लगा था। कमला के बिना घर, घर नहीं, ईंट पत्थरों का मकान मात्र रह गया था एक अच्छी पत्नी ही मकान को घर बनाती है और जीवन को स्वर्ग समान सुखों से परिपूर्ण रखती है। युवावस्था में पत्नी के साथ से भी ज्यादा, वृद्धावस्था में पत्नी का साथ जरूरी है । वे अब यह गहराई से महसूस करने लगे थे । इधर प्रदीप लगातार फोन पर उनसे आग्रह और अनुरोध कर रहा था कि वे दिल्ली आकर । अंत में महेश जी ने हथियार डाल दिए और दिल्ली आना स्वीकार किया।

घंटी बजने पर महेश जी की विचार-शृंखला टूटी , मुनिया स्कूल से आ गई थी। उसने देखा, दादाजी ने अभी तक खाना नहीं खाया है, उसने आते ही कहा, "क्या दादाजी आप भी बच्चों की तरह खाना नहीं खाते हैं । मुझे पता है, आपको खाने के बाद मिठाई पसंद है। कल ही पापा लाए थे। ये देखिए आपका मनपसंद अचार भी है। अच्छा, हम दोनों साथ-साथ खाएँगे।'' मुनिया ने स्नेह, उदारता, दूसरों का ध्यान रखने की प्रवृत्ति विरासत संस्कारों की घुट्टी में ही पाए थे उन्हें इस समय वह पोती कम और माँ ज्यादा लग रही थी। उसके निश्छल प्यार ने उनके मन पर छाए उदासी के बादलों को हटा दिया और दादा-पोती हँसी-मजाक करते हुए खाना खाने लगे । मुनिया अपने स्कूल की ढेर सारी मजेदार बातें उन्हें सुनाने लगी। महेश जी को पता ही नहीं चला कि बातों-बातों में कब शाम हो गई और प्रदीप व दीपिका घर आ गए।शाम को प्रदीप ने महेश जी के लिए लाई गई एक नई ड्रेस निकालते हुए कहा, "पिताजी, नीचे एक पार्टी का आयोजन किया गया है। इस ड्रेस को पहन कर आप भी चलिए।" महेश जी ने कुर्ते-पायजामे की ओर देखा, उनकी पसंद का रंग और स्टाइल था। बेटा कितना ध्यान रखता है, व्यस्तता के बावजूद भी, उनके मन को छू गई यह बात। तैयार होकर बेटे-बहू के साथ वे नीचे आए तो मुनिया और उसके दोस्त एक साथ उनके पास आए और हैप्पी बर्थ-डे, दादाजी की आवाज से सब ने उनको आश्चर्य में डाल दिया। "अरे यह आयोजन मेरे लिए है ।" कहते हुए उन्होंने नम आँखों से मुनिया को गोद में उठा लिया। सब बच्चे दादाजी के लिए तरह-तरह के पौधे, सुंदर गमलों में लाए थे। जो पेड़ बहुत बड़े होते हैं, फ्लैट में नहीं लगाए जा सकते , उनकी बोनसाई के पौधे भी उन्हें उपहार में मिले । यह शाम उनके जीवन की अविस्मरणीय शाम बन गई। ऐसा जन्म-दिन तो कभी नहीं मनाया गया था उनका।

अब बालकनी में ही उनका छोटा सा बगीचा बन गया था, जिसे सुबह-शाम वे बड़े प्यार से सींचते, सँवारते थे। पेड़ों में फूल और फल भी लगने लगे थे । जिंदगी अपनी गति से चलने लगी थी। बच्चों के साथ ने उनके जीवन को जीवंत बना दिया था। समय जैसे पंख लगाकर उड़ रहा था। अब उन्हें यहाँ भी ऊब नहीं होती थी, व्यस्तता बढ़ गई थी, उन्होंने परिवार, समाज और लोगों के दिलों में अपने लिए जगह बना ली थी। वे मुनिया के दादाजी और प्रदीप साहब पिताजी तो थे ही, साथ ही समाज-सेवा संस्था में उनकी स्वयं की आदर्श छवि के लिए लोग उन्हें जानने लगे थे ।

एक दिन सुबह-सुबह उन्होंने प्रदीप से कहा, "बेटा ! अब मेरा मन यहाँ लग गया है। मैं तुम लोगों के बिना रहने की तो कल्पना भी नहीं कर सकता। अब उस छोटे से शहर में उस मकान में जाकर कौन रहेगा? तुम तो वहाँ बसोगे नहीं। तुम चाहो तो उस मकान को बेच देते हैं।" पिताजी की बात ने बेटे-बहू को आश्चर्य में डाल दिया। दोनों सोच रहे थे , आदमी में हर परिस्थिति से समायोजन करने की असीम क्षमता है। यह शहर अब पिताजी के लिए अजनवी नहीं रहा। महेश जी अपने पौधों और बच्चों को देखकर मुस्करा रहे थे और सोच रहे थे 'जिंदगी कभी रुकती नहीं।