कामनाओं के नशेमन - 19 - अंतिम भाग Husn Tabassum nihan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कामनाओं के नशेमन - 19 - अंतिम भाग

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

19

‘’...अमल...क्या है ये सब...क्या हो रहा है। ये सस्पेंस खत्म करो। मेरा दम घुट रहा है। तब अमल ने दीवार पर लगी बेला की तस्वीर की ओर संकेत किया जिस पर बेला के फूलों की ही माला पड़ी थी और बेला का मुस्काता चेहरा दमक रहा था। मोहिनी ने दोनों हाथों से चेहरे को भींच लिया-‘‘..हे भगवान..ये क्या किया..?‘‘ वह सिंसकने लगी। फिर सहज होती बोली- ‘‘कब हुआ ये सब तुमने फोन क्यों नहीं किया?‘‘

‘‘जिस दिन तुम गयीं उसी रात को। उससे मेरी असह्यता और निरीहता देखी नहीं गयी शायद। उसे महसूस हो गया था शायद कि मैं अपनी कामनाओं के बोझ तले दबा जा रहा हूँ और वह मुझे जरा भी सहारा नही दे पा रही। वह भी अपनी निरर्थकता के बोझ से दबी पड़ी थी...तुम्हें फोन क्यों करूँ इसका कोई कारण मेरी समझ में नहीं आया..‘‘ फिर एक लंबी सांस खींचते हुए बोले- ‘‘खैर चाय पियो...‘‘ माला तब तक एक और चाय और साथ में कुछ नाशता भी ले आयी थी। मोहिनी ने कप उठाते हुए पूछा- ‘‘..बाबू जी की हालत तो बहुत खराब होगी न इस घटना से?‘‘

‘‘..बाबू जी आए ही नहीं। उन्हें मालूम भी नहीं इस हादसे के बारे में, मैं अपने सुलगते मौसमों के अग्निकुंड में दूसरों के नारंगी मौसमों को नहीं झोंकना नहीं चाहता।...वह वहाँ बहुत खुश होंगे।..‘‘ तभी एक बार लूसी फिर कुंकवाने लगा था अमल और मोहिनी ने एक साथ एक दूसरे का चेहरा देखा। तभी लूसी के साथ केशव नाथ जी कमरे में दाखिल हुए। दोनों एक अप्रत्याशित हर्ष से जैसे हरक से गए। बढ कर दोनों ने उनके पांव छुए। वह थके से बैठ गए| तभी उनकी नजर बेला की माला वाली तस्वीर पर पड़ी तो बिना किसी भाव के उधर संकेत करते हुए बोले- ‘‘..अमल ...ये कब हुआ कैसे हुआ..?‘‘

अमल कुछ नहीं बोले। जैसे बोलने की हिम्मत न कर पा रहे हों। वह मोहिनी की ओर देखने लगे, मोहिनी को लगा कोई तीखी आग की लपट उसे छू रही है। वह उससे बचती हुयी बोली- ‘‘बाबू जी मैं भी आज ही आयी हूँ दस दिन पहले मेरे पति का एक्सीडेंट हुआ था तो मैं चली गयी थी। अभी-अभी आयी हूँ...मेरे ही पीछे आप आये हैं‘‘ फिर धीरे से बोली- ‘‘शायद उसने आत्महत्या कर ली बाबू जी, वह अमल की निरर्थक यात्रा और थकान नहीं सह पा रही थी।‘‘ बाबू जी आगे बढ़ गए और उस तस्वीर के सामने कुछ देर आँखें बंद किए हाथ जोड़े खड़े रहे। फिर वापस आकर कुर्सी पर बैठते हुए बोले- ‘‘तेरे पति अब कैसे हैं...ठीक तो हो गए..तुने कॉलेज से भी छुट्टी लगायी होगी...‘‘

‘‘..अब वे नहीं रहे बाबू जी इस दुनिया में। देख नहीं रहे मेरी मांग।‘‘ एक पल को सबकी नजर मोहिनी की मांग की ओर चली गयी। वह आगे बोली- ‘‘..मैं यहाँ अब इस्तीफा लगाने के लिए आयी हूँ बाबू जी। अब वहाँ कोई है नहीं। घर अकेला पड़ा है। वहीं उनका काम संभालूंगी।‘‘ केशव नाथ जी कहीं गहरे उतारते हुए धीरे से बोले-

‘‘...यहाँ से वहाँ तक बहुत सारे एकांत फैले पड़े हैं मोहिनी और उन सारे एकांतो की तू ही अकेली संबल। अब ये तुझ पर है कि जिस एकांत का मर्म तुझे ज्यादा छू जाए उसे आत्मसात कर ले, उसे संभाल ले।‘‘ तभी माला दौड़ के आयी और केशव नाथ जी का पांव छू लिया। इस बार उनहोंने माला को बांहों में भींच लिया- ‘‘..तू कहाँ चली गयी थी रे...तेरे जाते ही घर बिखर गया...तेरे नन्हें हाथ कितनी मजबूती से संभाले हुए थे हम सबको।‘‘ माला फिर रो पड़ी उनसे लगी-लगी। वह भी कहते-कहते रो पड़े।

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घर की बोझिलता अब काफी हद तक कम हो गयी गयी थी। सुबह अमल और मोहिनी कॉलेज चले गए थे। मोहिनी फिर से कॉलेज ज्वाइन करने गयी थी। माला घर को फिर से सजा संवार रही थी। बाबू जी भी कुछ हल्के लग रहे थे| बेला के कमरे में जा के अकेले ही खड़े उसकी तस्वीर निहारते रहे, तभी एक ख्याल उनके भीतर रेंग गया जैसे, मन ही मन सोच रहे थे कि कुछ चीजें यूंही जीवन-गतियों को बाधित किए रहती हैं। उनका न होना इतना नहीं अखरता जितना कि उनका होना...‘‘ सोचते-सोचते उन्होंने बेला की तस्वीर को हाथ जोड़ के नमन किया और फिर सितार की ओर बढ़ गए। आज बहुत दिनों बाद उन्होंने सितार के तार छेड़े|

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रात सभी साथ खाने की टेबिल पर बैठे हुए थे। घर का माहौल काफी हल्का सा हो गया था। मोहिनी ने आज बहुत दिन बाद मन से खाना बनाया था जिसमें अमल की और बाबू जी की पसंद का खास ख्याल रखा गया था। खाते-खाते बाबू जी बोले थे-

‘‘तुम्हें अब एक सप्ताह ही बचा है अमेरिका जाने के लिए। तैयारी तेजी से शुरू कर दो। मोहिनी तुम्हारी मदद करेगी।‘‘

अमल कुछ नहीं बोले चुपचाप खाना खाते रहे, तो बाबू जी ने फिर दोहराया- ‘‘देखो अमल, अब कुछ सोचो मत। सिर्फ ये सोचो तुम्हें जाना है हमारे लिए नहीं...बेला के लिए, तुम्हारे रास्ते की बाधा वो न बन सके इसीलिए उसने अपनी बलि डे दी । अब तुम्हारा कर्तव्य है कि उसकी अंतिम इच्छा का सम्मान करो।‘‘ तभी बाहर लूसी के कुंकवाने की आवाज से सहसा सभी बाहर की ओर देखने लगे। कुछ ही क्षण में रजिया लूसी को दुलारतीं आ गयी थी। किसी की कुछ समझ में नहीं आया। तभी बाबू जी बोले- ‘‘...तुम कैसे...मतलब...?‘‘ उनकी जुबान जैसे लड़खड़ा गयी। वह सोफे पर बैठती बोलीं- ‘‘...अरे बेटा इतनी दूर जा रहा है नाम कमाने तो क्या उसे रूखसत करने मैं नहीं आ सकती अब तो इसके निकलने के दिन नजदीक आ गए हैं न..‘‘ कोई कुछ समझ नहीं पाया क्या बोले। उन्होंने माला से कहा-‘‘बेटा जरा पानी पिलाना...बड़ी थकान हो गयी।‘‘ माला ने खाना खाते में हाथ रोक कर उन्हें पानी का गिलास पकड़ा दिया।‘‘ वह पानी पीकर बोलीं-‘‘..शुक्रिया बेटा..‘‘ फिर केशव नाथ जी की ओर देखती बोलीं- ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची है। कहाँ से आयी है।‘‘ केशव नाथ जी ने धीमे से कहा-

‘‘कहीं से आयी नहीं है। ये भी इस घर का एक हिस्सा है। कुछ दिनों के लिए कहीं चली गयी थी।‘‘ फिर रजिया बेग़म ने बेला के खाली बेड की ओर देखा और फिर केशव नाथ जी की ओर सावालिया निंगाह डाली- ‘’बहु कहाँ है? सब खैरायत तो...? वह बोले- ‘‘फ्रेश हो लो, कुछ खा पी लो। बाद में बात करेंगे‘‘

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रात रजिया और मोहिनी एक ही कमरे में सोयी थीं और काफी देर तक एक दूसरे से अपना मन हल्का करती रहीं अपनी-अपनी पीड़ाओं की सीवनें खोलती हुयी। सुबह रजिया जल्दी उठ गयीं और जाकर किचेन संभाल लिया। माला उठ कर गयी देखा तो बोली- ‘‘अम्मा जी, मैं बनाती हूँ...‘‘ माला रजिया बेगम से पैन लेते हुए बोली तो रजिया बेगम प्यार से उसके गाल पे चपत मारती हुयी बोलीं- ‘‘तू क्या बनाएगी...नन्हीं सी जान। जा तू कप और प्लेट कमरे में रख आ।‘‘ तभी किचेन में अमल ने दाखिल होते हुए माला को टिपिया कर कहा-

‘‘..इसी नन्हीं सी जान ने हम तीनों को बरसों जिलाया है। बेला की जान थी ये।‘‘ माला बाहर चली गयी कप प्लेट लिए। रजिया अमल को किसी स्नेह में डूब कर बोलीं- ‘‘चलो वहीं मैं चाय लेकर आती हूँ‘‘

‘‘...जी.., मैं आपसे कुछ मांगने आया हूँ..हालांकि मांगने का हक तो खो चुका हूँ..‘‘ अमल ने सिर झुकाए हुए कहा। तो रजिया बेग़म ने बोलकारा- ‘‘ ऐसा कुछ नहीं है...बोलो..‘‘

‘‘..मैं एक ही शर्त पर अमेरिका जाऊँगा...आप यहाँ बाबू जी के पास हमेशा के लिए ठहर जाईए..उनका एकान्त भरने के लिए।...यहाँ सभी अपने-अपने एकांत से भरे बैठे हैं आपके बाद अगर बाबू जी फिर आपके पास चले गए तो मैं और अकेला हो जाऊँगा...और अगर वह यहाँ अकेले-अकेले रीतेंगे तो भी देख नहीं पाऊँगा..‘‘ वह हँस कर एक मोहक ढंग से बोलीं- ‘‘..कुबूल.., और कुछ...?‘‘ अमल ने बहुत कृतज्ञता से हाथ जोड़ दिए और बाहर निकल गए। कमरे में सभी इकट्ठा थे। एक अजीब सी खुशी जैसा कुछ तैर रहा था वातावरण में। माला एक कोने में मुँह फुलाए बैठी थी। केशव नाथ जी ने देखा तो दुलार से बुलाया- ‘‘अरे तू इतनी दूर क्यों बैठी है। इधर आ न हम सबके साथ।‘’

‘’नहीं आती...अब तो मुझे कोई काम ही नही करने देता। अम्मा जी कहती हैं मेरे हाथ का बाबू जी को पसंद है...ये माँ जी कहती हैं बाबू जी का खाना पहले मैं बनाती थी।...तो क्या इतने दिनों तक मैं आप सबको बेस्वाद खाना खिलाती थी..?‘‘ सभी हँस पड़े। अमल ने उसे हाथ पकड़ कर करीब कुर्सी पर बैठा लिया फिर बोले- ‘‘..तेरे बनाए खाने में स्वाद ही नहीं जीवन था। तूने हमको जिलाए रखा है। इस घर की ईंर्ट-ईंर्ट तेरी ऋणी है।...लेकिन अब इतना तनाव मत ले...तू भी रानी की तरह बैठ कर आराम कर। छोड़ रसोई-वसोई।‘‘ मोहिनी समझाती हुई बोली- ‘‘चल मैं तेरा दाखिला करा देती हूँ अपने कॉलेज में।...नहीं तो तेरे छोटे बाबू किसी परचून वाले से तुझे ब्याह देंगे...।‘‘ इसी हँसी ठिठोली में माहौल काफी हल्का हो गया था। युगों बाद आज अमल के चेहरे पर एक स्वाभाविक हँसी खेल रही थी जिसे देख केशव नाथ जी मन ही मन बहुत अश्वस्त हुए थे।

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अमेरिका जाने का समय आ गया था। कल सुबह दस बजे फ्लाईट थी। रजिया बेगम माला के साथ अपने कमरे में सो गयी थीं। मोहिनी देर रात तक अमल की पैकिंग करती रही। अमल बाबू जी के कमरे में बैठे वहाँ के बारे में जरूरी डिस्कस करते रहे। जब अमल वापस कमरे में आए तो सारी पैकिंग हो चुकी थी। वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ बेला की तस्वीर को निहारने लगे। मन एक लय में सोचे जा रहा था कि वर्जित पलों के लिए ही क्यों मन मचलता है। आज मोहिनी उसके कमरे में हैं। किसी प्रकार की कोई वर्जना नहीं है, फिर भी जैसे मन में वो भाव नहीं पैदा हो रहे थे, जैसे वो प्यास कहीं गहरे समंदर में जा के दफ्न हो गई थी। वो आग्रही पुरूष बेला के साथ ही चला गया था। उसे लगा-मोहिनी की भी कुछ-कुछ स्थिति वैसी ही थी। अचानक मोहिनी ने उठते हुए कहा- ‘‘..लो सब पैक कर दिया है, अब यहाँ कुछ मत उलटना पलटना वर्ना फिर से बिखर जाएगा, मैं चलती हूँ...‘‘

‘‘..यहाँ तो बहुत कुछ बिखर चुका है...क्या-क्या सहेजोगी तुम..?‘‘ अमल ने बड़े ही निरपेक्ष भाव से कहा।

‘‘...बिखरा हुआ तो सहज नहीं सकती...लेकिन और बिखरने नहीं दूंगी...‘‘ कहते हुए मोहिनी ने अमल के सिर पर हाथ फेरा और बाहर चली गयी।

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सुबह आठ ही बजे अमल के साथ मोहिनी, केशव नाथ जी और रजिया बेग़म तैयार हो गए थे। चलते-चलते अमल से माला लिपट के रो पड़ी थी- ‘‘..छोटे बाबू...जल्दी आना, इस दिन का माँ को कितना इंतजार था।‘‘ पल भर को अमल की आँखें भी भींग सी गईं। फिर वह माला को अलग करते बोले थे- ‘‘..रो मत..माँ तेरी आँखों से सब देख रही है और हाँ तेरे लिए दूल्हा भी वहीं से तलाश लाऊँगा...‘‘ और टिपिया के आगे बढ़ गए थे। फिर तीनों के साथ टैक्सी में बैठ कर एअरपोर्ट को चल दिए।

एअरपोर्ट पहुँच कर केशव नाथ जी ने कुछ-कुछ हिदायतें दीं और फिर अमल एअरपोर्ट के भीतर चले गए। जाते-जाते कई दफा पीछे घूम कर देखा- बाबू जी, रजिया बेग़म और मोहिनी के हाथ हवा में लहरा रहे थे। लेकिन उन्हें कई दफा भ्रम हुआ जैसे मोहिनी की बांहों में बेला की बांहें लहरा रही थीं, मोहिनी के होंठों से बेला मुस्कुरा रही थी।

समाप्त