कामनाओं के नशेमन - 18 Husn Tabassum nihan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कामनाओं के नशेमन - 18

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

18

‘‘..मैं कुछ सोच नहीं पा रहा हूँ हनी।‘‘ अमल ने एक गहरी सांस खींच कर कहा।

‘‘...सिर्फ मन सोचता है...यह शरीर नहीं।‘‘ कहते हुए मोहिनी ने उसे बांहों में भर लिया और बोली- ‘‘..मैं यह भी महसूस करती हूँ कि यदि बेला यह सब नहीं सह पाएगी तो मैं यहाँ से वापस चली जाऊँगी।‘‘

अंततः...इन क्षणों में क्या टूटा क्या जुड़ा...इसका साक्षी सिर्फ वहाँ नीम अंधेरा ही रह गया।

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अमल वापस बेला के कमरे में आ कर, बेला के बेड के पास आए तो बेला ने बड़े अजीब अंदाज में पूछा था-‘‘...कहाँ चले गए थे।...पानी पीने चले गए थे क्या...बहुत प्यास लगी थी क्या...?‘‘

‘‘...हाँ...‘‘ इतना कह कर अमल बेला के बगल में लेट गए फिर बेला से पूछा-

‘‘नींद नहीं आयी क्या...अभी तक जाग रही हो...‘‘

‘‘...मेरे जागने और नींद आने में फर्क ही क्या है।‘‘ बेला ने एक कटाक्ष के साथ हँस कर कहा।

‘‘अमल चुप से रहे। शायद वह बेला की बातों का अर्थ तलाशने लगे थे। तभी बेला ने अमल के हाथों पे हाथ रखते हुए कहा- ‘‘मेरी एक बात मानोगे..?‘‘

‘‘क्या...?‘‘ अमल ने सहमते हुए पूछा।

‘‘...तुम मुझे तलाक देकर किसी हस्पताल में भर्ती करवा दो। मैं वहाँ रह कर तुम्हें याद करके जिंदा रह लूंगी...‘‘ बेला ने कांपती आवाज में कहा।

‘‘क्यों...ऐसा क्यों सोचने लगीं...?‘‘ अमल ने पूछा- ‘‘..क्या मेंरे मन से तुम बहुत गहराई से नहीं जुड़ी हो...?‘‘

‘‘...अमल मैं एक स्त्री हूँ। सिर्फ मन से जूड़े रहना ही काफी नहीं होता एक पुरूष के लिए। वह और भी बहुत कुछ चाहता है एक स्त्री से और वह मैं तुम्हें कभी न दे पाऊँगी।...फिर भी स्त्री का मन है मेरा। मैं अपनी सहज ईष्र्या को मार नहीं सकती न...!‘‘

‘‘...तुम कहना क्या चाहती हो...?‘‘ इस बार अमल ने कांपती आवाज में एक अभियुक्त की तरह पूछा।

‘‘...इस बात का जवाब मैं तब दे सकती थी अगर उठने के लायक होती...और मोहिनी जी के कमरे में जा सकती तो..‘‘ अमल के अंतस में एक बारगी जैसे कामनाओं के कितने ही नशेमन ढह गए। सहसा वह कुछ समझ न सके कहें क्या।

वह कुछ क्षण चुप रहे फिर बोले- ‘‘तुम मेरे पुरूष से घृणा करो या मैं अपने पुरूष से घृणा करूं।...शायद यही अब हमारे तुम्हारे बीच सोचने के लिए रह गया है।...यू हेट मी...। मैं सचमुच घृणा का पात्र हूँ। लेकिन मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। जैसी भी हो...जिस भी हाल में हो। मैं तुम्हें अपने मन से काट नहीं पाऊँगा बेला।‘‘ इतना कह कर अमल बेला के सीने में सिर छुपा के फूठ-फूट कर रो पड़े थे।

कुछ पलों बाद बेला ने अमल के बालों को सहलाते हुए बहुत ही आत्मीय स्वरों में कहा- ‘‘..मैं यह महसूस करती चली आ रही हूँ कि मेरे अलावा तुम्हें एक और स्त्री चाहिए। जिसे तुम्हारा पुरूष कुछ पल जी सके।...ऐसा करो तुम कभी भी पुरानी मुंबई के किसी कोठे पर चले जाया करो। तुम्हें वह पल वहाँ मिल जएंगे जो मेरे पास नहीं पाते हो। कम से कम मेरा वाला मन तो वहाँ छोड़ कर नहीं आओगे।‘‘

अमल फिर सहज होते हुए उसके कांधे पे सिर रखते हुए बोले- ‘‘..मोहिनी के पास से कुछ पल बिता के ही तुम्हारे पास लौटा हूँ। यही लौटना ही मेरा सच है बेला। मन वहाँ छोड़ कर नहीं आया हूँ। इस बात को मोहिनी भी जानती है।‘‘ फिर अमल ने एक गहरी सांस खींचते हुए कहा-‘‘...तुम मोहिनी के बारे में ज्यादह नहीं जानतीं। उसका पति है तो...लेकिन व्यर्थ सा पुरूष। फिर भी वह मन से उससे ही जुड़ी है।‘‘

‘‘...ओह...!‘‘ बेला ने एक ठंडी आह भर कर कहा- ‘‘यानी मेरी मांग के सिंदूर और उनकी मांग के सिंदूर में कोई ज्यादह फर्क नहीं है।‘‘ अमल फिर कुछ नहीं बोले। बेला चुपचाप अमल के बालों को सहलाती रह गयी।

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अभी सुबह-सुबह बेला के कमरे में तीनों चाय पी रहे थे कि अचानक मोहिनी का फोन बज उठा और फिर कान से मोबाईल लगाते ही उसके चेहरे का रंग उड़ गया। अमल और बेला दोनों की नजरें मोहिनी पर टिकी थीं। बेला अंदर से कांप गयी थी मोहिनी का उड़ता हुआ रंग देख कर। लगा था कि अभी फिर कोई विस्फोट होने वाला है। मोहिनी ने फोन पर कहा- ‘‘उनका ख्याल रखो...मैं जल्दी ही पहुँचती हूँ....‘‘

मोहिनी ने फोन कट कर दिया। उसकी आँखों में न जाने कितनी भयावह कल्पनाएं जैसे सुबकने लगी थीं। उसकी आँखों में न तो आँसू थे और न ही कोई शुष्कता। ऐसी स्थिति व्यक्ति को चीर कर रख देती है। वह कांपती आवाज में बोली- ‘‘शिखर का एक्सीडेंट हो गया है। मुझे अभी निकलना होगा।‘‘ तब बेला ने बहुत ही आर्दता के साथ कहा-‘‘..मेरे पास आकर बैठिए कुछ देर।...मेरा मन आपके बालों को सहलाने का कर रहा है।...और इससे अधिक क्या कर सकती हूँ...मैं..‘‘

मोहिनी कुर्सी से उठ कर बेला के पास आकर बैठ गयी। बेला ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा-‘‘..सब ठीक होगा वहाँ...कितनी-कितनी दुर्घटनाएं हम अंदर बाहर झेलते रहते हैं।‘‘

मोहिनी ने एक बार बेला के चेहरे की ओर निहारा और फिर अमल की ओर। दोनों तरफ देखने में जैसे सारे शब्द कहीं खो गए थे अभी। वह इतना ही बोल पायी- ‘‘मैं अभी जा रही हूँ‘‘ फिर उसने बेला को बांहों में भरते हुए कहा-‘‘...कैसे रहोगी तुम अकेली यहाँ..क्या पता मेरा लौटना अब यहाँ होता है कि नहीं। वैसे भी शायद अब लौट कर न आऊँ मैं...। मैंने रात को तुम्हारी और अमल की सारी बातें सुन लीं थीं। मेरा न लौटना ही ठीक रहेगा। मैं तुम्हारे स्त्री मन को महसूस कर सकती हूँ।‘‘

‘‘...नहीं...‘‘ बेला जैसे चीख ही पड़ी थी। ‘‘तुम्हें लौट कर आना है यहाँ...। मेरे लिए..., अमल के लिए..और फिर अपने खुद के लिए। सब तो खाली-खाली ही है। मैं वैसे ही अपने व्यर्थ होने की यातना झेल रही हूँ। तुम्हारे न लौटने से यह यातना और बढ़ जाएगी।....वहाँ शिखर बाबू ठीक होंगे। उन्हें कुछ न हुआ होगा। मेरा मन कह रहा है।‘‘

इन क्षणों में मोहिनी ने बेला के चेहरे पर गढ़ी हुई औरत दर औरत को गहरे से महसूस किया। उसे लगा जैसे वह टूटने और जुड़ने की दूरी में फंस गयी है बुरी तरह। फिर उसने बेला के सिर पे हाथ फेरते हुए कहा- ‘‘तुम्हारा विश्वास ही सच होगा। शिखर को कुछ नहीं होगा। मैं लौट आऊँगी। अमल को अमेरिका विदा करने के वक्त मैं यहीं रहूँगी। वैसे भी हम लोग दर्द, दर्द के अलग-अलग हिस्सों में बंट गए हैं। अलग-अलग दर्द की दीवारों में कैद हैं हम लोग। लेकिन यह दीवारें उतनी सख्त नहीं हैं कपड़े के पर्दों भर हैं। जिसे हटा कर हम एक दूसरे का दर्द बांटने आ जा सकते हैं। दर्द और यातना की अपनी कोई मर्यादा नहीं होती। इनसे उबरना ही एक सार्थक नैतिकता है। यही अब तक मैं जीवन में महसूस कर पायी हूँ।‘‘

मोहिनी चली गयी, एक सार्थक प्रतीक्षा रच कर बेला के भीतर। अमल के भीतर और शायद अपने भीतर भी।

सात

मोहिनी के जाने के बाद पूरे घर में एक सूनापन रूल गया था। जैसे अचानक आए किसी तूफान ने वृक्षों पे लटकते सारे फूल झाड़ दिए हों। अमल बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे। बेला भी उनके चेहरे पर तैर आयी एक मारक व्यथा को महसूस कर रही थी जिससे उसके भीतर के सारे मौसम मुरझा से गए थे। फिर कुछ सोच कर अमल को चेताया-‘‘..जाईए कुछ खाने को बना लीजिए। अब तो सब आपको ही करना पड़ेगा। मोहिनी जी एक झोंके से आयीं और चली भी गयीं। जैसे सब सपने जैसा हो।‘‘ वह किसी पीड़ा में डूबती सी बोली।

‘‘..नहीं..., ठीक हुआ। यही उचित था। अब उसे यहाँ लौटना भी नहीं चाहिए।‘‘ वह उठते हुए बोले और किचेन की ओर चले गए। बेला का जी टूक-टूक कर उठा। अंतस में कितने ही चक्रवात घूमड़ते चले गए।

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काफी रात हो गयी थी। अमल किसी लंबी यात्रा से लौटे परिंदे की तरह पूरी तरह निढाल से सोये पड़े थे बेला के बाजू में। लेकिन बेला की आँखों से नींद कोसों दूर थी। फिर आज घर के कामों से और जीवन के अंधड़ों से अमल इस कदर थक गए थे कि बिस्तर पर आते ही नींद आ गयी थी। बेला को नींद की गोली देना भी भूल गए थे। बेला अमल को देर तक देखती रही अपलक। फिर उनके सिर पे हाथ फेरती सी बड़बड़ायी थी-‘‘...कितने परास्त होने लगे हो तुम, क्यों अभिशप्त हो मुझे ढोने के लिए।...जानती हूँ..सब चले जएंगे मुझ छोड़ कर...पर तुम नहीं जा सकोगे...नहीं जाओगे।‘‘ अमल ने नींद में ही करवट ले ली। बेला ने कोशिश करके दवा की शीशी उठायी और गिलास में पानी लिया जग से और दवा लेकर सो गयी।

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सुबह अमल की आँखें देर से खुलीं। देखा, बेला अभी तक सोयी पड़ी है। वह बाहर चले गए। फ्रेश हुए। फिर चाय बना कर कमरे में आए। बेला अभी भी सोयी पड़ी थी। उन्होंने पास जा के कंबल हटाते हुए कहा- ‘‘..कमाल है, हमेशा तुम मुझे जगाती थीं...आज अभी तक सोयी पड़ी हो। मैंने चाय भी बना ली। चलो जागो अब...‘‘ कहते हुए कंबल हटा के बेला का हाथ पकड़ा तो हाथ झूल गया। वह सन्न रह गए। कंबल में ही नीद की गोलियों वाली शीशी लिपटी पड़ी थी जो पूरी खाली थी।

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आज बेला को गए दस दिन हो गए थे। अमल का वजूद एक टुकड़ा बादल की तरह रह गया था। घर काटने को दौड़ता। ले दे के एक लूसी। उसे भी वह सूनी आँखों से देखते रहते कि अब ये भी जाने कब विदा हो जाये जिंदगी से। बाबू जी को कई बार फोन करने का मन हुआ लेकिन साहस न हुआ। अगर पूछेंगे बेला कहाँ है...मोहिनी कहां गयी तो क्या बताऊँगा। अपनी पीड़ाओं को कैद कर के रखना ही बेहतर है, इन्हें उस छोर तक क्यों फैलाऊँ जहाँ कोई अपने ढंग के मौसमों को जीने गया है। सामने दीवार पर लगी बड़ी सी तस्वीर वो निहार रहे थे कुर्सी पर बैठे हुए। ये उनकी शादी की तस्वीर थी वरमाला के समय की। उनके भीतर एक वेग के साथ कितनी ही ऋतुएं आ कर चली गयीं। तभी बाहर लूसी के कुंकवाने की आवाज आयी। वे चौंक पड़े, जैसे सोचने लगे हों अब इस उजड़े दयार में कौन आत्मीय लौट आया।...कहीं बाबू जी...उन्हें क्या जवाब देंगे अगर बेला को लेकर सवाल किया। वह अंदर तक कांप गए।...या फिर मोहिनी...नहीं...नहीं...वो अब नहीं लौटेगी। अभी वह जी में ही रख उठा रहे थे कि फिर चौंक पड़े-‘‘...अ...अरे माला...तू...‘‘ माला कमरे में ही सीधी आ गयी थी और उनके पांव छू लिए थे। तभी पीछे से माला का चाचा आ गया और आते ही बोला- ‘‘बाबू जी...इसे यहीं रहने दीजिए। जबसे यहाँ से गयी है खाना पीना छोड़े बैठी है। बोलती है माँ जी खाना कैसे खाती होगी। आप कैसे काम करते होंगे। आपको कहीं बिदेस भी जाना था, उसकी भी चिंता इसे सताए जा रही थी। इसलिए इसे अब यहीं रखो आप।‘‘ अमल उनकी बातों को इतर करते हुए बोले-‘‘बैठ जाईए‘‘ माला ने अपना झोला फौरन अलमारी में रखा और अमल को छेड़ती सी बोली- ‘‘..क्यों छोटे बाबू.....आपने तो पूरे घर को खूब सजा संवार दिया है। मैं जानती थी आप को कुछ आता ही नहीं।‘‘ वह फीकी हँसी के साथ बोले- ‘‘जब तू चली गयी छोड़ कर तो सब सीखना पड़ा।‘‘ माला का जैसे उस पल मन भर आया। फिर संभलती सी बोली- ‘‘बैठो चाचा चाय बना के लाती हूँ..‘‘ उसके चाचा वहीं बैठे कुछ-कुछ बातें करते रहे अमल से फिर चाय पी कर यह कह कर चले गए कि वो माला का ध्यान रखें। उनके जाने के बाद माला अमल की ओर मुड़ी-‘‘..छोटे बाबू..माँ कहाँ है।...अब ये न कहना तेरे लिए दूल्हा तलाशने गयी है। अब मैं उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।...मैं नहीं थी इसी लिए वह और बीमार हो गयी होंगी। खाना पीना तो ठीक से मिलता नहीं होगा। बड़े बाबू जी उन्हें डॉक्टर के वहाँ ले गए होंगे।‘‘ वह कुछ नहीं बोले| कुछ देर बाद माला ने फिर पुछा- ‘’..छोटे बाबु, अभी तक माँ जी आई नहीं?’’

‘‘...माला...तू सही कहती है। तेरी माँ का ख्याल मैं नहीं रख सका। इसी लिए वो मुझसे रूठ कर बहुत दूर चली गयी।...जहाँ से कोई कभी नहीं लौटता...‘‘ कहते-कहते अमल का गला भर आया। माला सन्न रह गयी। फिर फूट-फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी और बड़बड़ाने लगी....‘‘सब मेरी वजह से हुआ है।...छोटे बाबू...अगर मैं न जाती तो माँ कहीं नहीं जाती।...वो बेसहारा हो गयी होगी..‘‘ काफी देर तक रोती रही। फिर अमल ने उसके सिर पे हाथ फेरते हुए प्यार से कहा- ‘‘जा खाना बना ला मेरे लिए..कई दिनों से भूखा हूँ।‘‘ माला आंसू पोंछती चली गयी और कुछ पूछने का साहस न हुआ उसका|

आज कई दिनों बाद अमल कॉलेज गए। सब कुछ नया और अजनबी सा लगता रहा। किसी तरह दिन काटा। शाम को घर लौटते में माला के लिए कपड़े और कुछ सामान लेते आए जिससे माला की उदासी कुछ कम हो सके। माला सब देख कर चहक पड़ी लेकिन सहसा उदास हो गयी। कुछ-कुछ चीजों से कोई-कोई यादें ऐसी सनी होती हैं कि उनके स्पर्श से ही वैसे ही जिए गए मौसम सामने आ के मुस्कुरा जाते हैं। अभी सुनहरी चूनरी देख कर उसकी आँख भर आयी है। बेला के वो शब्द गूंज गए हैं- ‘‘..तुझ पर ये सुनहरा रंग खूब फबेगा माला। सोने जैसी सुनहरी जो है तू।‘‘ लगा अमल जान बूझ कर ये रंग लेकर आए हैं। उन्होंने माला के उतरे हुए चेहरे को महसूस किया तो हँस कर बोले-‘‘..अब इन्हें ही देखती रहेगी या चाय भी पिलाएगी।‘‘ माला उन कपड़ों को समेट कर चाय बनाने चली गयी। अमल चेंज करके सोफे पर निढ़ाल से ढह गए, कि तभी लूसी के कुंकवाने की आवाज से वह जैसे असहज से हो गए। उठे नहीं। पड़े-पड़े ही आहट लेते रहे। आँखें भींच लीं। तभी किसी ने आकर सिर पे हाथ रख दिया। उन्होंने टप से आँखें दीं। सामने मोहिनी खड़ी मुस्कुरा रही थी। वह हड़बड़ा कर उठ बैठे-

‘‘....तुम..यहाँ कैसे.?‘‘

‘‘...तुम्हारे अमेरिका जाने की तारीख नजदीक आ गयी है न...‘‘ मोहिनी ने समीप बैठते हुए कहा।

‘‘...ओह...‘‘ इतना कह कर रह गए वह।

‘‘...तुमने मूड बना लिया है न...बाबू जी तो अब तक आ गए होंगे...और..ये बेला कहाँ है...दिख नहीं रही.?‘‘

‘‘...मैं तुम्हारे किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता...‘‘ वह ठंडी सांस लेते हुए मोहिनी को निरपेक्ष भाव से देखते हुए बोले और जमीन तकने लगे। मोहिनी सामने पड़ी कुर्सी पर ही बैठ गयी| तभी माला चाय लेकर कमरे में दाखिल हुयी...मोहिनी दोहरे आश्चर्य से उसे देखने लगी, जैसे मन में फिर कोई प्रश्न कौंधने लगा हो लेकिन पूछ न सकी हो। अमल ने उसके सवाल को भांपते हुए कहा-

‘‘..यही माला है, जिसकी चर्चा बेला अक्सर किया करती थी।‘‘

वह एक फीकी सी हँसी हँसते हुए बोली-

‘‘ ये तो बहुत अच्छा हुआ। मुझे बड़ी चिंता थी कि यहाँ सब कैसे चलता होगा। तुम भी कितने कमजोर हो गए हो। अब माला बेला को बहुत सहारा देती होगी..‘‘ फिर माला से मुखातिब होती बोली थी- ‘‘तुझे तेरी बेला माँ बहुत मिस करती थी। अब कभी छोड़कर मत जाना उन्हें।‘‘ इतना सुनते ही माला जोर-जोर से रोने लगी और चाय टेबिल पे रख कर कमरे से भाग गयी। मोहिनी अंदर से कांप गयी। एक अजब भय के साथ अमल का चेहरा देखने लगी-