बात बस इतनी सी थी - 34 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 34

बात बस इतनी सी थी

34.

मंजरी उठकर चलने ही वाली थी, तभी मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी । मधुर की कॉल थी । मैं मंजरी के सामने मधुर से बात नहीं करना चाहता था । न ही मधुर से बात करने के लिए मंजरी को केबिन में अकेली छोड़कर बाहर जाना चाहता था । इसलिए मैंने उसकी कॉल काट दी । लेकिन तब तक मंजरी मेरे मोबाइल पर कॉल करने वाले का नाम देख चुकी थी और उसको यह पता चल चुका था कि मधुर ने कॉल की थी । मेरे कॉल काटते ही मंजरी ने मुझसे पूछा -

"यह मधुर कौन है ?"

"दुनिया में मधुर नाम के अनगिनत लड़के हो सकते हैं !" कहकर मैं धीरे हँस दिया ।

"मैं तुमसे सिर्फ उस मधुर की बात कर रही हूँ, जिसकी अभी तुम्हारे पास कॉल आयी थी ?"

"ओह ! पर तुम उसके बारे में क्यों जानना चाहती हो ?"

"बस ऐसे हीश !"

"मेरा दोस्त है ?"

"दोस्त है, तो तुमने बात क्यों नहीं की ? उसकी कॉल क्यों काट दी ?"

"बस ऐसे ही ! दोस्तों से तो बातें होती ही रहती हैं, बाद में हो जाएँगी !"

"तुम मधुर को कब से जानते हो ? मेरा मतलब है, तुम दोनों की एक-दूसरे के साथ दोस्ती कब से है ? "

"काफी दिन से ?" मैंने सीमित शब्दों में अस्पष्ट-सा उत्तर दिया ।

"काफी दिन से क्या मतलब है ? साफ-साफ बताओ न !"

मंजरी का प्रश्न सुनकर मुझे हंँसी आ गई । मैंने उससे कहा -

"मंजरी मैडम ! तुम मेरी गर्लफ्रेंड नहीं हो और न ही तुम अब मेरी पत्नी हो कि मेरी जिंदगी के पल-पल का हिसाब माँग सको ! मैं किससे बात करता हूँ ? कौन मेरा दोस्त है ? और किससे कब दोस्ती हुई ? यह सब तुम्हें बताने की मेरी अब कोई मजबूरी नहीं है ! अब हम दोनों केवल दोस्त हैं !"

"दोस्ती मानते हो न तुम ? तो दोस्ती में जैसे कोई बात बताने की मजबूरी नहीं होती, वैसे ही छिपाने की भी कोई जरूरत नहीं होती है !"

"ऐसा है, तो तुम क्यों छुपाती हो ?"

"मैं क्या छिपातु हूँ ?"

"तुमने मधुर के बारे में छिपाया और कभी कुछ नहीं बताया ?"

"तुमने मुझसे मधुर के बारे में कभी कुछ पूछा भी तो नहीं ! फिर मैं तुम्हें उसके बारे में क्यों ? और क्या बताती ?"

मंजरी ने बहुत ही मासूमियत से कहा । शायद उसने समझा था कि मुझे उसके और मधुर के रिश्ते के बारे में कुछ पता नहीं है ।

"यही कि तुम कई साल तक मधुर के साथ लिव-इन रिलेशन में रह चुकी हो !"

मेरे मुँह से मधुर के साथ अपने रिश्ते का सच सुनकर मंजरी तिलमिला गयी । कहते हैं कि पुराने पाप कभी पीछा नहीं छोड़ते । इसी तर्ज पर बरसों पहले का सच अचानक सामने आने से मंजरी के मर्म पर चोट पड़ी थी । उसने गुस्से से लाल-पीली होकर गरजते हुए कहा -

"चंदन ! तुम्हें किसने बताया कि मधुर के साथ मेरा ऐसा कोई रिश्ता था ? वैसे भी, जब मेरी तुम्हारे साथ शादी हुई थी, तब तक वह मेरा अतीत बन चुका था ! तुम्हारे साथ मेरे नये-नये रिश्ते में मैं उसको क्यों घसीटती, जो मुझे पसंद नहीं है ?"

"मंजरी ! मधुर मेरा दोस्त है ! मधुर के साथ तुम्हारा क्या रिश्ता था ? यह जानने के लिए क्या मुझे किसी और के पास जाने की जरूरत पड़ेगी ? अच्छा तो यह होता कि मधुर के साथ तुम्हारे रिश्ते की बात तुम खुद ही मुझसे बता देती !" मैंने शब्दों के आइने में मंजरी को उसकी असलियत दिखाने की कोशिश करते हुए कहा ।

"चंदन ! मैंने तुमसे अभी कहा है न ? वह मेरा अतीत था ! वर्तमान में मैं उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहती !"

"तुम मधुर के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती हो, तो ठीक है ! पर तुम्ही ने तो उसके बारे में बात शुरू की थी !"

मैंने हँसकर कहा, तो मंजरी घायल चिड़िया की तरह गर्दन झुकाकर बैठ गई । कुछ क्षणों तक चुप रहने के बाद मंजरी ने फिर मधुर के बारे में बात करना शुरू कर दिया । वह बोली -

"एक बात पूछूँ ? सच-सच बताना !"

"हाँ-हाँ ! जरूर पूछो ! मैं सच बताऊँगा !"

"हमारी शादी के बाद जब तुम मुझसे दूर-दूर भागते थे, तब क्या तुम मधुर के साथ मेरे रिश्ते के बारे में जानते थे ? क्या हम दोनों के बीच बढ़ने वाली दूरी की वजह मेरे अतीत के साथ जुड़ा हुआ मधुर का नाम था ?"

"तुम ऐसा भी समझ सकती हो !"

सच बताने का वादा करके भी मैंने मंजरी से झूठ बोला । सच तो यह था कि हमारी शादी के समय तो मैं मधुर को जानता भी नहीं था । लेकिन मंजरी को मेरे झूठ पर भी भरोसा हो रहा था, क्योंकि मंजरी का सच, सच था, जिसको वह चाहकर भी नहीं झुठला सकती थी । मेरा जवाब सुनकर वह बोली -

"इसका मतलब, तुमने अपनी दोस्ती निभाने के लिए हमारी शादीशुदा जिंदगी को दाँव पर लगा दिया ? "

"हाँ ! तुम ऐसा कह सकती हो !"

मैंने खुद पर गर्व करते हुए कहा । लेकिन मंजरी ने तिलमिलाते हुए मेरे उसी गर्व पर जोरदार प्रहार करते हुए कहा -

"मतलब, तुमने अपनी दोस्ती को निभाने के लिए अपनी बीवी को बलि का बकरा बनाया ?"

दोस्ती निभाने के गर्व का भारी भरकम चोला ओढ़कर मैं यह भूल ही गया था कि मंजरी मुझ पर इस तरह का भी कोई आरोप लगा सकती है । उसका ऐसा तर्कपूर्ण आरोप सुनकर मेरी बोलती बन्द हो गयी ।

मैं यह समझता था कि वास्तव में एक शादीशुदा पुरुष की जवाबदेही पत्नी के प्रति दोस्ती निभाने से ज्यादा होती है । यह सोचकर मेरा हृदय कुछ क्षणों के लिए ग्लानि से भर गया । तभी मुझे याद आया कि ऐसी परिस्थिति में पति का पत्नी से दूरी बनाना दोस्त के लिए त्याग नहीं होता, पत्नी पर अविश्वास होता है । यह अलग बात थी कि हम दोनों के बीच की दूरी की वजह इनमें से कोई नहीं थी । फिर भी मैंने खुद को मंजरी के आरोपों से मुक्त करने के लिए उसी को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा -

"मंजरी ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे तरकस में आरोपों के तीरों की कोई कमी नहीं है । जितना चाहो, तुम सामने वाले पर प्रहार कर सकती हो ! न तुम्हारे कल्पना-जगत में कहानियों की कोई कमी है, जितनी चाहो, तुम सामने वाले को लेकर कहानियाँ गढ़ सकती हो ! पर यह मत भूलना कि अब हम दोनों पति-पत्नी नहीं हैं !"

"मुझे सब-कुछ याद है ! मैं तुमसे बस एक और सवाल का जवाब चाहती हूँ ! जब तुमने मधुर के लिए हमारी शादीशुदा जिंदगी में मुझसे इतनी दूरी बना ली थी, तो अब फिर तुम मेरे नजदीक आने की कोशिश क्यों कर रहे हो ?"

"मैं तुम्हारे नजदीक बिल्कुल भी नहीं आ रहा हूँ ! तुम गलत सोच रही हो !" मैंने एक बार फिर झूठ बोला । मैंने मंजरी से कहा -

"हम दोनों में एक-दूसरे के साथ सिर्फ ऐसे ही दोस्ती का रिश्ता है, जैसे ऑफिस के बाकी सब लोगों के साथ है ! हम दोनों पहले से ही एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे और एक-दूसरे के दोस्त थे, इसलिए तुम्हारे यहाँ आने के तुरंत बाद हम दोनों में दोबारा दोस्ती हो गयी ! बस, इससे ज्यादा और कुछ नहीं है !"

"मुझे ऐसा नहीं लगता !"

"फिर, तुम्हें कैसा लगता है ?"

"मुझे लगता है कि हमारी दोस्ती बाकी सबसे अलग तरह की है और मधुर के साथ मेरे रिश्ते को दरकिनार करके तुम मेरे नजदीक पहले से कुछ ज्यादा आ रहे हो !"

"मंजरी, तुम अपने मन में कुछ ज्यादा ही गलतफहमियाँ पाल लेती हो ! वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है कि मैं पहले से ज्यादा तुम्हारे नजदीक आ रहा हूँ ! मैं तुमसे सिर्फ दोस्ती मानता हूँ और उसी दोस्ती को निभा रहा हूँ ! तुम जब चाहो, मधुर के पास जा सकती हो ! उसके साथ रह सकती हो !"

मैंने भावों के आवेश में बहकर मंजरी से यह कह तो दिया था कि वह जब चाहे मधुर के पास जा सकती है और उसके साथ रह सकती है । लेकिन मेरे मुँह से यह शब्द निकलते ही मेरे मन में पछतावा होने लगा था । मेरे मन में एक अजीब-सा डर और यह आशंका जन्म लेने लगी थी कि -

"मंजरी सच में ही मधुर के पास उसके साथ रहने के लिए चली गई, तो मेरा क्या होगा ?"

आजकल जिस तरह हम दोनों एक-दूसरे के साथ रहते हुए भी अपनी-अपनी आजादी का आनंद ले रहे थे, उससे मैं बहुत खुश था । किसी भी परिस्थिति में हम दोनों एक-दूसरे का साथ और अपनी अपनी आजादी को नहीं छोड़ना चाहते थे । इस विषय में जैसा मैं सोचता था, शायद वैसा ही मंजरी भी सोचती थी ।

क्रमश..