एक कप चाय और...तुम- सुनील पंवार राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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एक कप चाय और...तुम- सुनील पंवार

अमूमन ऐसा होता है कि जब मैं कोई किताब ऑनलाइन मँगवाता हूँ या फिर कोई मित्र स्नेहवश मुझे अपनी किताब उपहार स्वरूप पढ़ने के लिए भेजता है तो उस किताब पर सरसरी नज़र दौड़ाने के बाद मैं उसे कुछ दिनों के लिए एक तरफ रख, कुछ समय के लिए भूल जाता हूँ कि मुझे अपने पहले से चल रहे तयशुदा क्रम को तोड़ना पसन्द नहीं। लेकिन इस बार कुछ ऐसा हुआ कि एक पुस्तक जो मुझे उपहार स्वरूप मिली तो चाय की चुस्कियों के बीच, उसका लिफ़ाफ़ा खोलने के बाद जब मैंने उस पर सरसरी तौर पर अपनी नज़र दौड़ाई तो उस किताब ने तुरंत ही मेरा ध्यान इस कदर अपनी तरफ आकर्षित कर लिया कि मैंने पहले से चल रही किताब को एक तरफ रख इसे ही पढ़ना शुरू कर दिया। अब इसकी वजह, पहली किताब की बौद्धिकता भरी बातें कह लें या फिर इस किताब का रुचिकर ढंग से लिखा जाना लेकिन खुद के बनाए नियम की किस्मत में टूटना लिखा था। सो...बिना किसी चूं चपड़ के बेचारा...चप्प से टूट गया।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ लेखक सुनील पंवार द्वारा लिखित कहानी संग्रह "एक कप चाय और तुम" की। पहली नज़र में देखो तो बिना किसी लाग लपेट के कहानियाँ सीधे..सरल शब्दों में लिखी नज़र आती हैं मगर पढ़ने बैठो तो कई कहानियाँ अपनी शुरुआत से ही उत्सुकता बनाए हुए चलती हैं और अपने अंत में चौंकाती हैं। लेखनशैली ऐसी कि एक ही सिटिंग में पूरी किताब बड़े आराम से पढ़ जाओ।

हमारे आसपास के ही माहौल में रची बसी इनकी किसी कहानी में जहाँ एक तरफ औचक ही रॉंग नंबर से मिली एक फोन कॉल के बाद, बिना नागा रोज़ाना उसी नम्बर पर लगातार होने वाली बातचीत को कोई इस कदर अपने दिल से लगा बैठता है कि अंत में इस सब की परिणति उसकी मौत के रूप में होती है। तो वहीं दूसरी तरफ किसी कहानी में अपने से उम्र में पंद्रह साल बड़ी युवती के प्यार में पागल एक युवा, लड़की की तमाम हिचकिचाहट एवं झिझक के बावजूद भी क्या उसे अगली कहानी में मना पाता है?

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ एक तरफ हमें पहाड़ों के रमणीक सौंदर्य से भरे चेहरे के पीछे छिपी दिक्कतों भरी कालिमा से पर्दा उठाती है कि किस तरह कुछ इलाकों में वहाँ के निवासियों को नारकीय जीवन व्यतीत करने या फिर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। तो वहीं दूसरी तरफ एक कहानी दिखाती है कि आभासीय दुनिया के ज़रिए सोशल मीडिया ने किस कदर हमारे जीवन में भीतर...गहरे तक अपनी पैठ बना ली है कि सावन के अंधे की तरह हर तरफ हमें बस हरा ही हरा नज़र आता है और उसकी इसी चकाचौंध में हम अपने घर..अपने बच्चों के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं। मगर असलियत में जब इस सब के पीछे छिपी गन्दगी, कुत्सित मानसिकता, ओछे विचारों से जब हम रूबरू होते हैं तो हमारे पास ठगे रह जाने के अलावा और कोई विकल्प मौजूद नहीं होता है।

इस संकलन की किसी कहानी में विरह की वेदना जब हद से ज़्यादा बढ़ जाती है तो मन में अपने ही साथी के प्रति तरह तरह की शंकाएँ जन्म लेने लगती हैं कि उससे, उसे ज़रा सा भी लगाव है या नहीं? ऐसे में कोई आने का वायदा कर के भी एन मौके पर ना आए तो दिल किस कदर टूट कर दुःखी एवं निराश हो उठता है।

इस संकलन की किसी कहानी में बात है पैसे और रुतबे की कि...किसी की हैसियत..उसका स्टेटस रातों रात इतना अधिक ऊपर उठ जाता है कि उसे अपने बुजुर्गों का ही कद..स्टेटस अपनी हैसियत के हिसाब से शर्मिंदा करता प्रतीत होने लगता है। तो किसी कहानी में अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी और एकाकी जीवन से ऊब चुके एक युवक की बात है कि किस तरह अचानक एक रॉंग नंबर वाली कॉल भी उसे बहुत प्रिय और अपनापन लिए महसूस होने लगती है कि वो बिना किसी हिचक एवं झिझक के उस अजनबी आवाज़ के आराम से घंटों तक अपनत्व भरी बातें करता रह जाता है।

इसी संकलन की किसी कहानी में जब एक बिन माँ की बच्ची को पहली बार जब डाकिए से चिट्ठी पत्री के बारे में पता चलता है तो सबसे पहले वो अपनी माँ को ही चिट्ठी लिखती है। भोलेपन से लिखी गयी इस चिट्ठी को देख, डाकिए का मन भी पिघल जाता है और आपस में कोई रिश्ता ना होने हुए भी उनके बीच ममत्व का एक रिश्ता पनपने लगता है जो बिना किसी हील हुज्जत के अंत तक साथ चलता है।

इसी संकलन में कहीं इस बात की तस्दीक की गयी है कि आमतौर पर हम किसी को उसके चेहरे मोहरे..हाव भाव,कपड़ों एवं बाहरी आडंबरों के ज़रिए पहचानने का प्रयास करते हैं जो कि कई बार हमारी आशा..उम्मीदों के एकदम विपरीत होता है।

इस संकलन की किसी कहानी में बचपन में पहले माँ बाप के और फिर उनके जाने के बाद भाई के नियंत्रण में रही एक युवती जब किसी से प्यार कर बैठती है तो बतौर सज़ा उसकी, उझसे पंद्रह साल बड़े आदमी से जबरन शादी कर दी जाती है। ऐसे में क्या कभी वो अपने पति को दिल से अपना पाती है?

अलग अलग मुद्दों को एक ही किताब में समेटे हुए इसकी किसी कहानी में कोई शातिर नेता जनता से झूठे वायदे करता नजर आता है। तो किसी कहानी में कोई नए जन्मे बच्चे को बीच सड़क आवारा कुत्तों का ग्रास बनने के लिए छोड़ जाता है। कहीं इसमें पुरानी डायरी के माध्यम से भूली बिसरी यादों को पुनर्जीवित किया गया है तो कहीं किसी कहानी में बस्ती पर बुलडोज़र चलने से विस्थापित होने वालों की दिक्कतों..परेशानियों को दिखाया गया है।

इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे प्रभावित किया। जिनके नाम इस प्रकार हैं:
*आख़िरी कॉल
*भीगी मुस्कान
*इश्क ऑनलाइन
*एक कप चाय और...तुम
*बंद कॉटेज
*बिन पते की चिट्ठियां

पाठकीय नज़रिए से मुझे कुछ कहानियाँ अधूरी सी तो कुछ सिर्फ किसी घटना का विवरण भर लगी। इन पर और मेहनत की जानी चाहिए। कई जगहों पर छोटी छोटी मात्रात्मक त्रुटियां भी दिखाई दी, जिन्हें अगले संस्करण में दूर किए जाने की आवश्यकता है।
कुछ कहानियों में 'वाणी' नाम का तो कुछ में 'सुखिया' नाम का किरदार बार बार आता दिखाई दिया। प्रभावी लेखन के लिए इस तरह की एकरसता से बचा जाना चाहिए। 'सुखिया' नामक किरदार से जुड़ी चार अलग अलग घटनाओं/कहानियों को एक ही कहानी में अगर थोड़ा घटा...बढ़ा कर अगर समाहित किया जाता या नए सिरे से पूरी कहानी ही फिर से लिखी जाती तो उसका भविष्य उज्ज्वल हो सकता था। हर कहानी के साथ शुरू में दिए गए उसी कहानी से संबंधित चित्रों ने अपना ध्यान आकर्षित किया लेकिन उन्हें और अधिक विस्तृत(डिटेल्ड) होना चाहिए था।

110 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है सृष्टि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹150/-...आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।