नीलांजना--भाग(९) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नीलांजना--भाग(९)

नृत्य के समाप्त होने के बाद,
प्रबोध कैलाश से बोले,मैं नृत्यांगना से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं!!
कैलाश बोला, लेकिन क्यो काकाश्री!!
बेटा, मुझे उसमें अपनी पुत्री नीलांजना दिखाई दी,वो बिल्कुल वैसी ही लगी मुझे।।प्रबोध बोले।।
कैलाश बोला,काकाश्री आपको कोई संदेह तो नहीं हो रहा है।।
नहीं, संदेह कैसा,वर्षो से खोई हुई पुत्री आज दिखाई दी है,एक पिता को अपनी पुत्री को पहचानने में कोई धोखा नहीं हो सकता।।प्रबोध बोले।।
आपको अगर नृत्यांगना से मिलना है तो सबको जाने दें, उसके बाद आप मिल लीजिए तो अति उत्तम होगा।।
प्रबोध बोले ठीक है और कुछ देर में,सबके जाने के बाद,प्रबोध ने नीला तक सूचना पहुंचाई कि वे उससे मिलना चाहते हैं, कुछ महत्वपूर्ण बात करनी है।।
नीला ने अनुमति दे दी,प्रबोध नीला के कक्ष में आए और नीला से पूछा आपका पूरा नाम नीलांजना तो नहीं और आपकी माता सुखमती है,अगर है तो सच कहें।।
नीला बोली लेकिन आपको कैसे पता?
तो तुम ही मेरी नीलांजना हो, मुझे ज्ञात था कि मेरी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकती, प्रबोध की आंखों से अश्रुधारा बह निकली,वो बोले पुत्री! मैं ही तेरा अभागा पिता हू़ं,जो कभी तुझसे दूर हो गया था,आज मेरी खोज पूरी हुई है और तुम्हारी मां कहां है?
इतना सुनकर नीला भी रो पड़ी, पिता पुत्री वर्षो बाद एक-दूसरे के गले मिले, फिर नीला ने प्रबोध से सब कह सुनाया कि मां भी इसी राज्य में छुपकर रह रही है, मैं कल ही उनसे मिलने का प्रबंध करती हूं,वो आपको देखकर बहुत ही प्रसन्न होंगी उन्होंने तो कभी ये आश भी नहीं लगाई थी कि आप जीवित होंगे।
दूसरे दिन सारा कुटुंब एक साथ था,अब कैलाश को भी नीलांजना के विषय में सब पता चल गया था,अब वो नीला की सच्चाई जानकर बहुत ही प्रसन्न था, उसे लग रहा था कि नीला अब उसका प्रेम अवश्य स्वीकार कर लेगी।
अब नीला और कैलाश अत्यधिक समय साथ बिताते,साथ साथ युद्ध कला का अभ्यास करते लेकिन प्रेम अभी तक नहीं स्वीकारा था नीला ने, उन्हें ऐसे देखकर प्रबोध बहुत प्रसन्न होते लेकिन उधर सुखमती की इच्छा कुछ और थी, उन्हें ये पसंद नहीं था एक मछुआरे का बेटा उनकी पुत्री के समीप भी जाए।
फिर एक दिन नीलांजना और कैलाश , राज्य से दूर बाहर, जंगल की ओर घुड़सवारी करते हुए निकले,सुबह से शाम होने वाली थी अभ्यास करते हुए, तभी बादल घिर आए और वर्षा होने लगी, कैलाश ने कहा चलो चलते हैं,नीला बोली हां अब यहां से चलना चाहिए, तभी जोर की बिजली कड़की और नीला डरकर कैलाश के हृदय से लग गई।।
कैलाश बोला,अब तो मेरा प्रेम स्वीकारों और कितनी प्रतीक्षा!!
भीगा बदन और लज्जा से लाल होते गाल, नीला कैलाश से दूर हटी और अपने घोड़े पर सवार होकर हंसते हुए बोली,धैर्य रखिए,जब इतने दिन रखा है तो कुछ दिन और सही।
कैलाश बोला, उत्तर तो देती जाओ, प्रिये!! और कितना तरसाओगी अपने प्रेमी को,कब से तुम्हारे प्रेम में अविवेकी हो गया हूं , कुछ तो दया करो।
कल दूंगी उत्तर!! और नीला मुस्कुराई।।
अच्छा ठीक है, लेकिन आज हम मेरे घोड़े पर सवार होकर चलते हैं एक साथ अगर तुम्हें कोई आपत्ति ना हो, कैलाश ने नीला से पूछा।।
और नीला अपने घोड़े से उतरी, कैलाश को अपना हाथ दिया, कैलाश ने नीला का हाथ पकड़कर सहारा दिया और घोड़े पर बैठा लिया, दोनों भीगते हुए अपने स्थान पहुंचे, दोनों को एक ही घोड़े पर बैठे हुए सुखमती ने देख लिया और उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा, ऐसे दोनों साथ में एक ही घोड़े पर सवार।।
नीला मुस्कुराते हुए अंदर पहुंची ही थी कि सुखमती उस पर बरस पड़ी____
लगता है,तुम अपना लक्ष्य भूल गई हो और कैलाश के साथ एक घोड़े पर!!
अगर ये प्रेम है तो भूलना होगा उसे और ये मत भूलो तुम एक राजकुमारी हो और वो एक मछुआरे का बेटा।।
प्रेम और विवाह सब बराबरी वालों में होता है, उसे मैं सिर्फ इसलिए सहन कर रही हूं कि उसके माता-पिता ने तुम्हारे पिता के प्राण बचाए है, उसके समीप मत जाओ,एक बार हमारा राज्य हमें वापस मिल गया तो, बहुत ही वैभवशाली राज्य में तुम्हारा विवाह करूंगी और ये प्रेम जैसा कुछ भी नहीं है ये एक बाह्य आकर्षण है जो इस अवस्था में हो जाता है अगर प्रयत्न करोगी तो अवश्य उसे भूल जाओगी।
नीला बोली, कैसी स्वार्थ भरी बातें कर रही है आप,आप भूल गई कि आप भी तो एक साधारण परिवार से हैं और मां का अधिकार तो आपने कभी मुझे दिया ही नहीं, मुझे तो सौदामिनी मां ने पाला है,वही मेरी मां है और रही कैलाश से प्रेम की बात तो वो कोई आकर्षण नहीं है, सच्चा प्रेम है,जिसे मेरे हृदय से आप कभी नहीं निकाल सकतीं, नहीं चाहिए मुझे राज-पाट, धन-वैभव, ऐसा वैभव मेरे किस काम का है जो मेरे अनर्तमन को प्रसन्नता ना दे सकें,मेरे हृदय की पीड़ा को ठंडक ना दे सकें।।
और मैं अगर कैलाश से दूर हुई तो मैं इस मायारूपी संसार से भी अलग हो जाऊंगी, मुझे विरक्ति हो जाएगी आप सब से और इस संसार से, फिर मेरे प्राण केवल मुक्ति चाहेंगे।।
सुखमती बोली, मूर्खतापूर्ण बातें मत करो,अब हमें अपना लक्ष्य प्राप्त होने का समय आ गया है तो तुम ऐसा उत्तर दे रही हो,निर्लज्ज!!
हां, हूं मैं निर्लज्ज, नहीं है मुझे धन-वैभव का लालच, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मां,मैं बस कैलाश से प्रेम करती हूं!!
नीला,सुखमणी के चरणों में गिरकर, गिड़गिड़ाई लेकिन सुखमती नहीं पिघली।।
जब तक हमें अपना राज्य वापस नहीं मिल जाता, तुम कैलाश के समीप भी नहीं जाओगी, ऐसा मुझे वचन दो!! तुम्हें अपने पिता महाराज की सौगंध।।सुखमती बोली।।
इतनी बड़ी सौगंध मत दो मां,प्रेम करने का इतना बड़ा प्रतिशोध ले रही हो, मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया है, नीला रोते हुए बोली।
मुझे अब और कुछ नहीं सुनना, इतना कहकर सुखमती वहां से चली गई।।
ऐसे ही कई दिन बीत गए, नीला अपने कक्ष से बाहर ही नहीं निकली, फिर एक दिन कुछ बौद्ध भिक्षु उस मार्ग से गुजरे, जहां नीला रहती थी, उसने अपने कक्ष के वातायन(खिड़की) से देखा उसके हृदय को परमशान्ति का अनुभव हुआ।
अब तो प्रतिदिन यही होने लगा, बौद्ध भिक्षु गुजरते___
"बुद्धम शरणम् गच्छामि"
करते हुए और नीला उनकी ओर आकर्षित होती, उसके मन में तीव्र इच्छा होती उन भिक्षुओं से वार्तालाप करने की।
इधर कैलाश नीलांजना का कोई उत्तर ना पाकर,उदास हो बैठा,उस दिन के बाद से नीला उसे से एक भी बार ना मिली,ये सब सोच सोचकर उसका मन विरह की पीड़ा से भर गया।
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें!!
एक दिन सुखमती ने नीलांजना को आदेश दिया कि अब समय आ गया है कि वो सूर्यदर्शनशील से झूठे प्रेम का अभिनय करें।।
नीला ने कहा, परंतु मां, चित्रा प्रेम करती है सूर्यदर्शनशील से, मैं कैसे उससे प्रेम का अभिनय कर सकती हूं, ये तो चित्रा के साथ क्षल होगा आखिर वो मेरी छोटी बहन है।।
कैसी बहन?ये सब स्वार्थ का संसार है, पहले कभी दिग्विजय ने भी तो अपने स्वार्थ के लिए हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार किया था तो अब वो ना सही उसकी पुत्री सही।।
जीवन ऐसे ही चलता है,अगर हमें आगे बढ़ना है तो किसी ना किसी का तो सहारा लेना ही पड़ेगा___

क्रमशः____

सरोज वर्मा____🦋