नीलांजना--(अंतिम भाग) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नीलांजना--(अंतिम भाग)

सुखमती का ऐसा रूप देखकर, नीला का हृदय घृणा से भर गया, उसे लगा कि वो ऐसी मां की पुत्री है जो अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी बलि दे सकती है, उसे बहुत बड़ा आघात लगा,उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया, उसे अब कोई भी मार्ग नहीं सूझ रहा था।
उसे लगा कि क्या?राज्य-पाट और धन-वैभव की ही प्रधानता रह गई है मनुष्य के जीवन में, किसी की भावनाओं और संवेदनाओं का कोई अर्थ नहीं है ,बस मनुष्य आगे बढ़ना चाहता है, किसी भी इंसान के कंधे पर पैर रखकर।।
क्या, मानव जीवन मात्र इसलिए मिला है कि बस भोग-विलास करो, किसी को भी मार दो, किसी की भी वस्तु को बलपूर्वक अपना बना लो,अगर ये संसार ऐसा है तो नहीं चाहिए मुझे ऐसा जीवन, जहां मन की शांति ना हो, नहीं रहना मुझे इस क्षल-कपट के संसार में,ब्यर्थ है ऐसा जीवन, जहां मनुष्य एक पशु से भी बुरा हो जाए, उसमें अच्छा या बुरा सोचने-समझने की क्षमता ही ना रह जाए,सब कहते हैं कि मनुष्य जीवन केवल सत्कर्म करने के लिए मिला है परन्तु यहां तो ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता।
हे!प्रभु कोई तो मार्ग सुझाव,मन बहुत विचलित हैं,लाखों प्रश्न उठ रहे हैं मेरे मन में,इन प्रश्नों का मुझे उत्तर चाहिए, मेरे मन की पीड़ा को शांत करो, कुछ तो निवारण करो,प्रभु ।।
नीला अपने बिछावन पर रो रो कर प्रभु से प्रार्थना करती रही, तभी उसके कानों में फिर से बौद्ध भिक्षुओं की आवाज सुनाई दी!!
" बुद्धम शरणम् गच्छामि"!!
"संघम शरणम् गच्छामि"!!
इतना सुनकर नीला दौड़ पड़ी,अपनी वातायन की ओर,उन बौद्ध भिक्षुओं को देखने के बाद,उसके हृदय और मस्तिष्क में थोड़ी ठंडक पहुंची,अब उसके मन में बौद्ध भिक्षुओं से मिलने की लालसा उत्पन्न हो गई।।
और आज उसने मन में ठान लिया कि कैसे भी हों,इन भिक्षुओं से सम्पर्क अवश्य करेंगी,इन सांसरिक बंधनों से मुक्त होना चाहती है,क्या बचा है मेरे जीवन में,मैं जिससे प्रेम करती हूं उसका प्रेम स्वीकार नहीं कर सकती,मेरी जन्म देने वाली मां मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रही है, जिसने कभी भी अपना प्रेम ब्यक्त नहीं किया,जिसे केवल राजसी वैभव का लालच हो, ऐसी मां के लिए इतना बड़ा समर्पण करने से क्या लाभ? लाभ तो उसकी भक्ति में है,वो ही मुझे अपना अस्तित्व समझाएंगे,ये सब तो मिथ्या है, तृष्णा है!! कैसे भी हों मुझे इस संसार का त्याग करना है, तभी मेरा जीवन सफल होगा।।
नीलांजना को अब अपनी मुक्ति का मार्ग दिख गया था।
नीला ने बहुत प्रयत्न किया,बाहर जाने का परन्तु जा ना सकीं,सुखमती की दृष्टि सदैव उस पर रहती थी, उसे डर था कि नीलांजना बाहर जाकर कैलाश से पुनः मेल-मिलाप ना बढ़ा ले,जोकि सुखमती को कतई स्वीकार नहीं था।
कई दिनों के बाद सुखमती ,नीला के पास पहुंची लेकिन नीलांजना सुखमती से कोई भी बात नहीं करना चाहती थी,उसे बस इस संसार और अपनों से विरक्ति हो गई थी।
सुखमती को ये शंका पहले से थी कि नीला साधारणतः उनकी बात नहीं मानेगी,अब तो कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि नीला पूर्णतः मेरी बात को सत्य मान लें, तभी इस कार्य में सफलता मिलेगी,
सुखमती को चित्रा से बातों बातों में ये ज्ञात हो गया था कि राजकुमार सूर्यदर्शनशील ने नीलांजना को राजनर्तकी बनने का प्रस्ताव भेजा था लेकिन नीलांजना ने अस्वीकार कर दिया था, कितना अच्छा हो कि नीलांजना, सूर्यदर्शनशील को अपने मोहपाश में बांध लें और सूर्यदर्शनशील वहीं करें जैसा नीलांजना कहें, लेकिन ये तभी संभव है जब नीलांजना, सूर्यदर्शनशील के साथ प्रेम का अभिनय करेंगी परंतु वो तो कैलाश से प्रेम करती है तो ये कैसे संभव हो?
सुखमती ने सारी बातें गहराई से सोच-विचार की और उसका ये हल निकला कि नीलांजना से झूठ कहना पड़ेगा कि वो अगर इस बात का समर्थन करती है और सहमत हो जाती है तो सारी समस्याएं हल हो जाएगी।।
उसने नीलांजना के पास जाकर अभिनय किया कि " मुझे क्षमा कर दें मेरी पुत्री,भूलवश मैंने तुझसे ये सब कहा, तुझे अगर ये अच्छा लगता है कि तेरे पिता के साथ विश्वासघात करके कोई उनके हृदय में घाव दे और जिस व्यक्ति के कारण हमारा सारा कुटुंब एक-दूसरे से अलग हो गया,तब भी कोई बात नहीं पुत्री, उड़ाने दो उन्हें तेरे पिता का परिहास, इससे क्या अंतर पड़ता है,बस तू प्रसन्न रहें,तेरी प्रसन्नता अगर कैलाश में है तो वो ही सही, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, संतान कैसी भी हो , कोई भी माता-पिता अपनी संतान को प्रेम करना नहीं छोड सकते ना!!
सुखमती की ऐसी बातें सुनकर,नीला के मस्तिष्क में कौतूहल मच गया, उसे लगा सच ही तो है,वर्षो के बाद मेरे माता-पिता अब मिले हैं,सारा जीवन बेचारे ठोकरें ही तो खाते रहे हैं,क्या किया मैंने इनके लिए, इन्होंने थोड़ी सी ही तो सहायता मांगी,अगर मैं इनकी सहायता कर देती हूं तो क्या बिगड़ जाएगा, इनकी संतान होने के नाते मेरा भी तो कोई दायित्व बनता है, इनकी ओर, कितनी स्वार्थी हो गई थी मैं,अब मुझे सही निर्णय लेना होगा।।
इतना सोचने-विचारने के बाद नीला ने सूर्यदर्शनशील से प्रेम के अभिनय के लिए हां कर दी।।
सुखमती, अपनी योजना को सफल होता देख,मंद मंद मुस्कुराई और बोली जैसी तुम्हारी इच्छा पुत्री,हम तो तेरा सदैव हित ही चाहते हैं।
नीला बोली, मां अब आप बताएं,क्या करना होगा?
सुखमती ने सारी योजना कह सुनाई!!
अब नीला ने रात्रि समय नृत्य पुनः आरंभ कर दिया, नृत्य-रंग के स्थान पर व्यक्तियो की संख्या एकत्र होने लगी,लोग नृत्य का आनंद उठाने आने लगे, इसकी सूचना सूर्यदर्शनशील तक पहुंची,अब वो नृत्य का आनंद उठाने आने लगा, परंतु उसकी दृष्टि सदैव अपने मित्र कैलाश को खोजती रहती।
उधर कैलाश की अवस्था बहुत ही बिगड़ गई थी, उसे लगा नीला ने पुनः उसका विश्वास तोड़ा है,प्रेम नहीं स्वीकारना था तो कह देती कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती परंतु कोई उत्तर ना देने का अर्थ क्या है।।
अब नीला ने सूर्यदर्शनशील से प्रेम का अभिनय करना प्रारम्भ कर दिया, उसके अत्यधिक समीप जाने लगी परन्तु ये सब करके उसके हृदय पर जो बीतती थी वो वहीं जानती थी, उसने अपने हृदय को संवेदना रहित बना लिया था।
इस अभिनय के विषय में चित्रा को कुछ भी ज्ञात नहीं था, उसे नीला का सूर्यदर्शनशील के इतने समीप जाना अखर रहा था, उसने सोचा इन सबसे वो कैलाश को अवश्य अवगत करवाएंगी।
उधर नीला, सूर्यदर्शनशील को इतना भा गई कि उसने नीलांजना को राजनर्तकी की पदवी दे दी,एक रात्रि उसने राज्य में भव्य आयोजन रखा और सारे राज्य में घोषणा करवाई की कि आज रात्रि राजनर्तकी का नृत्य हैं सारा राज्य राजमहल में उपस्थित हो,आज रात्रि राजमहल में सबका स्वागत है।
इस बात को सुनकर चित्रा कहां शांत रहने वाली थी,वो कैलाश को इस विषय में सूचना देने निकल पड़ी, उसके हृदय में ईर्ष्या की अग्नि प्रज्जवलित हो चुकी थीं जिसे अब नीला से प्रतिशोध चाहिए था, उसकी आंखों के आंसू निरंतर गिर रहे थे, बड़ी बहन ने जो आज उसका विश्वास तोड़ा था वो क्षमायोग्य नहीं था।
उधर राजा प्रबोध को सुखमती की योजना के विषय में ज्ञात हुआ तो वो भी अत्यधिक क्रोधित हुए सुखमणी पर,बोले आपसे ऐसी आशा नहीं थी मैं शंखनाद से मिलने क्या चला गया , उसे बताने की मेरा कुटुंब मिल गया है, उन्हें और उनकी पत्नी को यहां लाने तो आपने इतना बड़ा षड़यंत्र रच डाला, पुत्री की बलि चढ़ा दी, मुझे ऐसा राज-पाट नहीं चाहिए था आप दोनों वर्षो बाद मिले थे मैं इसी में प्रसन्न था,अभी चलिए हम अपनी पुत्री को लेकर आएंगे।
सुखमती को इन सब के लिए क्षमा मांगनी पड़ी और सब कैलाश के माता-पिता सहित राजमहल चल पड़े।
उधर कैलाश को भी सब ज्ञात हो गया चित्रा के द्वारा,वो दोनों भी राजमहल में उपस्थित होने निकल पड़े।
उधर नीलांजना जैसे ही नृत्य के लिए उपस्थित हुई,सबकी आंखें चौंधिया गई उसकी सुंदरता देखकर, लेकिन राजा चन्द्रदर्शन को कुछ संदेह हुआ, उन्हें लगा ये तो रानी सुखमती जैसी दिख रही हैं।
चन्द्रदर्शन बोले,ठहरो नर्तकी!! नृत्य कुछ समय पश्चात् प्रारम्भ करना, पहले अपना परिचय दो।
इतने में प्रबोध पधारें, शंखनाद और रानी सुखमती के साथ!!
बोले उससे क्या पूछते हो? चन्द्रदर्शन !!ये मेरी पुत्री हैं।।
तब तक चित्रा और कैलाश भी पहुंच गये।।
चन्द्रदर्शन इतना सुनकर, अचंभित हुआ और शीघ्रता से अपनी तलवार निकालते हुए बोला तो ये बात है अब मैं तुझे नि: संतान कर दूंगा और जैसे उसने नीलांजना पर प्रहार करने का प्रयास किया,उस प्रहार को शीघ्रता से कैलाश ने अपने हृदय पर ले लिया, कैलाश के हृदय से रक्त की बौछार बह निकली,एक ही क्षण में क्या से क्या हो गया।
सूर्यदर्शनशील ने अपने पिता को रोका और समझाया, महाराज ये सब आपने क्या अनर्थ कर दिया, क्रोधवश!! परंतु अभी ठहरें,वो मेरा मित्र हैं , उसे इस अवस्था में देखकर मेरे हृदय में बहुत पीड़ा उठ रही है, कृपया अपना क्रोध शांत करें और तनिक मानवता दिखाएं।
कैलाश को इस अवस्था में देखकर शंखनाद और सिमकी विलाप करने लगें,नीलांजना ने कैलाश का हाथ पकड़कर कहा।।
क्षमा करो प्रिये!! बहुत बड़ी अपराधी हूं,मैं तुम्हारी।।
कैलाश कराहते हुए बोला,अब तो मेरा प्रेम स्वीकार कर लो,मेरी यही अंतिम इच्छा है स्वीकार करों।।
हां... कैलाश... हां....मैं सदैव तुमसे ही प्रेम करती आई हूं और करती रहूंगी,नीलांजना रोते हुए बोली।।
इतना सुनकर कैलाश का शरीर निर्जीव हो गया।।
नीलांजना वहां से उठी, उसने चित्रा का हाथ सूर्यदर्शनशील के हाथ में दिया और निकल पड़ी,इस मोह-माया रूपी संसार से____
सबने आवाज दी परंतु उसे तो केवल एक ही स्वर सुनाई दे रहा था__
"बुद्धम शरणम् गच्छामि"!!
"संघम शरणम् गच्छामि"!!

समाप्त___
सरोज वर्मा____🦋