Gavaksh - 47 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

गवाक्ष - 47 - अंतिम भाग

गवाक्ष

47==

कॉस्मॉस सत्यनिधि और उसका अंतिम स्पर्श भुला नहीं पा रहा था, उसकी याद उसे कहीं कोई फाँस सी चुभा जाती । कितने अच्छे मित्र बन गए थे निधी और वह छोटा सा बालक जिसका पिता महानाटककर था !

अब जीवन का अवसर मिला है तो कभी न कभी निधी से और उस नन्हे बच्चे से मिलने का प्रयास करेगा जिससे उसने 'बाई गॉड 'कहना सीखा था । उसके नेत्रों में चमक भर आई । हम समाज के लिए ऐसा कुछ कर सकें जो हमें अमर बना दे ।

" एक जन्म के पश्चात तो मुझे फिर से लौटकर जाना है ---" कॉस्मॉस का चिंतन कहाँ पर चल रहा था ।

" वो तो हम सबको जाना है, जब तक हम हैं तब तक एक सुन्दर दुनिया बनाने का प्रयास कर हैं ---हमें 'एक पल ' में जीना है, दूसरा पल होता ही कहाँ है जीवन में !"प्रोफ़ेसर श्रेष्ठी ने सरल भाव से कहा ।

" जब मनुष्य प्रेम से बना है फिर ये प्रेम से क्यों नहीं रहते ? क्यों एक-दूसरे से किसी न किसी बहाने झगड़ते रहते हैं ?रक्तपात करते रहते हैं? "

कॉस्मॉस को समय व स्थान का भान नहीं था, वह कहीं भी, कुछ भी प्रश्न परोस देता था ।

"इसकी आवश्यकता थी क्या?" कोई उत्तर प्राप्त न होने पर उसने पुन:पूछा।

" नहीं, कोई आवश्यकता नहीं थी। मनुष्य अच्छाई-बुराईयों का मिश्रण है, उसकी फितरत है वह केवल स्नेह व प्रेम से नहीं बैठ सकता। पृथ्वी पर आकर वह अनेकों वृत्तों में चक्कर काटता रहता है, दूसरों की बुराईयों को अनजाने ही अपने भीतर उतारता रहता है और फंस जाता है जीवन-चक्र में !अब तुम सभी बातों का अनुभव प्राप्त करोगे। फिर वह अपनी आदतों से लाचार हो जाता है और 'अपने अहं' की तुष्टि के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है। "

"किन्तु पंडित वर्ग क्या जीवन का वास्तविक अर्थ नहीं समझाते ?"

" जो वास्तव में पंडित अर्थात विद्वान हैं, वे वास्तविक मार्ग-निर्देशन करते हैं परन्तु वे उँगलियों पर गिन सकें, उतने ही हैं । अधिकांश तथाकथित पंडित वर्ग अपने लालच के जल की धन की गंगा में गोते लगाने की ताक में मूर्खों को और मूर्ख बनाते रहते हैं, अंधविश्वासों से मनुष्य के मन में व्यर्थ का भय फैलाते रहते हैं । यह नहीं किया तो यह अनर्थ हो जाएगा, वह नहीं किया तो वह अनर्थ हो जाएगा। हम, इस धरती के वासी इतने मूर्ख हैं कि अपने पिता उस भीतर के ईश्वर की बात न सुनकर पंडों, महंतों, मौलवियों की बातों में आकर अपने जीवन का बहाव उनकी दिशा-निर्देश की ओर मोड़ देते हैं, और क्या -क्या बताऊँ तुम्हें ? यह जीवन के अनुभव की बात है । "प्रोफेसर कॉस्मॉस की ओर घूमे --- ;

*********

“मनुष्य अंधकार से निकलकर प्रकाश में आता है । तुम भी प्रकाश में आए हो । जानते हो अंधकार प्रकाश की खोज है । स्वयं में परिवर्तन लाना सबसे महत्वपूर्ण है । दूसरे में नहीं स्वयं में झाँकना तथा स्वयं में परिवर्तन लाना होगा । " क्षण भर पश्चात वे पुन : बोले --

"वत्स! इतने दिनों में तुमने यह अहसास कर लिया कि मानव देह सर्वश्रेष्ठ देह है । यदि मनुष्य में मनुष्यता है, जागृति है तब हम इस जीवन में रहते हुए भी इससे विलग रह सकते हैं । थोड़ी सी जागृति के साथ चेतन रहने की आवश्यकता है । तुम्हारे लिए यह चुनौती है कि पृथ्वी पर रहकर तुम प्रत्येक मन में जागरण की लौ जगाओ और अपने ध्येय को पूर्ण करके इस पृथ्वी से बिदा लो, एक ही जीवन में चैतन्य रहकर इतना श्रम करो, इतनी जागृति प्रसारित करो कि मुक्ति का द्वार खुल जाए। "

प्रोफेसर के नेत्रों की चमक द्विगुणित हो गई ;

"ये मेरा गवाक्ष है, साँसों को स्वस्थ पवन से सराबोर रखने वाला गवाक्ष ! नवीन ऊर्जा को प्रवाहित करने वाला गवाक्ष ! नवीन संदर्भों में उगते हुए सूर्य का प्रकाश फैलाकर जन-जीवन में स्फ़ूर्ति भरने वाला गवाक्ष !”

प्रोफेसर ने अनवरत को अपने अँक में भर लिया, गवाक्ष को स्नेह से अपने गले लगाकर कहा ;

" यही जीवन है, किसी भी अँधेरे को दूर करने वाला प्रकाश है, आस्था है, विश्वास है ---जीवन की आस है !!"

"लेकिन, मुझे क्या करना होगा?" कॉस्मॉस जैसे कुछ घबराने सा लगा था।

" कुछ नहीं, जीवन के सभी अनुभवों को लेते हुए तुम इस पृथ्वी पर प्रेम प्रसारित करोगे । "

"पृथ्वी पर आकर तुमने जीवन को जिस प्रकार देखा, उसमें से सभी उत्कृष्ट लेना ही तुम्हारा वास्तविक अभिप्राय होगा । "

"मैं तो अपने स्वामी मृत्युदूत की एक मानस कृति भर हूँ क्या मुझमें भी वही परमात्मा होंगे जो आप लोगों में हैं ?"

" क्यों नहीं? अब तुम इस पृथ्वी के एक आम प्राणी हो जिसमें सभी आवश्यक संवेदनों का प्रादुर्भाव हो चुका है। तुममें भी वो ही सब समाता जा रहा है जो धरती के सभी प्राणियों को प्राप्त है । "

" मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि 'गवाक्ष' से आगे के जीवन का मार्ग अब हम मिलकर तलाश करेंगे । "

" नहीं, नहीं यह अब असंभव है----" कॉस्मॉस घबरा गया ।

"क्या हुआ ?"

"मैं तो गवाक्ष का मानो सब कुछ भूलता जा रहा हूँ । "

"जीवन में भूलकर फिर याद करना, याद करके फिर भूलना ---कुछ असंभव बात नहीं है । जिस प्रकार से हम जीवन के किसी मोड़ को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं और फिर उसमें से हम कुछ भुला देते हैं किन्तु कुछ हमारी स्मृति में गहरे बैठ जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे जीवन में भी होगा। न सही अभी, कभी न कभी तुम पुन:उस डोर से जुड़ जाओगे और एक नवीन मार्ग खोजने के प्रयत्न में जुट जाओगे । "

"लेकिन ---?"

"नहीं, लेकिन कुछ नहीं --जीवन को केवल एक पल मानकर ही जीना है । उस पल की चेतना न जाने हमें क्या सकारात्मक सुख प्रदान कर जाए --- हम समाज के लिए ऐसा कुछ कर सकें जो हमें अमर बना दे । "

" एक जन्म के पश्चात तो मुझे फिर से लौटकर जाना है ---" कॉस्मॉस का चिंतन उसके अपने मस्तिष्क के अनुसार चल रहा था ।

" वो तो हम सबको लौटकर जाना है, जब तक हम हैं तब तक एक सुन्दर दुनिया बनाने का प्रयास कर सकते हैं ---हमें 'एक पल ' में जीना है, दूसरा पल होता ही कहाँ है जीवन में !"प्रोफ़ेसर श्रेष्ठी ने सरल भाव से कहा ।

इक शिखा से लौ निकलती है

सदा संदेश देती

प्यास भी मैं, आस भी मैं

औ' मधुर विश्वास भी मैं

खोजता है क्यूँ दृगों से

ज्ञान हूँ, अभिलाष भी मैं ---

ठोकरें खाने की तुझको

है नहीं दरकार रे मन !

सब पलों में हूँ बसा

छू तो ज़रा, आभास हूँ मैं ----!!

न जाने उपस्थित लोगों में से किसने गवाक्ष को समझा, किसने जाना परन्तु अनवरत के नन्हे से कोमल नवजात चेहरे पर जीवन की नई किरणें मुस्कुरा रही थीं !!

ओं समानी व आकूति:समाना हृदयानि व:।

समानमस्तु वो मनो यथा व:सुसहसति॥

हों सभी के दिल सदा संकल्प अविरोधी सदा ।

मन भरे हों प्रेम से जिससे भरे सुख सम्पदा ॥

इसी भावना के वशीभूत पृथ्वी पर स्नेह, प्रेम, संवेदना का प्रसार होगा, मनुष्य का मनुष्य से प्रेममय व्यवहार होगा --- स्वर्ग तलाशने की आवश्यकता नहीं होगी, प्रत्येक स्थान स्वर्ग होगा एवं प्रत्येक पल आनंदमय !!

( इति )

लेखिका –डॉ.प्रणव भारती

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED