गवाक्ष - 46 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गवाक्ष - 46

गवाक्ष

46==

ऎसी अध्ययनशील छात्रा के साथ ऐसा क्यों हुआ होगा जो वह इस प्रकार साहस छोड़ बैठी --कॉस्मॉस ने उसके गर्भवती होने की सूचना देकर उन्हें बैचैन कर दिया था। 'जीवन में इस 'क्यों' का ही उत्तर प्राप्त करना ही तो सबसे कठिन होता है । ' उनके मन में बवंडर सा उठा । कॉस्मॉस के प्रश्नों के उत्तर देते हुए भी प्रोफेसर ने सोचा ---" क्या ज़िंदगी हमारे साथ और हम ज़िंदगी के साथ खेल नहीं करते ?" उनका मन अपनी प्रिय छात्रा के लिए बहुत उदास था, साथ ही उस भोले कॉस्मॉस के लिए भी जिसने इस पृथ्वी पर आकर यहाँ की चालाकियाँ सीखने का हुनर अपने भीतर उतारना शुरू कर दिया था ।

"बहुत देर लगा दी ?"प्रोफ़ेसर ने बेचैनी से पूछा, भक्ति सामने थी।

" काउंटर पर लंबी पंक्ति थी। "

कक्ष के बाहर स्वरा दिखाई दे गई ।

"सर---"आगे बढ़कर उसने प्रोफेसर के पाँव छू लिए ।

"आइए ---" स्वरा ने कक्ष का द्वार खोला ।

सामने दीवार पर टेलीविज़न पर समाचार चल रहे थे कल से मंत्री जी के बारे में समाचारों का सिलसिला जो शुरू हुआ था वह आज भी चल रहा था, अक्षरा की पनीली दृष्टि उसी पर चिपकी हुई थी । आज मंत्री जी की अंतिम यात्रा के समय अक्षरा को 'ऑपरेशन थियेटर' में ले जाया गया था और बच्चे को ऑपरेशन से गर्भ से बाहर निकाला गया था । कुछ देर पूर्व उसको कक्ष में लाया गया था, कुछ घंटों का टूटा हुआ तार पुन: दूरदर्शन से जुड़ गया, इस समय उसे भक्ति बहुत याद आ रही थी । तीन दिनों तक जब अक्षरा की पीड़ा लगातार चलती रही तब कल ऑपरेशन का निर्णय लिया गया था । कल से वह सत्यव्रत चाचा जी के बारे में अस्पताल के टी.वी पर समाचार सुन रही थी, पीड़ित हो रही थी, उसके पास दुखी होने के अतिरिक्त कोई चारा न था । कक्ष का द्वार खुलते ही वह चौंक उठी, उसकी दृष्टि भीतर प्रवेश करने वालों पर फिसली---

भक्ति को देखते ही वह बिलख पड़ी ।

" यही जीवन है अक्षरा ---जो आया है, उसे एक दिन जाना है ---" भक्ति ने रुंधे हुए गले से कहा । वह उसे सहलाने लगी थी। दोनों सखियाँ एक -दूसरे की पीड़ा समझ रही थीं लेकिन शब्द कंठ में आकर अटक गए थे, आँसुओं का सैलाब उनके गालों पर उमड़ आया था ।

"चाचा जी का न होना अविश्वसनीय है ---वो अब हमारे पास नहीं होंगे --"अक्षरा को अंतिम समय मंत्री जी से न मिल पाने का दुःख था ।

" आकांक्षा, तुमतो इस जीवन से इतनी भली-भाँति परिचित हो, जीवन के दर्शन को अपने भीतर उतारने वाली, उसीके अनुसार चलने वाली! तुम जानती हो जीवन कभी भी सामान्य नहीं रहता, हर पल बदलता रहता है । रोशनी के साथ अन्धकार की भाँति, मनुष्य के साथ उसकी छाया की भाँति यह जीवन आगे-पीछे होता रहता है । ये सुख-दुःख, ऊँच-नीच, सृष्टि में सदा से चलते रहे हैं, सदा ही चलते रहेंगे । जब तक हम जीवित रहते हैं तब तक इन सबका अनुभव हर पल में करना ही पड़ता है----पिताजी के न रहने से तुम इस प्रकार टूट नहीं सकतीं, यह भी तो जीवन का एक क्रम है, जीवन का अनवरत सत्य !। "

" मनुष्य देह से नहीं वरन अपने कर्मों से सदा अपनी उपस्थिति का भान कराता है। शरीर को तो एक दिन जाना ही है, अपने आदर्शों के रूप में वे सदा हमारे साथ हैं, तुम कहाँ इस तथ्य से अनभिज्ञ हो ! मनुष्य की भीतर की अर्थात आत्मा की शक्ति ही सर्वोपरि है, इसके ही सहारे तो यह संपूर्ण जगत चल रहा है। "

प्रो.श्रेष्ठी ने दोनों सखियों के सिर पर स्नेहपूर्ण हाथ रख दिया था । दोनों को महसूस हुआ मानो सत्यव्रत जी की ममता प्रोफेसर की हथेलियों से उनकी शिराओं को छू रही है।

जीवन के इस गूढ़ सत्य में वे इतने गहरे चले गए थे कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि कक्ष में उनके अतिरिक्त और कुछ लोग भी हैं । कुछ देर पश्चात ध्यान आया उसी कक्ष में अक्षरा का भाई, भाभी स्वरा उसकी मित्र शुभ्रा तथा पालने में नवजात शिशु भी हैं । अक्षरा के पास रखे पालने में हलचल हुई, शिशु के रोने की आवाज़ से कक्ष में एक लहर सी फ़ैल गई । प्रोफेसर शिशु की ओर बढ़े, उसे हौले से सहला दिया । उनके मुख से निकला ;

'अनवरत'

"मेरे मित्र के प्राण त्यागने के समय इसने पृथ्वी पर पदार्पण किया । यही शाश्वत जीवन है, यही शाश्वत सत्य है, यही जीवन-यात्रा का आदि है और यही अंत !

"यही है अनवरत जीवन -----!"

वातावरण बोझिल हो गया था किन्तु उस अंधकार में चमक थी, नन्हे शिशु के रूप में प्रकाश की किरण एक नवीन संदेश लेकर आई थी ।

स्थल पर उपस्थित सभी मानो किसी चरम चेतनावस्था में पहुँच गए थे, महसूस हुआ मानो कृष्ण ने जन्म लिया हो । मन के कारागार के द्वार कुछ ऐसे खुले जैसे सभी बंधन टूट गए हों, अन्धकार से प्रकाश की लकीरें सहसा बिखरने लगीं हो, बसंत की ऋतु का आगमन हुआ हो, विभिन्न पुष्पों की महक से कक्ष का वातावरण सराबोर हो उठा, नकारात्मक भावों के जालों को साफ़ करके सकारात्मक आनंद ने सबको नहला दिया ।

"स्मरण है न अक्षरा ! विवेकानंद जी का आवाह्न --' उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंज़िल न मिल जाए ---" कुछ रुककर उन्होंने अक्षरा के सिर पर स्नेह से हाथ फिराया ।

" तुम्हारा शोध प्रबंध तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । ज्ञान वर्तमान है मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है। तुमने अपने ज्ञान के साथ पूर्ण न्याय किया है, अब उसकी परिणति अन्याय में नहीं होने दोगी, मुझे पूर्ण विश्वास है और मैं जानता हूँ तुम्हें स्वयं अपने ऊपर विश्वास है, स्वयं पर विश्वास अर्थात परमपिता पर विश्वास ! किसी काल्पनिक भगवान पर नहीं । "

" काल्पनिक भगवान कैसे हैं और किसने बनाए हैं?" यह अचानक कैसा प्रश्न? कॉस्मॉस इस क्षण भी मौन न रह सका ।

" ये सब मनुष्य ने बनाए हैं" उत्तर तो देना ही था ।

"पृथ्वी पर आकर तुमने जीवन को जिस प्रकार देखा, उसमें से सभी उत्कृष्ट लेना ही तुम्हारा वास्तविक अभिप्राय होगा । "

"मैं तो अपने स्वामी मृत्युदूत की एक मानस कृति भर हूँ क्या मुझमें भी वही परमात्मा होंगे जो आप लोगों में हैं ?"

" क्यों नहीं? अब तुम इस पृथ्वी के एक आम प्राणी हो जिसमें सभी आवश्यक संवेदनों का प्रादुर्भाव हो चुका है। तुममें भी वो ही सब समाता जा रहा है जो धरती के सभी प्राणियों को प्राप्त है । "

" मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि 'गवाक्ष' से आगे के जीवन का मार्ग अब हम मिलकर तलाश करेंगे । "

" नहीं, नहीं यह अब असंभव है----" कॉस्मॉस घबरा गया ।

"क्या हुआ ?"

"मैं तो गवाक्ष का मानो सब कुछ भूलता जा रहा हूँ । "

"जीवन में भूलकर फिर याद करना, याद करके फिर भूलना ---कुछ असंभव बात नहीं है । जिस प्रकार से हम जीवन के किसी मोड़ को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं और फिर उसमें से हम कुछ भुला देते हैं किन्तु कुछ हमारी स्मृति में गहरे बैठ जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे जीवन में भी होगा । न सही अभी, कभी न कभी तुम पुन:उस डोर से जुड़ जाओगे और एक नवीन मार्ग खोजने के प्रयत्न में जुट जाओगे । "

"लेकिन ---?"

"नहीं, लेकिन कुछ नहीं --जीवन को केवल एक पल मानकर ही जीन है । उस पल की चेतना न जाने हमें क्या सकारात्मक सुख प्रदान कर जाए ---। "

'हाँ, ऐसा ही तो कुछ उसे सत्यनिधि ने बताया था जब वह उसकी तस्वीर बनाकर मंदिर में स्थापित करने की बात कर रही थी और उसने निधि को ऐसा न करने के लिए कहा था -----'कॉस्मॉस को स्मृति हो आई ।

क्रमश..